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Re: चंद्रकांता

Posted: 24 Dec 2014 15:16
by Jemsbond
शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेन्द्रसिंह गये। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुंचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में भेज दी गई है। लड़ाई के बारे में राय और तरकीबें होने लगीं। सब सोचते-विचारते आधी रात गुजर गई, एकाएक कई चोबदार ने आकर अर्ज किया, ‘‘महाराज, चोर-महल में से कुछ आदमी निकल भागे जिनको दुश्मन समझ पहरे वालों ने तीर छोड़े, मगर वे जख्मी होकर भी निकल गये।’’

यह खबर सुन महाराज सोच में पड़ गये। कुमार और तेजसिंह भी हैरान थे। इतने में ही महल से रोने की आवाज आने लगी। सभी का खयाल उस रोने पर चला गया। पल में रोने और चिल्लाने की आवाज बढ़ने लगी, यहाँ तक कि तमाम महल में हाहाकार मच गया। महाराज और कुमार वगैरह सभी के मुंह पर उदासी छा गई। उसी समय लौंडियां दौड़ती हुई आईं और रोते-रोते बड़ी मुश्किल से बोलीं, ‘‘चन्द्रकान्ता और चपला का सिर काटकर कोई ले गया।’’ यह खबर तीर के समान सभी को छेद गई। महाराज तो एकाएक हाय कह के गिर ही पड़े, कुमार की भी अजब हालत हो गई, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हरदयालसिंह की आंखों से आंसू जारी हो गये, तेजसिंह काठ की मूरत बन गये। महाराज ने अपने को संभाला और कुमार की अजब हालत देख गले लगा लिया, इसके बाद रोते हुए कुमार का हाथ पकड़े महल में दौड़े चले गये। देखा कि हाहाकार मचा हुआ है, महारानी चन्द्रकान्ता की लाश पर पछाड़ें खा रही हैं, सिर फट गया, खून जारी है। महाराज भी जाकर उसी लाश पर गिर पड़े। कुमार में तो इतनी भी ताकत न रही कि अन्दर जाते। दरवाजे पर ही गिर पड़े, दांत बैठ गया चेहरा जर्द और मुर्दे की-सी सूरत हो गई।

चन्द्रकान्ता और चपला की लाशें पड़ी थीं, सिर नहीं थे, कमरे में चारों तरफ खून-ही-खून दिखाई देता था। सभी की अजब हालत थी, महारानी रो-रोकर कहती थीं, ‘‘हाय बेटी ! तू कहाँ गई ! उसका कैसा कलेजा था जिसने तेरे गले पर छुरी चलाई ! हाय हाय, अब मैं जी-कर क्या करूंगी ! तेरे ही वास्ते इतना बखेड़ा हुआ और तू ही न रही तो अब यह राज्य क्या हो ?’’ महाराज कहते थे- ‘‘अब क्रूर की छाती ठण्डी हुई, शिवदत्त को मुराद मिल गई। कह दो, अब आवे विजयगढ़ का राज्य करे, हम तो लड़की का साथ देंगे।’’

एकाएक महाराज की निगाह दरवाजे पर गई। देखा वीरेन्द्रसिंह पड़े हुए हैं, सिर से खून जारी है। दौड़े और कुमार के पास आये, देखा तो बदन में दम नहीं, नब्ज का पता नहीं, नाक पर हाथ रक्खा तो सांस ठण्डी चल रही है। अब तो और भी जोर से महाराज चिल्ला उठे, बोले, ‘‘गजब हो गया ! हमारे चलते नौगढ़ का राज्य भी गारत हुआ। हम तो समझे थे कि वीरेन्द्रसिंह को राज्य दे जंगल में चले जायेंगे, मगर हाय ! विधाता को यह भी अच्छा न लगा ! अरे कोई जाओ, जल्दी तेजसिंह को लिवा लाओ, कुमार को देखें ! हाय हाय ! अब तो इसी मकान में मुझको भी मरना पड़ा। मैं समझता हूँ राजा सुरेन्द्रसिंह की जान भी इसी मकान में जायेगी ! हाय, अभी क्या सोच रहे थे, क्या हो गया ! विधाता तूने क्या किया ?’’
इतने में तेजसिंह आये। देखा कि वीरेन्द्रसिंह पड़े हैं और महाराज उनके ऊपर हाथ रखें रो रहे हैं। तेजसिंह की जो कुछ जान बची थी वह भी निकल गई। वीरेन्द्रसिंह की लाश के पास बैठ गये और जोर से बोले, ‘‘कुमार, मेरा जी तो रोने को भी नहीं चाहता क्योंकि मुझको अब इस दुनिया में नहीं रहना है, मैं तो खुशी-खुशी तुम्हारा साथ दूंगा !’’ यह कह कर कमर से खंजर निकाला और पेट में मारना ही चाहते थे कि दीवार फांदकर एक आदमी ने आकर हाथ पकड़ लिया।
तेजसिंह ने उस आदमी को देखा जो सिर से पैर तक सिन्दूर से रंगा हुआ था उसने कहा-
‘‘काहे को देते हो जान, मेरी बात सुनो दे कान।
यह सब खेल ठगी को मान, लाश देखकर लो पहचान।
उठो देखो भालो, खोजो खोज निकालो।।’’
यह कह वह दांत दिखलाता उछलता-कूदता भाग गया।

Re: चंद्रकांता

Posted: 24 Dec 2014 15:54
by Jemsbond
sooma1511 wrote:pls complete the story

ok sir

Re: चंद्रकांता

Posted: 29 Dec 2014 19:29
by Jemsbond
॥ दूसरा अध्याय ॥

बयान 1.

इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा, ''आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीती हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं!''

तेजसिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा हो गया। सबों ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेजसिंह के मुंह की तरफ देखने लगे। महारानी दौड़ी हुई उनके पास आईं और बोलीं, ''बेटा, जल्दी बताओ यह क्या मामला है! तुम कैसे कहते हो कि चंद्रकान्ता जीती है? यह कौन था जो यकायक महल में घुस आया?'' तेजसिंह ने कहा, ''यह तो मुझे मालूम नहीं कि यह कौन था मगर इतना पता लग गया कि चंद्रकान्ता और चपला को शिवदत्तसिंह के ऐयार चुरा ले गए हैं और ये बनावटी लाश यहां रख गए हैं जिससे सब कोई जानें कि वे मर गईं और खोज न करें।'' महाराज बोले, ''यह कैसे मालूम कि यह लाश बनावटी हैं?'' तेजसिंह ने कहा, ''यह कोई बड़ी बात नहीं है, लाश के पास चलिए मैं अभी बतला देता हूं।'' यह सुन महाराज तेजसिंह के साथ लाश के पास गए, महारानी भी गईं। तेजसिंह ने अपनी कमर से खंजर निकालकर चपला की लाश की टांग काट ली और महाराज को दिखलाकर बोले, ''देखिए इसमें कहीं हड्डी है।'' महाराज ने गौर से देखकर कहा, ''ठीक है, बनावटी लाश है।'' इसके पीछे चंद्रकान्ता की लाश को भी इसी तरह देखा, उसमें भी हड्डी नहीं पाई। अब सबों को मालूम हो गया कि ऐयारी की गई है। महाराज बोले, ''अच्छा यह तो मालूम हुआ कि चंद्रकान्ता जीती है, मगर दुश्मनों के हाथ पड़ गई इसका गम क्या कम है?'' तेजसिंह बोले, ''कोई हर्ज नहीं, अब तो जो होना था हो चुका। मैं चंद्रकान्ता और चपला को खोज निकालूंगा।''

तेजसिंह के समझाने से सबों को कुछ ढाढ़स हुई, मगर कुमार वीरेन्द्रसिंह अभी तक बदहवास पड़े हैं, उनको इन सब बातों की कुछ खबर नहीं। अब महाराज को यह फिक्र हुई कि कुमार को होशियार करना चाहिए। वैद्य बुलाए गये, सबों ने बहुत-सी तरकीबें कीं मगर कुमार को होश न आया। तेजसिंह भी अपनी तरकीब करके हैरान हो गए मगर कोई फायदा न हुआ, यह देख महाराज बहुत घबड़ाए और तेजसिंह से बोले, ''अब क्या करना चाहिए?'' बहुत देर तक गौर करने के बाद तेजसिंह ने कहा कि ''कुमार को उठवा के उनके रहने के कमरे में भिजवाना चाहिए, वहां अकेले में मैं इनका इलाज करूंगा।'' यह सुन महाराज ने उन्हें खुद उठाना चाहा मगर तेजसिंह ने कुमार को गोद में ले लिया और उनके रहने वाले कमरे में ले चले । महाराज भी संग हुए। तेजसिंह ने कहा, ''आप साथ न चलिए, ये अकेले ही में अच्छे होंगे।'' महाराज उसी जगह ठहर गये। तेजसिंह कुमार को लिए हुए उनके कमरे में पहुंचे और चारपाई पर लिटा दिया, चारों तरफ से दरवाजे बंद कर दिए और उनके कान के पास मुंह लगाकर बोलने लगे, ''चंद्रकान्ता मरी नहीं, जीती है, वह देखो महाराज शिवदत्त के ऐयार उसे लिए जाते हैं ! जल्दी दौड़ो, छीनो, नहीं तो बस ले ही जायेंगे! क्या इसी को वीरता कहते हैं! छी:, चंद्रकान्ता को दुश्मन लिए जायं और आप देखकर भी कुछ न बोलें? राम राम राम!''

इतनी आवाज कान में पड़ते ही कुमार में आंखें खोल दीं और घबड़ाकर बोले, ''हैं! कौन लिए जाता है? कहां है चंद्रकान्ता?'' यह कहकर इधर-उधर देखने लगे। देखा तो तेजसिंह बैठे हैं। पूछा-''अभी कौन कह रहा था कि चंद्रकान्ता जीती है और उसको दुश्मन लिये जाते हैं?'' तेजसिंह ने कहा, ''मैं कहता था और सच कह रहा था! कुमारी जीती हैं मगर दुश्मन उनको चुरा ले गए हैं और उनकी जगह नकली लाश रख इधर-उधर रंग फैला दिया है जिससे लोग कुमारी को मरी हुई जानकर पीछा और खोज न करें।''

कुमार ने कहा, ''तुम हमें धोखा देते हो! हम कैसे जानें कि वह लाश नकली है?'' तेजसिंह ने कहा, ''मैं अभी आपको यकीन करा देता हूं।'' यह कह कमरे का दरवाजा खोला, देखा कि महाराज खड़े हैं, आंखों से आंसू जारी हैं। तेजसिंह को देखते ही पूछा, ''क्या हाल है?'' जवाब दिया, ''अच्छे हैं, होश में आ गए, चलिए देखिए।'' यह सुन महाराज अंदर गए, उन्हें देखते ही कुमार उठ खड़े हुए, महाराज ने गले से लगा लिया। पूछा, ''मिजाज कैसा है!'' कुमार ने कहा, ''अच्छा है!'' कई लौंडियां भी उस जगह आईं जिनको कुमार का हाल लेने के लिए महारानी ने भेजा था। एक लौंडी से तेजसिंह ने कहा, ''दोनों लाशों में से जो टुकड़े हाथ-पैर के मैंने काटे थे उन्हें ले आ।'' यह सुन लौंडी दौड़ी गई और वे टुकड़े ले आई। तेजसिंह ने कुमार को दिखलाकर कहा, ''देखिए यह बनावटी लाश है या नहीं, इसमें हड्डी कहां है?'' कुमार ने देखकर कहा, ''ठीक है, मगर उन लोगों ने बड़ी बदमाशी की!'' तेजसिंह ने कहा, ''खैर जो होना था हो गया, देखिए अब हम क्या करते हैं।''

सबेरा हो गया। महाराज, कुमार और तेजसिंह बैठे बातें कर रहे थे कि हरदयालसिंह ने पहुंचकर महाराज को सलाम किया। उन्होंने बैठने का इशारा किया। दीवान साहब बैठ गये और सबों को वहां से हट जाने के लिए हुक्म दिया। जब निराला हो गया हरदयालसिंह ने तेजसिंह से पूछा, ''मैंने सुना है कि वह बनावटी लाश थी जिसको सभी ने कुमारी की लाश समझा था?'' तेजसिंह ने कहा, ''जी हां ठीक बात है!'' और तब बिल्कुल हाल समझाया। इसके बाद दीवान साहब ने कहा, ''और गजब देखिए! कुमारी के मरने की खबर सुनकर सब परेशान थे, सरकारी नौकरों में से जिन लोगों ने यह खबर सुनी दौड़े हुए महल के दरवाजे पर रोते-चिल्लाते चले आये, उधर जहां ऐयार लोग कैद थे पहरा कम रह गया, मौका पाकर उनके साथी ऐयारों ने वहां धाावा किया और पहरे वालों को जख्मी कर अपनी तरफ के सब ऐयारों को जो कैद थे छुड़ा ले गए।''

यह खबर सुरकर तेजसिंह, कुमार और महाराज सन्न हो गये। कुमार ने कहा, ''बड़ी मुश्किल में पड़ गये। अब कोई भी ऐयार उनका हमारे यहां न रहा, सब छूट गये। कुमारी और चपला को ले गये यह तो गजब ही किया! अब नहीं बर्दाश्त होता, हम आज ही कूच करेंगे और दुश्मनों से इसका बदला लेंगे।'' यह बात कह ही रहे थे कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि ''लड़ाई की खबर लेकर एक जासूस आया है, दरवाजे पर हाजिर है, उसके बारे में क्या हुक्म होता है?'' हरदयालसिंह ने कहा, ''इसी जगह हाजिर करो।'' जासूस लाया गया। उसने कहा, ''दुश्मनों को रोकने के लिए यहां से मुसलमानी फौज भेजी गई थी। उसके पहुंचने तक दुश्मन चार कोस और आगे बढ़ आये थे। मुकाबले के वक्त ये लोग भागने लगे, यह हाल देखकर तोपखाने वालों ने पीछे से बाढ़ मारी जिससे करीब चौथाई आदमी मारे गये। फिर भागने का हौसला न पड़ा और खूब लड़े, यहां तक कि लगभग हजार दुश्मनों को काट गिराया लेकिन वह फौज भी तमाम हो चली, अगर फौरन मदद न भेजी जायगी तो तोपखाने वाले भी मारे जायेंगे।''

यह सुनते ही कुमार ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ''पांच हजार फौज जल्दी मदद पर भेजी जाय और वहां पर हमारे लिए भी खेमा रवाना करो, दोपहर को हम भी उस तरफ कूच करेंगे।'' हरदयालसिंह फौज भेजने के लिए चले गये। महाराज ने कुमार से कहा, ''हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे।'' कुमार ने कहा, ''ऐसी जल्दी क्या है? आप यहां रहें, राज्य का काम देखें। मैं जाता हूं, जरा देखूं तो राजा शिवदत्त कितनी बहादुरी रखता है, अभी आपको तकलीफ करने की कुछ जरूरत नहीं।''

थोड़ी देर तक बातचीत होने के बाद महाराज उठकर महल में चले गए। कुमार और तेजसिंह भी स्नान और संध्या-पूजा की फिक्र में उठे। सबसे जल्दी तेजसिंह ने छुट्टी पाई और मुनादी वाले को बुलाकर हुक्म दिया कि तू तमाम शहर में इस बात की मुनादी कर आ कि-'दन्तारबीर का जिसको इष्ट हो वह तेजसिंह के पास हाजिर हो।' बमूजिब हुक्म के मुनादी वाला मुनादी करने चला गया। सभी को ताज्जुब था कि तेजसिंह ने यह क्या मुनादी करवाई है।

दूसरा बयान

मामूल वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया। कुमार और तेजसिंह भी हाजिर हुए। आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इजाजत ले ली और वहां से चले गए। महाराज भी उदासी की हालत में उठ के महल में चले गये। यह तो निश्चय हो गया कि चंद्रकान्ता और चपला जीती हैं मगर कहां हैं, किस हालत में हैं, सुखी हैं या दु:खी, इन सब बातों का ख्याल करके महल में महारानी से लेकर लौंडी तक सब उदास थीं, सबों की आंखों से आंसू जारी थे, खाने-पीने की किसी को भी फिक्र न थी, एक चन्द्रकान्ता का ध्यान ही सबों का काम था। महाराज जब महल में गये महारानी ने पूछा कि ''चंद्रकान्ता का पता लगाने की कुछ फिक्र की गई?'' महाराज ने कहा, ''हां तेजसिंह उसकी खोज में जाते हैं, उनसे ज्यादा पता लगाने वाला कौन है जिससे मैं कहूं? वीरेन्द्रसिंह भी इस वक्त लड़ाई पर जाने के लिए मुझसे बिदा हो गए, अब देखो क्या होता है।''

तीसरा बयान

कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियां रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति 1 बैठे हैं, बाकी कुर्सियां खाली पड़ी हैं। उनके पूरब तरफ सैकड़ों खेमे अर्धाचंद्राकार खड़े हैं। बीच में वीरेन्द्रसिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरबों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं। बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं। दक्षिण तरफ घोड़ों का अस्तबल है जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बंधे दिखाई देते हैं। पश्चिम तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उखाड़ने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भण्डार है।

कुमार ने फतहसिंह सिपहसालार से कहा, ''मैं समझता हूं कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक 'लोहरा' के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जायगा?'' फतहसिंह ने कहा, ''जी हां, जरूर सुबह तक वहां सब सामान लैस हो जायगा, हमारी फौज भी कुछ रात रहते यहां से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहले ही वहां पहुंच जायगी। परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबड़ा गई थी!'' इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने देवीसिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिये। नजदीक आकर देवीसिंह ने कुमार और तेजसिंह को सलाम किया। देवीसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुए और उठकर गले लगा लिया, तेजसिंह ने भी देवीसिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा। फतहसिंह सिपहसालार

1. फतहसिंह की उम्र पचीसवर्ष से ज्यादा न होगी।

ने भी उनको सलाम किया। जब देवीसिंह बैठ गये, तेजसिंह उनकी तारीफ करने लगे। कुमार ने पूछा, ''कहो देवीसिह, तुमने यहां आकर क्या-क्या किया?'' तेजसिह ने कहा, ''इनका हाल मुझसे सुनिये, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूं।'' कुमार ने कहा, ''कहो!'' तेजसिंह बोले, ''जब आप चंद्रकान्ता के बाग में बैठे थे और भूत ने आकर कहा था कि 'खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे!' जिसको सुनकर मैंने जबर्दस्ती आपको वहां से उठाया था, वह भूत यही थे। नौगढ़ में भी इन्होंने जाकर क्रूरसिंह के चुनार जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजाकर दी थी। जब चंद्रकान्ता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े थे तब भी इन्हीं ने चंद्रकान्ता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी, तब मैंने उठकर लाश पहचानी नहीं होती तो पूरे घर का ही नाश हो चुका था। इतना काम इन्होंने किया। इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं।'' यह सुनकर कुमार ने देवीसिंह की पीठ ठोंकी और बोले, ''शाबास! किस मुंह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाये।'' देवीसिंह ने कहा, ''मैं किस लायक हूं जो आप इतनी तारीफ करते हैं, तारीफ सब कामों से निश्चित होकर कीजियेगा, इस वक्त चंद्रकान्ता को छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए, अगर देर होगी तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने। सिवाय इसके इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चंद्रकान्ता ही की खोज में लीन हो जायेंगे तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बुरा हो जायगा!'' यह सुन कुमार ने पूछा, ''देवीसिंह यह तो बताओ चंद्रकान्ता कहां है, उसको कौन ले गया।'' देवीसिंह ने जवाब दिया कि ''यह तो नहीं मालूम कि चंद्रकान्ता कहां है, हां इतना जानता हूं कि नाज़िम और बद्रीनाथ मिलकर कुमारी और चपला को ले गये, पता लगाने से लग ही जायगा!'' तेजसिंह ने कहा, ''अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गये, वे सब मिलकर नौ हैं और हम दो ही आदमी ठहरे। चाहे चंद्रकान्ता और चपला को खोजें चाहे फौज में रहकर कुमार की हिफाजत करें, बड़ी मुश्किल है।'' देवीसिंह ने कहा, ''कोई मुश्किल नहीं है सब काम हो जायगा, देखिए तो सही। अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए, उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फिक्र की जायगी।'' तेजसिंह ने कहा, ''हम लोग महाराज से बिदा हो आये हैं, कुछ रात रहते यहां से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है।''

आधी रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, बाद इसके कुमार उठकर अपने खेमे में चले गये। कुमार के बगल में तेजसिंह का खेमा था जिसमें देवीसिंह और तेजसिंह दोनों ने आराम किया। चारों तरफ फौज का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज आने लगी। थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज हुई, कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीर- धीर फौज चल पड़ी। जब सब फौज जा चुकी, पीछे एक हाथी पर कुमार सवार हुए जिन्हें चारों तरफ से बहुत-से सवार घेरे हुए थे। तेजसिंह और देवीसिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए कभी आगे कभी पीछे कभी साथ, पैदल चले जाते थे। पहर दिन चढ़े कुंअर वीरेन्द्रसिंह का लश्कर शिवदत्तसिंह की फौज के मुकाबले में जा पहुंचा जहां पहले से महाराज जयसिंह की फौज डेरा जमाये हुए थी। लड़ाई बंद थी और मुसलमान सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पल्टनों का पड़ाव पड़ा।

जब सब इंतजाम हो चुका, कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मीर मुंशी को हुक्म दिया, ''एक खत शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिजाम में गर्मी आ गई है जो बैठे-बैठाये एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जयसिंह से लड़ाई ठान ली है। यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चंद्रकान्ता और चपला को चुरा लाये हैं, सो बेहतर है कि चंद्रकान्ता और चपला को इज्जत के साथ महाराज जयसिंह के पास भेज दो और तुम वापस जाओ नहीं तो पछताओगे, जिस वक्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी।''

बमूजिम हुक्म के मीर मुंशी ने खत लिखकर तैयार की। कुमार ने कहा, ''यहखत कौन ले जायगा?'' यह सुन देवीसिंह सामने आ हाथ जोड़कर बोले, ''मुझको इजाजत मिले कि इस खत को ले जाऊं क्योंकि शिवदत्तसिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है।'' कुमार ने कहा, ''इतनी बड़ी फौज में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है।''

तेजसिंह ने कहा, ''कोई हर्ज नहीं, जाने दीजिए।'' आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकालकर दिया जिसे देवीसिंह ने लेकर सलाम किया, खत बटुए में रख ली और तेजसिंह के चरण छूकर रवाना हुए।

महाराज शिवदत्तसिंह के पल्टन वालों में कोई भी देवीसिंह को नहीं पहचानता था। दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी खेमा खड़ा है। समझ गये कि यही महाराज का खेमा है, सीधो धाड़धाड़ाते हुए खेमे के दरवाजे पर पहुंचे और पहरे वालों से कहा, ''अपने राजा को जाकर खबर करो कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार खत लेकर आया है, जाओ जल्दी जाओ! ''सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की। उन्होंने हुक्म दिया, ''आने दो।'' देवीसिंह खेमे के अंदर गये। देखा कि बीच में महाराज शिवदत्त सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और इसके बाद दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहिरे उम्दे-उम्दे हरबे लगाये चांदी की कुर्सियों पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है। बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं। इसके बाद दरजे बदरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बांधो सामने खड़े हैं। गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया।

देवीसिंह किसी को सलाम किये बिना ही बीच में जाकर खड़े हो गए और एक दफे चारों तरफ निगाह दौड़ाकर गौर से देखा, फिर बढ़कर कुमार की खत महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी। देवीसिंह की बेअदबी देखकर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गये और बोले-''एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि हाथी का मुकाबला करे! अभी तो वीरेन्द्रसिंह के मुंह से दूध की महक भी गई न होगी।'' यह कह खत हाथ में ले फाड़कर फेंक दी। खत का फटना था कि देवीसिंह की आंखें लाल हो गईं। बोले, ''जिसके सर मौत सवार होती है उसकी बुध्दि पहले ही हवा खाने चली जाती है।'' देवीसिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई। बोले, ''पकड़ो इस बेअदब को!'' इतना कहना था कि कई चोबदार देवीसिंह की तरफ झुके। इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेंद निकालकर जोर से जमीन पर मारी जिससे बड़ी भारी आवाज हुई। दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े जिससे सिर का शमला जिस पर हीरे का सरपेंच था जमीन पर गिर पड़ा। लपक के देवीसिंह ने उसे उठा लिया और कूदकर खेमे के बाहर निकल गये। सब के सब देखते रह गये किसी के किये कुछ बन न पड़ा।

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे। कहा-''लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाय!'' बद्रीनाथ ने जवाब दिया, ''महाराज, हम लोग ऐयार हैं, हजार आदमियों में अकेले घुसकर काम करते हैं मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़ते। यह हम लोगों के कायदे के बाहर है। बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया!'' बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न देकर कहा, ''अच्छा कल हम देख लेंगे।''