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Re: चंद्रकांता

Posted: 29 Dec 2014 19:30
by Jemsbond
चौथा बयान

महाराज शिवदत्त का शमला लिए हुए देवीसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और जो कुछ हुआ था बयान किया। कुमार यह सुनकर हंसने लगे और बोले, ''चलो सगुन तो अच्छा हुआ?'' तेजसिंह ने कहा, ''सबसे ज्यादा अच्छा सगुन तो मेरे लिए हुआ कि शागिर्द पैदा कर लाया!'' यह कह शमले में से सरपेंच खोल बटुए में दाखिल किया। कुमार ने कहा, ''भला तुम इसका क्या करोगे, तुम्हारे किस मतलब का है?'' तेजसिंह ने जवाब दिया, ''इसका नाम फतह का सरपेंच है, जिस रोज आपकी बारात निकलेगी महाराज शिवदत्त की सूरत बना इसी को माथे पर बांधा मैं आगे-आगे झण्डा लेकर चलूंगा।'' यह सुनकर कुमार ने हंस दिया, पर साथ ही इसके दो बूंद आंसू आंखों से निकल पड़े जिनको जल्दी से कुमार ने रूमाल से पोंछ लिया। तेजसिंह समझ गये कि यह चंद्रकान्ता की जुदाई का असर है। इनको भी चपला का बहुत कुछ ख्याल था, देवीसिंह से बोले, ''सुनो देवीसिंह, कल लड़ाई जरूर होगी इसलिए एक ऐयार का यहां रहना जरूरी है और सबसे जरूरी काम चंद्रकान्ता का पता लगाना है।'' देवीसिंह ने तेजसिंह से कहा, ''आप यहां रहकर फौज की हिफाजत कीजिए। मैं चंद्रकान्ता की खोज में जाता हूं।'' तेजसिंह ने कहा, ''नहीं चुनार की पहाड़ियां तुम्हारी अच्छी तरह देखी नहीं हैं और चंद्रकान्ता जरूर उसी तरफ होगी, इससे यही ठीक होगा कि तुम यहां रहो और मैं कुमारी की खोज में जाऊं।'' देवीसिंह ने कहा, ''जैसी आपकी खुशी।'' तेजसिंह ने कुमार से कहा, ''आपके पास देवीसिंह है। मैं जाता हूं, जरा होशियारी से रहिएगा और लड़ाई में जल्दी न कीजिएगा।'' कुमार ने कहा, ''अच्छा जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।''

बातचीत करते शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी चली गई, तेजसिंह उठ खड़े हुए और जरूरी चीजें ले ऐयारी के सामान से लैस हो वहां के एक घने जंगल की तरफ चले गये।

Re: चंद्रकांता

Posted: 29 Dec 2014 19:31
by Jemsbond
पांचवा बयान

'चंद्रकान्ता को ले जाकर कहां रखा होगा? अच्छे कमरे में या अंधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुंह दु:ख और भय से सूख गया होगा। उसको राजी करने के लिए तंग करते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग होकर जान दे दी हो।' इन्हीं सब बातों को सोचते और ख्याल करते कुमार को रात-भर नींद न आई। सबेरा हुआ ही चाहता था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज आई। मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार भी उठ बैठे, हाथ-मुंह धोए। इतने में हरकारे ने आकर खबर दी कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार ने भी कहा, ''हमारे यहां भी जल्दी तैयारी की जाय।'' हुक्म पाकर हरकारा रवाना हुआ। जब तक कुमार ने स्नान-सन्धया से छुट्टी पाई तब तक दोनों तरफ की फौजें भी मैदान में जा डटीं। बेलदारों ने जमीन साफ कर दी। कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में गये और देवीसिंह से कहा, ''शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून कराना अच्छा नहीं, जिस-जिस को बहादुरी का घमण्ड हो एक पर एक लड़ के जल्दी मामला तै कर लें। शिवदत्तसिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूं, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाय।'' देवीसिंह ने कहा, ''बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तै कर डालता हूं!'' यह कह मैदान में गये और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफे उछाली। चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवद्त्त के लश्कर से निकल के मैदान में देवीसिंह के पास आये और बोले, ''जय माया की!'' देवीसिंह ने भी जवाब दिया, ''जय माया की!'' बद्रीनाथ ने पूछा, ''क्यों क्या बात है जो मैदान में आकर ऐयारों को बुलाते हो?''

देवी-तुमसे एक बात कहनी है!

बद्री-कहो।

देवी-तुम्हारी फौज में मर्द बहुत हैं कि औरत?

बद्री-औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती!

देवी-तुम्हारे यहां कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले ही हैं?

बद्री-हमारे यहां खचियों बहादुर भरे हैं?

देवी-तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हैं!

बद्री-यह तो मुकाबला होने ही से मालूम होगा!

देवी-तो क्यों नहीं एक पर एक लड़ के हौसला निकाल लेते? ऐसा करने से मामला भी जल्द तै हो जायगा और बेचारे सिपाहियों की जानें भी मुफ्त में न जायेंगी। हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी का बड़ा भरोसा है, आवें पहले हम से ही भिड़ जायं, या वही जीत जायं या हम ही चुनार की गद्दी के मालिक हों, बात की बात में मामला तय होता है।

बद्री-तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं। तुम्हारे कुमार को तो चुटकी से मसल डालेंगे।

देवी-यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आवें मैदान में!

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौटकर अपनी फौज में गये और जो कुछ देवीसिंह से बातचीत हुई थी जाकर महाराज शिवदत्त से कहा। सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गए और बोले, ''यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है!'' बद्रीनाथ ने कहा, ''फिर हियाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहां तक समझता हूं, उनका कहना ठीक है!'' यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा के मैदान में आ गये और भाला उठाकर हिलाया, जिसको देख वीरेन्द्रसिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुंचकर ललकारा, ''अपने मुंह अपनी तारीफ करता है और कहता है कि मैं वीर हूं? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवांमर्दी से लड़कर चंद्रकान्ता न ली गई? लानत है ऐसी बहादुरी पर!'' वीरेन्द्रसिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में लगी। कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर से कुमार पर नेजा चलाया, कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छटककर दूर जा गिरा।

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन दोनों तरफ से 'वाह-वाह' की आवाज आने लगी। शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकालकर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, बाद दोपहर कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी होकर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे। घोड़े से कूदकर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा मगर मतलब समझ के कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे होकर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी जिसको दौड़ के देवीसिंह ने उठा लिया। महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त है, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो हम बेशक मारे जायेंगे या पकड़े जायेंगे। यह सोचकर अपनी फौज को कुमार पर धावा करने का इशारा किया। बस एकदम से कुमार को उन्होंने घेर लिया। यह देख कुमार की फौज ने भी मारना शुरू किया। फतहसिंह सेनापति और देवीसिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुंचे और तलवार और खंजर चलाने लगे। दोनों फौजें आपस में खूब गुथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी।

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें मगर कुछ बन न पड़ा। कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गये। शाम को उतारे का डंका बजा और लड़ाई बंद हुई। फौज ने कमर खोली। कुमार अपने खेमे में आये मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतहसिंह सेनापति भी जख्मी हो गये थे। रात को सबों ने आराम किया।

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली थी कि अब क्या करना चाहिए। फौज तो वीरेन्द्रसिंह की हमसे बहुत कम है मगर उनकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़ के बहुत जक उठाई। हमारी तो यही राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें। इस राय को सबों ने पसंद किया। थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज पर पांच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया। बड़ा ही गड़बड़ मचा। अंधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था। कुमार की फौज दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी। यह खबर वीरेन्द्रसिंह को भी लगी। झट अपने खेमे से बाहर निकल आए। देवीसिंह ने बहुत से आदमियों को महताब 1 जलाने के लिए बांटीं। यह महताब तेजसिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थीं। इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा। अब क्या था, कुल पांच सौ आदमियों को मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पांच सौ आदमी मारे गए मगर रोशनी होने के पहले करीब हजार आदमी कुमार की तरफ के नुकसानहो चुके थे जिसका रंज वीरेन्द्रसिंह को बहुत हुआ और सुबह की लड़ाई बंद न होने दी।

दोनों फौजें फिर गुथ गईं। कुमार ने जल्दी से स्नान किया और संध्या-पूजा करके हरबों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज में घुस गए। लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तनोबदन की खबर न थी। एकाएक पूरब और उत्तार के कोने से कुछ फौजी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिये जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहिरे अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था। उसके पीछे और भी सवार जो करीब-करीब पांच सौ के होंगे घोड़ा फेंके चले आ रहे थे। अगले सवार की पोशाक और हरबों से मालूम होता था कि यह सबों का सरदार है। यह सरदार मुंह पर नकाब 2

1. फौजमेंमहताबबहुतसे बनाए जाते थे इसलिए कि शायद रात को लड़ाई होतोरोशनी कीजाय।

2. नकाब एक कपड़े का नाम है जो मुंह पर परदे की तरह पड़ा रहता है, बंद से बांधाते हैं, आंखों की जगह खाली रहती है।

डाले हुए था और उसके साथ जितने सवार पीछे चले आ रहे थे उन लोगों के भी मुंह पर नकाब पड़ी हुई थी।

इस फौज ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज पर धावा किया और खूब मारा। इधर से वीरेन्द्रसिंह की फौज ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और आ पहुंचा, तबीयत बढ़ गई और हौसले के साथ लड़ने लगे। दोतरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज सम्हाल न पाई और भाग चली। फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आए। मगर हैरान थे कि ये नकाबपोश सवार कौन थे जिन्होंने बड़े वक्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आये थे उधर ही चले गये। कोई किसी की जरा मदद करता है तो अहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह बड़ी बहादुरी का काम है। बहुत सोचा मगर कुछ समझ न पड़ा।

महाराज शिवदत्त का बिल्कुल माल-खजाना और खेमा वगैरह कुमार के हाथ लगा। जब कुमार निश्चित हुए उन्होंने देवीसिंह से पूछा, ''क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे जिन्होंने हमारी मदद की?'' देवीसिंह ने कहा, ''मेरे कुछ भी ख्याल में नहीं आता, मगर वाह! बहादुरी इसको कहते हैं!!'' इतने में एक जासूस ने आकर खबर दी कि दुश्मन थोड़ी दूर जाकर अटक गये हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

छठवां बयान

तेजसिंह चंद्रकान्ता और चपला का पता लगाने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह से बिदा हो फौज के हाते के बाहर आये और सोचने लगे कि अब किधर जायं, कहां ढूंढें? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहां चंद्रकान्ता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनार ही चलना ठीक है। यह सोचकर चुनार ही की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सबेरे वहां पहुंचे। सूरत बदलकर इधर-उधर घूमने लगे। जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फिक्र करते थे मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई। रात को तेजसिंह सूरत बदल किले के अंदर घुस गये और इधर-उधर ढूंढने लगे। घूमते-घूमते मौका पाकर वे एक काले कपड़े से अपने बदन को ढांक कमंद फेंक महल पर चढ़ गये। इस समय आधीी रात जा चुकी होगी। छत पर से तेजसिंह ने झांककर देखा तो सन्नाटा मालूम पड़ा मगर रोशनी खूब हो रही थी। तेजसिंह नीचे उतरे और एक दलान में खड़े होकर देखने लगे। सामने एक बड़ा कमरा था जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों से सजा हुआ था। रोशनी ज्यादे न थी सिर्फ शमादान जल रहे थे, बीच में ऊंची मसनद पर एक औरत सो रही थी। चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं। तेजसिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहां तक कि सिर्फ उस कमरे में एक रोशनी रह गई और सब बुझ गईं। अब तेजसिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाजे पर खड़े होकर देखा तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था। तमाम बदन शबनमी से ढंका हुआ मगर खूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब कुछ हिस्सा मुंह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था, गोरा रंग, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुलकर आ पड़ी थी जो बहुत ही भली मालूम होती थी। आंख के पास शायद किसी जख्म का घाव था मगर यह भी भला मालूम होता था। तेजसिंह को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही है। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा कागज का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा-

''न मालूम क्यों इस वक्त मेरा जी चंद्रकान्ता से मिलने को चाहता है। जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूं। रास्ते और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है।''

बाद इसके पलंग के पास जा बेहोशी का धतुरा रानी की नाक के पास ले गये जो सांस लेती दफे उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गई। तेजसिंह ने नाक पर हाथ रखकर देखा, बेहोशी की सांस चल रही थी, झट रानी को तो कपड़े में बांधा और पुर्जा जो लिखा था वह तकिए के नीचे रख वहां से उसी कमंद के जरिए से बाहर हुए और गंगा किनारे वाली खिड़की जो भीतर से बंद थी, खोलकर तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गये। बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज्यादे बेहोश करके रख दिया और फिर लौटकर किले के दरवाजे पर आ एक तरफ किनारे छिपकर बैठ गये।

सातवां बयान

अब सबेरा हुआ ही चाहता है। महल में लौंडियों की आंखें खुलीं तो महारानी को न देखकर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं। आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा। यह खबर बाहर तक फैल गई, सबों को फिक्र पैदा हुई। महाराज शिवदत्तसिंह लड़ाई से भागे हुए दस-पंद्रह सवारों के साथ चुनार पहुंचे, किले के अंदर घुसते ही मालूम हुआ कि महल में से महारानी गायब हो गईं। सुनते ही जान सूख गई, दोहरी चपेट बैठी, धाड़धाड़ाते हुए महल में चले आये, देखा कि कुहराम मचा हुआ है, चारों तरफ से रोने की आवाज आ रहीहै।

इस वक्त महाराज शिवदत्त की अजब हालत थी, हवास ठिकाने नहीं थे, लड़ाई से भागकर थोड़ी दूर पर फौज को तो छोड़ दिया था और अब ऐयारों को कुछ समझा-बुझा आप चुनार चले आये थे, यहां यह कैफियत देखी। आखिर उदास होकर महारानी के बिस्तरे के पास आये और बैठकर रोने लगे। तकिये के नीचे से एक कागज का कोना निकला हुआ दिखाई पड़ा जिसे महाराज ने खोला, देखा कुछ लिखा है। यह कागज वही था जिसे तेजसिंह ने लिखकर रख दिया था। अब उस पुर्जे को देख महाराज कई तरह की बातें सोचने लगे। एक तो महारानी का लिखा नहीं मालूम होता है, उनके अक्षर इतने साफ नहीं हैं। फिर किसने लिखकर रख दिया? अगर रानी ही का लिखा है तो उन्हें यह कैसे मालूम हुआ कि चंद्रकान्ता फलाने जगह छिपाई गई है? अब क्या किया जाय? कोई ऐयार भी नहीं जिसको पता लगाने के लिए भेजा जाय। अगर किसी दूसरे को वहां भेजूं जहां चंद्रकान्ता कैद है तो बिल्कुल भण्डा फूट जाय।

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें देर तक महाराज सोचते रहे। आखिर जी में यही आया कि चाहे जो हो मगर एक दफे जरूर उस जगह जाकर देखना चाहिए जहां चंद्रकान्ता कैद है। कोई हर्ज नहीं अगर हम अकेले जाकर देखें, मगर दिन में नहीं, शाम हो जाय तो चलें। यह सोचकर बाहर आये और अपने दीवानखाने में भूखे-प्यासे चुपचाप बैठे रहे, किसी से कुछ न कहा मगर बिना हुक्म महाराज के बहुत से आदमी महारानी का पता लगाने जा चुके थे।

शाम होने लगी, महाराज ने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो अकेले ही किले के बाहर निकले और पूरब की तरफ रवाना हुए। अब बिल्कुल शाम बल्कि रात हो गई, मगर चांदनी रात होने के सबब साफ दिखाई देता था। तेजसिंह जो किले के दरवाजे के पास ही छिपे हुए थे, महाराज शिवदत्त को अकेले घोड़े पर जाते देख साथ हो लिये। तीन कोस तक पीछे-पीछे तेजी के साथ चले गये मगर महाराज को यह न मालूम हुआ कि साथ-साथ कोई छिपा हुआ आ रहा है। अब महाराज ने अपने घोड़े को एक नाले में चलाया जो बिल्कुल सूखा पड़ा था। जैसे-जैसे आगे जाते थे नाला गहरा मिलता जाता था और दोनों तरफ के पत्थर के करारे ऊंचे होते जाते थे। दोनों तरफ बड़ा भारी डरावना जंगल तथा बड़े-बड़े साखू तथा आसन के पेड़ थे। खूनी जानवरों की आवाजें कान में पड़ रही थीं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते थे करारे ऊंचे और नाले के किनारे वाले पेड़ आपस में ऊपर से मिलते जाते थे।

इसी तरह से लगभग एक कोस चले गये। अब नाले में चंद्रमा की चांदनी बिल्कुल नहीं मालूम होती क्योंकि दोनों तरफ से दरख्त आपस में बिल्कुल मिल गये थे। अब वह नाला नहीं मालूम होता बल्कि कोई सुरंग मालूम होती है। महाराज का घोड़ा पथरीली जमीन और अंधेरा होने के सबब धीर - धीर जाने लगा, तेजसिंह बढ़कर महाराज के और पास हो गये। यकायक कुछ दूर पर एक छोटी-सी रोशनी नजर पड़ी जिससे तेजसिंह ने समझा कि शायद यह रास्ता यहीं तक आने का है और यही ठीक भी निकला। जब रोशनी के पास पहुंचे देखा कि एक छोटी-सी गुफा है जिसके बाहर दोनों तरफ लंबे-लंबे ताकतवर सिपाही नंगी तलवार हाथ में लिए पहरा दे रहे हैं जो बीस के लगभग होंगे। भीतर भी साफ दिखाई देता था कि दो औरतें पत्थरों पर ढासना लगाये बैठी हैं। तेजसिंह ने पहचान तो लिया कि दोनों चंद्रकान्ता और चपला हैं मगर सूरत साफ-साफ नहीं नजर पड़ी।

महाराज को देखकर सिपाहियों ने पहचाना और एक ने बढ़कर घोड़ा थाम लिया, महाराज घोड़े पर से उतर पड़े। सिपाहियों ने दो मशाल जलाये जिनकी रोशनी में तेजसिंह को अब साफ चंद्रकान्ता और चपला की सूरत दिखाई देने लगी। चंद्रकान्ता का मुंह पीला हो रहा था, सिर के बाल खुले हुए थे, और सिर फटा हुआ था। मिट्टी में सनी हुई बदहवास एक पत्थर से लगी पड़ी थी और चपला बगल में एक पत्थर के सहारे उठंगी हुई चंद्रकान्ता के सिर पर हाथ रखे बैठी थी। सामने खाने की चीजें रखी हुई थीं जिनके देखने ही से मालूम होता था कि किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं। इन दोनों की सूरत से नाउम्मीदी बरस रही थी जिसे देखते ही तेजसिंह की आंखों से आंसू निकल पड़े।

महाराज ने आते ही इधर-उधर देखा। जहां चंद्रकान्ता बैठी थी वहां भी चारों तरफ देखा, मगर कुछ मतलब न निकला क्योंकि वह तो रानी को खोजने आये थे, उस पुर्जे पर जो रानी के बिस्तर पर पाया था महाराज को बड़ी उम्मीद थी मगर कुछ न हुआ, किसी से कुछ पूछा भी नहीं, चंद्रकान्ता की तरफ भी अच्छी तरह नहीं देखा और लौटकर घोड़े पर सवार हो पीछे फिरे। सिपाहियों को महाराज के इस तरह आकर फिर जाने से ताज्जुब हुआ मगर पूछता कौन? मजाल किसकी थी? तेजसिंह ने जब महाराज को फिरते देखा तो चाहा कि वहीं बगल में छिप रहें, मगर छिप न सके क्योंकि नाला तंग था और ऊपर चढ़ जाने को भी कहीं जगह न थी, लाचार नाले के बाहर होना ही पड़ा। तेजी के साथ महाराज के पहले नाले के बाहर हो गये और एक किनारे छिप रहे। महाराज वहां से निकल शहर की तरफ रवाना हुए।

अब तेजसिंह सोचने लगे कि यहां से मैं अकेले चंद्रकान्ता को कैसे छुड़ा सकूंगा। लड़ने का मौका नहीं, करूं तो क्या करूं? अगर महाराज की सूरत बन जाऊं और कोई तरकीब करूं तो भी ठीक नहीं होता क्योंकि महाराज अभी यहां से लौटे हैं, दूसरी कोई तरकीब करूं और काम न चले, बैरी को मालूम हो जाय, तो यहां से फिर चंद्रकान्ता दूसरी जगह छिपा दी जायगी तब और भी मुश्किल होगी। इससे यही ठीक है कि कुमार के पास लौट चलूं और वहां से कुछ आदमियों को लाऊं क्योंकि इस नाले में अकेले जाकर इन लोगों का मुकाबला करना ठीक नहीं है।

यही सब-कुछ सोच तेजसिंह विजयगढ़ की तरफ चले, रात भर चले गये, दूसरे दिन दोपहर को वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। कुमार ने तेजसिंह को गले लगाया और बेताबी के साथ पूछा, ''क्यों कुछ पता लगा?'' जवाब में 'हां' सुनकर कुमार बहुत खुश हुए और सभी को बिदा किया, केवल कुमार, देवीसिंह, फतहसिंह सेनापति और तेजसिंह रह गये। कुमार ने खुलासा हाल पूछा, तेजसिंह ने सब हाल कह सुनाया और बोले, ''अगर किसी दूसरे को छुड़ाना होता या किसी गैर को पकड़ना होता तो मैं अपनी चालाकी कर गुजरता, अगर काम बिगड़ जाता तो भाग निकलता, मगर मामला चंद्रकान्ता का है जो बहुत सुकुमार है। न तो मैं अपने हाथ से उसकी गठड़ी बांधा सकता हूं और न किसी तरह की तकलीफ दिया चाहता हूं। होना ऐसा चाहिए कि वार खाली न जाय। मैं सिर्फ देवीसिंह को लेने आया हूं और अभी लौट जाऊंगा, मुझे मालूम हो गया कि आपने महाराज शिवदत्त पर फतह पाई है। अभी कोई हर्ज भी देवीसिंह के बिना आपका न होगा।''

कुमार ने कहा, ''देवीसिंह भी चलें और मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं, क्योंकि यहां तो अभी लड़ाई की कोई उम्मीद नहीं और फिर फतहसिंह हैं ही और कोई हर्ज भी नहीं।'' तेजसिंह ने कहा, ''अच्छी बात है आप भी चलिये।'' यह सुनकर कुमार उसी वक्त तैयार हो गये और फतहसिंह को बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर शाम होते-होते वहां से रवाना हुए। कुमार घोड़े पर, तेजसिंह और देवीसिंह पैदल कदम बढ़ाते चले। रास्ते में कुमार ने शिवद्त्तसिंह पर फतह पाने का हाल बिल्कुल कहा और उन सवारों का हाल भी कहा जो मुंह पर नकाब डाले हुए थे और जिन्होंने बड़े वक्त पर मदद की थी। उनका हाल सुनकर तेजसिंह भी हैरान हुए मगर कुछ ख्याल में न आया कि वे नकाबपोश कौन थे।

यही सब सोचते जा रहे थे, रात चांदनी थी, रास्ता साफ दिखाई दे रहा था, कुल चार कोस के लगभग गए होंगे कि रास्ते में पं. बद्रीनाथ अकेले दिखाई पड़े और उन्होंने भी कुमार को देख पास आ सलाम किया। कुमार ने सलाम का जवाब हंसकर दिया। देवीसिंह ने कहा, ''अजी बद्रीनाथजी, आप क्या उस डरपोक गीदड़ दगाबाज और चोर का संग किए हैं! हमारे दरबार में आइए, देखिए हमारा सरदार क्या शेरदिल और इंसाफपसंद है।'' बद्रीनाथ ने कहा, ''तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और एक दिन ऐसा ही होगा, मगर जब तक महाराज शिवदत्त से मामला तै नहीं होता मैं कब आपके साथ हो सकता हूं और अगर हो भी जाऊं तो आप लोग कब मुझ पर विश्वास करेंगे, आखिर मैं भी ऐयार हूं!'' इतना कह और कुमार को सलाम कर जल्दी दूसरा रास्ता पकड़ एक घने जंगल में जा नजर से गायब हो गये। तेजसिंह ने कुमार से कहा, ''रास्ते में बद्रीनाथ का मिलना ठीक न हुआ, अब वह जरूर इस बात की खोज में होगा कि हम लोग कहां जाते हैं।'' देवीसिंह ने कहा, ''हां इसमें कोई शक नहीं कि यह सगुन खराब हुआ।'' यह सुनकर कुमार का कलेजा धाड़कने लगा। बोले, ''फिर अब क्या किया जाय?'' तेजसिंह ने कहा, ''इस वक्त और कोई तरकीब तो हो नहीं सकती है, हां एक बात है कि हम लोग जंगल का रास्ता छोड़ मैदान-मैदान चलें। ऐसा करने से पीछे का आदमी आता हुआ मालूम होगा।'' कुमार ने कहा, ''अच्छा तुम आगे चलो।''

अब वे तीनों जंगल छोड़ मैदान में हो लिए। पीछे फिर-फिर के देखते जाते थे मगर कोई आता हुआ मालूम न पड़ा। रात भर बेखटके चलते गए। जब दिन निकला एक नाले के किनारे तीनों आदमियों ने बैठ जरूरी कामों से छुट्टी पा स्नान-संध्या किया और फिर रवाना हुए। पहर दिन चढ़ते-चढ़ते एक बड़े जंगल में ये लोग पहुंचे 1 जहां से वह नाला जिसमें चंद्रकान्ता और चपला थीं, दो कोस बाकी था। तेजसिंह

1. चुनार जाने का ठीक रास्ता भी था मगर तेजसिंह कुमार को लिए हुए जंगल और पहाड़ी रास्ते से गए थे।

ने कहा, ''दिन इसी जंगल में बिताना चाहिए। शाम हो जाय तो वहां चलें, क्योंकि काम रात ही में ठीक होगा।'' यह कह एक बहुत बड़े सलई के पेड़ तले डेरा जमाया। कुमार के वास्ते जीनपोश बिछा दिया, घोड़े को खोल गले में लंबी रस्सी डाल एक पेड़ से बांधा चरने के लिए छोड़ दिया। दिन भर बातचीत और तरकीब सोचने में गुजर गया, सूरज अस्त होने पर ये लोग वहां से रवाना हुए। थोड़ी ही देर में उस नाले के पास जा पहुंचे, पहले दूर ही खड़े होकर चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा, जब किसी की आहट न मिली तब नाले में घुसे।

कुमार इस नाले को देख बहुत हैरान हुए और बोले, ''अजब भयानक नाला है!'' धीरे- धीरे आगे बढ़े, जब नाले के आखिर में पहुंचे जहां पहले दिन तेजसिंह ने चिराग जलते देखा था तो वहां अंधेरा पाया। तेजसिंह का माथा ठनका कि यह क्या मामला है। आखिर उस कोठरी के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें कुमारी और चपला थीं। देखा कि कई आदमी जमीन पर पड़े हैं। अब तो तेजसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल रोशनी की जिससे साफ मालूम हुआ कि जितने पहरे वाले पहले दिन देखे थे, सब जख्मी होकर मरे पड़े हैं। अंदर घुसे, कुमारी और चपला का पता नहीं, हां दोनों के गहने सब टूटे-फूटे पड़े थे और चारों तरफ खून जमा हुआ था। कुमार से न रहा गया, एकदम 'हाय' करके गिर पड़े और आंसू बहाने लगे। तेजसिंह समझाने लगे कि ''आप इतने बेताब क्यों हो गये। जिस ईश्वर ने यहां तक हमें पहुंचाया वही फिर उस जगह पहुंचायेगा जहां कुमारी है!'' कुमार ने कहा, ''भाई, अब मैं चंद्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गया, जरूर वह परलोक को गई।'' तेजसिंह ने कहा, ''कभी नहीं, अगर ऐसा होता तो इन्हीं लोगों में वह भी पड़ी होती।'' देवीसिंह बोले, ''कहीं बद्रीनाथ की चालाकी तो नहीं भाई!'' उन्होंने जवाब दिया, ''यह बातभी जी में नहीं बैठती, भला अगर हम यह भी समझ लें कि बद्रीनाथ की चालाकी हुई तो इन प्यादों को मारने वाला कौन था? अजब मामला है, कुछ समझ में नहीं आता। खैर कोई हर्ज नहीं, वह भी मालूम हो जायगा, अब यहां से जल्दी चलना चाहिए।''

कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इस वक्त कैसी हालत थी उसका न कहना ही ठीक है। बहुत समझा-बुझाकर वहां से कुमार को उठाया और नाले के बाहर लाये। देवीसिंह ने कहा, ''भला वहां तो चलो जहां तुमने शिवदत्त की रानी को रखा है।'' तेजसिंह ने कहा चलो। तीनों वहां गये, देखा कि महारानी कलावती भी वहां नहीं है, और भी तबीयत परेशान हुई।

आधी रात से ज्यादा जा चुकी थी, तीनों आदमी बैठे सोच रहे थे कि यह क्या मामला हो गया। यकायक देवीसिह बोले, ''गुरुजी, मुझे एक तरकीब सूझी है जिसके करने से यह पता लग जायगा कि क्या मामला है। आप ठहरिए, इसी जगह आराम कीजिए मैं पता लगाता हूं, अगर बन पड़ेगा तो ठीक पता लगाने का सबूत भी लेता आऊंगा।'' तेजसिंह ने कहा, ''जाओ तुम ही कोई तारीफ का काम करो, हम दोनों इसी जंगल में रहेंगे।'' देवीसिंह एक देहाती पंडित की सूरत बना रवाना हुए। वहां से चुनार करीब ही था, थोड़ी देर में जा पहुंचे। दूर से देखा कि एक सिपाही टहलता हुआ पहरा दे रहा है। एक शीशी हाथ में ले उसके पास गये और एक अशर्फी दिखाकर देहाती बोली में बोले, ''इस अशर्फी को आप लीजिए और इस इत्र को पहचान दीजिए कि किस चीज का है। हम देहात के रहने वाले हैं, वहां एक गंधी गया और उसने यह इत्र दिखाकर हमसे कहा कि 'अगर इसको पहचान दो तो हम पांच अशर्फी तुमको दें' सो हम देहाती आदमी क्या जानें कौन चीज का इत्र है, इसलिए रातों-रात यहां चले आए, परमेश्वर ने आपको मिला दिया है, आप राजदरबार के रहने वाले ठहरे, बहुत इत्र देखा होगा, इसको पहचान के बता दीजिए तो हम इसी समय लौट के गांव पहुंच जायं, सबेरे ही जवाब देने का उस गंधी से वादा है।'' देवीसिंह की बात सुन और पास ही एक दुकान के दरवाजे पर जलते हुए चिराग की रोशनी में अशर्फी को देख खुश हो वह सिपाही दिल में सोचने लगा कि अजब बेवकूफ आदमी से पाला पड़ा है। मुफ्त की अशर्फी मिलती है ले लो, जो कुछ भी जी में आवे बता दो, क्या कल मुझसे अशर्फी फेरने आयेगा? यह सोच अशर्फी तो अपने खलीते में रख ली और कहा, ''यह कौन बड़ी बात है, हम बता देते हैं!'' उस शीशी का मुंह खोलकर सूंघा, बस फिर क्या था सूंघते ही जमीन पर लेट गया, दीन दुनिया की खबर न रही, बेहोश होने पर देवीसिंह उस सिपाही की गठरी बांधा तेजसिंह के पास ले आये और कहा कि ''यह किले का पहरा देने वाला है, पहले इससे पूछ लेना चाहिए, अगर काम न चलेगा तो फिर दूसरी तरकीब की जायगी।'' यह कह उस सिपाही को होश में लाये। वह हैरान हो गया कि यकायक यहां कैसे आ फंसे, देवीसिंह को उसी देहाती पंडित की सूरत में सामने खड़े देखा, दूसरी ओर दो बहादुर और दिखाई दिये, कुछ कहा ही चाहता था कि देवीसिंह ने पूछा, ''यह बताओ कि तुम्हारी महारानी कहां हैं? बताओ जल्दी!'' उस सिपाही ने हाथ-पैर बंधे रहने पर भी कहा कि ''तुम महारानी को पूछने वाले कौन हो, तुम्हें मतलब?'' तेजसिंह ने उठकर एक लात मारी और कहा, ''बताता है कि मतलब पूछता है।'' अब तो उसने बेउज्र कहना शुरू कर दिया कि ''महारानी कई दिनों से गायब हैं, कहीं पता नहीं लगता, महल में गुल-गपाड़ा मचा हुआ है, इससे ज्यादे कुछ नहीं जानते।''

तेजसिंह ने कुमार से कहा, ''अब पता लगाना कई रोज का काम हो गया, आप अपने लश्कर में जाइये, मैं ढूंढने की फिक्र करता हूं।'' कुमार ने कहा, ''अब मैं लश्कर में न जाऊंगा।'' तेजसिंह ने कहा, ''अगर आप ऐसा करेंगे तो भारी आफत होगी, शिवदत्त को यह खबर लगी तो फौरन लड़ाई शुरू कर देगा, महाराज जयसिंह यह हाल पाकर और भी घबड़ा जायेंगे, आपके पिता सुनते ही सूख जायेंगे।'' कुमार ने कहा, ''चाहे जो हो, जब चंद्रकान्ता ही नहीं है तो दुनिया में कुछ हो मुझे क्या परवाह!'' तेजसिंह ने बहुत समझाया कि ऐसा न करना चाहिए, आप धीरज न छोड़िये, नहीं तो हम लोगों का भी जी टूट जायगा, फिर कुछ न कर सकेंगे। आखिर कुमार ने कहा, ''अच्छा कल भर हमको अपने साथ रहने दो, कल तक अगर पता न लगा तो हम लश्कर में चले जायेंगे और फौज लेकर चुनार पर चढ़ जायेंगे। हम लड़ाई शुरू कर देंगे, तुम चंद्रकान्ता की खोज करना।'' तेजसिंह ने कहा, ''अच्छा यही सही।'' ये सब बातें इस तौर पर हुई थीं कि उस सिपाही को कुछ भी नहीं मालूम हुआ जिसको देवीसिंह पकड़ लाये थे।

तेजसिंह ने उस सिपाही को एक पेड़ के साथ कस के बांधा दिया और देवीसिंह से कहा, ''अब तुम यहां कुमार के पास ठहरो मैं जाता हूं और जो कुछ हाल है पता लगा लाता हूं।'' देवीसिंह ने कहा, ''अच्छा जाइये।'' तेजसिंह ने देवीसिंह से कई बातें पूछीं और उस सिपाही का भेष बना किले की तरफ रवाना हुए।''

आठवां बयान

जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बांधा था वह बहुत ही घना था। वहां जल्दी किसी की पहुंच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। सबेरा हुआ ही चाहता था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा। ये दोनों ताज्जुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया मगर किसी को लगा नहीं। देवीसिंह ने जोर से आवाज दी, ''कौन है जो छिपकर पत्थर मारता है, सामने क्यों नहीं आता है?'' जवाब में आवाज आई, ''शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है!'' यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर उठ खड़े हुए। देवीसिंह ने हाथ पकड़कर कहा, ''आप क्यों गुस्सा करते हैं, मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूं, वह है क्या चीज?'' यह कह देवीसिंह उस तरफ गये जिधर से आवाज आई थी। इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुंचा जिसे देख देवीसिंह तेजी के साथ आगे बढ़े। एक आदमी दिखाई पड़ा मगर घने पेड़ों में अंधॆरा ज्यादे होने के सबब उसकी सूरत नहीं नजर आई। वह देवीसिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मारकर भागा। देवीसिंह भी उसके पीछे दौड़े मगर वह कई दफे इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगाकर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया। देवीसिंह भी इधर-उधर खोजने लगे, यहां तक कि सबेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा। आखिर लाचार होकर देवीसिंह उस जगह फिर आये जिस जगह कुमार को छोड़ गये थे। देखा तो कुमार नहीं। इधर-उधर देखा कहीं पता नहीं। उस सिपाही के पास आये जिसको पेड़ के साथ बांधा दिया था, देखा तो वह भी नहीं। जी उड़ गया, आंखों में आंसू भर आये, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे-अब क्या करें, किधर ढूंढें, कहां जायें! अगर ढूंढते-ढूंढते कहीं दूर निकल गये और इधर तेजसिंह आये और हमको न देखा तो उनकी क्या दशा होगी? इन सब बातों को सोच देवीसिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भालकर फिर उसी जगह चले आये और तेजसिंह की राह देखने लगे। बीच-बीच में इस तरह कई दफे देवीसिंह ने उठ-उठकर खोज की मगर कुछ काम न निकला।

Re: चंद्रकांता

Posted: 29 Dec 2014 19:31
by Jemsbond
नौवां बयान

तेजसिंह पहरे वाले सिपाही की सूरत में किले के दरवाजे पर पहुंचे। कई सिपाहियों ने जो सबेरा हो जाने के सबब जाग उठे थे तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, ''जैरामसिंह, तुम कहां चले गये थे? यहां पहरे में गड़बड़ पड़ गया। बद्रीनाथजी ऐयार पहरे की जांच करने आये थे, तुम्हारे कहीं चले जाने का हाल सुनकर बहुत खफा हुए और तुम्हारा पता लगाने के लिए आप ही कहीं गए हैं, अभी तक नहीं आये। तुम्हारे सबब से हम लोगों पर खफगी हुई!'' जैरामसिंह (तेजसिंह) ने कहा, ''मेरी तबीयत खराब हो गई थी, हाजत मालूम हुई इस सबब से मैदान चला गया, वहां कई दस्त आये जिससे देर हो गई और फिर भी कुछ पेट में गड़बड़ मालूम पड़ता है। भाई, जान है तो जहान है, चाहे कोई रंज हो या खुश हो यह जरूरत तो रोकी नहीं जाती, मैं फिर जाता हूं और अभी आता हूं।'' यह कह नकली जैरामसिंह तुरंत वहां से चलता बना।

पहरे वालों से बातचीत करके तेजसिंह ने सुन लिया कि बद्रीनाथ यहां आये थे और उनकी खोज में गये हैं, इससे वे होशियार हो गए। सोचा कि अगर हमारे यहां होते बद्रीनाथ लौट आवेंगे तो जरूर पहचान जायेंगे, इससे यहां ठहरना मुनासिब नहीं। आखिर थोड़ी दूर जा एक भिखमंगे की सूरत बना सड़क किनारे बैठ गए और बद्रीनाथ के आने की राह देखने लगे। थोड़ी देर गुजरी थी कि दूर से बद्रीनाथ आते दिखाई पड़े, पीछे-पीछे पीठ पर गट्ठर लादे नाज़िम था जिसके पीछे वह सिपाही भी था जिसकी सूरत बना तेजसिंह आए थे।

तेजसिंह इस ठाठ से बद्रीनाथ को आते देख चकरा गए। जी में सोचने लगे कि ढंग बुरे नजर आते हैं। इस सिपाही को जो पीछे-पीछे चला आता है मैं पेड़ के साथ बांधा आया था, उसी जगह कुमार और देवीसिंह भी थे। बिना कुछ उपद्रव मचाये इस सिपाही को ये लोग नहीं पा सकते थे। जरूर कुछ न कुछ बखेड़ा हुआ है। जरूर उस गट्ठर में जो नाज़िम की पीठ पर है, कुमार होंगे या देवीसिंह, मगर इस वक्त बोलने का मौका नहीं, क्योंकि यहां सिवाय इन लोगों के हमारी मदद करने वाला कोई न होगा। यह सोचकर तेजसिंह चुपचाप उसी जगह बैठे रहे। जब ये लोग गट्ठर लिए किले के अंदर चले गए तब उठकर उस तरफ का रास्ता लिया जहां कुमार और देवीसिंह को छोड़ आये थे। देवीसिंह उसी जगह पत्थर पर उदास बैठे कुछ सोच रहे थे कि तेजसिंह आ पहुंचे। देखते ही देवीसिंह दौड़कर पैरों पर गिर पड़े और गुस्से भरी आवाज में बोले, ''गुरुजी कुमार तो दुश्मनों के हाथ पड़ गए!''

तेजसिंह पत्थर पर बैठ गए और बोले, ''खैर खुलासा हाल कहो क्या हुआ!'' देवीसिंह ने जो कुछ बीता था सब हाल कह सुनाया। तेजसिंह ने कहा, ''देखो आजकल हम लोगों का नसीब कैसा उल्टा हो रहा है, फिक्र चारों तरफ की ठहरी मगर करें तो क्या करें? बेचारी चंद्रकान्ता और चपला न मालूम किस आफत में फंस गईं और उनकी क्या दशा होगी इसकी फिक्र तो थी ही मगर कुमार का फंसना तो गजब हो गया।'' थोड़ी देर तक देवीसिंह और तेजसिंह बातचीत करते रहे, इसके बाद उठकर दोनों ने एक तरफ का रास्ता लिया।

दसवां बयान

चुनार के किले के अंदर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अंदर जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाजे के सहारे उदास मुख वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। पहरे पर कई औरतें कमर से छुरा बांधो टहल रही हैं। कुमार धीरे-धीरे भुनभुना रहे हैं, ''हाय चंद्रकान्ता का पता लगा भी तो किसी काम का नहीं, भला पहले तो यह मालूम हो गया था कि शिवदत्त चुरा ले गया, मगर अब क्या कहा जाय! हाय, चंद्रकान्ता, तू कहां है? मुझको बेड़ी और यह कैद कुछ तकलीफ नहीं देती जैसा तेरा लापता हो जाना खटक रहा है। हाय, अगर मुझको इस बात का यकीन हो जाय कि तू सही-सलामत है और अपने मां-बाप के पास पहुंच गई तो इसी कैद में भूखे-प्यासे मर जाना मेरे लिए खुशी की बात होगी मगर जब तक तेरा पता नहीं लगता जिंदगी बुरी मालूम होती है। हाय, तेरी क्या दशा होगी, मैं कहां ढूढूं! यह हथकड़ी-बेड़ी इस वक्त मेरे साथ कटे पर नमक का काम का रही है। हाय, क्या अच्छी बात होती अगर इस वक्त कुमारी की खोज में जंगल-जंगल मार-मारा फिरता, पैरों में कांटे गड़े होते, खून निकलता होता, भूख-प्यास लगने पर भी खाना-पीना छोड़कर उसी का पता लगाने की फिक्र होती। हे ईश्वर! तूने कुछ न किया, भला मेरी हिम्मत को तो देखा होता कि इश्क की राह में कैसा मजबूत हूं, तूने तो मेरे हाथ-पैर ही जकड़ डाले। हाय, जिसको पैदा करके तूने हर तरह का सुख दिया उसका दिल दुखाने और उसको खराब करने में तुझे क्या मजा मिलता है?''

ऐसी-ऐसी बातें करते हुए कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंखों से आंसू जारी थे और लंबी-लंबी सांसें ले रहे थे। आधी रात के लगभग जा चुकी थी। जिस कोठरी में कुमार कैद थे उसके सामने सजे हुए दलान में चार-पांच शीशे जल रहे थे, कुमार का जी जब बहुत घबड़ाया सर उठाकर उस तरफ देखने लगे। एकबारगी पांच-सात लौंडियां एक तरफ से निकल आईं और हांडी, ढोल, दीवारगीर, झाड़, बैठक, कंवल, मृदंगी वगैरह शीशों को जलाया जिनकी रोशनी से एकदम दिन-सा हो गया। बाद इसके दलान के बीचोंबीच बेशकीमती गद्दी बिछाई और तब सब लौंडियां खड़ी होकर एकटक दरवाजे की तरफ देखने लगीं, मानो किसी के आने का इंतजार कर रही हैं। कुमार बड़े गौर से देख रहे थे, क्योंकि इनको इस बात का बड़ा ताज्जुब था कि वे महल के अंदर जहां मर्दों की बू तक नहीं जा सकती क्यों कैद किये गये और इसमें महाराज शिवदत्त ने क्या फायदा सोचा!

थोड़ी देर बाद महाराज शिवदत्त अजब ठाठ से आते दिखाई पड़े, जिसको देखते ही वीरेन्द्रसिंह चौंक पड़े। अजब हालत हो गई, एकटक देखने लगे। देखा कि महाराज शिवदत्त के दाहिनी तरफ चंद्रकान्ता और बाईं तरफ चपला, दोनों के हाथों में हाथ दिये धीरे- धीरे आकर उस गद्दी पर बैठ गये जो बीच में बिछी हुई थी। चंद्रकान्ता और चपला भी दोनों तरफ सटकर महाराज के पास बैठ गईं!

चंद्रकान्ता और कुमार का साथ तो लड़कपन ही से था मगर आज चंद्रकान्ता की खूबसूरती और नजाकत जितनी बढ़ी-चढ़ी थी इसके पहले कुमार ने कभी नहीं देखी थी। सामने पानदान, इत्रदान वगैरह सब सामान ऐश का रखा हुआ था।

यह देख कुमार की आंखों में खून उतर आया, जी में सोचने लगे, ''यह क्या हो गया! चंद्रकान्ता इस तरह खुशी-खुशी शिवदत्त के बगल में बैठी हुई हाव-भाव कर रही है, यह क्या मामला है? क्या मेरी मुहब्बत एकदम उसके दिल से जाती रही, साथ ही मां-बाप की मुहब्बत भी बिल्कुल उड़ गई? जिसमें मेरे सामने उसकी यह कैफियत है! क्या वह यह नहीं जानती कि उसके सामने ही मैं इस कोठरी में कैदियों की तरह पड़ा हुआ हूं? जरूर जानती है, वह देखो मेरी तरफ तिरछी आंखों से देख मुंह बिचका रही है। साथ ही इसके चपला को क्या हो गया जो तेजसिंह पर जी दिये बैठी थी और हथेली पर जान रख इसी महाराज शिवदत्त को छकाकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई थी। उस वक्त महाराज शिवदत्त की मुहब्बत इसको न हुई और आज इस तरह अपनी मालकिन चंद्रकान्ता के साथ बराबरी दर्जे पर शिवदत्त के बगल में बैठी है! हाय-हाय, स्त्रियों का कुछ ठिकाना नहीं, इन पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है। हाय! क्या मेरी किस्मत में ऐसी ही औरत से मुहब्बत होनी लिखी थी। ऐसे ऊंचे कुल की लड़की ऐसा काम करे। हाय, अब मेरा जीना व्यर्थ है, मैं जरूर अपनी जान दे दूंगा, मगर क्या चंद्रकान्ता और चपला को शिवदत्त के लिए जीता छोड़ दूंगा? कभी नहीं। यह ठीक है कि वीर पुरुष स्त्रियों पर हाथ नहीं छोड़ते, पर मुझको अब अपनी वीरता दिखानी नहीं, दुनिया में किसी के सामने मुंह करना नहीं है, मुझको यह सब सोचने से क्या फायदा? अब यही मुनासिब है कि इन दोनों को मार डालना और पीछे अपनी भी जान दे देनी। तेजसिंह भी जरूर मेरा साथ देंगे, चलो अब बखेड़ा ही तय कर डालो!!''

इतने में इठलाकर चंद्रकान्ता ने महाराज शिवदत्त के गले में हाथ डाल दिया, अब तो वीरेन्द्रसिंह सह न सके। जोर से झटका दे हथकड़ी तोड़ डाली, उसी जोश में एक लात सींखचे वाले किवाड़ में भी मारी और पल्ला गिरा शिवदत्त के पास पहुंचे। उनके सामने जो तलवार रखी थी उसे उठा लिया और खींच के एक हाथ चंद्रकान्ता पर ऐसा चलाया कि खट से सर अलग जा गिरा और धाड़ तड़पने लगा, जब तक महाराज शिवदत्त सम्हलें तब तक चपला के भी दो टुकड़े कर दिये, मगर महाराज शिवदत्त पर वार न किया।

महाराज शिवदत्त सम्हलकर उठ खड़े हुए, यकायकी इस तरह की ताकत और तेजी कुमार की देख सकते में हो गये, मुंह से आवाज तक न निकली, जवांमर्दी हवा खाने चली गई, सामने खड़े होकर कुमार का मुंह देखने लगे।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह खून भरी नंगी तलवार लिये खड़े थे कि तेजसिंह और देवीसिंह धाम्म से सामने आ मौजूद हुए। तेजसिंह ने आवाज दी, ''वाह शाबास, खूब दिल को सम्हाला।'' यह कह झट से महाराज शिवदत्त के गले में कमंद डाल झटका दिया। शिवदत्त की हालत पहले ही से खराब हो रही थी, कमंद से गला घुटते ही जमीन पर गिर पड़े। देवीसिंह ने झट गट्ठर बांधा पीठ पर लाद लिया। तेजसिंह ने कुमार की तरफ देखकर कहा, ''मेरे साथ-साथ चले आइये, अभी कोई दूसरी बात मत कीजिये, इस वक्त जो हालत आपकी है मैं खूब जानता हूं।''

इस वक्त सिवाय लौंडियों के कोई मर्द वहां पर नहीं था। इस तरह का खून-खराब देखकर कई तो बदहवास हो गईं बाकी जो थीं उन्होंने चूं तक न किया, एकटक देखती ही रह गईं और ये लोग चलते बने।