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चंद्रकांता

Posted: 22 Dec 2014 22:24
by Jemsbond
चंद्रकांता

शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर आपस में बातें कर रहे हैं।

वीरेन्द्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बांधे, बगल में बटुआ लटकाये, हाथ में एक कमन्द लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने कसाकसाया चुस्त-दुरूस्त एक घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है।

कुअंर वीरेन्द्रसिंह कह रहे हैं, ‘‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफे तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चन्द्रकान्ता की चिट्ठी मेरे पास लाये और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचायी, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चन्द्रकान्ता से रखता हूँ उतनी ही चन्द्रकान्ता मुझसे रखती है, हालांकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किये कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चन्द्रकान्ता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।’’

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चन्द्रकान्ता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रक्खा है, दूसरे उनके मन्त्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चन्द्रकान्ता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मन्त्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बंधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिये उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गयी है। आप को ले चलना अभी मुझे पसन्द नहीं जब तक की मैं वहाँ जाकर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।’’

‘‘इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जाकर चन्द्रकान्ता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है और चन्द्रकान्ता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देखकर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जायें।’’

वीरेन्द्र : जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।

तेजसिंह : मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आकर पुन: हमारे महाराजा के दर्शन कर गये हैं। न मालूम किस चालाकी से आये थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।

वीरेन्द्र : मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फंसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चन्द्रकान्ता से मेरी मुलाकात का बन्दोबस्त करो।

तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेन्द्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोलकर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गये।

विजयगढ़ में क्रूरसिंह अपनी बैठक के अन्दर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।

क्रूर : देखो नाजिम, महाराज का तो यह खयाल है कि मैं राजा होकर मन्त्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाये कि चन्द्रकान्ता को लेकर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहकर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेन्द्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जाकर खपा डाला जाये कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पाकर महाराज को मारने की फिक्र की जाये, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चन्द्रकान्ता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएंगे।

नाजिम : हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सबों को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?

क्रूरसिंह : अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?

अहमद : तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिखकर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखलाकर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।

क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिखकर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा, ‘‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिये। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किये जाएंगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिये कि बात-की-बात में जमाना कैसे उलट-पुलटकर देते हैं।’’

क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा, ‘‘इस वक्त हम लोग चन्द्रकान्ता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चन्द्रकान्ता जरूर बाग में गयी होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह-कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता के बीच में क्या हो रहा है।’’

ये कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा लेकर वहाँ से चले गये।

Re: चंद्रकांता

Posted: 22 Dec 2014 22:24
by Jemsbond
कुछ-कुछ दिन बाकी है, चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिलकर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिये की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुन्दर-सुन्दर बुर्जियां अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चन्द्रकान्ता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़कर चन्द्रकान्ता के हाथ में दे रही है, मगर चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियां जबर्दस्ती बाग में खींच लायी हैं।

चन्द्रकान्ता की सखी चम्पा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चन्द्रकान्ता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फौव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।

चपला : न मालूम चम्पा किधर चली गयी?

चन्द्रकान्ता : कहीं इधर- उधर घूमती होगी।

चपला : दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।

चन्द्रकान्ता : देखो वह आ रही है।

चपला : इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।

इतने में चम्पा ने आकर फूलों का एक गुच्छा चन्द्रकान्ता के हाथ में दिया और कहा, ‘‘देखिये, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लायी हूँ, अगर इस वक्त कुंवर वीरेन्द्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’’

वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चन्द्रकान्ता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊंची-ऊंची सांसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी, ‘‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन से-ऐसे पाप किये हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समायी है। कहते हैं कि चन्द्रकान्ता को कुंवारी ही रक्खूँगा। हाय ! वीरेन्द्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें कीं , मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’’

एकाएक चपला ने चन्द्रकान्ता का हाथ पकड़कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।

चपला के इशारे को समझ चन्द्रकान्ता चुप हो रही और चपला का हाथ पकड़कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रुमाल उसी जगह जान-बूझकर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़कर उसने चम्पा से कहा, ‘‘ सखी देख तो, फौव्वारे के पास कहीं मेरा रुमाल गिर पड़ा है।’’

चम्पा रुमाल लेने फौव्वारे की तरफ चली गयी तब चन्द्रकान्ता ने चपला से पूछा, ‘‘सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?’’

चपला ने कहा, ‘‘ मेरी प्यारी सखी, मुझको चम्पा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चम्पा नहीं है।’’ इतने में चम्पा ने रुमाल लाकर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चम्पा से पूछा, ‘‘सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तैने किया?’’ चम्पा बोली, ‘‘नहीं, मैं तो भूल गयी।’’ तब चपला ने कहा, ‘‘भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गयी?’’ चम्पा बोली, ‘‘बात तो याद है।’’ तब फिर चपला ने कहा, ‘‘भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।’’

इस बात का जवाब न देकर चम्पा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चम्पा नहीं है। आखिर चपला यह कहकर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चम्पा को एक किनारे ले गयी और कुछ मामूली बातें करके बोली,‘‘देख तो चम्पा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती ? क्योंकि कल से कान में दर्द है।’’ नकली चम्पा चपला के फेर में पड़ गयी और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रखकर नकली चम्पा को सुँघा दी जिसके सूँघते ही चम्पा बेहोश होकर गिर पड़ी।

चपला ने चन्द्रकान्ता को पुकार कर कहा, ‘‘ आओ सखी, अपनी चम्पा का हाल देखो।’’ चन्द्रकान्ता ने पास आकर चम्पा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा, ‘‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चम्पा से शरमाना पड़े !’’ नहीं, ऐसा न होगा।’’ कहकर चपला चम्पा को पीठपर लाद फौव्वारे के पास ले गयी और चन्द्रकान्ता से बोली, ‘‘तुम फौव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ !’’ चन्द्रकान्ता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चम्पा की सूरत बदल गयी और साफ नाजिम की सूरत निकल आयी। देखते ही चन्द्रकान्ता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली, ‘‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की !’’

‘‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।’’ कहकर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गयी, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अन्दर बेहोश नाजिम को ले जाकर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलायी। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आकर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा लेकर खड़ी हो गयी और मारना शुरू किया।

‘‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा !’’ इत्यादि कहकर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी ? वह कोड़ा जमाये ही गयी और बोली, ‘‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी ! तू यहाँ क्यों आया था ? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी ? क्या बाग की सैर को जी चाहा था ? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी ? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया ? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ !’’ यह कहकर फिर मारना शुरू किया, और पूछा, ‘‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चम्पा कहाँ गई ?’’

मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला, ‘‘चम्पा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़ककर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघकर वह बेहोश हो गयी, तब मैंने उसे मालती लता के कुंज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो !’’

चपला ने कहा, ‘‘ठहर, छोड़ती हूँ।’’ मगर फिर भी दस पाँच कोड़े और जमा ही दिये, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चन्द्रकान्ता से कहा, ‘‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चम्पा को ढूँढ़कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो!’’

चम्पा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जलाकर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चम्पा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघाकर होश में लायी और पूछा, ‘‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।’’

चम्पा ने कहा, ‘‘ मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठाकर सूंघते ही मैं बेहोश हो गयी, फिर न मालूम क्या हुआ ! हाय, हाय ! न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे !’’

वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक लेकर चपला ने चम्पा का बदन ढंका और तब यह कहकर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की’ चम्पा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चन्द्रकान्ता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी !’’ चम्पा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली, ‘‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?’’

चपला ने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ !’’ बस फिर क्या था, चम्पा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाये, यहाँ तक कि नाजिम घबड़ा उठा और जी में कहने लगा, ‘‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई !’’

आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चन्द्रकान्ता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।

Re: चंद्रकांता

Posted: 22 Dec 2014 22:25
by Jemsbond
तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रूखसत होकर विजयगढ़ पहुँचे और चन्द्रकान्ता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अंधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।

आखिर तेजसिंह एकान्त में गये और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले, ‘‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रक्खा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तम्बाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तम्बाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे !’’

‘‘हाँ, हाँ, आइए, बैठिए, तम्बाकू पीजिए !’’कहकर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रक्खा। तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं हिन्दू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।’’ यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।

उन्होंने दो फूँक तम्बाकू के नहीं पिये थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खांसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा, ‘‘मियां तुम लोग अजब कड़वा तम्बाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तम्बाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गयी है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तम्बाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गयी है कि सिवाय उस तम्बाकू के और कोई तम्बाकू अच्छा नहीं लगता !’’

इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तम्बाकू निकालकर दिया और कहा, ‘‘तुम लोग भी पीकर देख लो कि कैसा तम्बाकू है।

भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तम्बाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा, ‘‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तम्बाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे !’’ यह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तम्बाकू ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए ! तेजसिंह ने कहा, ‘‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।’’

अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।

थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गये।

अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अन्दर घुस गये और नजर बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमन्द डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूं तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरन्त उसे बेहोशी की बुकनी सुँघाई और जब बेहोश हो गयी तो उसे वहां से उठाकर किनारे ले गये। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा दस पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंड़ी की सूरत बनाये हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गये।

तेजसिंह को देख चपला बोली, ’’ क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आकर बैठ गयी है?

चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंड़ी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बनाकर आया हूँ उसका नाम केतकी है।

नकली केतकी : हां काम तो करने गयी थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आयी हूँ।

चपला : ऐसा ! अच्छा तूने क्या देखा कह?

नकली केतकी : सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।

सब लौंडियां हटा दी गईं और केवल चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा रह गईं। अब केतकी ने हँसकर कहा, ‘‘कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊं।’’

चन्द्रकान्ता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेन्द्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेन्द्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है ? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है ? आखिर चन्द्रकान्ता ने केतकी से कहा, ‘‘हाँ हाँ, इनाम दूंगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है ?’’

केतकी ने कहा, ‘‘पहले दे दो तो कहूं, नहीं तो जाती हूँ।’’ यह कह उठकर खड़ी हो गई।

केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी, ‘‘क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ के बातें कर रही है। लगाऊं दो लात उठ के !’’

केतकी ने जवाब दिया, ‘‘क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूंगी !’’

अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहां तक कि दोनों आपस में गुंथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।

नकली केतकी: (हँसकर) क्यों, भाग क्यों गई ? आओ लड़ो !

चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली, ‘‘ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ !’’

इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेन्द्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेन्द्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेन्द्रसिंह कभी चीट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ चपला शरमा गई और गर्दन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।

चन्द्रकान्ता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेन्द्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी-

चन्द्रकान्ता: क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है ?

तेजसिंह: मिजाज क्या खाक अच्छा होगा ? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है ! अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी लेकर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूंगा, किसी तरह समझा-बुझाकर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जाकर वहाँ बन्दोबस्त कर आऊं तब तुमको ले चलूंगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।

चन्द्रकान्ता: अफसोस ! तुम उनको अपने साथ न लाये, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती ? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रक्खा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रक्खा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गये हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जाकर तब कहूंगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अन्दर जाने की इजाजात किसने दी थी ?

यह कह कर चन्द्रकान्ता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।

तेजसिंह चपला की चालाकी सुनकर हैरान हो गये और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले, ‘‘चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।’’

यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम ! मैंने क्या धोखा खाया ! पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा, ‘‘जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा ? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया ? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में लाकर कैद करतीं या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देतीं, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।

इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गये और बहुत शर्मिन्दा होकर बोली, ‘‘सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने खयाल न किया !’’

तेजसिंह: और कोई क्यों खयाल करता ! तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका खयाल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को ? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं ?

चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था ? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अन्दर जाकर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली, ‘‘क्या कहूं, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।’’ अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया, ‘‘बड़ी ऐयार बनती थीं, कहती थीं हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला !’’

चपला झुंझला उठी और चिढ़कर बोली, ‘‘चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में लाकर बेहिसाब जूतियां न लगाऊँ।’’

तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस तुम्हारी कारीगिरी देखी गई। अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जाकर कैद करता हूँ।’’

इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चन्द्रकान्ता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलां जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जाकर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूंगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जायेगा।

चन्द्रकान्ता ने तेजसिंह से ताकीद की कि ‘‘दूसरे, तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।’’

‘‘बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा !’’ यह कहकर तेजसिंह चलने को तैयार हुए। चन्द्रकान्ता उन्हें देख रोकर बोली, ‘‘क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है ?’’ इतना कहते ही गला भऱ आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया औऱ कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबड़ा जाओगी तो कैसे काम चलेगा ? बहुत-कुछ समझा-बुझाकर चन्द्रकान्ता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आये। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आये हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा, ‘‘तुम लोग पहरा देते हो या जमीन सूँघते हो ?’’ इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आंखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगाकर ! देखो, मैं बड़ी रानी से कहकर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ !’’

जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुनकर सन्न हो गये और लगे खुशामद करने,‘‘देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आकर धोखा दे ऐसा जहरीला तम्बाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी ! देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गये। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।’’

नकली केतकी ने कहा, ‘‘अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार ! जो फिर कभी ऐसा हुआ !’’ यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गये। डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही ।