Re: चंद्रकांता
Posted: 29 Dec 2014 19:34
पंद्रहवां बयान
चंपा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। जब बहुत दिन हो गये और राजकुमारी चंद्रकान्ता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म लेकर चंपा घर से निकली। जंगल-जंगल पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगी कि अब कहां चलना चाहिए और किस जगह ढूंढना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूं कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊंगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किये मैं विजयगढ़ भी न जाऊंगी चाहे जो हो, देखूं कब तक पता नहीं लगता।
जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाये एक-एक तेगा हाथ में लिये आते दिखाई दिये।
चंपा को देखकर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें कीं जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हंसते, कभी ऊंचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेडॊ के नीचे छाया देखकर बैठ गये।
चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेरकर क्यों बैठ गये और इनका क्या इरादा है? अब यहां बैठना न चाहिए। यह सोचकर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया। दौड़कर घेर लिया और कहा, ''तुम कहां जाती हो? ठहरो, हमारे मालिक दमभर में आया ही चाहते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहां तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी!''
चंपा-मुझे नौकरी की जरूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूं, मैं नहीं ठहर सकती।
एक सिपाही-नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे।
चंपा-होश में आकर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी! खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती!
चंपा की ऐसी बात सुनकर उन लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ, एक का मुंह दूसरा देखने लगा। चंपा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कब पा सकते थे।
चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहां पहुंच गये। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुंचा जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आंखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी। उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाये बर्छी हाथ में लिये, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टांगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोडे पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊंटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था। साथ में कई डोलियां थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिये चले आते थे। दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था पुकारकर कहा, ''इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है।'' जब तक कुछ और कहे तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।
उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सबों का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देखकर कहा, ''हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहां आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडण्डी का जमीन पर दिखाई नहीं देता।''
डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं जो डोलियों पर थीं। चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी। दो लौडियां आईं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी? सबों ने कहा, ''हम बना-बनाया खाएंगे।'' मगर दो औरतों ने कहा, ''हम कुछ न खाएंगे!'' जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियां यह कहकर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो। इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाजुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आंखों से आंसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी सांस ले रही थी। चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी।
पहर रात चली गई, सबों के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इंकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे- धीरे चंपा ने अपने बगल वाली खूबसूरत नाजुक औरत से बातें करना शुरू किया-
चंपा-आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फंस गईं?
औरत-मेरा नाम कलावती है, मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूं, महाराज लड़ाई पर गये थे, उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आंख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूं। तुम कौन हो?
चंपा-हैं, आप चुनार की महारानी हैं! हा, आपकी यह दशा! वाह विधाता तू धन्य है! मैं क्या बताऊं, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चंद्रकान्ता को भी जरूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूं, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।
ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई, ''कौन है? भागा, भागा, निकल गया'' महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आयी। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियां जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सबों से कहा, ''चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ।''
कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात् महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की। पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।
बुङ्ढी-इतनी ही हैं या और भी?
सरदार-बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जायेंगी।
बुङ्ढी-देखिये तो सही, मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हां अब बताइये किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा।
सरदार-देखो ये सब एक मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपये मिलेंगे। (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपये। (महारानी की तरफ बताकर) अगर ऐसी खूबसूरत हो तो पूरे सौ रुपये मिलेंगे, समझ गईं।
बुङ्ढी-हां अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सबों को आपने कैसे पाया।
सरदार-यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाशहै!
बुङ्ढी-इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जायें तो आपका काफिला ही बैकुण्ठ चला जाय!
सरदार-इसमें क्या शक है! और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगाले की रहने वाली है इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपये की लालच में फंसी हैं, और बाकी सबों को मैंने उनकी मां, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बुङ्ढा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।
बुङ्ढी-चलिए।
दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियां दीं-''मुए को देखो, अभी और औरतों को फंसाने की फिक्र में लगा है? न मालूम यह बुङ्ढी इसको कहां से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है! कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हे परमेश्वर इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी!''
चंपा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधो घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। ''हाय, महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे!'' धीरे- धीरे यही कह के रो रही थीं। चंपा उनको समझाने लगी-
''महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जायेंगे। क्या करूं, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूं, किसी तरह यह खुल जातीं तो इन लोगों को मजा चखाती, लाचार हूं कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहां मुश्किल है।''
इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बुङ्ढा सरदार फिर डेरे में आ पहुंचा जिसमें औरतें कैद थीं। साथ में सवेरे वाली बुढ़िया आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिये हुए थी।
बुढ़िया-मिला लीजिये, अव्वल नंबर की है या नहीं?
सरदार-अव्वल नंबर की तो नहीं, हां दूसरे नंबर की जरूर है, पचास रुपये की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं!
बुढ़िया-खैर पचास ही सही, यहां कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊंगी, चलिये।
इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई। वह नई औरत जो आज आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर खुले थे। तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भीखूब लंबे-चौड़े हाथ लगाये, बेखटके उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हंसती और चुटकियां लेती थी। चंपा ने जी में सोचा-यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फंसने की कोई फिक्र ही नहीं! मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है!
सोलहवां बयान
कल की तरह आज की रात भी बीत गई। लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं। चंपा ने महारानी से पूछा, ''आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं!'' उन्होंने जवाब दिया, ''महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूं, क्या करूं, कुछ बस नहीं चलता।''
थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आये। महारानी और चंपा से बोले, ''तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जायं जिससे मैदान की हवा लगे और तन्दुरुस्ती में फर्क न पड़ने पावे।'' यह कह दोनों को बाहर ले गये। वे औरतें जो मैदान में गई थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी तरह जाकर बैठ गई। चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखने लगी।
दो पहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादे खूबसूरत लिये हुए पहुंची। उसे देखते ही बुङ्ढे मियां ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया जहां सब औरतें बैठी हुई थीं। चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा। आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुंह करके बोली, ''मी सगमता।'' 1 वह औरत जो आई थी चंपा का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अंगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली, ''चपकला छटमे बापरोफस।'' 2 फिर दोनों में से कोई न बोली।
शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुंच गईं। रात को खाने का सामान पहुंचा। महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नई फंसकर आई थीं।
रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा है। सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं-महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं। चंपा ने उन दोनों की तरफ देखकर कहा, ''कड़ाक मी टेटी, नो से पारो फेसतो'' 3 एक ने जवाब दिया, ''तोमसे की?'' 4 फिर चंपा ने कहा, ''रानी में सेगी।'' 5
उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे
1. हम पहचान गये।
2. चुप रहोगी तो तुम्हारी भी जान बच जायेगी।
3. मेरी बेड़ी तोड़ दो, नहीं तो गुल कर गिरफ्तार करा दूंगी।
4. तुम्हारी क्या दशा होगी?
5. रानी का साथ दूंगी।
से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके ओठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।
दो पहर रात बीत गई। यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया। शोर-गुल की आवाज आने लगी, 'मारो-पकड़ो' की आवाज सुनाई देने लगी। बंदूक की आवाज कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है। खलबली पड़ गई। रावटी में जितनी औरतें थीं इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबड़ाकर ''चंपा-चंपा'' पुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी। वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आकर कहने लगीं, ''मालूम होता है चंपा निकल गई मगर आप मत घबराइये, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है। मैं भी आप ही का ताबेदार हूं, औरत न समझिये।'' मैं जाती हूं। आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, लेकर आता हूं।'' यह कह दोनों ने रास्ता लिया।
जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। दो आदमी जिनका मुंह कपड़े या नकाब से ढंका हुआ था डोली लिये हुए पहुंचे और महारानी को उस पर बैठाकर बाहर निकल गये। रात बीत गई, आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चंपा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक का मुंह एक देख रही थीं। इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली जिस पर कि मख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था लिये हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुंचे, डोली बाहर रख दी, आप अंदर गये और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा-''तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देतीं, वे कहां गई?''
सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुंह से आवाज न निकली। पन्नालाल ने फिर कहा, ''तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं। तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहां हैं?' अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ। एक ने कहा, ''दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो वे हैं जो कल और परसों फंस के आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिये मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली लेकर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी।''
पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुंह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा, ''ठीक है, हम दोनों महारानी को ढाढ़स देकर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गये, जफील बजाकर तुमसे मुलाकात की और डोली लेकर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली लेकर आया जो महारानी को लेकर चला गया! इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता। चलो बाहर चलकर इन बर्देफरोशों 1 की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।''
सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नजर आती है। काफिले का बुङ्ढा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बंधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं। रावटियां और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।
पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गये जहां बहुत-सी डोलियां थीं। रामनारायण ने पन्नालाल से कहा, ''देखो यह सोलह डोलियां हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहां बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं जहां फौज खड़ी है।''
दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आये। पन्नालाल ने उनसे कहा, ''देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई! विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बुङ्ढे सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच देकर रोका कि कहीं आगे न चला जाय और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आये, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं। भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आये हो, पकडे ज़ाओगे, लाचार होकर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पाकर निकल गई। मगर महारानी को कौन ले गया?''
दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया। बोले, ''इन बदमाशों को बल्कि इनके बुङ्ढे मियां सरदार को मार-पीटकर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है।''
पन्नालाल ने कहा, ''जब सरदार ही आपकी कैद में है तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बर्देफरोशों को और फौज को लेकर जाइये और राज्य का काम देखिए। हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।''
दीवान साहब बर्देफरोश कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे-
पन्नालाल-देखो आजकल चुनार राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों
1. 'बर्देफरोश' आदमियों की सौदागिरी कहते हैं, अर्थात् लौंडी-गुलाम बेचते हैं।
को उल्लू बनाकर उन्हें ले ही गया।
रामनारायण-भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनार से सेना सहित दीवान साहब को लाये, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर वही पहला दिन, शर्मिन्दगी मुनाफे में!
चुन्नी-हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आवेगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली! बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है!
पन्ना-नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती!
राम-हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ लेकर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गये हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं।
पन्ना-भला हम लोगों का मुंह भी तो हो कि चुनार जाकर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुंह ले के चुनार जायेंगे?
राम-बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो, लड़के-बाले लेकर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है।
पन्ना-वाह रे तेरा हौसला, क्या पिनिक के औतार हुए हैं 1
थोड़ी दूर जाकर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा अलग हो गये।
चंपा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। जब बहुत दिन हो गये और राजकुमारी चंद्रकान्ता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म लेकर चंपा घर से निकली। जंगल-जंगल पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगी कि अब कहां चलना चाहिए और किस जगह ढूंढना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूं कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊंगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किये मैं विजयगढ़ भी न जाऊंगी चाहे जो हो, देखूं कब तक पता नहीं लगता।
जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाये एक-एक तेगा हाथ में लिये आते दिखाई दिये।
चंपा को देखकर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें कीं जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हंसते, कभी ऊंचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेडॊ के नीचे छाया देखकर बैठ गये।
चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेरकर क्यों बैठ गये और इनका क्या इरादा है? अब यहां बैठना न चाहिए। यह सोचकर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया। दौड़कर घेर लिया और कहा, ''तुम कहां जाती हो? ठहरो, हमारे मालिक दमभर में आया ही चाहते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहां तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी!''
चंपा-मुझे नौकरी की जरूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूं, मैं नहीं ठहर सकती।
एक सिपाही-नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे।
चंपा-होश में आकर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी! खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती!
चंपा की ऐसी बात सुनकर उन लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ, एक का मुंह दूसरा देखने लगा। चंपा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कब पा सकते थे।
चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहां पहुंच गये। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुंचा जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आंखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी। उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाये बर्छी हाथ में लिये, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टांगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोडे पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊंटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था। साथ में कई डोलियां थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिये चले आते थे। दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था पुकारकर कहा, ''इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है।'' जब तक कुछ और कहे तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।
उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सबों का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देखकर कहा, ''हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहां आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडण्डी का जमीन पर दिखाई नहीं देता।''
डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं जो डोलियों पर थीं। चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी। दो लौडियां आईं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी? सबों ने कहा, ''हम बना-बनाया खाएंगे।'' मगर दो औरतों ने कहा, ''हम कुछ न खाएंगे!'' जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियां यह कहकर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो। इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाजुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आंखों से आंसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी सांस ले रही थी। चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी।
पहर रात चली गई, सबों के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इंकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे- धीरे चंपा ने अपने बगल वाली खूबसूरत नाजुक औरत से बातें करना शुरू किया-
चंपा-आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फंस गईं?
औरत-मेरा नाम कलावती है, मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूं, महाराज लड़ाई पर गये थे, उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आंख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूं। तुम कौन हो?
चंपा-हैं, आप चुनार की महारानी हैं! हा, आपकी यह दशा! वाह विधाता तू धन्य है! मैं क्या बताऊं, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चंद्रकान्ता को भी जरूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूं, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।
ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई, ''कौन है? भागा, भागा, निकल गया'' महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आयी। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियां जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सबों से कहा, ''चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ।''
कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात् महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की। पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।
बुङ्ढी-इतनी ही हैं या और भी?
सरदार-बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जायेंगी।
बुङ्ढी-देखिये तो सही, मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हां अब बताइये किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा।
सरदार-देखो ये सब एक मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपये मिलेंगे। (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपये। (महारानी की तरफ बताकर) अगर ऐसी खूबसूरत हो तो पूरे सौ रुपये मिलेंगे, समझ गईं।
बुङ्ढी-हां अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सबों को आपने कैसे पाया।
सरदार-यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाशहै!
बुङ्ढी-इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जायें तो आपका काफिला ही बैकुण्ठ चला जाय!
सरदार-इसमें क्या शक है! और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगाले की रहने वाली है इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपये की लालच में फंसी हैं, और बाकी सबों को मैंने उनकी मां, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बुङ्ढा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।
बुङ्ढी-चलिए।
दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियां दीं-''मुए को देखो, अभी और औरतों को फंसाने की फिक्र में लगा है? न मालूम यह बुङ्ढी इसको कहां से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है! कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हे परमेश्वर इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी!''
चंपा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधो घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। ''हाय, महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे!'' धीरे- धीरे यही कह के रो रही थीं। चंपा उनको समझाने लगी-
''महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जायेंगे। क्या करूं, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूं, किसी तरह यह खुल जातीं तो इन लोगों को मजा चखाती, लाचार हूं कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहां मुश्किल है।''
इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बुङ्ढा सरदार फिर डेरे में आ पहुंचा जिसमें औरतें कैद थीं। साथ में सवेरे वाली बुढ़िया आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिये हुए थी।
बुढ़िया-मिला लीजिये, अव्वल नंबर की है या नहीं?
सरदार-अव्वल नंबर की तो नहीं, हां दूसरे नंबर की जरूर है, पचास रुपये की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं!
बुढ़िया-खैर पचास ही सही, यहां कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊंगी, चलिये।
इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई। वह नई औरत जो आज आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर खुले थे। तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भीखूब लंबे-चौड़े हाथ लगाये, बेखटके उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हंसती और चुटकियां लेती थी। चंपा ने जी में सोचा-यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फंसने की कोई फिक्र ही नहीं! मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है!
सोलहवां बयान
कल की तरह आज की रात भी बीत गई। लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं। चंपा ने महारानी से पूछा, ''आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं!'' उन्होंने जवाब दिया, ''महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूं, क्या करूं, कुछ बस नहीं चलता।''
थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आये। महारानी और चंपा से बोले, ''तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जायं जिससे मैदान की हवा लगे और तन्दुरुस्ती में फर्क न पड़ने पावे।'' यह कह दोनों को बाहर ले गये। वे औरतें जो मैदान में गई थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी तरह जाकर बैठ गई। चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखने लगी।
दो पहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादे खूबसूरत लिये हुए पहुंची। उसे देखते ही बुङ्ढे मियां ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया जहां सब औरतें बैठी हुई थीं। चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा। आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुंह करके बोली, ''मी सगमता।'' 1 वह औरत जो आई थी चंपा का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अंगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली, ''चपकला छटमे बापरोफस।'' 2 फिर दोनों में से कोई न बोली।
शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुंच गईं। रात को खाने का सामान पहुंचा। महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नई फंसकर आई थीं।
रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा है। सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं-महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं। चंपा ने उन दोनों की तरफ देखकर कहा, ''कड़ाक मी टेटी, नो से पारो फेसतो'' 3 एक ने जवाब दिया, ''तोमसे की?'' 4 फिर चंपा ने कहा, ''रानी में सेगी।'' 5
उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे
1. हम पहचान गये।
2. चुप रहोगी तो तुम्हारी भी जान बच जायेगी।
3. मेरी बेड़ी तोड़ दो, नहीं तो गुल कर गिरफ्तार करा दूंगी।
4. तुम्हारी क्या दशा होगी?
5. रानी का साथ दूंगी।
से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके ओठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।
दो पहर रात बीत गई। यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया। शोर-गुल की आवाज आने लगी, 'मारो-पकड़ो' की आवाज सुनाई देने लगी। बंदूक की आवाज कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है। खलबली पड़ गई। रावटी में जितनी औरतें थीं इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबड़ाकर ''चंपा-चंपा'' पुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी। वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आकर कहने लगीं, ''मालूम होता है चंपा निकल गई मगर आप मत घबराइये, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है। मैं भी आप ही का ताबेदार हूं, औरत न समझिये।'' मैं जाती हूं। आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, लेकर आता हूं।'' यह कह दोनों ने रास्ता लिया।
जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। दो आदमी जिनका मुंह कपड़े या नकाब से ढंका हुआ था डोली लिये हुए पहुंचे और महारानी को उस पर बैठाकर बाहर निकल गये। रात बीत गई, आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चंपा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक का मुंह एक देख रही थीं। इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली जिस पर कि मख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था लिये हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुंचे, डोली बाहर रख दी, आप अंदर गये और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा-''तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देतीं, वे कहां गई?''
सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुंह से आवाज न निकली। पन्नालाल ने फिर कहा, ''तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं। तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहां हैं?' अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ। एक ने कहा, ''दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो वे हैं जो कल और परसों फंस के आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिये मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली लेकर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी।''
पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुंह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा, ''ठीक है, हम दोनों महारानी को ढाढ़स देकर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गये, जफील बजाकर तुमसे मुलाकात की और डोली लेकर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली लेकर आया जो महारानी को लेकर चला गया! इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता। चलो बाहर चलकर इन बर्देफरोशों 1 की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।''
सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नजर आती है। काफिले का बुङ्ढा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बंधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं। रावटियां और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।
पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गये जहां बहुत-सी डोलियां थीं। रामनारायण ने पन्नालाल से कहा, ''देखो यह सोलह डोलियां हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहां बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं जहां फौज खड़ी है।''
दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आये। पन्नालाल ने उनसे कहा, ''देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई! विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बुङ्ढे सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच देकर रोका कि कहीं आगे न चला जाय और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आये, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं। भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आये हो, पकडे ज़ाओगे, लाचार होकर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पाकर निकल गई। मगर महारानी को कौन ले गया?''
दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया। बोले, ''इन बदमाशों को बल्कि इनके बुङ्ढे मियां सरदार को मार-पीटकर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है।''
पन्नालाल ने कहा, ''जब सरदार ही आपकी कैद में है तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बर्देफरोशों को और फौज को लेकर जाइये और राज्य का काम देखिए। हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।''
दीवान साहब बर्देफरोश कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे-
पन्नालाल-देखो आजकल चुनार राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों
1. 'बर्देफरोश' आदमियों की सौदागिरी कहते हैं, अर्थात् लौंडी-गुलाम बेचते हैं।
को उल्लू बनाकर उन्हें ले ही गया।
रामनारायण-भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनार से सेना सहित दीवान साहब को लाये, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर वही पहला दिन, शर्मिन्दगी मुनाफे में!
चुन्नी-हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आवेगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली! बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है!
पन्ना-नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती!
राम-हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ लेकर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गये हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं।
पन्ना-भला हम लोगों का मुंह भी तो हो कि चुनार जाकर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुंह ले के चुनार जायेंगे?
राम-बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो, लड़के-बाले लेकर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है।
पन्ना-वाह रे तेरा हौसला, क्या पिनिक के औतार हुए हैं 1
थोड़ी दूर जाकर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा अलग हो गये।