सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
Jemsbond
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Re: सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

Unread post by Jemsbond » 24 Dec 2014 15:39

१०


मोनेका...।

मोनेका खिलती हुई कली थी जिसमें भावनाएं होती हैं–अपने सुनहरे भविष्य के स्वप्न होते हैं। किंतु साथ ही यह वह आयु भी है जिससे अगर भावनाओं को ठेस लग जाए तो दिल टूट जाता है। हल्के से झटके से सुनहरे भविष्य के स्वप्न छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।

मोनेका में भी अपनी आयु के अनुसार वे सब भावनाएं विद्यमान थीं–उसे वर मिला था–शेखर के रूप में मनचाहा वर...उसके स्वप्नों का शहजादा। उसने भी दिल ही दिल में न जाने कितने अरमान सजाए थे?...सुहागरात के विषय में जब वह सोचती थी तो एक विचित्र-सी मिठास का अनुभव करती थी। कितनी बेताबी से प्रतीक्षा की थी उसने इस रात की–इस रात की कल्पना करके उसका दिल तेजी से धड़कने लगता था–किंतु–

किंतु उसकी सुहागरात–यानी आज की रात–
उसके न सिर्फ समस्त सपने, उसकी भावनाएं, उसकी कल्पनाएं ही छिन्न-भिन्न हो गईं बल्कि क्या-क्या नहीं कहा गया। उसे न सिर्फ दुख हुआ बल्कि इस बात का क्षोभ भी हुआ कि शेखर को भी उस पर विश्वास नहीं है। कुछ विचित्र-सी घटनाएं पेश आईं उसके जीवन में–

गिरीश ने तो जब से उसकी सूरत देखी तब से क्या-क्या नहीं कहा?–किंतु वह संतुष्ट रही कि उसका देवता तो उसके पक्ष में है किंतु जब शेखर ने भी उसे एक से एक कटु वचन कहा–उसे झूठी साबित किया–उस पर से विश्वास उठा लिया तो वह तड़प उठी–सिसक उठी वह–उसका हृदय पीड़ाओं से भर गया। किंतु एक तरफ उसे इस बात पर गहन आश्चर्य भी था कि आखिर ये सुमन कौन है जिसकी न सिर्फ सूरत उससे मिलती है बल्कि राइटिंग भी ठीक वही है–लेकिन ये सोचने से अधिक वह अपना भविष्य सोच रही थी।

जिस रात के लिए उसने इतनी मधुर-मधुर कल्पनाएं की थीं उसी रात उसकी इतनी जिल्लत–उसका इतना अपमान–नहीं–वह मासूम कली सहन न कर सकी। उसके नन्हे-मुन्ने से, प्यारे और मासूम दिल को एक ठेस लगी–अपमान की एक तीव्र ठेस।

गिरीश और शेखर कमरे से बाहर जा चुके थे।
वह फफक-फफककर रो पड़ी–आंसुओं से उसका मुखड़ा भीग गया–सुहाग सेज पर बैठी वह रोती रही।

न जाने उसके दिल में कितने विचारों का उत्थान-पतन हो रहा था।

शायद कोई भी लड़की पहली ही रात को इतना अपमान सहन नहीं कर सकती। अचानक उसके दिमाग में विचार आया कि क्यों न वह इसी समय अपने पिता के पास चली जाए–वहां जाकर उनसे सब कुछ कहे। हां तभी सब कुछ ठीक हो सकता है। एक यही रास्ता है जिससे वह शेखर को अपने सच्चे होने का विश्वास दिला सकती है, उसे लगा जैसे अगर अब वह यहां रही तो ये गिरीश नामक शेखर का दोस्त उसे सुमन समझकर उसकी हत्या कर देगा। वास्तविकता तो ये थी कि उसे गिरीश पर सबसे अधिक क्रोध आ रहा था। वह भी उसे राक्षस जैसा लगा था–न ये होता न यह सब झगड़े होते।

अब तो शेखर को भी उस पर विश्वास न रहा था–वह भी उसे सुमन ही समझकर उससे नफरत करने लगा है–अब क्या करे वह–?

अब सिर्फ एक ही रास्ता है–वह है कि उसे अब सीधे अपने पिता के घर जाना चाहिए, उन्हें समस्त घटनाओं से परिचित कराए तभी कुछ हो सकता है–उसके पिता स्वयं इन उलझनों को सुलझा लेंगे। अब उसे जाना चाहिए–अभी इसी वक्त।

किंतु कैसे?–कैसे जाए वह–?
यह भी एक बहुत बड़ा प्रश्न था–अगर अब वह जाने के लिए शेखर से कहेगी तो शेखर उसे कभी नहीं जाने देगा। उसकी निगाहों में तो वह अब बेवफा, हवस की पुजारिन सुमन रह गई है। अब तो शेखर भी उससे घृणा कर रहा है और–और–अगर उस राक्षस गिरीश को पता लग गया कि वह अपने पिता के घर जाना चाहती है तो उसका खून ही कर देगा। वह तो उसे मार ही डालेगा–उसे याद आया उस समय का गिरीश–जब वह उसका गला घोंट रहा था–कैसी लाल-लाल आंखें, भयानक चेहरा, कितनी शक्ति से गला घोंटा था उसने? सोचते-सोचते वह भय से कांप गई। गिरीश से उसे डर-सा लगने लगा। वह भयभीत हो चुकी थी।

नहीं–अगर वह जाने के लिए गिरीश से कहेगी तो वह राक्षस उसकी हत्या कर देगा–वह तो है ही उसके खून का प्यासा। तो फिर वह कैसे जाए? जाना तो उसे होगा ही।

अगर न जाएगी तो ये लोग उसे सुमन ही समझते रहेंगे। लेकिन जाए तो कैसे? यही एक प्रश्न था उसके मस्तिष्क में।

आखिर कैसे जाए वह?
अपने गमों को भुलाकर इस समय वह सोचने में व्यस्त हो गई थी।

अतः नयनों में नीर आना बंद हो गया–आंसू सूख चुके थे।
सोचते-सोचते अचानक उसकी निगाह मेज पर पड़े पैन और एक कागज पर पड़ी। फिर जैसे उसे कुछ सूझ गया हो।

उसने तुरंत दोनों वस्तुएं उठाईं और कागज पर निम्न शब्द लिखे–

‘मेरे प्राणनाथ शेखर!
शायद ही मुझ जैसी अभागिन इस संसार में कोई अन्य हो। कैसा अभाग्य है मेरा कि इस रात जिस मुंह से मेरे लिए फूल झड़ने थे उस मुंह से कांटों की वर्षा हुई। आपका विश्वास मुझसे इतना शीघ्र उठ गया, यह मेरा अभाग्य नहीं तो क्या है? जो कदम मैं अब उठाने जा रही हूं, सर्वप्रथम मैं आपके चरणों को स्पर्श करके उसके लिए क्षमा चाहती हूं।

मेरे हृदयेश्वर, मैं आपको बिना सूचित किए और बिना आपकी आज्ञा लिए यहां से जा रही हूं। मैं जानती हूं मेरे देवता कि इससे बड़ा आपका अपमान नहीं हो सकता। किंतु यह सब करने के लिए इस समय मैं विवश हूं–न जाने क्यों आप भी मुझे सुमन समझने लगे, मैं सुमन नहीं हूं यही सिद्ध करने मुझे अपने पिता के घर जाना पड़ रहा है।

मेरे प्राणेश्वर–ये तुच्छ विचार कदापि अपने मस्तिष्क में न लाना कि मैं पिता के घर जाकर अपना कोई बड़प्पन दिखाना चाहती हूं अथवा आपका अपमान कर रही हूं–आपके सामने मैं क्या हूं–और मेरे पिता क्या हैं? मैं तो हूं ही आपके चरणों की दासी–और मेरे पिता ने तो आपको योग्य जानकर अपनी समस्त इज्जत ही आपको सौंप दी है।

अच्छा मेरे सुहाग, अब आपको मोनेका बनकर मिलूंगी।
आपके चरणों की दासी
–मोनेका और सिर्फ मोनेका।’

उसने शीघ्रता से यह सब लिखा और पास ही रखी मेज पर रखकर पेपरवेट से दबा दिया। फिर वह दबे पांव कमरे से बाहर आ गई। वातावरण में रात का साम्राज्य था–किंतु आज चांद भी मानो रात के सामने डट गया था।

जहां रात ने अपनी स्याह चादर से वातावरण को ढांपा था वहां चांद ने अपनी चांदनी से उस अंधकार को अपनी क्षमता के अनुसार पराजित भी कर दिया था।

वह गैलरी में आ गई।
समस्त कोठी सन्नाटे में डूबी हुई थी–उसने देखा कि गैलरी के सबसे अंतिम वाले कमरे से छनता हुआ प्रकाश आ रहा था।

वह जानती थी कि यह कमरा शेखर का है–उसने अनुमान लगाया कि शायद शेखर और गिरीश इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहे हैं।

किंतु इस विषय पर उसने अधिक नहीं सोचा बल्कि वह दबे पांव आगे बढ़ गई।

उसके बाद–
इसी प्रकार सतर्कता के साथ वह सुरक्षित बाहर आ गई।
बाहर आकर उसने इधर-उधर देखा और पैदल ही तेजी के साथ विधवा की सूनी मांग की भांति पड़ी सड़क पर बढ़ गई।

रात के वीरान सन्नाटे में उसके कदमों की टक-टक दूर तक फैली चली जाती तो बड़ी रहस्यमयी-सी प्रतीत होती।

अभी वह अधिक दूर नहीं चली थी कि उसने सामने से आती एक टैक्सी देखी। उसने तुरन्त संकेत से उसे रोका। टैक्सी जितनी उसके निकट आती जा रही थी उसकी गति उतनी ही धीमी होती जा रही थी।

Jemsbond
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Re: सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

Unread post by Jemsbond » 24 Dec 2014 15:40

११


लगता था आज टैक्सी-ड्राइवर को काफी मोटा माल मिल गया था, तभी तो वह ठेके से ठर्रा न सिर्फ लगाकर आया था बल्कि आवश्यकता से अधिक चढ़ा गया था–रह-रहकर उसकी आंखें बंद होने लगतीं। यह विचार दिमाग में आते ही कि इस समय वह टैक्सी चला रहा है वह इस प्रकार चौंककर आंखें खोलता मानो अचानक उसके जबड़े पर कोई शक्तिशाली घूंसा पड़ा हो–स्टेयरिंग लड़खड़ा जाता किंतु वह फिर संभल जाता। और उस समय तो न सिर्फ उसकी आंखें खुल गईं बल्कि उसकी बांछे भी खिल गईं जब उसने मिचमिचाती आंखों से सड़क के बीचोबीच खड़ी लाल साड़ी में लिपटी एक स्वर्गीय अप्सरा को देखा–वह उसे रुकने का संकेत कर रही थी।

उसके अंदर की शराब बोली–‘बेटे बल्लो–आज तो मेरा यार खुदा पहलवान तुझ पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही मेहरबान है–देख नहीं रहा सामने खड़ी अप्सरा को–यह खुदा पहलवान ने तेरे लिए ही भेजा है।’

मोनेका के निकट पहुंचते-पहुंचते उसने टैक्सी रोक दी और संभलकर उसने खिड़की से अपनी गर्दन निकालकर कहा–
‘‘कहां जाना है, मेम साहब?’’ उसने भरसक प्रयास किया था कि युवती यह न समझ सके कि यह नशे में है–और वास्तव में वह काफी हद तक सफल भी रहा।

मोनेका अपने ही विचारों से खोई हुई थी, उसने ही ठीक से टैक्सी ड्राइवर का वाक्य भी न सुना बल्कि सीट पर बैठकर पता बता दिया।

बल्लो ने टैक्सी वापस करके आगे बढ़ा दी।
मोनेका सीट पर बैठते ही फिर विचारों के दायरे में घिर गई।

इधर बल्लो परेशान हो गया–एक तो पहले ही शराब का नशा और ऊपर से मोनेका के सौन्दर्य का नशा। वह तो मानो अपने होशोहवास ही खोता जा रहा था। उसके दिमाग में ऊल-जलूल विचार आ रहे थे। उसे न जाने क्या सूझा कि वह एक हाथ छाती पर मारकर लड़खड़ाते स्वर में बोला–‘‘कहो मेरी जान, लाल छड़ी–यार के पास जा रही हो या आ रही हो?’’

मोनेका एकदम चौंक गई–उसके दिमाग को एक झटका-सा लगा–वह विचारों में इतनी खोई हुई थी कि उसने सिर्फ यह अनुभव किया कि टैक्सी ड्राइवर ने कुछ कहा है–किंतु क्या कहा है यह वह न सुन सकी। अतः चौंककर वह कुछ आगे होकर बोली–‘‘क्या...?’’

‘‘मैंने कहा मेरी जान, कम हम भी नहीं हैं।’’ बल्लो एक हाथ से उसे पकड़ता हुआ बोला।

मोनेका सहमी और चौंककर पीछे हट गई।
उस समय गाड़ी एक मोड़ पर थी...बल्लो का सिर्फ एक हाथ स्टेयरिंग पर था...मोनेका के सौन्दर्य के नशे में वह मोड़ के दूसरी ओर से बजने वाले हॉर्न का उत्तर भी न दे सका बल्कि लड़खड़ाती-सी चाल से उस मोड़ पर मुड़ गया। तभी दूसरी ओर से आने वाली कार पर उसकी दृष्टि पड़ी।...सामने वाली कार वेग की दृष्टि से अत्यंत तीव्र थी और उसके काफी निकट भी पहुंच चुकी थी।

बल्लो ने जब मौत को इतने निकट से देखा तो हड़बड़ा गया...उसने स्टेयरिंग संभालने का प्रयास किया किंतु कार लड़खड़ाकर रह गई।...सामने वाली कार को वह झलक के रूप में सिर्फ एक ही पल के लिए देख सका...अगले ही पल...।

अगले ही पल तो तीव्र वेग से दौड़ती कार उसकी टैक्सी से आ टकराई। एक तीव्र झटका लगा...कानों के पर्दो को फाड़ देने वाला एक तीव्र धमाका हुआ?...प्रकाश की एक चिंगारी भड़की...पेट्रोल हवा में लहराया।...साथ ही आग के शोले भी।

यह एक भयंकर एक्सीडेंट था।
दोनों कारें आग की लपटों से घिरी हुई थीं। देखते-ही-देखते वह स्थान लोगों की भीड़ से भर गया। शीघ्र ही पुलिस और फायर ब्रिगेडरों ने स्थिति पर काबू पाया।

Jemsbond
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Re: सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

Unread post by Jemsbond » 24 Dec 2014 15:40

१२


लगभग सुबह के चार बजे...।
अचानक सेठ घनश्यामदास के सिरहाने रखी मेज पर फोन की घंटी घनघना उठी।...रात क्योंकि देर से सोए थे अतः वे घंटी सुनकर झुंझला गए। किंतु जब घंटी ने बंद होने का नाम ही नहीं लिया तो विवश होकर उन्हें रिसीवर उठाना ही पड़ा और आंख मींचे-ही-मींचे वे अलसाए-से स्वर में बोले–‘‘कौन है...क्या मुसीबत है...?’’

‘‘आप सेठ घनश्यामदास बोल रहे हैं ना।’’ दूसरी ओर से आवाज आई।

‘‘यस...आप कौन हैं?’’ वे उसी प्रकार आंख बंद किए बोले।
‘‘मैं मेडिकल हॉस्पिटल से डॉक्टर शर्मा बोल रहा हूं...।

‘‘ओफ्फो! यार शर्मा...ये भी कोई समय है फोन करने का।’’ सेठजी झुंझलाए।

‘‘घनश्याम, तुम्हारी बेटी जबरदस्त दुर्घटना का शिकार हो गई है।’’

‘‘क्या बकते हो?’’ सेठ घनश्याम की आंखें एक झटके के साथ खुल गईं–‘‘आज शाम तुम्हारी उपस्थिति में ही तो उसे विदा किया है।’’

‘‘वह तो ठीक है घनश्याम लेकिन मालूम नहीं क्यों वह इस समय वापस आ रही थी कि दुर्घटना का शिकार हो गई।...ड्राइवर की तो घटना-स्थल पर ही मृत्यु हो गई, मोनेका अभी अचेत है।’’

‘‘मैं अभी आया।’’ सेठजी ने फुर्ती से कहा। उनकी नींद हवा हो गई थी। उन्होंने तुरंत शेखर के नम्बर डायल किए और फोन उठाए जाने पर वे बोले–‘‘कौन बोल रहा है? जरा शेखर को बुलाओ।’’

‘‘जी...मैं शेखर बोल रहा हूं...मोनेका शायद वहां पहुंच गई है...मैं वहीं आ रहा हूं।’’ दूसरी ओर से शेखर का स्वर था।

‘‘शेखर...रास्ते में मोनेका दुर्घटना का शिकार हो गई है।’’
‘‘क्या...क्या...क्या कहा?’’ शेखर बुरी तरह चौंक पड़ा–‘‘कैसे?’’

‘‘अभी-अभी मेरे पास डॉक्टर शर्मा का फोन आया था।’’ उसके बाद सेठ घनश्यामदास ने फोन पर संक्षेप में वह सब कुछ बता दिया जो उन्हें पता था।

सुनकर शेखर ने शीघ्रता से हॉस्पिटल में पहुँचने के लिए कहा और फोन रख दिया।

संबंध विच्छेद होते ही सेठ घनश्यामदास ने ड्राइवर को जगाया और अगले ही कुछ क्षणों में उनकी कार आंधी-तूफान का रूप धारण किए हॉस्पिटल की ओर बढ़ रही थी।

लगभग तीन मिनट पश्चात उनकी कार हॉस्पिटल के लॉन में आकर थमी।...उन्होंने लॉन में खड़ी शेखर की कार से अनुमान लगाया कि शेखर उनसे पहले यहां पहुंच चुका है।

जब वे अंदर पहुंचे तो सबसे पहले उनके कदम डॉक्टर शर्मा के कमरे की ओर बढ़े...जब वे कमरे में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने देखा कि शेखर और गिरीश कुर्सियों पर बैठे बेचैनी से पहलू बदल रहे थे। गिरीश से उनका परिचय शादी के समय स्वयं शेखर ने कराया था।

कमरे में शर्मा भी थे।...घनश्याम को देखकर तीनों उठ खड़े हुए...घनश्याम लपकते हुए बोले–‘‘कहां है मेरी बेटी?’’

‘‘आइए मेरे साथ।’’ शर्मा ने कहा और वे चारों कमरे से बाहर आकर तेजी के साथ लम्बी गैलरी पार करने लगे। सबसे आगे शर्मा चल रहे थे।

तब जबकि वे लोग उस कमरे में पहुँचे जहां मोनेका अचेत पड़ी थी...सेठ घनश्यामजी अपनी बेटी की ओर लपके।...गिरीश और शेखर ने मोनेका के चेहरे को देखा जो इस समय पट्टियों से बंधा हुआ था। अधिकतर चोट उसके माथे और गुद्दी वाले भाग में आई थी।...यूं तो समस्त चेहरा ही चोटों से भरा था किंतु वे कोई महत्त्व न रखती थीं। विशेष चोट उसके मस्तिक वाले भाग पर थी...उसके अन्य जिस्म पर कपड़ा ढका था। अतः चेहरे के अतिरिक्त चोटें और कहां आई हैं...ये वो नहीं देख सके थे। गिरीश और शेखर ने मोनेका के चोटग्रस्त, शांत, भोले और मासूम मुखड़े को देखा और फिर एक-दूसरे की ओर देखकर रह गए।

‘‘डॉक्टर...अधिक चोट आई है क्या...?’’ सेठ घनश्यामदास ने प्रश्न किया।

‘‘भगवान का धन्यवाद अदा करो घनश्याम कि मोनेका बच गई वर्ना टैक्सी ड्राइवर और दूसरी कार में बैठे दो व्यक्तियों की तो घटना-स्थल पर ही मृत्यु हो गई।’’

‘‘हे भगवान, लाख-लाख शुक्र है तुम्हारा।’’ सेठजी अंतर्धान-से होकर बोले।

‘‘वैसे कोई विशेष तो चोट नहीं आई है...सिर्फ माथे और गुद्दी में गहरी चोट लगी है।’’ डॉक्टर शर्मा ने बताया।

‘‘अभी दस मिनट पूर्व नर्स ने इंजेक्शन दिया होगा...मेरे ख्याल से दो-एक मिनट में होश आ जाना चाहिए।’’ डॉक्टर शर्मा घड़ी देखते हुए बोले।

कुछ क्षणों के लिए कमरे में निस्तब्धता छा गई, तभी सेठ घनश्याम ने निस्तब्धता को भंग किया–‘‘शेखर, मोनेका अकेली टैक्सी में घर क्यों आ रही थी?’’

उसके इस प्रश्न पर एक बार को तो शेखर हड़बड़ाकर रह गया। उससे पूर्व कि वह कुछ उत्तर दे, वे चारों ही चौंक पड़े।...चारों की निगाह मोनेका पर जा टिकी।...चौंकने का कारण मोनेका की कराहट थी। उसके जिस्म में हरकत होने लगी।...चारों शांति और जिज्ञासा के साथ उसकी ओर देख रहे थे।

मोनेका कराह रही थी उसके अधर फड़फड़ाए...धीरे-धीरे उसकी पलकों में कम्पन हुआ...कम्पन के बाद धीमे-धीमे उसने पलकें खोल दीं...उसे सब कुछ धुंधला-सा नजर आया।

‘‘मोनेका...मेरी बेटी...आंखें खोलो, देखो मैं आ गया हूं...तुम्हारा डैडी।’’ सेठ घनश्यामदास ममता भरे हाथ उसके कपोलों पर रखते हुए बोले।

शेखर व गिरीश शांत खड़े थे।
‘‘घनश्याम, उसे ठीक से होश में आने दो।’’ डॉक्टर शर्मा बोले।

सेठ घनश्याम की आंखों से आंसू टपक पड़े। ममतामयी दृष्टि से वे उसे निहार रहे थे।
इसी प्रकार कराहते हुए मोनेका ने आंखें खोल दीं...चारों ओर निहारती–सी वह बड़बड़ाई–‘‘मैं कहां हूं?’’

‘‘तुम हॉस्पिटल में हो मोनेका...देखो मैं तुम्हारा पिता हूं तुम ठीक हो।’’

‘‘मेरे पिता...।’’ उसके अधरों से धीमे कम्पन के साथ निकला–‘‘नहीं...आप मेरे पिता नहीं हैं...मैं कहां हूं...अरे तुम लोगों ने मुझे बचा क्यों लिया...मुझे मर जाने दो...मैं डायन हूं...चुड़ैल हूं, मुझे मेरे पिता मार डालेंगे।’’

‘‘ये क्या कह रही हो तुम मोनेका...? क्या तुम इसे भी नहीं पहचानती...?’’ उन्होंने शेखर को पास खींचते हुए कहा–‘‘ये है शेखर...तुम्हारा पति।’’

‘‘पति...मोनेका?’’ ऐसा लगता था जैसे वह कुछ सोचने का प्रयास कर रही है...परेशान-सी होकर वह बोली–‘‘आप लोग कौन हैं ‘और ये क्या कह रहे हैं...मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई...मेरा नाम मोनेका नहीं...मैं सुमन हूं...मुझे मर जाने दो...अब मैं जीना नहीं चाहती।’’ वह बड़बड़ाई।
ये शब्द सभी ने सुने...सभी चौंके...बुरी तरह चौके गिरीश और शेखर, उसके शब्द सुनते ही उन्होंने फिर एक दूसरे को देखा।

गिरीश तुरंत लपककर उसके पास पहुंचा और बोला–‘‘सुमन...सुमन क्या मुझे पहचानती हो?’’

‘‘गिरीश...गिरीश!’’ उसने आश्चर्य के साथ दो बार बुंदबुदाया और फिर उसकी गर्दन एक ओर ढुलक गई...वह दोबारा अचेत हो गई थी।

सब एक दूसरे को देखते रह गए...सभी के चेहरों पर आश्चर्य के भाव स्पष्ट थे।

‘‘डॉक्टर शर्मा...ये सब क्या है...?’’ ‘घनश्याम ने घबराते हुए प्रश्न किया।

‘‘इसके दिमाग में परिवर्तन हो गया है।’’ डॉक्टर शर्मा बोले।

सभी के मुंह आश्चर्य से फटे रह गए। डॉक्टर शर्मा गिरीश से संबोधित होकर बोले–‘‘क्या तुम इसे सुमन के नाम से जानते हो?’’

‘‘जी हां...उतनी ही अच्छी तरह जितना एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को जान सकता है। लेकिन सेठजी, ये क्या रहस्य है। जब इस लड़की का नाम सुमन था तो ये मोनेका कैसे बनी?’’ गिरीश ने सेठ घनश्याम से प्रश्न किया।

‘‘उफ...गिरीश! अब मैं ये कहानी तुम्हें कैसे सुनाऊं?’’
‘‘नहीं, आपको बताना ही होगा।’’

‘‘इस रहस्य से डॉक्टर भी परिचित हैं, उन्हीं से पूछ लो।’’ सेठ घनश्यामदास अपना माथा पकड़कर बैठ गए।
‘‘क्यों डॉक्टर शर्मा?’’

‘‘खैर नवयुवक...!’’ डॉक्टर शर्मा बोले–‘‘यूं तो सेठ घनश्याम की पत्नी हमसे कुछ वचन लेकर इस संसार से विदा हुई थी लेकिन अब जबकि इस लड़की की खोई हुई स्मृतियां वापस आ गई हैं तो उन्हें छुपाना लगभग व्यर्थ-सा ही है।...बात आज से लगभग एक वर्ष पुरानी है जब हम यानी मैं, सेठ घनश्यामदास, उनकी पत्नी पिकनिक मनाने जंगल में नदी के किनारे गए हुए थे। उस समय मैं मछली फंसाने के लिए कांटा नदीं में डाले बैठा था कि मैंने अपने कांटे में बढ़ता हुआ भार अनुभव किया। मैंने समझा...आज बहुत बड़ी मछली फंसी है।

काफी प्रयास के बाद मैं कांटा खींचने में सफल रहा।...इस बीच मिस्टर घनश्याम और उनकी पत्नी भी मेरी ओर आकर्षित हो चुके थे। अतः ध्यान से कांटे की ओर देख रहे थे ताकि देख सकें कि वह ऐसी कौन-सी मछली है जिसे खींचने में इतनी शक्ति लगानी पड़ रही है। लेकिन जब हमने कांटा देखा तो वहां मछली के स्थान पर एक लड़की को देखकर चौंक पड़े।...काफी प्रयासों के बाद हम लोगों ने उसे बाहर खींचा...डॉक्टर मैं था ही, तुरन्त उसकी चिकित्सा की और मैंने उसे होश में लाया। होश में आने पर लड़की ने ये कहा कि ‘मैं कहां हूं...? मैं कौन हूं...?’ उसके दूसरे वाक्य यानी ‘मैं कौन हूं’ ने मुझे सबसे अधिक चौंकाया। अतः मैंने तुरन्त पूछा–‘क्या तुम नहीं जानतीं कि तुम कौन हो?’’ उत्तर, में लड़की ने इंकार में गर्दन हिला दी।...मैं जान गया कि नदी में गिरने की दुर्घटना के कारण लड़की अपनी स्मृति गंवा बैठी है।...मैंने घनश्याम की ओर देखा और बोला–‘ये लड़की अपनी याददाश्त गंवा बैठी है।’

‘क्या मतलब...?’ दोनों ही चौंककर बोले थे।
‘मतलब ये कि अब इसे अपने पिछले जीवन के विषय में कोई जानकारी नहीं है...इसे नहीं पता कि ये कौन है?...इसका नाम क्या है...? कहां रहती है...? कौन इसके माता-पिता हैं?...सब कुछ भूल गई है ये। इसे कुछ याद नहीं आएगा...ये समझो कि ये इसका नया जीवन है।’

‘सच शर्मा...क्या ऐसा हो सकता है।’ सेठजी की पत्नी ने पूछा था।
‘हां...ऐसा हो सकता है।’ मैंने उत्तर दिया था।

‘डॉक्टर...हमारे पास इतनी धन-दौलत है किंतु संतान कोई नहीं...क्या संभव नहीं कि हम लोग इस लड़की को अपनी बेटी बनाकर रखें?’

‘इस समय तो इस लड़की को बिल्कुल ऐसी समझो जैसे बालक...इसे जो बता दो वही करेगी...
इसका जो नाम बता दोगे बस वही नाम निर्धारित होकर रह जाएगा।’

इस प्रकार हम लोगों ने इस लड़की का नाम मोनेका रखा। उसे तथा सभी मिलने वालों को ये बताया कि वह अब तक इंग्लैंड में पढ़ रही थी। उसे बता दिया गया कि उसके पिता सेठ घनश्यामदास जी हैं और मां घनश्यामदास की पत्नी।...इस रहस्य को हम तीनों के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था। इस घटना के केवल दो महीने बाद सेठजी की पत्नी का देहावसान हो गया किंतु मृत्यु-शैय्या पर पड़ी वे हम दोनों से ये वचन ले चलीं कि हम लोग इस रहस्य को रहस्य ही बनाए रखेंगे और बड़ी धूमधाम के साथ इसका विवाह करेंगे। अभी तक हम उन्हें दिए वचन को निभा रहे थे कि वक्त ने फिर एक पलटा खाया और कार एक्सीडेंट वाली दुर्घटना से उसकी खोई स्मृतियां फिर से याद आ गई हैं। मेरे विचार से अब उसे उस जीवन की कोई घटना याद न रहेगी जिसमें यह मोनेका बनकर रही है।’’

‘‘विचित्र बात है।’’ सारी कहानी संक्षेप में सुनकर शेखर बोला।

‘‘मिस्टर गिरीश!’’ शर्मा उससे संबोधित होकर बोला–‘‘क्या तुम आज से एक वर्ष पहले यानी जब ये सुमन थी, उसके प्रेमी थे?’’

‘‘निसन्देह।’’
‘‘तो मुझे लगता है कि इस कहानी के पीछे अपराधी तुम्हीं हो।’’

‘‘क्यो...आपने ऐसा क्यों सोचा।’’ गिरीश उलझता हुआ बोला।

‘‘मेरे विचार से तुमने सुमन को प्यार में धोखा दिया, क्योंकि जब हमने इसे नदी से निकाला था तो यह गर्भवती थी जिसे बाद में मैंने गिरा दिया था। वैसे मोनेका के रूप में इसे पता न था कि वह एक बच्चे की मां भी बन चुकी है। मेरे ख्याल से वह बच्चा तुम्हारा ही होगा।’’

डॉक्टर शर्मा के ये शब्द सुनकर गिरीश का हृदय फिर टीस से भर गया...सूखे घाव फिर हरे हो गए। उसके दिल में एक हूक-सी उठी...तीव्र घृणा फिर जाग्रत हुई...उसकी आंखों के सामने एक बार फिर बेवफा सुमन घूम गई...एक बार फिर वही सुमन उसके सामने आ गई थी जो नारी के नाम पर कलंक थी सुमन का वह गंदा पत्र फिर उसकी आंखों के सामने घूम गया।

अब उसे सुमन से कोई सहानुभूति-नहीं थी...यह तो वह जान चुका था कि मोनेका के रूप में वह जो कुछ कह रही थी, जो कुछ कर रही थी, इसमें उसकी कोई गलती न थी किंतु गिरीश भला उस सुमन को कैसे भूल सकता है जिसने उसे नफरत का खजाना अर्पित किया? जिसने उसे बर्बाद कर दिया। वह उस गंदी, बेवफा और घिनौनी सुमन को कैसे भूल सकता था? उसे तो सुमन से नफरत थी...गहन नफरत।

और आज–
आज एक वर्ष बाद भी डॉक्टर शर्मा सुमन के कारण ही कितने बड़े अपराध का अपराधी ठहरा रहा था।

उसकी आंखों में क्रोध भर आया, उसका चेहरा लाल हो गया।

उसका मन चाहा कि आगे बढ़कर अचेत नागिन का ही गला घोंट दे। वह आगे बढ़ा किंतु शेखर ने तुरंत उसकी कलाई थामकर दबाई...फिलहाल चुप रहने का संकेत किया।
गिरीश खून का घूंट पीकर रह गया।
डॉक्टर शर्मा के अधरों पर एक विचित्र मुस्कान उभरी...ये मुस्कान बता रही थी कि उन्होंने गिरीश की चुप्पी का मतलब अपराध स्वीकार से लगाया है। अतः वे गिरीश की ओर देखकर बोले–‘‘मिस्टर गिरीश...अपने दोस्त के पास आकर तुम सुमन से मिले किंतु विश्वास करो, मोनेका के रूप में वह तुम्हें नहीं पहचानती थी लेकिन अब जबकि वह अपनी पुरानी स्मृतियों में वापस आ गई है तो वह तुम्हारे अतिरिक्त हममें से किसी को नहीं पहचानेगी। अतः अब तुम्हें मानवता के नाते सुमन को अपनाकर उसके घावों पर फोया रखना होगा। होश में आते ही तुम उससे प्यार की बातें करोगे ताकि उसके जीवित रहने की अभिलाषा जाग्रत हो।...तुम्हें सुमन को स्वीकार करना ही होगा।’’

गिरीश का मन चाहा कि वह चीखकर कह दे–‘प्यार की बातें...और इस डायन से, इसके होश में आते ही मैं इसकी हत्या कर दूंगा...ये नागिन है...जहरीली नागिन।’ लेकिन नहीं वह कुछ नहीं बोला। उसने अपने आंतरिक भावों को व्यक्त नहीं किया, वहीं दबा दिया...वह शान्त खड़ा रहा।

उसके बाद...।
तब जबकि एक इंजेक्शन देकर अचेत सुमन को फिर होश में लाया गया...उसी प्रकार कराहटों के साथ उसने आंखें खोलीं...आंखें खोलते ही वह बड़बड़ाई–

‘‘गिरीश...गिरीश...।’’
गिरीश के मन में एक हूक-सी उठी। उसका मन चाहा कि वह चीखकर कह दे कि वह अपनी गंदी जबान से उसका नाम न ले किंतु उसने ऐसा नहीं किया बल्कि ठीक इसके विपरीत वह आगे बढ़ा और सुमन के निकट जाकर बोला–‘‘हां...हां सुमन मैं ही हूं...तुम्हारा गिरीश।’’ न जाने क्यों इस नागिन को मृत्यु-शैया पर देखकर उसका हृदय पिघल गया था। कुछ भी हो उसने तो प्यार किया ही था इस डायन को।

गिरीश के मुख से ये शब्द सुनकर सुमन की वीरान आंखों में चमक उत्पन्न हुई...उसके अधरों में धीमा-सा कंम्पन हुआ, उसने हाथ बढ़ाकर गिरीश का स्पर्श करना चाहा किंतु तभी सब चौंक पड़े। उसका ध्यान उसी ओर था कि कमरे के दरवाजे से एक आवाज आई–‘‘एक्सक्यूज मी।’’

चौंककर सबने दरवाजे की तरफ देखा और दरवाजे पर उपस्थित इंसानों को देखकर, वे अत्यंत बुरी तरह चौंके, वहां कुछ पुलिस के सिपाही थे और सबसे आगे एक इंस्पेक्टर था। इंस्पेक्टर बढ़ता हुआ डॉक्टर शर्मा से बोला–‘‘क्षमा करना डॉक्टर शर्मा, मैंने आपके कार्य में हस्तक्षेप किया, किंतु क्या किया जाए, विवशता है। यहां एक जघन्य अपराध करने वाला अपराधी उपस्थित है।’’

सुमन सहित सभी चौंके...चौंककर एक-दूसरे को देखा मानो पूछ रहे हों कि क्या तुमने कोई अपराध किया है? किंतु किसी भी चेहरे से ऐसा प्रगट न हुआ जैसे वह अपराध स्वीकार करता हो। सबकी नजरें आपस में मिलीं और अंत में फिर सब लोग इंस्पेक्टर को देखने लगे मानो प्रश्न कर रहे हो कि तुम क्या बक रहे हो? कैसा जघन्य अपराध? कौन है अपराधी?

इंस्पेक्टर आगे बढ़ता हुआ अत्यंत रहस्यमय ढंग से बोला–‘‘अपराधी पर हत्या का अपराध है।’’

‘‘इंस्पेक्टर!’’ शर्मा अपना चश्मा संभालते हुए बोला–‘‘पहेलियां क्यों बुझा रहे हो...स्पष्ट क्यों नहीं कहते किसकी हत्या हुई है...हममें से हत्यारा कौन है?’’

‘‘हत्या देहली में...पांच तारीख की शाम को हुई है, और शाम के तुरंत बाद वाली ट्रेन से मिस्टर गिरीश यहां के लिए रवाना हो गए ताकि पुलिस उन पर किसी तरह का संदेह न कर सके।’’

‘‘क्या बकते हो इंस्पेक्टर?’’ गिरीश बुरी तरह चौंककर चीखा–‘‘अगर पांच तारीख की शाम को खून हुआ है और मैं संयोग से यहां आया हूं तो क्या खूनी मैं ही हूं।’’

‘‘मिस्टर गिरीश...पुलिस को बेवकूफ बनाना इतना सरल नहीं...खून आप ही ने किया है, इसके कुछ जरूरी प्रमाण पुलिस के पास मौजूद हैं, ये बहस अदालत में होगी...फिलहाल हमारे पास तुम्हारी गिरफ्तारी का वारन्ट है।’’ इंस्पेक्टर मुस्कराता हुआ बोला।

‘‘लेकिन इंस्पेक्टर खून हुआ किसका है?’’ प्रश्न शेखर ने किया।

‘‘इनकी ही एक पड़ोसी मिसेज संजय यानी मीना का...।’’
‘‘मीना का कत्ल...?’’ गिरीश का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया।

और सुमन को फिर एक आघात लगा...होश में आते ही उसने सुना कि उसकी दीदी का खून हो गया है। खून करने वाला भी स्वयं गिरीश। क्या गिरीश इस नीचता पर उतर सकता है?...हां उसके द्वारा लिखे गए पत्र का प्रतिशोध गिरीश इस रूप में भी ले सकता है। भीतर-ही-भीतर उसे गिरीश से घृणा हो गई। उसने चीखना चाहा...गिरीश को भला-बुरा कहना चाहा किंतु वह सफल न हो सकी। उसकी आंखें बंद होती चली गईं और बिना एक शब्द बोले वह फिर अचेत हो गई, अचेत होते-होते उसका दिल भी गिरीश के प्रति नफरत और घृणा से भर गया।

इधर मीना की हत्या के विषय में सुनकर गिरीश अवाक ही रह गया। सभी की निगाहें उस पर जमी हुई थीं। इंस्पेक्टर व्यंग्यात्मक लहजे में बोला–‘‘मान गए मिस्टर गिरीश कि तुम सफल अभिनेता भी हो।’’

‘‘इस्पेक्टर! आखिर किस आधार पर तुम मुझे इतना संगीन अपराधी ठहरा रहे हो?’’

‘‘ये अदालत में पता लगेगा, फिलहाल मेरे पास तुम्हारे लिए ये गहना है।’’ कहते हुए इंस्पेक्टर ने गिरीश की कलाइयों में हथकड़िया पहना दीं।

गिरीश एकदम शेखर की ओर घूमकर बोला–‘‘शेखर...खून मैंने नहीं किया...ये मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र है।’’

शेखर चुपचाप देखता रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह वह क्या है? गिरीश ‘बदनसीब’ है लेकिन आखिर कितना आखिर कितने गम मिलने हैं गिरीश को? आखिर किन-किन परीक्षाओं से गुजार रहा है भगवान उसे? एक गम समाप्त नहीं होता था कि दूसरा गम उसका दामन थाम लेता था।

शेखर सोचता रह गया और गिरीश को लेकर इंस्पेक्टर कमरे से बाहर निकल गया।

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