चंद्रकांता

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:35

बाईसवां बयान

चार दिन रास्ते में लगे, पांचवें दिन चुनार की सरहद में फौज पहुंची। महाराज शिवद्त्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबड़ा उठे, क्योंकि महाराज शिवद्त्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर वगैरह लेकर महाराज जयसिंह से मिलने के लिए हाजिर हुआ। खबर पाकर महाराज ने कहला भेजा कि मिलने की कोई जरूरत नहीं, हम चुनार फतह करने नहीं आये हैं, क्योंकि जिस दिन तुम्हारे महाराज हमारे हाथ फंसे उसी रोज चुनार फतह हो गया, हम दूसरे काम से आये हैं, तुम और कुछ मत सोचो।''

लाचार होकर दीवान साहब को वापस जाना पड़ा, मगर यह मालूम हो गया कि फलाने काम के लिए आये हैं। आज तक इस तिलिस्म का हाल किसी को भी मालूम न था, बल्कि किसी ने उस खण्डहर को देखा तक न था। आज यह मशहूर हो गया कि इस इलाके में कोई तिलिस्म है जिसको कुंअर वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे। उस तिलिस्मी खण्डहर का पता लगाने के लिए बहुत से जासूस इधर-उधर भेजे गये। तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी गये। आखिर उसका पता लग ही गया। दूसरे दिन मय फौज के सभी का डेरा उसी जंगल में जा लगा जहां वह तिलिस्मी खण्डहरथा।

तेईसवां बयान

महाराज जयसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी खण्डहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गये। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखते-भालते बीच वाले बगुले के पास पहुंचे। चपला की जुबानी यह तो सुन ही चुके थे कि यही बगुला कुमारी को निगल गया था, इसलिए तेजसिंह ने किसी को उसके पास जाने न दिया, खुद गये। चपला ने जिस तरह इस बगुले को आजमाया था उसी तरह तेजसिंह ने भी आजमाया।

महाराज इस बगुले का तमाशा देखकर बहुत हैरान हुए। इसका मुह खोलना, पर फैलाना और अपने पीछे वाली चीज को उठाकर निगल जाना सबों ने देखा और अचंभे में आकर बनाने वाले की तारीफ करने लगे। इसके बाद उस तहखाने के पास आये जिसमें चपला उतरी थी। किवाड़ के पल्ले को कमंद से बंधा देख तेजसिंह को मालूम हो गया कि यह चपला की कार्रवाई है और जरूर यह कमंद भी चपला की ही है, क्योंकि इसके एक सिरे पर उसका नाम खुदा हुआ है, मगर इस किवाड़ का बांधाना बेफायदे हुआ क्योंकि इसमें घुसकर चपला निकल न सकी।

कुएं को भी बखूबी देखते हुए उस चबूतरे के पास आये जिस पर पत्थर का आदमी हाथ में किताब लिए सोया हुआ था। चपला की तरह तेजसिंह ने भी यहां धोखा खाया। चबूतरे के ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसके ऊपर का पत्थर आवाज देकर पल्ले की तरह खुला और तेजसिंह धम्म से जमीन पर गिर पड़े। इनके गिरने पर कुमार को हंसी आ गई, मगर देवीसिंह बड़े गुस्से में आये। कहने लगे, ''सब शैतानी इसी आदमी की है जो इस पर सोया है, ठहरो मैं इसकी खबर लेता हूं!'' यह कहकर उछलकर बड़े जोर से एक धौल उसके सिर पर जमाई। धौल का लगना था कि वह पत्थर का आदमी उठ बैठा, मुंह खोल दिया, हाथी की तरह उसके मुंह से हवा निकलने लगी, मालूम होता था कि भूकंप आया है, सबों की तबीयत घबरा गई। ज्योतिषीजी ने कहा, ''जल्दी इस मकान से बाहर भागो ठहरने का मौका नहीं है!''

इस दलान से दूसरे दलान में होते हुए सब के सब भागे। भागने के वक्त जमीन हिलने के सबब से किसी का पैर सीधा नहीं पड़ता था। खण्डहर के बाहर हो दूर से खड़े होकर उसकी तरफ देखने लगे। पूरे मकान को हिलते देखा। दो घण्टे तक यही कैफियत रही और तब तक खण्डहर की इमारत का हिलना बंद न हुआ।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, ''आप रमल और नजूम से पता लगाइये कि यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा?'' ज्योतिषीजी ने कहा, ''आज दिन भर आप लोग सब्र कीजिए और जो कुछ सोचना हो सोचिए, रात को मैं सब हाल रमल से दरियाफ्त कर लूंगा, फिर कल जैसा मुनासिब होगा किया जायगा। मगर यहां कई रोज लगेंगे, महाराज का रहना ठीक नहीं है, बेहतर है कि वे विजयगढ़ जायं।'' इस राय को सबों ने पसंद किया। कुमार ने महाराज से कहा, ''आप सिर्फ इस खण्डहर को देखने आये थे सो देख चुके अब जाइये। आपका यहां रहना मुनासिब नहीं।''

महाराज विजयगढ़ जाने पर राजी न थे मगर सबों के जिद करने से कबूल किया। कुमार की जितनी फौज थी उसको और अपनी जितनी फौज साथ आई थी उसमें से भी आधी फौज साथ ले विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

चौबीसवां बयान

रात भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भालकर ज्योतिषीजी ने कहा, ''रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म के तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खण्डहर में किसी जगह पड़ा हुआ है। उसको तलाश करके निकालना चाहिए तब सब पता चलेगा। स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पीकर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, जरूर उस पत्थर का भी पता लगेगा।''

सब कामों से छुट्टी पाकर दोपहर को सब लोग खण्डहर में घुसे। देखते-भालते उसी चबूतरे के पास पहुंचे जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था जिसे देवीसिंह ने धौल जमाई थी। उस आदमी को फिर उसी तरह सोता पाया।

ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, ''यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और इसके ऊपर चढ़कर इस आदमी को देखा हो। तुम भी इस पर चढ़ के खूब गौर से देखो तो सही किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?'' तेजसिंह ने ऐसा ही किया और उस ईंट के ढेर पर चढ़कर देखा। उस किताब में लिखा था-

8 पहल- 5-अंक

6 हाथ- 3-अंगुल

जमा पूंजी-0-जोड़, ठीक नाप तोड़।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ज्योतिषीजी ने कहा, ''मतलब भी मालूम हो जायगा, तुम एक कागज पर इसकी नकल उतार लो।'' तेजसिंह ने अपने बटुए में से कागज कलम दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था उसकी नकल उतार ली।

ज्योतिषीजी ने कहा, ''अब घूमकर देखना चाहिए कि इस मकान में कहीं आठ पहल का कोई खंभा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं।'' सब कोई उस खंडहर में घूम-घूमकर आठ पहल का खंभा या चबूतरा तलाश करने लगे। घूमते-घूमते उस दलान में पहुंचे जहां तहखाना था। एक सिरा कमंद का तहखाने की किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खंभे के साथ बंधा हुआ था, उसी खंभे को आठ पहल का पाया। उस खंभे के ऊपर कोई छत न थी, ज्योतिषीजी ने कहा, ''इसकी लंबाई हाथ से नापनी चाहिए।'' तेजसिंह ने नापा, 6 हाथ 7 अंगुल हुआ, देवीसिंह ने नापा 6 हाथ 5 अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषीजी ने नापा, 6 हाथ 10 अंगुल पाया, सब के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने नापा, 6 हाथ 3 अंगुल हुआ।

ज्योतिषीजी ने खुश होकर कहा, ''बस यही खंभा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे 'जमा पूंजी' यानी वह पत्थर जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है गड़ा है। यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से ही टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाये हैं उसका नाप 6 हाथ 3 अंगुल लिखा है जो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा। अब इस कमंद को खोल डालना चाहिए जो इस खंभे और किवाड़ के पल्ले में बंधी हुई है।''

तेजसिंह ने कमंद खोलकर अलग किया, ज्योतिषीजी ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा, ''सब बातें तो मिल गईं, आठ पहल भी हुआ और नाप से 6 हाथ 3 अंगुल भी है, यह देखिये, इस तरफ 5 का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया, ठीक नाप तोड़, सो कुमार के हाथ से इसका नाप भी ठीक हुआ, अब यही इसको तोड़ें!''

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उसी जगह से एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया जिसका मसाला सख्त और मजबूत था। इसी ढोंके को ऊंचा करके जोर से उस खंभे पर मारा जिससे वह खंभा हिल उठा, दो-तीन दफे में बिल्कुल कमजोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबाकर जोर दिया और जमीन से निकाल डाला। खंभा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का संदूक निकला जिसमें ताला लगा हुआ था। बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा। भीतर एक और संदूक निकला, उसका भी ताला तोड़ा। और एक संदूक निकला। इसी तरह दर्जे-ब-दर्जे सात संदूक उसमें से निकले। सातवें संदूक में एक पत्थर निकला जिस पर कुछ लिखा हुआ था, कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

''सम्हाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेन्द्रसिंह है तो यह दौलत तुम्हारे ही लिये है।

बगुले के मुंह की तरफ जमीन पर जो पत्थर संगमर्मर का जड़ा है वह पत्थर नहीं मसाला जमाया हुआ है। उसको उखाड़कर सिर के में खूब महीन पीसकर बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो। वह भी मसाले ही का बना हुआ है, दो घंटे में बिल्कुल गलकर बह जायगा। उसके नीचे जो कुछ तार-चर्खे पहिये पुर्जे हो सब तोड़ डालो। नीचे एक कोठरी मिलेगी जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा। उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएं में गया है जो पूरब वाले दलान में है। वहां भी मसाले से बना एक बुङ्ढा आदमी हाथ में किताब लिये दिखाई देगा। उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो नहीं तो धोखा खाओगे! पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुंह खोल देगा, उसका मुंह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जायेगा, तब किताब ले लो। उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे। जो कुछ उसमें लिखा हो वैसा करो।

-विक्रम।''

कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना। घंटे भर तक तो सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी की जुबान से दूसरी बात न निकली। बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चलकर आराम किया जाय, कल सबेरे ही कुल कामों से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ झुकें।

यह खबर चारों तरफ मशहूर हो गई कि चुनारगढ़ के इलाके में कोई तिलिस्म है जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला फंस गई हैं। उनको छुड़ाने और तिलिस्म तोड़ने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने मय फौज के उस जगह डेरा डाला है।

तिलिस्म किसको कहते हैं? वह क्या चीज है? उसमें आदमी कैसे फंसता है? कुंअर वीरेन्द्रसिंह उसे क्यों कर तोड़ेंगे? इत्यादि बातो को जानने और देखने के लिए दूर-दूर के बहुत से आदमी उस जगह इकट्ठे हुए जहां कुमार का लश्कर उतरा हुआ था, मगर खौफ के मारे खंडहर के अंदर कोई पैर नहीं रखता था, बाहर से ही देखते थे।

कुमार के लश्कर वालों ने घूमते-फिरते कई नकाबपोश सवारों को भी देखा जिनकी खबर उन लोगों ने कुमार तक पहुंचाई।

पंडित बद्रीनाथ, अहमद और नाजिम को साथ लेकर महाराज शिवदत्त को छुड़ाने गये थे, तहखाने में शेर के मुंह से जुबान खींच किवाड़ खोलना चाहा मगर न खुल सका, क्योंकि यहां तेजसिंह ने दोहरा ताला लगा दिया था। जब कोई काम न निकला तब वहां से लौटकर विजयगढ़ गये, ऐयारी की फिक्र में थे कि यह खबर कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इन्होंने भी सुनी। लौटकर इसी जगह पहुंचे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल भी उसी ठिकाने जमा हुए और इन सबों की यह राय होने लगी कि किसी तरह तिलिस्म तोड़ने में बाधा डालनी चाहिए। इसी फिक्र में ये लोग भेष बदलकर इधर-उधर तथा लश्कर में घूमने लगे

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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:36

पच्चीसवां बयान

दूसरे दिन स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी फिर उस खंडहर में घुसे, सिरका साथ में लेते गये। कल जो पत्थर निकला था उस पर जो कुछ लिखा था फिर पढ़ के याद कर लिया और उसी लिखे के बमूजिब काम करने लगे। बाहर दरवाजे पर बल्कि खंडहर के चारों तरफ पहरा बैठा हुआ था।

बगुले के पास गये, उसके सामने की तरफ जो सफेद पत्थर जमीन में गड़ा हुआ था, जिस पर पैर रखने से बगुला मुंह खोल देता था, उखाड़ लिया। नीचे एक और पत्थर कमानी पर जड़ा हुआ पाया। सफेद पत्थर को सिरके में खूब बारीक पीसकर बगुले के सारे बदन में लगा दिया। देखते-देखते वह पानी होकर बहने लगा, साथ ही इसके एक खूशबू-सी फैलने लगी। दो घंटे में बगुला गल गया। जिस खंभे पर बैठा था वह भी बिल्कुल पिघल गया, नीचे की कोठरी दिखाई देने लगी जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां थीं और इधर-उधर बहुत से तार और कलपुर्जे वगैरह लगे हुए थे। सबों को तोड़ डाला और चारों आदमी नीचे उतरे, भीतर ही भीतर उस कुएं में जा पहुंचे जहां हाथ में किताब लिये बुङ्ढा आदमी बैठा था, सामने एक पत्थर की चौकी पर पत्थर ही के बने रंग-बिरंगे फूल रखे हुए देखे।

बाजू पकड़ते ही बुङ्ढे ने मुंह खोल दिया, तेजसिंह से काफूर लेकर कुमार ने उसके मुंह में भर दिया। घंटे भर तक ये लोग उसी जगह बैठे रहे। तेजसिंह ने एक मशाल खूब मोटी पहले ही से बाल ली थी। जब बुङ्ढा गल गया किताब जमीन पर गिर पड़ी, कुमार ने उठा लिया। उसकी जिल्द भी जिस पर कुछ लिखा हुआ था भोजपत्र ही की थी। कुमार ने पढ़ा, उस पर यह लिखा हुआ पाया-

''इन फूलों को भी उठा लो, तुम्हारे ऐयारों के काम आवेंगे। इनके गुण भी इसी किताब में लिखे हुए हैं, इस किताब को डेरे में ले जाकर पढ़ो, आज और कोई काम मत करो।''

तेजसिंह ने बड़ी खुशी से उन फूलों को उठा लिया जो गिनती में छ: थे। उस कुएं में से कोठरी में आकर ये लोग ऊपर निकले और धीरे- धीरे खंडहर के बाहर हो गये।

थोड़ा दिन बाकी था जब कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने डेरे में पहुंचे। यह राय ठहरी कि रात में इस किताब को पढ़ना चाहिए, मगर तेजसिंह को यह जल्दी थी कि किसी तरह फूलों के गुण मालूम हों। कुमार से कहा, ''इस वक्त इन फूलों के गुण पढ़ लीजिए बाकी रात को पढ़ियेगा।'' कुमार ने हंसकर कहा, ''जब कुल तिलिस्म टूट लेगा तब फूलों के गुण पढ़े जायेंगे।'' तेजसिंह ने बड़ी खुशामद की, आखिर लाचार होकर कुमार ने जिल्द खोली। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के उस खेमे में और कोई न था, सब बाहर कर दिये गये। कुमार पढ़ने लगे-

फुलों के गुण
( 1) गुलाब का फूल-अगर पानी में घिसकर किसी को पिलाया जाय तो उसे सात रोज तक किसी तरह की बेहोशी असर न करेगी।

( 2) मोतिये का फूल-अगर पानी में थोड़ा-सा घिसकर किसी कुएं में डाल दिया जाय तो चार पहर तक उस कुएं का पानी बेहोशी का काम देगा, जो पियेगा बेहोश हो जायगा, इसकी बेहोशी आधा घंटे बाद चढ़ेगी।

दो ही फूलों के गुण पढ़े थे कि तीनों ऐयार मारे खुशी के उछल पड़े, कुमार ने किताब बंद कर दी और कहा, ''बस अब न पढ़ेंगे।''

अब तेजसिंह हाथ जोड़ रहे हैं, कसमें देते जाते हैं कि किसी तरह परमेश्वर के वास्ते पढ़िये, आखिर यह सब आप ही के काम आवेगा, हम लोग आप ही के तो ताबेदार हैं। थोड़ी देर तक दिल्लगी करके कुमार ने फिर पढ़ना शुरू किया-

( 3) ओरहुर का फूल-पानी में घिसकर पीने से चार रोज तक भूख न लगे।

( 4) कनेर का फूल-पानी में घिसकर पैर धो ले तो थकावट या राह चलने की सुस्ती निकल जाय।

( 5) गुलदावदी का फूल-पानी में घिसकर आंखों में अंजन करे तो अंधेरे में दिखाई दे।

(6) केवड़े का फूल-तेल में घिसकर लगावे तो सर्दी असर न करे, कत्थे के पानी में घिसकर किसी को पिलाए तो सात रोज तक किसी किस्म का जोश उसके बदन में बाकी न रहे।

इन फूलों को बड़ी खुशी से तेजसिंह ने अपने बटुए में डाल लिया, देवीसिंह और ज्योतिषीजी मांगते ही रहे मगर देखने को भी न दिया।

छब्बीसवां बयान

इन फूलों को पाकर तेजसिंह जितने खुश हुए शायद अपनी उम्र में आज तक कभी ऐसे खुश न हुए होंगे। एक तो पहले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया। अब कौन है जो इनका मुकाबला करे? हां एक चीज की कसर रह गई, लोपांजन या कोई गुटका इस तिलिस्म में से इनको ऐसा न मिला, जिससे ये लोगों की नजरों से छिप जाते, और अच्छा ही हुआ जो न मिला, नहीं तो इनकी ऐयारी की तारीफ न होती क्योंकि जिस आदमी के पास कोई ऐसी चीज हो जिससे वह गायब हो जाय तो फिर ऐयारी सीखने की जरूरत ही क्या रही। गायब होकर जो चाहा कर डाला।

आज की रात इन चारों को जागते ही बीती। तिलिस्म की तारीफ, फूलों के गुण, तिलिस्मी किताब के पढ़ने, सबेरे फिर तिलिस्म में जाने आदि की बातचीत में रात बीत गई। सबेरा हुआ, जल्दी-जल्दी स्नान-पूजा से चारों ने छुट्टी पा ली और कुछ भोजन करके तिलिस्म में जाने को तैयार हुए।

कुमार ने तेजसिंह से कहा, ''हमारे पलंग पर से तिलिस्मी किताब उठा के तुम लेते चलो, वहां फिर एक दफे पढ़ के तब कोई काम करेंगे।'' तेजसिंह तिलिस्मी किताब लेने गये, मगर किताब नजर न पड़ी, चारपाई के नीचे हर तरफ देखा, कहीं पता नहीं, आखिर कुमार से पूछा, ''किताब कहां है? पलंग पर तो नहीं है?''

सुनते ही कुमार के होश उड़ गये, जी सन्न हो गया, दौडे हुए पलंग के पास आये। खूब ढूंढा, मगर कहीं किताब हो तब तो मिले। कुमार 'हाय' करके पलंग के ऊपर गिर पड़े, बिल्कुल हौसला टूट गया, कुमारी चंद्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गये, अब तिलिस्मी किताब कहां जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी है। तेजसिंह, देवीसिंह, और जगन्नाथ ज्योतिषी भी घबरा उठे। दो घड़ी तक किसी के मुंह से आवाज तक न निकली, बाद इसके तलाश होने लगी। लश्कर भर में खूब शोर मचा कि कुमार के डेरे से तिलिस्मी किताब गायब हो गई, पहरे वालों पर सख्ती होने लगी, चारों तरफ चोर की तलाश में लोग निकले।

तेजसिंह ने कुमार से कहा, ''आप जी मत छोटा कीजिये, मैं वादा करता हूं कि चोर जरूर पकड़ूंगा, आपके सुस्त हो जाने से सभी का जी टूट जायगा, कोई काम करते न बन पड़ेगा!'' बहुत समझाने पर कुमार पलंग से उठे, उसी वक्त एक चोबदार ने आकर अजीब खबर सुनाई। हाथ जोड़कर अर्ज किया कि ''तिलिस्म के फाटक पर पहरे के लिए जो लोग मुस्तैद किये गये हैं उनमें से एक पहरे वाला हाजिर हुआ है और कहता है कि तिलिस्म के अंदर कई आदमियों की आहट मिली है, किसी को अंदर जाने का हुक्म तो है नहीं जो ठीक मालूम करें, अब जैसा हुक्म हो किया जाय।''

इस खबर को सुनते ही तेजसिंह पता लगाने के लिए तिलिस्म में जाने को तैयार हुए। देवीसिंह से कहा, ''तुम भी साथ चलो, देख आवें क्या मामला है।'' ज्योतिषीजी बोले, ''हम भी चलेंगे।'' कुमार भी उठ खड़े हुए। आखिर ये चारों तिलिस्म में चले। बाहर फतहसिंह सेनापति मिले, कुमार ने उनको भी साथ ले लिया। दरवाजे के अंदर जाते ही इन लोगों के कान में भी चिल्लाने की आवाज आई, आगे बढ़ने से मालूम हुआ कि इसमें कई आदमी हैं। आवाज की धुन पर ये लोग बराबर बढ़ते चले गये। उस दलान में पहुंचे जिसमें चबूतरे के ऊपर हाथ में किताब लिये पत्थर का आदमी सोया था।

देखा कि पत्थर वाला आदमी उठ के बैठा हुआ पंडित बद्रीनाथ ऐयार को दोनों हाथों से दबाये है और वह चिल्ला रहे हैं। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल छुड़ाने की तरकीब कर रहे हैं मगर कोई काम नहीं निकलता। तिलिस्मी किताब के खो जाने का इन लोगों को बड़ा भारी गम था, मगर इस वक्त पंडित बद्रीनाथ ऐयार की यह दशा देख सबों को हंसी आ गई, एकदम खिलखिला के हंस पड़े। उन ऐयारों ने पीछे फिरकर देखा तो कुंअर वीरेन्द्रसिंह मय तीनों ऐयारों के खड़े हैं, साथ में फतहसिंह सेनापति हैं।

तेजसिंह ने ललकारकर कहा, ''वाह खूब, जैसी जिसकी करनी होती है उसको वैसा ही फल मिलता है, इसमें कोई शक नहीं। बेचारे कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बेकसूर तुम लोगों ने सताया, इसी की सजा तुम लोगों को मिली! परमेश्वर भी बड़ा इंसाफ करने वाला है। क्यों पन्नालाल तुम लोग जान-बूझकर क्यों फंसते हो? तुम लोगों को तो किसी ने पकड़ा नहीं है, फिर बद्रीनाथ के पीछे क्यों जान देते हो? इनको इसी तरह छोड़ दो, तुम लोग जाओ हवा खाओ!''

पन्नालाल ने कहा, ''भला इनको ऐसी हालत में छोड़ के हम लोग कहीं जा सकते हैं? अब तो आपके जो जी में आवे सो कीजिये हम लोग हाजिर हैं।'' तेजसिंह ने पंडित बद्रीनाथ के पास जाकर कहा, ''पंडितजी परनाम! क्यों, मिजाज कैसा है? क्या आप तिलिस्म तोड़ने को आये थे? अपने राजा को तो पहले छुड़ा लिये होते। खैर शायद तुमने यह सोचा कि हम ही तिलिस्म तोड़कर कुल खजाना ले लें और खुद चुनार के राजा बन जायें!''

देवीसिंह ने भी आगे बढ़ के कहा, ''बद्रीनाथ भाई, तिलिस्म तोड़ना तो उसमें से कुछ मुझे भी देना, अकेले मत उड़ा जाना!'' ज्योतिषीजी ने कहा, ''बद्रीनाथजी, अब तो तुम्हारे ग्रह बिगड़े हैं! खैरियत तभी है कि वह तिलिस्मी किताब हमारे हवाले करो जिसे आप लोगों ने रात को चुराया है!''

बद्रीनाथ सबकी सुनते मगर सिवाय जमीन देखने के जवाब किसी को नहीं देते थे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल पंडित बद्रीनाथ को छोड़ अलग हो गये और कुमार से बोले, ''ईश्वर के वास्ते किसी तरह बद्रीनाथ की जान बचाइये!''

कुमार ने कहा, ''भला हम क्या कर सकते हैं, कुल हाल तिलिस्म का मालूम नहीं, जो किताब तिलिस्म से मुझको मिली थी, जिसे पढ़कर तिलिस्म तोड़ते, वह तुम लोगों ने गायब कर ली। अगर मेरे पास होती तो उसमें देखकर कोई तरकीब इनके छुड़ाने की करता, हां अगर तुम लोग वह किताब मुझे दे दो तो जरूर बद्रीनाथ इस आफत से छूट सकते हैं।''

यह सुनकर पन्नालाल ने तिरछी निगाहों से बद्रीनाथ की तरफ देखा, उन्होंने भी कुछ इशारा किया। पन्नालाल ने कुमार से कहा, ''हम लोगों ने किताब नहीं चुराई है, नहीं तो ऐसी बेबसी की हालत में जरूर दे देते। या तो किसी तरह से पंडित बद्रीनाथ को छुड़ाइये या हम लोगों के वास्ते यह हुक्म दीजिये कि बाहर जाकर इनके लिए कुछ खाने का सामान लाकर खिलावें, बल्कि जब तक आपकी किताब न मिले आप तिलिस्म न तोड़ लें और बद्रीनाथ उसी तरह बेबस रहें, तब तक हम लोगों में से किसी को खिलाने-पिलाने के लिए यहां आने-जाने का हुक्म हो।''

देवीसिंह ने कहा, ''पन्नालाल, भला यह तो कहो कि अगर कई रोज तक बद्रीनाथ इसी तरह कैद रह गये तो खाने-पीने का बंदोबस्त तो तुम कर लोगे, जाकर ले आओगे लेकिन अगर इनको दिशा मालूम पड़ेगी तो क्या उपाय करोगे? उसको कहां ले जाकर फेंकोगे? या इसी तरह इनके नीचे ढेर लगा रहेगा?''

इसका जवाब पन्नालाल ने कुछ न दिया। तेजसिंह ने कहा, ''सुनो जी, ऐयारों को ऐयार लोग खूब पहचानते हैं। अगर तुम्हारे आने-जाने के लिए कुमार हुक्म नहीं देते तो हम हुक्म देते हैं कि आया करो और जिस तरह बने बद्रीनाथ की हिफाजत करो। तुम लोगों ने हमारा बड़ा हर्ज किया, तिलिस्मी किताब चुरा ली और अब मुकरते हो। इस वक्त हमारे अख्तियार में सब कोई हो, जिसके साथ जो चाहे करूं, सीधी तरह से न दो तो डंडों के जोर से किताब ले लूं मगर नहीं, छोड़ देता हूं और खूब होशियार कर देता हूं, किताब सम्हाल के रखना, मैं बिना लिये न छोडूंगा और तुम लोगों को गिरफ्तार भी न करूंगा!''

तेजसिंह की बात सुनकर पंडित बद्रीनाथ लाल हो गये और बोले, ''इस वक्त हमको बेबस देख के शेखी करते हो! यह हिम्मत तो तब जानें कि हमारे छूटने पर कह-बद के कोई ऐयारी करो और जीत जाओ! क्या तुम ही एक दुनिया में ऐयार हो? हम भी जोर देकर कहते हैं कि हम ही ने तुम्हारी तिलिस्मी किताब चुराई है, मगर हम लोगों में से किसी को कैद किए या सताये बिना तुम नहीं पा सकते। यह शेखी तुम्हारी न चलेगी कि ऐयारों को गिरफ्तार भी न करो बल्कि आने-जाने के लिए छुट्टी दे दो और किताब भी ले लो। ऐसा कर तो लो उसी दिन से हम लोग तुम्हारे गुलाम हो जायं और महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार की ताबेदारी करें। मैं बता देता हूं कि किताब भी न दूंगा और यहां से छूट के भी निकल जाऊंगा।''

तेजसिंह ने कहा, ''मैं भी कसम खाकर कहता हूं कि बिना तुम लोगों को कैद किये अगर किताब न ले लूं तो फिर ऐयारी का नाम न लूं और सिर मुड़ा के दूसरे देश में निकल जाऊं! मुझको भी तुम लोगों से एक ही दफे में फैसला कर लेना है।''

इस बात पर तेजसिंह और बद्रीनाथ दोनों ने कसमें खाईं। बेचारे कुंअर वीरेन्द्रसिंह सबों का मुंह देखते थे, कुछ कहते बन नहीं पड़ता था। तेजसिंह ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अलग ले जाकर कान में कुछ कहा और दोनों उसी वक्त तिलिस्म के बाहर हो गये। फिर तेजसिंह बद्रीनाथ के पास आकर बोले, ''हम लोग जाते हैं, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को जहां जी चाहे भेजो और अपने छुड़ाने की जो तरकीब सूझे करो। पहरे वालों को कह दिया जाता है, वे तुम्हारे साथियों को आते-जाते न रोकेंगे।''

कुमार को लिये हुए तेजसिंह अपने डेरे में पहुंचे, देखा तो ज्योतिषीजी बैठे हैं। तेजसिंह ने पूछा, ''क्यों ज्योतिषीजी देवीसिंह गये?''

ज्यो-हां वह तो गये।

तेज-आपने अभी कुछ देखा कि नहीं?

ज्यो-हां पता लगा, पर आफत पर आफत नजर आती है।

तेज-वह क्या?

ज्यो-रमल से मालूम होता है कि उन लोगों के हाथ से भी किताब निकल गई और अभी तक कहीं रखी नहीं गई। देखें देवीसिंह क्या करके आते हैं, हम भी जाते तो अच्छा होता।

तेज-तो फिर आप राह क्यों देखते हैं, जाइये, हम भी अपनी धुन में लगतेहैं।

यह सुन ज्योतिषीजी तुरंत वहां से चले गये। कुमार ने कहा, ''भला कुछ हमें भी तो मालूम हो कि तुम लोगों ने क्या सोचा, क्या कर रहे हो और क्या समझ के तुमने उन लोगों को छोड़ दिया। मैं तो जरूर यही कहूंगा कि इस वक्त तुम्हीं ने शेखी में आकर काम बिगाड़ दिया, नहीं तो वे लोग हमारे हाथ फंस चुके थे।''

तेजसिंह ने कहा, ''मेरा मतलब आप अभी तक नहीं समझे, किताब तो मैं उनसे ले ही लूंगा मगर जहां तक बने उन सबों को एक ही दफे में अपना चेला भी करूं, नहीं तो यह रोज-रोज की ऐयारी से कहां तक होशियारी चलेगी? सिवाय जिद्द और बदाबदी के ऐयार कभी ताबेदारी कबूल नहीं करते, चाहे जान चली जाय, मालिक का संग कभी न छोडेंग़े!'' कुमार ने कहा, ''इससे तो हमको और तरद्दुद हुआ। ईश्वर न करे कहीं तुम हार गए और बद्रीनाथ छूट के निकल गये तो क्या तुम हमारा भी संग छोड़ दोगे?''

तेज-बेशक छोड़ दूंगा, फिर अपना मुंह न दिखाऊंगा!

कुमार-तो तुम आप भी गये और मुझे भी मारा, अच्छी दोस्ती अदा की! हाय अब क्या करूं? भला यह तो बताओ कि देवीसिंह और ज्योतिषीजी कहां गये?

तेज-अभी न बताऊंगा, पर आप डरिये मत, ईश्वर चाहेगा तो सब काम ठीक होगा और मेरा-आपका साथ भी न छूटेगा। आप बैठिये, मैं दो घंटे के लिए कहीं जाता हूं।

कुमार-अच्छा जाओ।

तेजसिंह वहां से चले गये, फतहसिंह को भी कुमार ने बिदा किया, अब देखना चाहिए ये लोग क्या करते हैं और कौन जीतता है।

Jemsbond
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Re: चंद्रकांता

Unread post by Jemsbond » 29 Dec 2014 19:36

सत्ताईसवां बयान

तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के ख्याल पैदा होते रहे, जरा खुटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी को नहीं देखते तो फिर हाथ पर गाल रखकर सोच-विचार में पड़ जाते। पहर भर दिन बाकी रह गया पर तीनों ऐयारों में से कोई भी लौटकर न आया, कुमार की तबीयत और भी घबड़ाई, बैठा न गया, डेरे के बाहर निकले।

कुमार को डेरे के बाहर होते देख बहुत से मुलाजिम सामने आ खड़े हुए। बगल ही में फतहसिंह सेनापति का डेरा था, सुनते ही कपड़े बदल हरबों को लगाकर वह भी बाहर निकल आये और कुमार के पास आकर खड़े हो गये। कुमार ने फतहसिंह से कहा, ''चलो जरा घूम आवें, मगर हमारे साथ और कोई न आवे!'' यह कह आगे बढ़े। फतहसिंह ने सबों को मना कर दिया, लाचार कोई साथ न हुआ। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए डेरे से बहुत दूर निकल गये, तब कुमार ने फतहसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, ''सुनो फतहसिंह तुम भी हमारे दोस्त हो, साथ ही पढ़े और बड़े हुए, तुमसे हमारी कोई बात छिपी नहीं रहती, तेजसिंह भी तुमको बहुत मानते हैं। आज हमारी तबीयत बहुत उदास हो गई, अब हमारा जीना मुश्किल समझो, क्योंकि आज तेजसिंह को न मालूम क्या सूझी कि बद्रीनाथ से जिद्द कर बैठे, हाथों में फंसे हुए चोर को छोड़ दिया, न जाने अब क्या होता है? किताब हाथ लगे या न लगे, तिलिस्म टूटे या न टूटे, चंद्रकान्ता मिले या तिलिस्म ही में तड़प-तड़पकर मर जाय!''

फतहसिंह ने कहा, ''आप कुछ सोच न कीजिये। तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, उन्होंने जिद्द किया तो अच्छा ही किया। सब ऐयार एकदम से आपकी तरफ हो जायेंगे। आज का भी बिल्कुल हाल मुझको मालूम है, इंतजाम भी उन्होंने अच्छा किया है। मुझको भी एक काम सुपुर्द कर गए हैं वह भी बहुत ठीक हो गया है, देखिये तो क्या होता है?''

बातचीत करते दोनों बहुत दूर निकल गये, यकायक इन लोगों की निगाह कई औरतों पर पड़ी जो इनसे बहुत दूर न थीं। इन्होंने आपस में बातचीत करना बंद कर दिया और पेड़ों की आड़ से औरतों को देखने लगे।

अंदाज से बीस औरतें होंगी, अपने-अपने घोड़ों की बाग थामे धीरे-धीरे उसी तरफ आ रही थीं। एक औरत के हाथ में दो घोड़ों की बाग थी। यों तो सभी औरतें एक से एक खूबसूरत थीं मगर सबों के आगे-आगे जो आ रही थी बहुत ही खूबसूरत और नाजुक थी। उम्र करीब पंद्रह वर्ष के होगी, पोशाक और जेवरों के देखने से यही मालूम होता था कि जरूर किसी राजा की लड़की है। सिर से पांव तक जवाहरात से लदी हुई, हर एक अंग उसके सुंदर और सुडौल, गुलाब-सा चेहरा दूर से दिखाई दे रहा था। साथ वाली औरतें भी एक से एक खूबसूरत बेशकीमती पोशाक पहिरे हुई थीं।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह एकटक उसी औरत की तरफ देखने लगे जो सबों के आगे थी। ऐसे तरद्दुद की हालत में भी कुमार के मुंह से निकल पड़ा, ''वाह क्या सुडौल हाथ-पैर हैं! बहुत-सी बातें कुमारी चंद्रकान्ता की इसमें मिलती हैं, नजाकत और चाल भी उसी ढंग की है, हाथ में कोई किताब है जिससे मालूम होता है कि पढ़ी-लिखी भी है।''

वे औरतें और पास आ गईं। अब कुमार को बखूबी देखने का मौका मिला। जिस जगह पेड़ों की आड़ में ये दोनों छिपे हुए थे किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी। वह औरत जो सबो के आगे-आगे आ रही थी, जिसको हम राजकुमारी कह सकते हैं चलते-चलते अटक गई, उस किताब को खोलकर देखने लगी, साथ ही इसके दोनों आंखों से आंसू गिरने लगे।

कुमार ने पहचाना कि यह वही तिलिस्मी किताब है, क्योंकि इसकी जिल्द पर एक तरफ मोटे-मोटे सुनहरे हरफों में 'तिलिस्म' लिखा हुआ है। सोचने लगे-'इस किताब को तो ऐयार लोग चुरा ले गये थे, तेजसिंह इसकी खोज में गये हैं। इसके हाथ यह किताब क्यों कर लगी? यह कौन है और किताब देख-देखकर रोती क्यों है!!'



॥ दूसरा भाग समाप्त॥

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