Re: चंद्रकांता
Posted: 29 Dec 2014 19:35
बाईसवां बयान
चार दिन रास्ते में लगे, पांचवें दिन चुनार की सरहद में फौज पहुंची। महाराज शिवद्त्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबड़ा उठे, क्योंकि महाराज शिवद्त्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर वगैरह लेकर महाराज जयसिंह से मिलने के लिए हाजिर हुआ। खबर पाकर महाराज ने कहला भेजा कि मिलने की कोई जरूरत नहीं, हम चुनार फतह करने नहीं आये हैं, क्योंकि जिस दिन तुम्हारे महाराज हमारे हाथ फंसे उसी रोज चुनार फतह हो गया, हम दूसरे काम से आये हैं, तुम और कुछ मत सोचो।''
लाचार होकर दीवान साहब को वापस जाना पड़ा, मगर यह मालूम हो गया कि फलाने काम के लिए आये हैं। आज तक इस तिलिस्म का हाल किसी को भी मालूम न था, बल्कि किसी ने उस खण्डहर को देखा तक न था। आज यह मशहूर हो गया कि इस इलाके में कोई तिलिस्म है जिसको कुंअर वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे। उस तिलिस्मी खण्डहर का पता लगाने के लिए बहुत से जासूस इधर-उधर भेजे गये। तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी गये। आखिर उसका पता लग ही गया। दूसरे दिन मय फौज के सभी का डेरा उसी जंगल में जा लगा जहां वह तिलिस्मी खण्डहरथा।
तेईसवां बयान
महाराज जयसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी खण्डहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गये। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखते-भालते बीच वाले बगुले के पास पहुंचे। चपला की जुबानी यह तो सुन ही चुके थे कि यही बगुला कुमारी को निगल गया था, इसलिए तेजसिंह ने किसी को उसके पास जाने न दिया, खुद गये। चपला ने जिस तरह इस बगुले को आजमाया था उसी तरह तेजसिंह ने भी आजमाया।
महाराज इस बगुले का तमाशा देखकर बहुत हैरान हुए। इसका मुह खोलना, पर फैलाना और अपने पीछे वाली चीज को उठाकर निगल जाना सबों ने देखा और अचंभे में आकर बनाने वाले की तारीफ करने लगे। इसके बाद उस तहखाने के पास आये जिसमें चपला उतरी थी। किवाड़ के पल्ले को कमंद से बंधा देख तेजसिंह को मालूम हो गया कि यह चपला की कार्रवाई है और जरूर यह कमंद भी चपला की ही है, क्योंकि इसके एक सिरे पर उसका नाम खुदा हुआ है, मगर इस किवाड़ का बांधाना बेफायदे हुआ क्योंकि इसमें घुसकर चपला निकल न सकी।
कुएं को भी बखूबी देखते हुए उस चबूतरे के पास आये जिस पर पत्थर का आदमी हाथ में किताब लिए सोया हुआ था। चपला की तरह तेजसिंह ने भी यहां धोखा खाया। चबूतरे के ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसके ऊपर का पत्थर आवाज देकर पल्ले की तरह खुला और तेजसिंह धम्म से जमीन पर गिर पड़े। इनके गिरने पर कुमार को हंसी आ गई, मगर देवीसिंह बड़े गुस्से में आये। कहने लगे, ''सब शैतानी इसी आदमी की है जो इस पर सोया है, ठहरो मैं इसकी खबर लेता हूं!'' यह कहकर उछलकर बड़े जोर से एक धौल उसके सिर पर जमाई। धौल का लगना था कि वह पत्थर का आदमी उठ बैठा, मुंह खोल दिया, हाथी की तरह उसके मुंह से हवा निकलने लगी, मालूम होता था कि भूकंप आया है, सबों की तबीयत घबरा गई। ज्योतिषीजी ने कहा, ''जल्दी इस मकान से बाहर भागो ठहरने का मौका नहीं है!''
इस दलान से दूसरे दलान में होते हुए सब के सब भागे। भागने के वक्त जमीन हिलने के सबब से किसी का पैर सीधा नहीं पड़ता था। खण्डहर के बाहर हो दूर से खड़े होकर उसकी तरफ देखने लगे। पूरे मकान को हिलते देखा। दो घण्टे तक यही कैफियत रही और तब तक खण्डहर की इमारत का हिलना बंद न हुआ।
तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, ''आप रमल और नजूम से पता लगाइये कि यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा?'' ज्योतिषीजी ने कहा, ''आज दिन भर आप लोग सब्र कीजिए और जो कुछ सोचना हो सोचिए, रात को मैं सब हाल रमल से दरियाफ्त कर लूंगा, फिर कल जैसा मुनासिब होगा किया जायगा। मगर यहां कई रोज लगेंगे, महाराज का रहना ठीक नहीं है, बेहतर है कि वे विजयगढ़ जायं।'' इस राय को सबों ने पसंद किया। कुमार ने महाराज से कहा, ''आप सिर्फ इस खण्डहर को देखने आये थे सो देख चुके अब जाइये। आपका यहां रहना मुनासिब नहीं।''
महाराज विजयगढ़ जाने पर राजी न थे मगर सबों के जिद करने से कबूल किया। कुमार की जितनी फौज थी उसको और अपनी जितनी फौज साथ आई थी उसमें से भी आधी फौज साथ ले विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
चौबीसवां बयान
रात भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भालकर ज्योतिषीजी ने कहा, ''रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म के तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खण्डहर में किसी जगह पड़ा हुआ है। उसको तलाश करके निकालना चाहिए तब सब पता चलेगा। स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पीकर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, जरूर उस पत्थर का भी पता लगेगा।''
सब कामों से छुट्टी पाकर दोपहर को सब लोग खण्डहर में घुसे। देखते-भालते उसी चबूतरे के पास पहुंचे जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था जिसे देवीसिंह ने धौल जमाई थी। उस आदमी को फिर उसी तरह सोता पाया।
ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, ''यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और इसके ऊपर चढ़कर इस आदमी को देखा हो। तुम भी इस पर चढ़ के खूब गौर से देखो तो सही किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?'' तेजसिंह ने ऐसा ही किया और उस ईंट के ढेर पर चढ़कर देखा। उस किताब में लिखा था-
8 पहल- 5-अंक
6 हाथ- 3-अंगुल
जमा पूंजी-0-जोड़, ठीक नाप तोड़।
तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ज्योतिषीजी ने कहा, ''मतलब भी मालूम हो जायगा, तुम एक कागज पर इसकी नकल उतार लो।'' तेजसिंह ने अपने बटुए में से कागज कलम दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था उसकी नकल उतार ली।
ज्योतिषीजी ने कहा, ''अब घूमकर देखना चाहिए कि इस मकान में कहीं आठ पहल का कोई खंभा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं।'' सब कोई उस खंडहर में घूम-घूमकर आठ पहल का खंभा या चबूतरा तलाश करने लगे। घूमते-घूमते उस दलान में पहुंचे जहां तहखाना था। एक सिरा कमंद का तहखाने की किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खंभे के साथ बंधा हुआ था, उसी खंभे को आठ पहल का पाया। उस खंभे के ऊपर कोई छत न थी, ज्योतिषीजी ने कहा, ''इसकी लंबाई हाथ से नापनी चाहिए।'' तेजसिंह ने नापा, 6 हाथ 7 अंगुल हुआ, देवीसिंह ने नापा 6 हाथ 5 अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषीजी ने नापा, 6 हाथ 10 अंगुल पाया, सब के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने नापा, 6 हाथ 3 अंगुल हुआ।
ज्योतिषीजी ने खुश होकर कहा, ''बस यही खंभा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे 'जमा पूंजी' यानी वह पत्थर जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है गड़ा है। यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से ही टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाये हैं उसका नाप 6 हाथ 3 अंगुल लिखा है जो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा। अब इस कमंद को खोल डालना चाहिए जो इस खंभे और किवाड़ के पल्ले में बंधी हुई है।''
तेजसिंह ने कमंद खोलकर अलग किया, ज्योतिषीजी ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा, ''सब बातें तो मिल गईं, आठ पहल भी हुआ और नाप से 6 हाथ 3 अंगुल भी है, यह देखिये, इस तरफ 5 का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया, ठीक नाप तोड़, सो कुमार के हाथ से इसका नाप भी ठीक हुआ, अब यही इसको तोड़ें!''
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उसी जगह से एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया जिसका मसाला सख्त और मजबूत था। इसी ढोंके को ऊंचा करके जोर से उस खंभे पर मारा जिससे वह खंभा हिल उठा, दो-तीन दफे में बिल्कुल कमजोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबाकर जोर दिया और जमीन से निकाल डाला। खंभा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का संदूक निकला जिसमें ताला लगा हुआ था। बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा। भीतर एक और संदूक निकला, उसका भी ताला तोड़ा। और एक संदूक निकला। इसी तरह दर्जे-ब-दर्जे सात संदूक उसमें से निकले। सातवें संदूक में एक पत्थर निकला जिस पर कुछ लिखा हुआ था, कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था-
''सम्हाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेन्द्रसिंह है तो यह दौलत तुम्हारे ही लिये है।
बगुले के मुंह की तरफ जमीन पर जो पत्थर संगमर्मर का जड़ा है वह पत्थर नहीं मसाला जमाया हुआ है। उसको उखाड़कर सिर के में खूब महीन पीसकर बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो। वह भी मसाले ही का बना हुआ है, दो घंटे में बिल्कुल गलकर बह जायगा। उसके नीचे जो कुछ तार-चर्खे पहिये पुर्जे हो सब तोड़ डालो। नीचे एक कोठरी मिलेगी जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा। उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएं में गया है जो पूरब वाले दलान में है। वहां भी मसाले से बना एक बुङ्ढा आदमी हाथ में किताब लिये दिखाई देगा। उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो नहीं तो धोखा खाओगे! पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुंह खोल देगा, उसका मुंह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जायेगा, तब किताब ले लो। उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे। जो कुछ उसमें लिखा हो वैसा करो।
-विक्रम।''
कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना। घंटे भर तक तो सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी की जुबान से दूसरी बात न निकली। बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चलकर आराम किया जाय, कल सबेरे ही कुल कामों से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ झुकें।
यह खबर चारों तरफ मशहूर हो गई कि चुनारगढ़ के इलाके में कोई तिलिस्म है जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला फंस गई हैं। उनको छुड़ाने और तिलिस्म तोड़ने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने मय फौज के उस जगह डेरा डाला है।
तिलिस्म किसको कहते हैं? वह क्या चीज है? उसमें आदमी कैसे फंसता है? कुंअर वीरेन्द्रसिंह उसे क्यों कर तोड़ेंगे? इत्यादि बातो को जानने और देखने के लिए दूर-दूर के बहुत से आदमी उस जगह इकट्ठे हुए जहां कुमार का लश्कर उतरा हुआ था, मगर खौफ के मारे खंडहर के अंदर कोई पैर नहीं रखता था, बाहर से ही देखते थे।
कुमार के लश्कर वालों ने घूमते-फिरते कई नकाबपोश सवारों को भी देखा जिनकी खबर उन लोगों ने कुमार तक पहुंचाई।
पंडित बद्रीनाथ, अहमद और नाजिम को साथ लेकर महाराज शिवदत्त को छुड़ाने गये थे, तहखाने में शेर के मुंह से जुबान खींच किवाड़ खोलना चाहा मगर न खुल सका, क्योंकि यहां तेजसिंह ने दोहरा ताला लगा दिया था। जब कोई काम न निकला तब वहां से लौटकर विजयगढ़ गये, ऐयारी की फिक्र में थे कि यह खबर कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इन्होंने भी सुनी। लौटकर इसी जगह पहुंचे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल भी उसी ठिकाने जमा हुए और इन सबों की यह राय होने लगी कि किसी तरह तिलिस्म तोड़ने में बाधा डालनी चाहिए। इसी फिक्र में ये लोग भेष बदलकर इधर-उधर तथा लश्कर में घूमने लगे
चार दिन रास्ते में लगे, पांचवें दिन चुनार की सरहद में फौज पहुंची। महाराज शिवद्त्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबड़ा उठे, क्योंकि महाराज शिवद्त्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर वगैरह लेकर महाराज जयसिंह से मिलने के लिए हाजिर हुआ। खबर पाकर महाराज ने कहला भेजा कि मिलने की कोई जरूरत नहीं, हम चुनार फतह करने नहीं आये हैं, क्योंकि जिस दिन तुम्हारे महाराज हमारे हाथ फंसे उसी रोज चुनार फतह हो गया, हम दूसरे काम से आये हैं, तुम और कुछ मत सोचो।''
लाचार होकर दीवान साहब को वापस जाना पड़ा, मगर यह मालूम हो गया कि फलाने काम के लिए आये हैं। आज तक इस तिलिस्म का हाल किसी को भी मालूम न था, बल्कि किसी ने उस खण्डहर को देखा तक न था। आज यह मशहूर हो गया कि इस इलाके में कोई तिलिस्म है जिसको कुंअर वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे। उस तिलिस्मी खण्डहर का पता लगाने के लिए बहुत से जासूस इधर-उधर भेजे गये। तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी गये। आखिर उसका पता लग ही गया। दूसरे दिन मय फौज के सभी का डेरा उसी जंगल में जा लगा जहां वह तिलिस्मी खण्डहरथा।
तेईसवां बयान
महाराज जयसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी खण्डहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गये। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखते-भालते बीच वाले बगुले के पास पहुंचे। चपला की जुबानी यह तो सुन ही चुके थे कि यही बगुला कुमारी को निगल गया था, इसलिए तेजसिंह ने किसी को उसके पास जाने न दिया, खुद गये। चपला ने जिस तरह इस बगुले को आजमाया था उसी तरह तेजसिंह ने भी आजमाया।
महाराज इस बगुले का तमाशा देखकर बहुत हैरान हुए। इसका मुह खोलना, पर फैलाना और अपने पीछे वाली चीज को उठाकर निगल जाना सबों ने देखा और अचंभे में आकर बनाने वाले की तारीफ करने लगे। इसके बाद उस तहखाने के पास आये जिसमें चपला उतरी थी। किवाड़ के पल्ले को कमंद से बंधा देख तेजसिंह को मालूम हो गया कि यह चपला की कार्रवाई है और जरूर यह कमंद भी चपला की ही है, क्योंकि इसके एक सिरे पर उसका नाम खुदा हुआ है, मगर इस किवाड़ का बांधाना बेफायदे हुआ क्योंकि इसमें घुसकर चपला निकल न सकी।
कुएं को भी बखूबी देखते हुए उस चबूतरे के पास आये जिस पर पत्थर का आदमी हाथ में किताब लिए सोया हुआ था। चपला की तरह तेजसिंह ने भी यहां धोखा खाया। चबूतरे के ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसके ऊपर का पत्थर आवाज देकर पल्ले की तरह खुला और तेजसिंह धम्म से जमीन पर गिर पड़े। इनके गिरने पर कुमार को हंसी आ गई, मगर देवीसिंह बड़े गुस्से में आये। कहने लगे, ''सब शैतानी इसी आदमी की है जो इस पर सोया है, ठहरो मैं इसकी खबर लेता हूं!'' यह कहकर उछलकर बड़े जोर से एक धौल उसके सिर पर जमाई। धौल का लगना था कि वह पत्थर का आदमी उठ बैठा, मुंह खोल दिया, हाथी की तरह उसके मुंह से हवा निकलने लगी, मालूम होता था कि भूकंप आया है, सबों की तबीयत घबरा गई। ज्योतिषीजी ने कहा, ''जल्दी इस मकान से बाहर भागो ठहरने का मौका नहीं है!''
इस दलान से दूसरे दलान में होते हुए सब के सब भागे। भागने के वक्त जमीन हिलने के सबब से किसी का पैर सीधा नहीं पड़ता था। खण्डहर के बाहर हो दूर से खड़े होकर उसकी तरफ देखने लगे। पूरे मकान को हिलते देखा। दो घण्टे तक यही कैफियत रही और तब तक खण्डहर की इमारत का हिलना बंद न हुआ।
तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, ''आप रमल और नजूम से पता लगाइये कि यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा?'' ज्योतिषीजी ने कहा, ''आज दिन भर आप लोग सब्र कीजिए और जो कुछ सोचना हो सोचिए, रात को मैं सब हाल रमल से दरियाफ्त कर लूंगा, फिर कल जैसा मुनासिब होगा किया जायगा। मगर यहां कई रोज लगेंगे, महाराज का रहना ठीक नहीं है, बेहतर है कि वे विजयगढ़ जायं।'' इस राय को सबों ने पसंद किया। कुमार ने महाराज से कहा, ''आप सिर्फ इस खण्डहर को देखने आये थे सो देख चुके अब जाइये। आपका यहां रहना मुनासिब नहीं।''
महाराज विजयगढ़ जाने पर राजी न थे मगर सबों के जिद करने से कबूल किया। कुमार की जितनी फौज थी उसको और अपनी जितनी फौज साथ आई थी उसमें से भी आधी फौज साथ ले विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
चौबीसवां बयान
रात भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भालकर ज्योतिषीजी ने कहा, ''रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म के तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खण्डहर में किसी जगह पड़ा हुआ है। उसको तलाश करके निकालना चाहिए तब सब पता चलेगा। स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पीकर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, जरूर उस पत्थर का भी पता लगेगा।''
सब कामों से छुट्टी पाकर दोपहर को सब लोग खण्डहर में घुसे। देखते-भालते उसी चबूतरे के पास पहुंचे जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था जिसे देवीसिंह ने धौल जमाई थी। उस आदमी को फिर उसी तरह सोता पाया।
ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, ''यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और इसके ऊपर चढ़कर इस आदमी को देखा हो। तुम भी इस पर चढ़ के खूब गौर से देखो तो सही किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?'' तेजसिंह ने ऐसा ही किया और उस ईंट के ढेर पर चढ़कर देखा। उस किताब में लिखा था-
8 पहल- 5-अंक
6 हाथ- 3-अंगुल
जमा पूंजी-0-जोड़, ठीक नाप तोड़।
तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ज्योतिषीजी ने कहा, ''मतलब भी मालूम हो जायगा, तुम एक कागज पर इसकी नकल उतार लो।'' तेजसिंह ने अपने बटुए में से कागज कलम दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था उसकी नकल उतार ली।
ज्योतिषीजी ने कहा, ''अब घूमकर देखना चाहिए कि इस मकान में कहीं आठ पहल का कोई खंभा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं।'' सब कोई उस खंडहर में घूम-घूमकर आठ पहल का खंभा या चबूतरा तलाश करने लगे। घूमते-घूमते उस दलान में पहुंचे जहां तहखाना था। एक सिरा कमंद का तहखाने की किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खंभे के साथ बंधा हुआ था, उसी खंभे को आठ पहल का पाया। उस खंभे के ऊपर कोई छत न थी, ज्योतिषीजी ने कहा, ''इसकी लंबाई हाथ से नापनी चाहिए।'' तेजसिंह ने नापा, 6 हाथ 7 अंगुल हुआ, देवीसिंह ने नापा 6 हाथ 5 अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषीजी ने नापा, 6 हाथ 10 अंगुल पाया, सब के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने नापा, 6 हाथ 3 अंगुल हुआ।
ज्योतिषीजी ने खुश होकर कहा, ''बस यही खंभा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे 'जमा पूंजी' यानी वह पत्थर जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है गड़ा है। यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से ही टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाये हैं उसका नाप 6 हाथ 3 अंगुल लिखा है जो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा। अब इस कमंद को खोल डालना चाहिए जो इस खंभे और किवाड़ के पल्ले में बंधी हुई है।''
तेजसिंह ने कमंद खोलकर अलग किया, ज्योतिषीजी ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा, ''सब बातें तो मिल गईं, आठ पहल भी हुआ और नाप से 6 हाथ 3 अंगुल भी है, यह देखिये, इस तरफ 5 का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया, ठीक नाप तोड़, सो कुमार के हाथ से इसका नाप भी ठीक हुआ, अब यही इसको तोड़ें!''
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उसी जगह से एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया जिसका मसाला सख्त और मजबूत था। इसी ढोंके को ऊंचा करके जोर से उस खंभे पर मारा जिससे वह खंभा हिल उठा, दो-तीन दफे में बिल्कुल कमजोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबाकर जोर दिया और जमीन से निकाल डाला। खंभा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का संदूक निकला जिसमें ताला लगा हुआ था। बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा। भीतर एक और संदूक निकला, उसका भी ताला तोड़ा। और एक संदूक निकला। इसी तरह दर्जे-ब-दर्जे सात संदूक उसमें से निकले। सातवें संदूक में एक पत्थर निकला जिस पर कुछ लिखा हुआ था, कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था-
''सम्हाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेन्द्रसिंह है तो यह दौलत तुम्हारे ही लिये है।
बगुले के मुंह की तरफ जमीन पर जो पत्थर संगमर्मर का जड़ा है वह पत्थर नहीं मसाला जमाया हुआ है। उसको उखाड़कर सिर के में खूब महीन पीसकर बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो। वह भी मसाले ही का बना हुआ है, दो घंटे में बिल्कुल गलकर बह जायगा। उसके नीचे जो कुछ तार-चर्खे पहिये पुर्जे हो सब तोड़ डालो। नीचे एक कोठरी मिलेगी जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा। उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएं में गया है जो पूरब वाले दलान में है। वहां भी मसाले से बना एक बुङ्ढा आदमी हाथ में किताब लिये दिखाई देगा। उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो नहीं तो धोखा खाओगे! पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुंह खोल देगा, उसका मुंह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जायेगा, तब किताब ले लो। उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे। जो कुछ उसमें लिखा हो वैसा करो।
-विक्रम।''
कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना। घंटे भर तक तो सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी की जुबान से दूसरी बात न निकली। बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चलकर आराम किया जाय, कल सबेरे ही कुल कामों से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ झुकें।
यह खबर चारों तरफ मशहूर हो गई कि चुनारगढ़ के इलाके में कोई तिलिस्म है जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला फंस गई हैं। उनको छुड़ाने और तिलिस्म तोड़ने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने मय फौज के उस जगह डेरा डाला है।
तिलिस्म किसको कहते हैं? वह क्या चीज है? उसमें आदमी कैसे फंसता है? कुंअर वीरेन्द्रसिंह उसे क्यों कर तोड़ेंगे? इत्यादि बातो को जानने और देखने के लिए दूर-दूर के बहुत से आदमी उस जगह इकट्ठे हुए जहां कुमार का लश्कर उतरा हुआ था, मगर खौफ के मारे खंडहर के अंदर कोई पैर नहीं रखता था, बाहर से ही देखते थे।
कुमार के लश्कर वालों ने घूमते-फिरते कई नकाबपोश सवारों को भी देखा जिनकी खबर उन लोगों ने कुमार तक पहुंचाई।
पंडित बद्रीनाथ, अहमद और नाजिम को साथ लेकर महाराज शिवदत्त को छुड़ाने गये थे, तहखाने में शेर के मुंह से जुबान खींच किवाड़ खोलना चाहा मगर न खुल सका, क्योंकि यहां तेजसिंह ने दोहरा ताला लगा दिया था। जब कोई काम न निकला तब वहां से लौटकर विजयगढ़ गये, ऐयारी की फिक्र में थे कि यह खबर कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इन्होंने भी सुनी। लौटकर इसी जगह पहुंचे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल भी उसी ठिकाने जमा हुए और इन सबों की यह राय होने लगी कि किसी तरह तिलिस्म तोड़ने में बाधा डालनी चाहिए। इसी फिक्र में ये लोग भेष बदलकर इधर-उधर तथा लश्कर में घूमने लगे