सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

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Jemsbond
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Re: सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

Unread post by Jemsbond » 24 Dec 2014 15:35




प्रेम...एक ऐसी अनुभति जो वक्त के साथ आगे बढ़ती ही जाती है। वक्त जितना बीतता है प्रेम के बंधन उतने ही सख्त होते चले जाते हैं।

प्रेम के ये दो हमजोली वक्त के साथ आगे बढ़ते रहे। सुमन गिरीश की पूजा करती...उसने उसकी सूरत अपने मन-मंदिर में संजो दी। सुमन उसके गले में बांहे डाल देती तो वह उसके गुलाबी अधरों पर चुम्बन अंकित कर देता।

समय बीतता रहा।
वे मिलते रहे, हंसी-खुशी...वक्त कटने लगा। दोनों मिलते, प्रेम की मधुर-मधुर बातें करते–एक-दूसरे की आंखों में खोकर...समस्त संसार को भूल जाते। सुमन को याद रहता गिरीश। गिरीश को याद रहती सिर्फ सुमन...।

वे प्रेम करते थे...अनन्त प्रेम...और गंगाजल से भी कहीं अधिक सच्चा। प्रेम के बांध को तोड़कर वे उस ओर कभी नहीं बढ़े जहां इस रिश्ते को पाप की संज्ञा में रख दिया जाता है। वे तो मिलते...और बस न मिलते तो दोनों तड़पते रहते।

किंतु उस दिन की गुत्थी एक कांटा-सा बनकर गिरीश के हृदय में चुभ रही थी। उसने कई बार सुमन से भी पूछा किंतु प्रत्येक बार वह सिर्फ उदास होकर रह जाती। अतः अब गिरीश ने सुमन से संजय के विषय में बातें करनी ही समाप्त कर दीं। किंतु दिल-ही-दिल में वह कांटा नासूर बनता जा रहा था।...जहरीला कांटा। गिरीश न जान सका कि रहस्य क्या है।

लेकिन अब कभी वह सुमन के सामने कुछ नहीं कहता। सब बातों को भुलाकर वे हंसते, मिलते, प्रेम करते और एक-दूसरे की बांहों में समा जाते। जब सुमन गिरीश से बातें करती तो गिरीश उसके साहस पर आश्चर्यचकित रह जाता। वह हमेशा यही कहती कि वह उसके लिए समस्त संसार से टकरा जाएगी।

शाम को तब जबकि सूर्य अपनी किरणों को समेटकर धरती के आंचल में समाने हेतु जाता उस समय वे किन्हीं कारणों से मिल नहीं पाते थे। ऐसे ही एक समय जब गिरीश अपनी छत पर था और सुमन के उस मकान की छत को देख रहा था जिसकी दीवार पुताई न होने के कारण काली पड़ गई थी। वह उसी छत को निहार रहा था कि चौंक पड़ा...प्रसन्नता से वह झूम उठा...क्योंकि छत पर उसे सुमन नजर आईं और बस फिर वे एक-दूसरे को देखते रहे। सूर्य अस्त हो गया...रजनी का स्याह दामन फैल गया...वे एक-दूसरे को सिर्फ धुंधले साए के रूप में देख सकते थे किंतु देख रहे थे। हटने का नाम कोई लेता ही नहीं था। अंत में गिरीश ने संकेत किया कि पार्क में मिलो तो वे पार्क में मिले। उस दिन के बाद ऊपर आना मानो उनकी कोई विशेष ड्यूटी हो। सूर्य अस्त होने जाता तो बरबस ही दोनों के कदम स्वयमेव ही ऊपर चल देते। फिर रात तक वहीं संकेत करते और फिर बाग में मिलते।

सुख...प्रसन्नताएं...खुशियां, इन्हीं के बीच से वक्त गुजरता रहा, लेकिन क्या प्रेम करना इतना ही सरल होता है? क्या प्रेम में सिर्फ फूल हैं? नहीं...अब अगर वो फूलों से गुजर रहे थे तो राह में कांटे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।...दुख उन्हें खोज रहे थे।

एक दिन...।
तब जबकि प्रतिदिन की भांति वे दोनों पार्क में मिले...मिलते ही सुमन ने कहा–‘‘गिरीश...बताओं तो कल क्या है?’’

‘‘अरे ये भी कोई पूछने वाली बात है...कल शुक्रवार है।’’
‘‘शुक्रवार के साथ और भी बहुत कुछ है?’’
‘‘क्या?’’
‘‘मेरी वर्षगांठ।’’
‘‘अरे...सच...!’’ गिरीश प्रसन्नता से उछल पड़ा।

‘‘जी हां जनाब, कल तुम्हें आना है, घर तो घर वाले स्वयं ही कार्ड पहुँचा देंगे किंतु तुमसे मैं विशेष रूप से कह रही हूं। आना अवश्य।’’

‘‘ये कैसे हो सकता है कि देवी का बर्थ डे हो और भक्त न आएं?’’

‘‘धत्।’’ देवी शब्द पर सदा की भांति लजाकर सुमन बोली–‘‘तुमने फिर देवी कहा।’’
‘‘देवी को देवी ही कहा जाएगा।’’

सुमन फिर लाज से दोहरी हो गई। गिरीश ने उसे बांहों में समेट लिया।

सुमन की वर्षगांठ–
घर मानो आज सज-संवरकर दुल्हन बन गया था। चारों ओर खुशियां–प्रसन्नताएं बच्चों की किलकारियां और मेहमानो के कहकहे। समस्त मेहमान घर में सजे-संवरे हॉल में एकत्रित हुए थे। उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सुमन को मुबारकबाद देता, सुमन मधुर मुस्कान के साथ उसे स्वीकार करती किंतु इस मुस्कान में हल्कापन होता–हंसी में चमक होती भी कैसे?...इस चमक का वारिस तो अभी आया ही नहीं था। जिसका इस मुस्कान पर अधिकार है।...हां...सुमन को प्रत्येक क्षण गिरीश की प्रतीक्षा थी जो अभी तक नहीं आया था। रह-रहकर सुमन की निगाहें दरवाज़े की ओर उठ जातीं किंतु अपने मन-मंदिर के भगवान को अनुपस्थित पाकर वह निराश हो जाती। सब लोग तो प्रसन्न थे...यूं प्रत्यक्ष में वह भी प्रसन्न थी किंतु अप्रत्यक्ष रूप में वह बहुत परेशान थी। उसके हृदय में भांति-भांति की शंकाओं का उत्थान-पतन हो रहा था।

‘‘अरे सुमन...!’’ एकाएक उसकी मीना दीदी बोली।
‘‘यस दीदी।’’

‘‘चलो केक काटो...समय हो गया है।’’
सुमन का हृदय धक् से रह गया।

केक काटे...किंतु कैसे...?...गिरीश तो अभी आया ही नहीं...नहीं वह गिरीश की अनुपस्थिति में केक नहीं काटेगी–अतः वह संभलकर बोली–‘‘अभी आती हूं, दीदी।’’

‘‘अब किसकी प्रतीक्षा है हमारी प्यारी साली जी को?’’ एकाएक संजय बीच में बोला।

‘‘आप मुझसे ऐसी बातें न किया कीजिए जीजाजी।’’ सुमन के लहजे में हल्की-सी झुंझलाहट थी जिसे मीना ने भी महसूस किया।

‘‘ये क्या बदतमीजी है सुमन–क्या इसी तरह बात होती है बड़े जीजा से?’’ मीना का लहजा सख्त था।

सुमन उत्तर में चुप रह गई–कुछ नहीं बोली वह। सिर्फ गर्दन झुकाकर रह गई।

संजय भी थोड़ा-सा गंभीर हो गया था। अचानक मीना फिर बोली–‘‘चलो–समय होने वाला है।’’

‘‘अभी मेरी एक सहेली आने वाली है।’’
इससे पूर्व कि मीना कुछ कहे दरवाजे से उसकी सहेली प्रविष्ट हुई, मीना तुरन्त स्वागत हेतु आगे बढ़ गई। संजय सुमन के पास ही खड़ा था। वह सुमन से बोला–‘‘क्यों सुमन–क्या हमसे नाराज हो?’’

‘‘नहीं तो–ऐसी कोई बात नहीं है।’’ सुमन गर्दन उठाकर बोली।

‘‘तो फिर हमसे तुम प्यार से बातें नहीं करतीं–क्या हमने तुम्हें वह उचित प्यार नहीं दिया जो एक जीजा साली को हो सकता है?’’ संजय प्यार-भरे स्वर में बोला।

‘‘आप तो बेकार की बातें करते हैं, जीजाजी।’’
सुमन अभी इतना ही कह पाई थी कि उसकी आंखों में एकदम चमक उत्पन्न हो गई। दरवाजे पर उसे गिरीश नजर आया–उसके साथ अनीता भी थी। वह संजय को वहीं छोड़कर तेजी के साथ उस ओर बढ़ी और अनीता का स्वागत करती हुई बोली–‘‘आओ अनीता–बहुत देर लगाई। कितनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं।’’ शब्द कहते-कहते उसने एक तीखी निगाह गिरीश पर भी डाली।

गिरीश को लगा जैसे ये शब्द उसी के लिए कहे जा रहे हो। तभी वहां संजय भी आ गया, संजय को देखकर गिरीश ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा–‘‘नमस्कार भाई साहब।’’

‘‘नमस्कार भई गिरीश। लगता है सुमन तुम्हीं लोगों की प्रतीक्षा कर रही थी।’’

संजय के शब्दों में छिपे व्यंग्य को समझकर एक बार को तो सुमन और गिरीश स्तब्ध रह गए, किंतु मुखड़े के भावों से उन्होंने यह प्रकट न होने दिया, तुरंत संभलकर गिरीश बोला–‘‘ये तो हमारा सौभाग्य है संजय जी कि यहां हमारी प्रतीक्षा हो रही है।’’

फिर सुमन अनीता को साथ लेकर एक ओर को चली गई–संजय और गिरीश एक अन्य दिशा में चल दिए। सुमन ने संजय की उपस्थिति में गिरीश से अधिक बातें करना उपयुक्त न समझा था, किंतु इस बात से वह अत्यंत प्रसन्न थी कि गिरीश आ चुका था।

पार्टी चलती रही।
इतनी भीड़ में भी गिरीश और सुमन के नयन समय-समय पर मिलकर दिल में प्रेम जाग्रत करते जबकि संजय पूरी तरह उनकी आंखों में एक दूसरे के प्रति छलकता प्रेम देख रहा था और अपने संदेह को विश्वास में बदलने का प्रयास कर रहा था। अन्य प्रत्येक व्यक्ति अपने में व्यस्त था।

समा यूं ही रंगीन चलता रहा–कहकहे लगते रहे–बच्चों की किलकारियों से वातावरण गूंजता रहा। सुमन और गिरीश के नयन अवसर प्राप्त होते ही मिलते रहे।

अंत में–
तब जबकि मीना ने समस्त मेहमानो में यह घोषणा की कि अब सुमन केक काटेगी तो सबने तालियां बजाकर उसका स्वागत किया। गिरीश को एक विचित्र-सी अनुभूति का अहसास हुआ। सुमन आगे बढ़ी और मेज पर रखे केक के निकट पहुंच गई। उसके दाएं-बाएं उसके मम्मी-डैडी खड़े थे। पीछे मीना और संजय–उसके ठीक सामने गिरीश था। उसने मोमबत्तियां बुझाईं और छुरी से केक काटने लगी–पहले हॉल तालियों की गड़हड़ाहट से गूंज उठा और फिर हैप्पी बर्थ डे के शब्दों से वातावरण गुंजायमान हो उठा।

इधर तालियां बज रही थीं–सुमन को शुभकामनाएं दी जा रही थीं–समस्त और खुशियां, प्रत्येक व्यक्ति खुश। खुशी-ही-खुशी–खुशी और सिर्फ खुशी–किंतु तभी ताली बजाता हुआ गिरीश चौंक पड़ा। ताली बजाते हुए उसके हाथ जहां के तहां थम गए। उसकी निगाह सुमन पर टिकी हुई थी।

उसे महसूस हुआ जैसे सुमन को कै आ रही हो–छुरी छोड़कर सुमन ने सीने पर हाथ रखा और उल्टी करनी चाही–कैसे अवसर पर उसकी तबीयत बिगड़ गई थी।

अगले ही पल सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो गया। क्षण-मात्र में वहां सन्नाटा छा गया। सभी की निगाहें सुमन पर टिकी हुई थीं। सभी थोड़े गंभीर-से हो गए थे।

सुमन अभी तक इस प्रकार की क्रियाएं कर रही थी मानो उल्टी करना चाहती हो। तभी उसके बराबर में खड़े उसके पिता ने उसको संभाला–मेहमान उधर लपके। मेहमानो में एक पोपली-सी बुढ़िया भी उस ओर लपकी और भीड़ को चीरती हुई सुमन तक पहुंची।

‘‘अरे! डॉक्टर माथुर, देखना सुमन को क्या हो गया?’’ एकाएक सुमन के पिता चीखे। उसके दोस्त। डॉक्टर माथुर, जो मेहमानो में ही उपस्थित थे उसी ओर लपके।

इससे पूर्व कि माथुर वहां तक पहुँचे...पोपली-सी बुढ़िया भली प्रकार से सुमन का निरीक्षण कर चुकी थी। एक ही पल में बुढ़िया की आँखें आश्चर्य से उबल पड़ीं। अपनी उंगली बूढ़े अधरों पर रखकर तपाक से आश्चर्यपूर्ण मुद्रा में बोली–‘‘हाय दैया...ये तो मां बनने वाली है।’’

‘‘क्या...ऽ...ऽ...?’’ एक साथ अनेक आवाजें।
एक ऐसा रहस्योद्घाटन जिससे सभी स्तब्ध रह गए...प्रत्येक इंसान सन्न रह गया, एक दूसरे की ओर देखा मानो पूछ रहे हो...इसका क्या मतलब है? सुमन तो अविवाहित है...फिर वह मां कैसे बनने लगी...? हॉल में मौत जैसी शान्ति छा गई।

और गिरीश!
उसके हदय पर मानो सांप ही लोट गया था। उसे लगा जैसे समस्त हॉल घूम रहा है...सब घूम रहे हैं। उसकी आत्माएं उसी के हाल पर कहकहे लगा रही है...उसका दिमाग चकरा गया। उसे विश्वास कैसे हो...? ये सब क्या है...? सुमन मां बनने वाली है किंतु क्यों? कैसा अनर्थ है ये? ये कैसा रूप है सुमन का...? आखिर ये सब कैसे हो गया? सुमन के पेट में बच्चा किसका...? उसे लगा जैसे ये समाज उसके प्यार पर कहकहे लगा रहा है। उसे धिक्कार रहा है। उसे लगा जैसे वह अभी चकराकर गिर जाएगा...किंतु नहीं...वह नहीं गिरा...उसने स्वंय को संभाला...उसका गिरना इस समय उचित न था।

सुमन के माता-पिता, बहन और संजय सभी उस पोपली बुढ़िया की सूरत देखते रहे...क्या कभी, उनका इससे अधिक अपमान हो सकता था? नहीं कभी नहीं...इतने मेहमानों के सामने-इतना बड़ा अपमान...भला कैसे सहन करें वे? ये क्या किया सुमन ने? सुमन ने समाज में उसके जीने के रास्ते ही बन्द कर दिए।

एक क्षण के लिए समस्त हॉल आश्चर्य के सागर में गोते लगाता रहा।

सबको इस पोपली-सी बुढ़िया का विश्वास था क्योंकि वह शहर की मशहूर दाई थी। नारी को एक ही नजर में देखकर वह बता देती थी कि यह कब तक मां बन जाएगी।

माथुर के कदम भी अपने स्थान पर स्थिर हो गए।
सुमन को भी बुढ़िया के वाक्य से एक झटका-सा लगा। भय से वह कांप गई, मन की चोट से भयभीत हो गई...उल्टी मानो एकदम ही बंद हो गई।

तभी उसके पिता ने उसे एक तीव्र धक्का दिया और चीखे–
‘‘ये तूने क्या किया?’’
सुमन धड़ाम से फर्श पर गिरी। गिरीश का हृदय मानो तड़प उठा।

सभी मूर्तिवत खड़े थे। सुमन फूट-फूटकर रोने लगी। सुमन के पिता की आँखें शोले उगलने लगीं। पिता तो मानो क्रोध में पागल ही हुए जा रहे थे।

क्रोध से थर-थर कांप रहे थे। आंखें आग उगल रही थीं, वे सुमन की ओर बढ़े और चीखे–

‘‘तू मेरी बेटी नहीं हो सकती कमीनी।’’
सुमन की सिसकारियां क्षण-प्रतिक्षण तीव्र होती जा रही थी। गिरीश तो शून्य में निहारे जा रहा था मानो वह खड़ा-खड़ा पत्थर का बुत बन गया हो, उसे जैसे कुछ ज्ञान ही न हो, मानो उसका शव खड़ा हो।

‘‘कमीनी...जलील...कुल्टा...कुतिया।’’ आवेश में सुमन के पिता जोर से चीखे–‘‘बोल किसका है ये पाप? कौन है वो कमीना जिसके साथ तूने मुंह काला किया?’’ साथ ही उन्होंने सुमन के बाल पकड़कर ऊपर उठाया।

उफ! कैसा जलालत से भरा हुआ चेहरा था सुमन का। लाल...आंसुओं से भरा–क्या यह वही सुमन थी जिसे गिरीश देवी कहता था? जिसकी वह पूजा करता था। क्या यही रूप है आधुनिक देवी का? कैसा कठोर सत्य है यह?

कैसा मासूम मुखड़ा? और ऐसा जघन्म पाप...देखने में लगती देवी...किंतु कार्य में वेश्या। सूरत कितनी गोरी...किंतु दिल कितना काला? क्या यही रूप है आज की भारतीय नारी का? ऐसे जघन्य अपराध के बाद भला किसे उससे प्यार होगा? कौन उसे सहानुभूति की दृष्टि से देखेगा? नहीं–किसी ने उसका साथ नहीं दिया।

तड़ाक–
उसके पिता ने उसके गाल पर एक तमाचा मारा। उसके बाल पकड़कर जोर से झंझोड़ा और चीखे–‘‘किसका है ये पाप–बता–वर्ना मैं तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।’’

लेकिन सुमन कुछ नहीं बोली। उसकी विचित्र-सी स्थिति थी।

और फिर मानो उसके पिता पागल हो गए–खून उनकी आंखों में उतर आया–राक्षसी ढंग से उन्होंने सुमन को बेइन्तहा मारा–कोई कुछ न बोला–सब मूर्तिवत-से खड़े रहे–अचानक उसके पिता के दोनों पंजे उसकी गर्दन पर जम गए तथा वे चीखकर बोले–‘‘अंतिम बार पूछता हूं जलील लड़की...बता ये पाप किसका है?’’

किंतु सुमन का उत्तर फिर मौनता ही थी–उसके पिता क्रोध से पागल हुए जा रहे थे। सुमन किसी प्रकार का प्रतिरोध भी नहीं कर रही थी, फिर सुमन की गर्दन पर उसके पिता की पकड़ सख्त होती चली गई, सुमन की सांस रुकने लगी, मुखड़ा लाल हो गया, नसों में तनाव आ गया। उसके पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वे एक बार फिर दांत भींचकर बोले–‘‘अब भी बता दे कौन है वो–किसका है यह पाप?’’

‘‘मेरा!’’ एकाएक सबने चौंककर गिरीश की ओर देखा...वह आगे बोला–‘‘हां...मेरा है ये बच्चा। जिसको आप पाप कह रहे हैं–मैं उसका पिता हूं।’’ ये शब्द कहते समय गिरीश का चेहरा भावरहित था। पत्थर की भांति सपाट और सख्त।

सभी चौंके थे–सबने गिरीश की ओर देखा, मुंह आश्चर्य से खुले के खुले रह गए। अनीता अपने भाई को देखती ही रह गई–कैसा भावरहित सख्त चेहरा।

सुमन ने स्वयं चौंककर गिरीश की ओर देखा–उसे लगा ये गिरीश वह गिरीश नहीं है–पत्थर का गिरीश है। उसके वाक्य के साथ ही सुमन के पिता की पकड़ सुमन के गले से ढीली पड़ गई–खूनी निगाहों से उन्होंने गिरीश की ओर देखा, गिरीश मानो अडिग चट्टान था।

खूनी राक्षस की भांति वे सुमन को छोड़कर गिरीश की ओर बढ़े किंतु गिरीश ने पलक भी नहीं झपकाई, तभी मानो सुमन में बिजली भर गई, वह तेजी से लपकी और गिरीश के आगे जाकर खड़ी हो गई, न जाने उसमें इतना साहस कहां से आ गया कि वह चीखी–

‘‘नहीं डैडी–अब तुम इन्हें नहीं मार सकते–अब ये ही मेरे पति हैं–मेरे होने वाले बच्चे के पिता हैं, इनसे पहले तुम्हें मुझे मारना होगा।’’

‘‘हट जाओ–इस कमीने के सामने से।’’ वे बुरी तरह दहाड़े और साथ ही सुमन को झटके के साथ गिरीश के सामने से हटाना चाहा किंतु सुमन ने कसकर गिरीश को पकड़ लिया था।

‘‘हम दोनों की शादी मंदिर में हो चुकी है...हम पति-पत्नी हैं।’’ इस बार गिरीश बोला। न जाने वह किन भावनाओं के वशीभूत बोल रहा था। चेहरे पर तो कोई भाव न थे।

‘‘हम बालिग हैं डैडी...मुझे अपना पति चुनने का पूरा अधिकार है, मैं गिरीश को अपना पति चुनती हूं।’’

उफ...! कैसी यातनाएं थीं ये बेटी की बाप को...क्या कोई बेटी अपने बाप को इस भरे समाज में इतना अपमानित कर सकती है। नहीं...उसके पिता इतना अपमान सहन न कर सके। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सारा वातावरण उन्हें घूमता-सा नजर आया। वे चकराए और धड़ाम से फर्श पर गिरे।

‘‘डैडी...ऽ...ऽ...!’’ सुमन बुरी तरह चीखी और अपने पिता की ओर लपकी।

‘‘ठहरो...।’’ एकाएक उसकी मम्मी चीखी...उनका चेहरा भी पत्थर की भांति सख्त था–तुम इन्हें हाथ नहीं लगाओगी। भाग जाओ यहां से।’’

सुमन ठिठक गई इस बीच माथुर लपककर उसके पिता को देख चुके थे, वे बोले–‘‘ये बेहोश हो गए हैं...किसी कमरे में ले चलो।’’

उसके बाद...! सुमन ने लाख चाहा कि अपने पिता से मिले किंतु उसे धक्के दे-देकर उस घर से निकाल दिया। उसकी बड़ी बहन मीना ने उसे ठोकर मार-मारकर निकाल दिया, मेहमानो ने उसे अपमानित किया। न जाने कितनी बेइज्जती करके उसे निकाल दिया गया, सुमन सिसकती रही...फफकती रही परन्तु गिरीश पत्थर की भांति सख्त था...उसकी आंखों में वीरानी थी। वह सब कुछ चुपचाप देख रहा था...बोला कुछ नहीं था। उस घर से ठुकराई हुई सुमन को वह अपने घर ले आया।

कैसी विडम्बना थी ये...कैसा अनर्थ...? कैसा पाप...? कैसा प्रेम? कितने रूप हैं प्रेम के...? ये गिरीश का कैसा प्यार है...आखिर सुमन का क्या रूप है?...क्या वह नारी जाति पर कलंक है...? वहा कहां तक सही है? उसके मन का भेद क्या है?
सब एक रहस्य था...एक गुत्थी...एक राज।

Jemsbond
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Re: सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

Unread post by Jemsbond » 24 Dec 2014 15:36




गिरीश के घर का वातावरण कुछ विचित्र-सा बन गया था।
कोई किसी से कुछ कह नहीं रहा था, किंतु आंखें बहुत कुछ कह रही थीं। सुमन को गिरीश वाले कमरे में पहुंचा दिया गया था। न गिरीश ने ही सुमन से कुछ कहा था न सुमन ने ही गिरीश से। वह तो बस पलंग पर घुटनों में मुंह छुपाए सिसक रही थी, फफक रही थी। उसके पास उसे सांत्वना देने वाला भी कोई न था। वह सिसकती रही...सिसकती ही चली गई। लेकिन ऐसा लगता था मानो जैसे वह उन सिसकियों के बीच से अपने जीवन के किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय पर पहुँचने का प्रयास कर रही है।

गिरीश...वास्तव में गिरीश का हृदय उस शीशे की भांति था जिसमें तार आ चुका हो। अब भला वह कब तक इस स्थिति में रहेगा...शीघ्र ही वह शीशा दो भागों में विभाजित हो जाएगा।

घर के एक कोने में बैठा वह न जाने किन भावनाओं में विचरण कर रहा था, उसके नेत्रों के अग्रिम भाग में नीर तैर रहा था जो नन्ही-नन्ही बूंदों के रूप में उसके कपोलों से ढुलककर फर्श पर गिर जाता।

वह समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या है। जिस सुमन को उसने देवी समझकर पूजा, क्या वह इतनी नीच हो सकती है...क्या सुमन का वास्तविक रूप यही है? देवी रूप क्या उसे दिखाने के लिए बनाया गया था? क्या इसी दम पर हमेशा यार की कसमें खाया करती थी सुमन...? क्या इसी आधार पर थे सारे वादे...? क्या रूप है आज की भारतीय नारी का...?

नारी!
उफ्! वास्तव में नारी की प्रवृत्ति को आज तक कोई भी समझ नहीं सका है। नारी देवी भी होती है और वेश्या भी।

नारी खुशी भी होती है और गम भी। नारी तलवार भी होती है और ढाल भी। नारी बेवफा भी होती है और वफा भी। सुमन भी तो एक नारी है...किंतु कैसी नारी...? देवी अथवा वेश्या? खुशी अथवा गम? ढाल अथवा तलवार? क्या है सुमन? उसका रूप क्या है?–क्या है वह?

नहीं–गिरीश कुछ निर्णय नहीं कर सका–उसने तो हमेशा देवी का रूप देखा था। उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मासूम सूरत वाली भोली-भाली लड़की वेश्या भी हो सकती है। किंतु उसके पेट में पलता लावारिश पाप उसकी नीचता का गवाह था–क्या रूप है सुमन का?

क्या सुमन उसके अतिरिक्त किसी अन्य से प्यार करती थी? क्या वास्तव में उसके मन-मंदिर में कोई अन्य मूरत है? क्या सुमन किसी अन्य को पूजती है? किंतु कैसे? अगर वास्तव में वह किसी अन्य को अपना देवता मानती थी तो उससे शादी की कसमें क्यों खाईं? उससे प्रेम का नाटक क्यों? उससे मिथ्या वादे क्यों? क्यों यह सब क्यों? क्यों उसके दिल से खेला गया? क्यों उसकी भावनाओं को झंझोड़ा गया? क्यों उसे इतनी यातनाएं दी गईं?

उसके भीतर-ही-भीतर मानो आत्माएं चीख रही थीं...उसके प्यार पर मानो अट्टहास लगा रही थीं। एक शोर-सा था उसके भीतर-ही-भीतर...उसने अपनी आत्मा की आवाज सुनने का प्रयास किया...। आत्मा चीख रही थी–

‘क्यों हो ना तुम बुजदिल–तुम्हें तो बड़ा विश्वास था अपने प्यार पर। बड़े गुण गाते थे सुमन के। कहां है तुम्हारा वह अटूट विश्वास? कहां गई तुम्हारी देवी सुमन? सुमन ने तुम्हारे साथ इतनी बेवफाई की। किसी अन्य मूरत को अपने मंदिर में संजोए वह तुम्हें बेवकूफ बनाती रही।’

‘नहीं...यह गलत है।’ वह विरोध में चीखा।
‘हा...हा...हा!’ आत्मा ने एक अट्टहास लगाया–‘यह गलत नहीं है...बल्कि उसने तुम्हें बेवकूफ बना दिया–उसने तुम्हें इतना बेवकूफ बना दिया कि तुम उसकी बेवफाई के बाद भी उसके लिए बदनाम हो गए। उसके पेट में पलते पाप को तुमने अपना कह दिया–जबकि वह तुम्हारा नहीं है।’

‘नहीं वह तो मेरा प्यार है?’’
‘‘प्यार!’ आत्मा ने कुटिल स्वर में कहा–‘अपनी बुजदिली को तुम प्यार कहते हो? तुम सुमन के द्वारा इतने बेवकूफ बनाए गए कि तुम अपनी बेवकूफी को प्यार की आड़ देकर बुजदिली को छुपाना चाहते हो। अगर तुम इसे प्यार समझते हो तो क्यों बैठे हो यहां? उठो और सुमन से पूछो कि किसका है वह पाप? अगर तुमसे प्यार करती होगी तो क्या वह तुम्हें नहीं बताएगी?’

‘इस समय वह स्वयं ही बहुत परेशान है।’
‘पागल हो गए हो तुम...अपनी बुजदिली को इस मिथ्या और खोखले प्यार की आड़ में छुपाना चाहते हो। तुमसे अब भी सुमन के सामने जाने की शक्ति नहीं। तुम बुजदिल हो–एक मर्द होकर नारी के पास जाने से डरते हो–क्या यही है तुम्हारी मर्दानगी?...क्या नहीं यह जानना चाहोगे कि वह पाप किसका है?’

‘नहीं...!’ उसने फिर चीखकर आत्मा की आवाज का विरोध किया–‘मैं सुमन से प्यार करता हूं–सत्य प्रेम...सिर्फ आत्मिक प्रेम...उसके शरीर से मुझे कोई सरोकार नहीं–वह पाप किसी का भी हो, मुझे इससे क्या मतलब? मैं सिर्फ ये चाहता हूं कि वह खुश रहे–मैं क्योंकि उससे प्यार करता हूं, इस गर्दिश के समय में मैं उसे सिर्फ शरण दे रहा हूं–यहां वह देवी बनकर रहेगी। जिसकी है सिर्फ उसकी ही रहेगी।’

‘वाह खूब–बहुत खूब–!’ उसकी आत्मा ने व्यंग्य किया–‘खोखली भावनाओं को प्यार का नाम देते हो–सुमन!’ वह सुमन जो तुम्हें बेवकूफ बनाती रही, तुम उससे प्यार करते हो।’

‘हां...हां...मैं उसी सुमन से प्यार करता हूं।’
आवेश में वह चीखा।
‘चलो मान लिया कि तुम उसे प्यार करते हो।’

उसकी आत्मिक आवाज फिर चीखी–‘जब तुम उससे प्यार करते हो और तुममें उसके प्रति त्याग की भावना है–अथवा तुम उसे खुश देखना चाहते हो तो उठो–खड़े हो जाओ और उससे पूछो कि वह बच्चा किसका है?– उसे वास्तविक खुशी तुम्हारे में नहीं मिलेगी बल्कि उसी के साथ मिलेगी जिससे उसने प्यार किया है! अगर वास्तव में तुम उसको खुश देखना चाहते हो तो उससे पूछकर कि वह किसका बच्चा है...उसे उसके प्रेमी के पास पहुंचा दो–उन दोनों को मिला दो–बोलो कर सकते हो यह सब? है तुममें इतना साहस?’

‘हां, मैं उन्हें मिलाऊंगा।’
‘तो प्रतीक्षा किस बात की कर रहे हो? उठो और पूछो सुमन से कि वह किसे चाहती है? पूछो, अथवा तुम्हारे मन में कोई खोट है!’

‘नहीं–नहीं–मेरे मन में कोई खोट नहीं।’
‘तो फिर उठते क्यों नहीं? चलो और पूछो उससे।’

वह आत्मिक चीखों से परास्त हो गया। वह उठा और अपने कमरे की ओर सुमन के पास चल दिया, उसने निश्चय किया था कि सुमन से पूछकर वह उन्हें मिला देगा–उसका क्या है? वह तो एक बदनसीब है। एक टूटा हुआ तारा है। बदनसीबी को ही वह गले लगा लेगा।

वह कमरे में प्रविष्ट हो गया–सुमन पलंग पर बैठी घुटनों में मुखड़ा छुपाए सिसक रही थी। वातावरण भी मानो सुमन के साथ ही सिसक रहा था। धीरे-धीरे चलता हुआ गिरीश उसके पलंग के करीब आया और उसने धीमे से कहा–‘‘सुमन–!’’

किंतु सुमन ने उत्तर में न सिर उठाया और न ही कुछ बोली। अलबत्ता उसकी सिसकियां तीव्र अवश्य हो गईं। एक ओर जहां गिरीश के दिल में सुमन की बेवफाई के कारण एक टीस थी वहां दूसरी ओर उसकी स्थिति पर उसे क्षोभ भी था। वह उसके निकट पलंग पर बैठ गया और बोला–‘‘सुमन! तुमने जो मुझे छला है तुमने जो बेवफाई का खजाना मुझे अर्पित किया है उसे तो तुम्हारा गिरीश सहर्ष स्वीकार करता है किंतु गम इस बात का है कि तुम मुझसे प्रेम का नाटक क्यों करती रहीं? क्यों नहीं मुझसे साफ कह दिया कि तुम किसी अन्य को प्यार करती हो–सच मानो सुमन, अगर तुम मुझे वास्तविकता बता देतीं तो मैं तुम्हारे मार्ग से न सिर्फ हट जाता बल्कि अपनी योग्यता के अनुसार तुम्हारी सहायता भी करता।’’

न जाने क्यों सुमन की सिसकियां उसके इन शब्दों से और भी तीव्र हो गईं। किंतु वह रुका नहीं, बोलता ही चला गया–‘‘सुमन–ये तो अच्छा हुआ कि मैंने तुम्हें–सिर्फ प्यार किया–तुम्हारे जिस्म को नहीं–वर्ना न जाने क्या अनर्थ हो जाता।’’
सुमन उसी प्रकार सिसकती रही।

‘‘सुमन अब तुम बता दो कि तुम किससे प्यार करती हो, ये शिशु किसका है–सच सुमन–मैं सच कहता हूं–स्वयं को दफन कर लूंगा–स्वयं तड़प लूंगा–सारे गमों को अपने सीने से लगा लूँगा–मैं तो पहले ही जानता था कि मैं इतना बदनसीब हूं कि कोई खुशी मेरे भाग्य में नहीं, किंतु तुमसे प्यार किया है। सच सुमन, तुम्हें तुम्हारी खुशी दिलाकर मैं भी थोड़ा खुश हो लूंगा–बोलो–बोलो कौन है वो?’’

सुमन तड़प उठी–उसकी सिसकारियां अति तीव्र हो गईं–गिरीश ने महसूस किया कि वह पश्चाताप की अग्नि में जल रही है। कोई गम उसे कचोट-कचोटकर खा रहा था। किंतु सुमन बोली कुछ नहीं–सिर्फ तड़पती रही। सिसकती रही।

गिरीश ने फिर पूछा किंतु सिर्फ सिसकियों के उत्तर कोई न मिला, उसने प्रत्येक ढंग से पूछा किंतु प्रत्येक बार सुमन की सिसकियों में वृद्धि हो गई, उत्तर कुछ न मिला।

गिरीश ने यह भी पूछा कि क्या वह अब इसी घर में रहना चाहती है लेकिन उत्तर में फिर सिसकियां थीं। सिसकियां–सिसकियां और सिर्फ सिसकियां।

सुमन ने किसी बात का कोई उत्तर नहीं दिया–अंत में गिरीश निराश–परेशान...बेचैनी की स्थिति में कमरे से बाहर निकल गया।

Jemsbond
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Re: सुमन--वेद प्रकाश शर्मा

Unread post by Jemsbond » 24 Dec 2014 15:36




गमों की भी एक सीमा होती है...दुखों का भी एक दायरा होता है। बेवफाई की भी एक थाह होती है। किंतु नहीं...गिरीश के गमों की कोई सीमा न थी। उसके दुखों का कोई दायरा न था। प्रत्येक गम को गिरीश गले लगाता रहा था–उसका प्यार उसके सामने लुट गया–सारा शहर उस पर उंगलियां उठा रहा था। किंतु वह सबको सह गया...प्रत्येक दुख को उसने सीने से लगा लिया।

वह बदनसीब है...यह तो वह जानता था किंतु इतना ‘बदनसीब’ है, यह वह नहीं जानता था। समस्त दुख भला उसी के नसीब में थे...प्रत्येक गम को वह सहन करता रहा था किंतु–

किंतु अब जो गम मिला था।
उफ...! वह तड़प उठा...मचल उठा...उसका हृदय घृणा से भर गया...एक ऐसी पीड़ा से चिहुंक उठा जिसने उसको जलाकर रख दिया। नफरत करने लगा वह नारी से...समस्त नारी जाति से।

वह सब गमों को तो सहन कर गया किंतु अब जो गम उसे मिला...वह गमों की सीमा से बाहर था। उस गम को वह हंसता-हंसता सहन कर गया...एक ऐसी यातना दी थी सुमन ने उसे कि समस्त नारी जाति से घृणा हो गई। सुमन का वास्तविक रूप उसके सामने आ गया।

किंतु कितना घिनौना था वह रूप? कितना घृणित? इस बार सुमन उसके सामने आ जाए तो वह स्वयं गला दबाकर उसकी हत्या कर दे–उस चुड़ैल का खून पी जाए।

उसके मांस को चील-कौओं को खिला दे...नग्न करके उसे चौराहे पर लटका दे।

सुमन का वास्तविक रूप देखकर उसका मन घृणा से भर गया। अपने प्यार को उसने धिक्कारा...प्यार और प्रेम जैसे नामों से उसे सख्त घृणा हो गई।

मोहब्बत शब्द उसे न सिर्फ खोखला लगने लगा बल्कि वह उसे घिनौना लगने लगा कि प्यार शब्द कहने वाले का गला घोंट दे।

सिर्फ सुमन से ही नहीं बल्कि वह समस्त नारी जाति से नफरत करने लगा।

वास्तव में गिरीश जैसा ‘बदनसीब’ शायद ही कोई अन्य हो। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इतना गम मिला हो।

उस दिन...जिस दिन गिरीश सुमन को लाया था, वह उसी के कमरे में बैठी सिसकती रही। उसी रात गिरीश एक अन्य कमरे में पड़ा न जाने क्या-क्या सोचता रहा था।

सुबह को–
तब जबकि वह एक बार फिर सुमन वाले कमरे में पहुंचा–

बस...यहीं से वह गम और घृणा की कहानी प्रारम्भ होती है...जिसने उसके हृदय में नारी के प्रति घृणा भर दी। जिस गम ने उसका सब कुछ छीन लिया।

हां यहीं से तो प्रारम्भ होती है वह बेवफाई की दास्तान!
जैसे ही गिरीश कमरे में प्रविष्ट हुआ, वह बुरी तरह चौंक पड़ा।

उसके माथे पर बल पड़ गए। संदेह से उसकी आंखें सिकुड़ गईं। एक क्षण में उसका हृदय धक से रह गया।

अवाक-सा वह उस पलंग को निहारता रह गया। जिस पर सुमन को होना चाहिए था किंतु वह चौंका इसलिए था कि अब वह पलंग रिक्त हो चुका था।

सुमन कहां चली गई?

उसके जेहन में एक प्रश्नवाचक चिन्ह बना–
तभी उसकी निगाह कमरे के पीछे पतली-सी गली में खुलने वाली खिड़की पर पड़ी, वह खुली हुई थी।

शायद सुमन इसी खिड़की के माध्यम से कहीं चली गई थी। खुली हुई खिड़की को वह निहारता ही रह गया।

‘सुमन...!’ वह बड़बड़ाया–‘सुमन तुम कहां चली गईं, तुम्हें क्या दुख थां? क्या तुम्हें मेरी इतनी खुशी भी मंजूर न थी?’

तभी उसकी नजर पलंग पर पड़े लम्बे-चौड़े कागज पर पड़ी।
एक बार फिर चौंका वह।

कागज पर कुछ लिखा हुआ था। वह दूर से ही पहचान गया, लिखाई सुमन के अतिरिक्त किसी की न थी।

उसने लपककर कागज उठा लिया और पढ़। पढ़ते-पढ़ते उसका हृदय घृणा से भर गया। उसकी आंखों में जहां आंसुओं की बाढ़ आई वहां खून की नदी मानो ठहाके लगा रही थी।

उफ...! कितने दुख दिए उसके पत्र ने गिरीश को...। उस पत्र को न जाने कितनी बार पढ़ चुका वह। प्रत्येक बार वह तड़पकर रह जाता। उसके हृदय पर सांप लोट जाता। गम-ही-गम...। आंसुओं से भरी आंखों से उसने एक बार फिर पढ़ा।

लिखा था–
‘प्यारे गिरीश,

जानती हूं गिरीश कि पत्र पढ़कर तुम पर क्या बीतेगी। जानती हूं कि तुम तड़पोगे। किंतु मैं वास्तविकता लिखने में अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। गिरीश! इस पत्र में मैं एक ऐसा कटु सत्य लिख रही हूं जिसे ये सारा संसार जानते हुए भी अनजान बनने की चेष्टा करता है। लोग उस कटु सत्य को कहने का साहस नहीं कर पाते, किंतु नहीं...आज मैं नहीं थमूंगी...मैं उस कटु सत्य से पर्दा हटाकर ही रहूंगी। तुम जैसे भावनाओं में बहकर प्रेम करने वाले नौजवानों को मैं वास्तविकता बताकर ही रहूंगी। वैसे मैं ये भी जानती हूं कि बहुत से नौजवान मेरी बात स्वीकार भी न करें। किंतु उनसे कहूंगी कि एक बार दिल पर हाथ रखकर मेरी बात को सत्यता की कसौटी पर रखें। जो दिल कहे उसे स्वीकार करें और आगे से कभी भावनाओं में बहकर प्यार न करें।

वास्तविकता ये है गिरीश कि तुम पागल हो। उसे प्यार नहीं कहते जो तुमने किया...मैं तुमसे मिलती थी...तुमसे प्यार करती थी...तुम पर अपनी जान न्यौछावर कर सकती थी...तुमसे शादी करना चाहती थी...हां...तुम यही सब सोचते थे, यही सब भावनाएं थीं तुम्हारी...किंतु नहीं गिरीश...नहीं। ऐसा कुछ भी न था। मैंने तुमसे प्यार कभी नहीं किया...मेरी समझ में नहीं आता है कि तुम जैसे नौजवान आखिर प्यार को समझते क्या हैं। न जाने तुम्हारी नजरों में क्या था? तुम प्यार करना जानते ही नहीं थे। तुम आवश्यकता से कुछ अधिक ही भावुक और भोले थे। आज के जमाने में तुम जैसा भावुक और भोला होना ठीक नहीं। तुम प्यार का अर्थ ही नहीं समझते। तुम सुमन को ही न समझ सके गिरीश। तुम सुमन की आंखों में झांकने के बाद भी न जान सके कि सुमन के मन में क्या है? तुम सुमन की मुस्कान में निहित अभिलाषा भी न पहचान सके। क्या खाक प्रेम करते थे तुम? नहीं जान सके कि प्रेम क्या होता है! तुम भावुक हो...तुम भोले हो। तुम जैसे युवकों के लिए प्रेम जैसा शब्द नहीं।

ये समाज चाहे मुझे कुछ भी कहे...तुम चाहे मुझे कुछ भी समझो किंतु आज मैं वास्तविकता लिखने जा रही हूं...कटु वास्तविकता।

आज का प्यार क्या है? तुम जैसा भोला और भावुक सोचेगा कि शायद चुम्बनों तक सीमित रहने वाला प्यार प्यार कहलाता है...किंतु नहीं...मैं इसको गलत नहीं कहती...और न ही इस विषय पर कोई तर्क-वितर्क करना पसंद करती हूं लेकिन मैं उस प्यार के विषय में लिख रही हूं जो आज का अधिकांश नौजवान वर्ग करता है। तुम्हें ये भी बता दूं कि मैं वही प्यार करती थी। शायद तुम चौंको...मुझसे घृणा भी करने लगो...किंतु सच मानना ये शब्द मैं अपनी आत्मा से लिख रही हूं ये कहानी मेरी नहीं बल्कि अधिकांश प्रेमियों की है। उनकी कहानी जो इस सत्यता को व्यक्त करने का साहस नहीं रखते। किंतु तुम जैसा भोला प्रेमी आगे कभी मुझ जैसी प्रेमिका के जाल में न फंसे, इसलिए इस पत्र में सब कुछ लिख रही हूं।

बात ये है गिरीश कि प्यार क्या होता है–इसके विषय में तुम्हारी धारणा है कि वह चुम्बनों तक सीमित रहे, तुम प्यार को सिर्फ हृदय की एक मीठी अनुभति समझते हो। सिर्फ आत्मिक प्रेम समझते हो, किंतु नहीं गिरीश नहीं...समाज में ऐसा प्रेम दुर्लभ है। प्रेम शब्द का सहारा लेकर अधिकांश युवक-युवतियां अपने उस जवानी के जोश को, जिसे वे सम्हाल नहीं पाते, एक दूसरे के सहारे दूर करते हैं।...प्रेम जवानी का वह जोश है जो एक विशेष आयु पर जन्मता है। प्रेम की आड़ में होकर प्रेमी अपनी काम-वासनाओं की सन्तुष्टि करते हैं। तुम कहोगे ये गलत है...लेकिन नहीं यह गलत नहीं एकदम सही है...अगर गलत है तो क्या तुम बता सकते हो कि लोग जवानी में ही क्यों प्रेम करते हैं।...क्यों नहीं बच्चे ये प्रेम करते...? क्यों आपस में अधेड़ जोड़ा प्यार के रास्ते पर पींगें नहीं बढ़ाता...?...क्यों आदमी आदमी से और नारी नारी से वह प्रेम नहीं करती? नहीं दे सकते गिरीश तुम इन प्रश्नों का उत्तर, नहीं दे सकते।...मैं बताती हूं...बालक बालक से इसलिए प्रेम नहीं करता कि उसके मन में पाप जैसी कोई वस्तु नहीं...उसमें जवानी का जोश नहीं...उसमें काम-वासनाओं की इच्छा या अभिलाषा नहीं। बूढ़े प्यार नहीं करते क्योंकि उनमें भी जवानी का जोश नहीं। युवक युवक से नारी नारी से प्यार नहीं करती क्योंकि इससे उनके अंदर उभरने वाले जज्बातों की पूर्ति नहीं होती–नारी को तो एक पुरुष चाहिए और आदमी को चाहिए एक नारी वक्त से पूर्व वे अपनी जवानी के ज्वार-भाटे को समाप्त कर सकें।

सोच रहे हो कितनी गंदी हूं मैं।–कितनी बेशर्म हूं–कितनी बेहया–किंतु सोचो गिरीश, ठंडे दिमाग से सोचो कि अगर प्रेम के पीछे सेक्स की भावना न होती तो युवक और युवती–प्रेमी और प्रेमिका के ही रूप में क्यों प्यार करते–क्या एक युवती के लिए भाई का प्यार सब कुछ नहीं–क्या एक युवक के लिए बहन का प्यार सब कुछ नहीं। किंतु नहीं–यह प्यार पर्याप्त नहीं। इसलिए नहीं कि इस प्यार के पीछे सेक्स नहीं है। शायद तुम्हारा मन स्वीकार कर रहा है किंतु बाहर से मुझे कितनी नीच समझ रहे होगे।

खैर, अब तुम चाहे जो समझो लेकिन मैं अपनी सेक्स भावना को...अपने जीवन के कटु अनुभव को इस पत्र के माध्यम से तुम तक पहुंचा रही हूं। वास्तव में गिरीश तुम मेरी आंखों द्वारा दिए गए मौन निमंत्रण को न समझ सके। तुम मेरी इच्छाओं को न समझ सके। मुझे एक प्रेमी की आवश्यकता तो थी, किंतु तुम जैसे सच्चे–भावुक और भोले प्रेमी की नहीं बल्कि ऐसे प्रेमी की जो मुझे बांहों में कस सके। जो मेरे अधरों का रसपान कर सके, जो मेरी इस जवानी का भरपूर आनन्द उठा सके।

तुम्हारे विचारों के अनुसार मैं कितनी घटिया और निम्नकोटि की बातें लिख रही हूं–लेकिन मेरे भोले साजन! गहनता से देखो इन सब भावनाओं को।

खैर, अब तुम जो भी समझो, किंतु मैं अपनी बात पूरी अवश्य करूंगी।

हां, तो जैसा कि मैं लिख चुकी हूं कि मुझे ऐसे प्रेमी की आवश्यकता थी जो मुझे वह सब दे सके जो कुछ मेरी जवानी मांगती थी। अपनी इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति हेतु मैंने सबसे पहले तुम्हें अपने प्रेमी के रूप में चुना–तुमसे प्रेम किया–अपनी आंखों के माध्यम से तुम्हें निमंत्रण दिया कि तुम मुझे अपनी बाहों में कस लो–अपनी मुस्कान से तुम्हें अपने दिल के सेक्सी भाव समझाने चाहे, किंतु नहीं–तुम नहीं समझे–तुम भोले थे ना–तुम्हें ये भी बता दूं कि इस संबंध में नारी की चाहे कुछ भी अभिलाषा रही हो–वह मुंह से कभी कुछ नहीं कहा करती–उसकी आंखें कहती हैं–उसके संकेत कहते हैं। जो इन संकेतों को समझ सके वह उसके काम का है और न समझे तो नारी उसे बुद्धू समझकर त्याग दिया करती है–क्योंकि वह तुम्हारी भांति आवश्यकता से कुछ अधिक भोला होता है।

अब देखो मेरे पास समय अधिक नहीं रहा है। अतः संक्षेप में सब कुछ लिख रही हूं–हां तो मैं कह रही थी कि तुम मेरे संकेतों को न समझ सके–अतः मैंने दूसरा प्रेमी तलाश किया, उसने मेरी वासना शांत की–प्रेमियों की कमी नहीं है गिरीश–कमी है तो सिर्फ तुम जैसे भोले प्रेमियों की।

मैंने तुम्हारे रहते हुए ही एक प्रेमी बनाया और उसने मेरी समस्त अभिलाषाएं पूर्ण की–किंतु गिरीश, यहां मैं एक बात अवश्य लिखना चाहूंगी कि न जाने क्यों मेरा मन तुम्हारे ही पास रहता था–मुझे तुम्हारी ही याद आया करती थी।
उसकी...उस नए जवां मर्द की याद तो सिर्फ तब आती जब मेरी जवानी मुझे परेशान करती।

अब तो समझ गए ना मेरे पेट में ये किसका पाप पल रहा है? ये मेरे उसी प्रेमी का है। अब मैं साफ लिख दूं कि सचमुच न तुम मेरे काबिल थे, और न हो सकोगे। अतः मैंने तुमसे प्यार नहीं किया। जो कुछ भी तुम्हारे साथ किया गया वह सिर्फ तुम्हारा भोलापन देखकर तुम्हारे प्रति सहानुभूति थी। मुझे जैसे प्यार की खोज थी...मुझे मेरे इस प्यारे प्रेमी ने दिया और जीवन भर देता रहेगा। अतः अब इसी के साथ यहां से बहुत दूर जा रही हूं। मुझे तुम जैसा सच्चा नहीं ‘उस’ जैसा झूठा चाहिए जो मेरी इच्छाओं को पूरी कर सके। तुम भोले हो–सदा भोले ही रहोगे–किसी भी नारी की तुम्हें सहानुभूति तो प्राप्त हो सकती है किंतु प्रेम नहीं।

तुमसे मैंने कभी प्रेम नहीं किया–तुमसे वे वादे सिर्फ तुम्हारे मन की शान्ति के लिए थे। वे कसमें मेरे लिए मनोरंजन का मात्र एक साधन थीं। अब न जाने तुम मुझे कुलटा–बेवफा–चुड़ैल–डायन–हवस की पुजारिन–जैसे न जाने कितने खिताब दे डालोगे किंतु अब जैसा भी तुम समझो–मैंने इस पत्र में वह कटु सत्य लिख दिया है जिसे लिखने में प्रत्येक स्त्री ही नहीं पुरुष भी घबराते हैं। मैं बेवफा तो तब होती जब मैं तुमसे प्यार करती होती। मैंने तो तुमसे कभी वह प्यार ही न पाया जो मैंने चाहा था अतः बेवफाई की कोई सूरत ही नहीं। अब भी अगर मेरा गम करो तो तुमसे बड़ा मूर्ख इस संसार में तो होगा नहीं।
अच्छा अब अलविदा...।
–सुमन।’

एक बार फिर पत्र पढ़ते-पढ़ते वह तड़प उठा–उसके दिल में दर्द ही दर्द बढ़ गया। उसके सीने पर सांप लोट गया। बरबस ही उसका हाथ सीने पर चला गया और सीने को मसलने लगा मानो वह उस पीड़ा को पी जाना चाहता है किंतु असफल रहा।

आंसू उसकी दास्तान सुना रहे थे। इस पत्र को पढ़कर उसके हृदय में घृणा उत्पन्न हो गई। उसने तो कभी कल्पना भी न की थी कि सुमन जैसी देवी इतनी नीच–इतनी घिनौनी हो सकती है। वह जान गया कि सुमन हवस की भूखी थी प्रेम की नहीं।

उसे मानो स्वयं से भी नफरत होती जा रही थी। नारी का ये रूप उसके लिए नया और घिनौना था। वह नहीं जानता था कि भारतीय नारी इतनी गिर सकती है–वह प्रत्येक नारी से नफरत करने लगा, प्रत्येक नारी में उसे पिशाचिनी के रूप में सुमन नजर आने लगी–अब उसके दिल में नारी के प्रति नफरत–थी। नफरत–नफरत–और सिर्फ नफरत।

नारी के वायदे से वह चिढ़ता था–नारी की कसमों से उसके तन-बदन में आग लग जाती थी। उसे प्रत्येक नारी का वादा सुमन का वादा लगता। क्यों न करे वह नफरत? उसकी तो समस्त भावनाएं इस नारी ने छीन ली थीं। नारी ही तो उसके जीवन से खेली थी।

उसके बाद–
क्या-क्या नहीं सहा उसने–समाज के कहकहे–ठोकरें–जली-कटी बातें–सभी कुछ सहा उसने। सिर्फ एक नारी के लिए गुंडा–बदमाश–आवारा–बदचलन शायद ही कोई ऐसा खिताब रहा हो जो समाज ने उसे न दे डाला हो। जिधर जाता, आवाजें कसी जातीं–जहां जाता उसे तड़पाता जाता–लेकिन यह सब कुछ सहता रहा–आंसू बहाता रहा–बहाता भी क्यों नहीं–उसने प्रेम करने का पाप जो किया था। किसी को देवी जानकर अपने मन-मंदिर में बसाने की भूल जो की थी।

सुमन का वह जलालत भरा पत्र उसने शिव के अतिरिक्त किसी को न दिखाया। शिव को ही वास्तविकता पता थी वर्ना तो सारा समाज उसके विषय में जाने क्या-क्या धारणाएं बनाता रहा था। सब कुछ सहता रहा गिरीश–प्रत्येक गम को सीने से लगाता रहा–तड़पता रहा–

और आज–
आज जबकि इन घटनाओं को लगभग एक वर्ष गुजर चुका है–सुमन के दिए घाव उसी तरह हरे भरे हैं। वह कुछ नहीं भूला है–निरंतर तड़पता रहा है–आज भी सुमन का वह पत्र उसके पास सुरक्षित है। आज भी वह उसे पढ़ने बैठता है तो न जाने क्या बात थी कि अब उसे कुछ राहत भी मिलती है। आज भी सुमन...उसकी बातें–हृदय में वास करती हैं–चाहें वह बेवफाई की पुतली के रूप में रही हो।

उसके बाद...सुमन को फिर कभी कहीं किसी ने नहीं देखा–गिरीश ने यह जानने की कभी चेष्टा भी नहीं की। वह जानता था कि अगर अब कभी सुमन उसके सामने आ गई तो क्रोध में वह पागल हो जाएगा। वह सोचा करता–क्या नारी इतनी गिर सकती है? सुमन, वही सुमन जो उसके गले में बांहे डालकर अपने प्रेम को निभाने की कसमें खाती थी। वही सुमन जो हमेशा कहा करती थी कि उसके लिए वह सारे समाज से टकरा जाएगी। क्या...क्या वो सब गलत था? क्या ये पत्र उसी सुमन ने लिखा है? उफ्–सोचते-सोचते गिरीश कराह उठता–रोने लगता। उसके दिल को एक चोट लगी थी–बेहद करारी चोट।

गिरीश एक पुरुष–पुरुष अहंकारी होता है–अपने अहंकार पर चोट बर्दाश्त नहीं करता। पुरुष सब कुछ बर्दाश्त कर सकता है लेकिन अपने पुरुषार्थ पर चोट सहन नहीं कर सकता। उसने सुमन को क्या नहीं दिया? अपना सब कुछ उसने सुमन को दिया था। अपनी आत्मा, दिल, पवित्र विचार–सुमन को उसने अपने मन-मंदिर की देवी बना लिया था। उसने वह कभी नहीं किया जो सुमन चाहती थी–केवल इसलिए कि कहीं उसका प्यार कलंकित न हो जाए। उसने अपने प्रणय को गंगाजल की भांति पवित्र बनाए रखा–वर्ना–वर्ना वो आखिर क्या नहीं कर सकता था? सुमन की ऐसी कौन-सी अभिलाषा थी जिसे वह पूर्ण नहीं कर सकता था? ये सच है कि उसने सुमन की आंखों में झांका था।

किंतु उसने सुमन की आंखों में तैरते वासना के डोरे कभी नहीं देखे। फिर–फिर–यह सब क्या था?

बस–यही सोचते-सोचते उसका दिल कसमसा उठता।
उस दिन से आज तक वह जलता रहा था–तड़पता रहा था। उसके माता-पिता ने, बहन नें दोस्तों ने–सभी ने शादी के लिए कहा था मगर शादी के नाम पर ही वह भड़क उठता। शादी किससे करता–

नारी से?
उस नारी से जो बेवफाई के अतिरिक्त कुछ नहीं जानती।

उसकी आँखों के सामने तैरते हुए अतीत के दृश्य समाप्त होते चले गए, मगर मस्तिष्क में अब भी विचारों का बवंडर था। उसने अपने मस्तिष्क को झटका दिया और वापस वहां लौट आया जहां वह बैठा था।

अंधकार के सीने को चीरती हुई, पटरियों के कलेजे को रौंदती हुई ट्रेन भागी जा रही थी।

ट्रेन में प्रकाश था...सिगरेट गिरीश की उंगलियों के बीच फंसी हुई थी, जिसका धुआं उसकी आंखों के आगे मंडरा रहा था और धुएं के बीच मंडरा रहे थे उसके अतीत के वे दृश्य...एक वर्ष पूर्व की वे घटनाएं...वह तड़प उठा याद करके...एक बार फिर उसकी आंखों में आंसू तैर आए। अतीत की वे परछाइयां उसका पीछा नहीं छोड़तीं।

सुमन हंसती और हंसाती उसके जीवन में प्रविष्ट हुई और जब गई तो स्वयं की आंखों में तो आंसू थे ही, साथ ही उसे भी जीवन-भर के लिए आंसू अर्पित कर गई।

उसके बाद न तो उसने सुमन को ढूंढ़ने की कोशिश ही की और न ही सुमन मिली। अब तो वह सिर्फ तड़पता था।

सिगरेट का धुआं निरन्तर उसके चेहरे के आगे मंडरा रहा था।

गिरीश का समस्त अतीत उसकी आंखों के समक्ष घूम गया था।...उसने सिर को झटका दिया...समस्त विचारों को त्याग उतने कम्पार्टमेंट का निरीक्षण किया–अधिकांश यात्री सो चुके थे। ट्रेन निरन्तर तीव्र गति के साथ बढ़ रही थी।...उसे ध्यान आया।

वह तो अपने दोस्त शेखर के पास जा रहा है...उसकी शादी में...शेखर का तार आया था। उसने सोचा कि अब वह अपने दोस्त शेखर की एक खुशी में सम्मिलित होने जा रहा है। उसे वहां उदास और नीरस नहीं रहता है।

किंतु अतीत की यादें तो मानो स्वयं उसकी परछाई थीं...।

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