Re: सुमन--वेद प्रकाश शर्मा
Posted: 24 Dec 2014 15:35
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प्रेम...एक ऐसी अनुभति जो वक्त के साथ आगे बढ़ती ही जाती है। वक्त जितना बीतता है प्रेम के बंधन उतने ही सख्त होते चले जाते हैं।
प्रेम के ये दो हमजोली वक्त के साथ आगे बढ़ते रहे। सुमन गिरीश की पूजा करती...उसने उसकी सूरत अपने मन-मंदिर में संजो दी। सुमन उसके गले में बांहे डाल देती तो वह उसके गुलाबी अधरों पर चुम्बन अंकित कर देता।
समय बीतता रहा।
वे मिलते रहे, हंसी-खुशी...वक्त कटने लगा। दोनों मिलते, प्रेम की मधुर-मधुर बातें करते–एक-दूसरे की आंखों में खोकर...समस्त संसार को भूल जाते। सुमन को याद रहता गिरीश। गिरीश को याद रहती सिर्फ सुमन...।
वे प्रेम करते थे...अनन्त प्रेम...और गंगाजल से भी कहीं अधिक सच्चा। प्रेम के बांध को तोड़कर वे उस ओर कभी नहीं बढ़े जहां इस रिश्ते को पाप की संज्ञा में रख दिया जाता है। वे तो मिलते...और बस न मिलते तो दोनों तड़पते रहते।
किंतु उस दिन की गुत्थी एक कांटा-सा बनकर गिरीश के हृदय में चुभ रही थी। उसने कई बार सुमन से भी पूछा किंतु प्रत्येक बार वह सिर्फ उदास होकर रह जाती। अतः अब गिरीश ने सुमन से संजय के विषय में बातें करनी ही समाप्त कर दीं। किंतु दिल-ही-दिल में वह कांटा नासूर बनता जा रहा था।...जहरीला कांटा। गिरीश न जान सका कि रहस्य क्या है।
लेकिन अब कभी वह सुमन के सामने कुछ नहीं कहता। सब बातों को भुलाकर वे हंसते, मिलते, प्रेम करते और एक-दूसरे की बांहों में समा जाते। जब सुमन गिरीश से बातें करती तो गिरीश उसके साहस पर आश्चर्यचकित रह जाता। वह हमेशा यही कहती कि वह उसके लिए समस्त संसार से टकरा जाएगी।
शाम को तब जबकि सूर्य अपनी किरणों को समेटकर धरती के आंचल में समाने हेतु जाता उस समय वे किन्हीं कारणों से मिल नहीं पाते थे। ऐसे ही एक समय जब गिरीश अपनी छत पर था और सुमन के उस मकान की छत को देख रहा था जिसकी दीवार पुताई न होने के कारण काली पड़ गई थी। वह उसी छत को निहार रहा था कि चौंक पड़ा...प्रसन्नता से वह झूम उठा...क्योंकि छत पर उसे सुमन नजर आईं और बस फिर वे एक-दूसरे को देखते रहे। सूर्य अस्त हो गया...रजनी का स्याह दामन फैल गया...वे एक-दूसरे को सिर्फ धुंधले साए के रूप में देख सकते थे किंतु देख रहे थे। हटने का नाम कोई लेता ही नहीं था। अंत में गिरीश ने संकेत किया कि पार्क में मिलो तो वे पार्क में मिले। उस दिन के बाद ऊपर आना मानो उनकी कोई विशेष ड्यूटी हो। सूर्य अस्त होने जाता तो बरबस ही दोनों के कदम स्वयमेव ही ऊपर चल देते। फिर रात तक वहीं संकेत करते और फिर बाग में मिलते।
सुख...प्रसन्नताएं...खुशियां, इन्हीं के बीच से वक्त गुजरता रहा, लेकिन क्या प्रेम करना इतना ही सरल होता है? क्या प्रेम में सिर्फ फूल हैं? नहीं...अब अगर वो फूलों से गुजर रहे थे तो राह में कांटे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।...दुख उन्हें खोज रहे थे।
एक दिन...।
तब जबकि प्रतिदिन की भांति वे दोनों पार्क में मिले...मिलते ही सुमन ने कहा–‘‘गिरीश...बताओं तो कल क्या है?’’
‘‘अरे ये भी कोई पूछने वाली बात है...कल शुक्रवार है।’’
‘‘शुक्रवार के साथ और भी बहुत कुछ है?’’
‘‘क्या?’’
‘‘मेरी वर्षगांठ।’’
‘‘अरे...सच...!’’ गिरीश प्रसन्नता से उछल पड़ा।
‘‘जी हां जनाब, कल तुम्हें आना है, घर तो घर वाले स्वयं ही कार्ड पहुँचा देंगे किंतु तुमसे मैं विशेष रूप से कह रही हूं। आना अवश्य।’’
‘‘ये कैसे हो सकता है कि देवी का बर्थ डे हो और भक्त न आएं?’’
‘‘धत्।’’ देवी शब्द पर सदा की भांति लजाकर सुमन बोली–‘‘तुमने फिर देवी कहा।’’
‘‘देवी को देवी ही कहा जाएगा।’’
सुमन फिर लाज से दोहरी हो गई। गिरीश ने उसे बांहों में समेट लिया।
सुमन की वर्षगांठ–
घर मानो आज सज-संवरकर दुल्हन बन गया था। चारों ओर खुशियां–प्रसन्नताएं बच्चों की किलकारियां और मेहमानो के कहकहे। समस्त मेहमान घर में सजे-संवरे हॉल में एकत्रित हुए थे। उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सुमन को मुबारकबाद देता, सुमन मधुर मुस्कान के साथ उसे स्वीकार करती किंतु इस मुस्कान में हल्कापन होता–हंसी में चमक होती भी कैसे?...इस चमक का वारिस तो अभी आया ही नहीं था। जिसका इस मुस्कान पर अधिकार है।...हां...सुमन को प्रत्येक क्षण गिरीश की प्रतीक्षा थी जो अभी तक नहीं आया था। रह-रहकर सुमन की निगाहें दरवाज़े की ओर उठ जातीं किंतु अपने मन-मंदिर के भगवान को अनुपस्थित पाकर वह निराश हो जाती। सब लोग तो प्रसन्न थे...यूं प्रत्यक्ष में वह भी प्रसन्न थी किंतु अप्रत्यक्ष रूप में वह बहुत परेशान थी। उसके हृदय में भांति-भांति की शंकाओं का उत्थान-पतन हो रहा था।
‘‘अरे सुमन...!’’ एकाएक उसकी मीना दीदी बोली।
‘‘यस दीदी।’’
‘‘चलो केक काटो...समय हो गया है।’’
सुमन का हृदय धक् से रह गया।
केक काटे...किंतु कैसे...?...गिरीश तो अभी आया ही नहीं...नहीं वह गिरीश की अनुपस्थिति में केक नहीं काटेगी–अतः वह संभलकर बोली–‘‘अभी आती हूं, दीदी।’’
‘‘अब किसकी प्रतीक्षा है हमारी प्यारी साली जी को?’’ एकाएक संजय बीच में बोला।
‘‘आप मुझसे ऐसी बातें न किया कीजिए जीजाजी।’’ सुमन के लहजे में हल्की-सी झुंझलाहट थी जिसे मीना ने भी महसूस किया।
‘‘ये क्या बदतमीजी है सुमन–क्या इसी तरह बात होती है बड़े जीजा से?’’ मीना का लहजा सख्त था।
सुमन उत्तर में चुप रह गई–कुछ नहीं बोली वह। सिर्फ गर्दन झुकाकर रह गई।
संजय भी थोड़ा-सा गंभीर हो गया था। अचानक मीना फिर बोली–‘‘चलो–समय होने वाला है।’’
‘‘अभी मेरी एक सहेली आने वाली है।’’
इससे पूर्व कि मीना कुछ कहे दरवाजे से उसकी सहेली प्रविष्ट हुई, मीना तुरन्त स्वागत हेतु आगे बढ़ गई। संजय सुमन के पास ही खड़ा था। वह सुमन से बोला–‘‘क्यों सुमन–क्या हमसे नाराज हो?’’
‘‘नहीं तो–ऐसी कोई बात नहीं है।’’ सुमन गर्दन उठाकर बोली।
‘‘तो फिर हमसे तुम प्यार से बातें नहीं करतीं–क्या हमने तुम्हें वह उचित प्यार नहीं दिया जो एक जीजा साली को हो सकता है?’’ संजय प्यार-भरे स्वर में बोला।
‘‘आप तो बेकार की बातें करते हैं, जीजाजी।’’
सुमन अभी इतना ही कह पाई थी कि उसकी आंखों में एकदम चमक उत्पन्न हो गई। दरवाजे पर उसे गिरीश नजर आया–उसके साथ अनीता भी थी। वह संजय को वहीं छोड़कर तेजी के साथ उस ओर बढ़ी और अनीता का स्वागत करती हुई बोली–‘‘आओ अनीता–बहुत देर लगाई। कितनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं।’’ शब्द कहते-कहते उसने एक तीखी निगाह गिरीश पर भी डाली।
गिरीश को लगा जैसे ये शब्द उसी के लिए कहे जा रहे हो। तभी वहां संजय भी आ गया, संजय को देखकर गिरीश ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा–‘‘नमस्कार भाई साहब।’’
‘‘नमस्कार भई गिरीश। लगता है सुमन तुम्हीं लोगों की प्रतीक्षा कर रही थी।’’
संजय के शब्दों में छिपे व्यंग्य को समझकर एक बार को तो सुमन और गिरीश स्तब्ध रह गए, किंतु मुखड़े के भावों से उन्होंने यह प्रकट न होने दिया, तुरंत संभलकर गिरीश बोला–‘‘ये तो हमारा सौभाग्य है संजय जी कि यहां हमारी प्रतीक्षा हो रही है।’’
फिर सुमन अनीता को साथ लेकर एक ओर को चली गई–संजय और गिरीश एक अन्य दिशा में चल दिए। सुमन ने संजय की उपस्थिति में गिरीश से अधिक बातें करना उपयुक्त न समझा था, किंतु इस बात से वह अत्यंत प्रसन्न थी कि गिरीश आ चुका था।
पार्टी चलती रही।
इतनी भीड़ में भी गिरीश और सुमन के नयन समय-समय पर मिलकर दिल में प्रेम जाग्रत करते जबकि संजय पूरी तरह उनकी आंखों में एक दूसरे के प्रति छलकता प्रेम देख रहा था और अपने संदेह को विश्वास में बदलने का प्रयास कर रहा था। अन्य प्रत्येक व्यक्ति अपने में व्यस्त था।
समा यूं ही रंगीन चलता रहा–कहकहे लगते रहे–बच्चों की किलकारियों से वातावरण गूंजता रहा। सुमन और गिरीश के नयन अवसर प्राप्त होते ही मिलते रहे।
अंत में–
तब जबकि मीना ने समस्त मेहमानो में यह घोषणा की कि अब सुमन केक काटेगी तो सबने तालियां बजाकर उसका स्वागत किया। गिरीश को एक विचित्र-सी अनुभूति का अहसास हुआ। सुमन आगे बढ़ी और मेज पर रखे केक के निकट पहुंच गई। उसके दाएं-बाएं उसके मम्मी-डैडी खड़े थे। पीछे मीना और संजय–उसके ठीक सामने गिरीश था। उसने मोमबत्तियां बुझाईं और छुरी से केक काटने लगी–पहले हॉल तालियों की गड़हड़ाहट से गूंज उठा और फिर हैप्पी बर्थ डे के शब्दों से वातावरण गुंजायमान हो उठा।
इधर तालियां बज रही थीं–सुमन को शुभकामनाएं दी जा रही थीं–समस्त और खुशियां, प्रत्येक व्यक्ति खुश। खुशी-ही-खुशी–खुशी और सिर्फ खुशी–किंतु तभी ताली बजाता हुआ गिरीश चौंक पड़ा। ताली बजाते हुए उसके हाथ जहां के तहां थम गए। उसकी निगाह सुमन पर टिकी हुई थी।
उसे महसूस हुआ जैसे सुमन को कै आ रही हो–छुरी छोड़कर सुमन ने सीने पर हाथ रखा और उल्टी करनी चाही–कैसे अवसर पर उसकी तबीयत बिगड़ गई थी।
अगले ही पल सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो गया। क्षण-मात्र में वहां सन्नाटा छा गया। सभी की निगाहें सुमन पर टिकी हुई थीं। सभी थोड़े गंभीर-से हो गए थे।
सुमन अभी तक इस प्रकार की क्रियाएं कर रही थी मानो उल्टी करना चाहती हो। तभी उसके बराबर में खड़े उसके पिता ने उसको संभाला–मेहमान उधर लपके। मेहमानो में एक पोपली-सी बुढ़िया भी उस ओर लपकी और भीड़ को चीरती हुई सुमन तक पहुंची।
‘‘अरे! डॉक्टर माथुर, देखना सुमन को क्या हो गया?’’ एकाएक सुमन के पिता चीखे। उसके दोस्त। डॉक्टर माथुर, जो मेहमानो में ही उपस्थित थे उसी ओर लपके।
इससे पूर्व कि माथुर वहां तक पहुँचे...पोपली-सी बुढ़िया भली प्रकार से सुमन का निरीक्षण कर चुकी थी। एक ही पल में बुढ़िया की आँखें आश्चर्य से उबल पड़ीं। अपनी उंगली बूढ़े अधरों पर रखकर तपाक से आश्चर्यपूर्ण मुद्रा में बोली–‘‘हाय दैया...ये तो मां बनने वाली है।’’
‘‘क्या...ऽ...ऽ...?’’ एक साथ अनेक आवाजें।
एक ऐसा रहस्योद्घाटन जिससे सभी स्तब्ध रह गए...प्रत्येक इंसान सन्न रह गया, एक दूसरे की ओर देखा मानो पूछ रहे हो...इसका क्या मतलब है? सुमन तो अविवाहित है...फिर वह मां कैसे बनने लगी...? हॉल में मौत जैसी शान्ति छा गई।
और गिरीश!
उसके हदय पर मानो सांप ही लोट गया था। उसे लगा जैसे समस्त हॉल घूम रहा है...सब घूम रहे हैं। उसकी आत्माएं उसी के हाल पर कहकहे लगा रही है...उसका दिमाग चकरा गया। उसे विश्वास कैसे हो...? ये सब क्या है...? सुमन मां बनने वाली है किंतु क्यों? कैसा अनर्थ है ये? ये कैसा रूप है सुमन का...? आखिर ये सब कैसे हो गया? सुमन के पेट में बच्चा किसका...? उसे लगा जैसे ये समाज उसके प्यार पर कहकहे लगा रहा है। उसे धिक्कार रहा है। उसे लगा जैसे वह अभी चकराकर गिर जाएगा...किंतु नहीं...वह नहीं गिरा...उसने स्वंय को संभाला...उसका गिरना इस समय उचित न था।
सुमन के माता-पिता, बहन और संजय सभी उस पोपली बुढ़िया की सूरत देखते रहे...क्या कभी, उनका इससे अधिक अपमान हो सकता था? नहीं कभी नहीं...इतने मेहमानों के सामने-इतना बड़ा अपमान...भला कैसे सहन करें वे? ये क्या किया सुमन ने? सुमन ने समाज में उसके जीने के रास्ते ही बन्द कर दिए।
एक क्षण के लिए समस्त हॉल आश्चर्य के सागर में गोते लगाता रहा।
सबको इस पोपली-सी बुढ़िया का विश्वास था क्योंकि वह शहर की मशहूर दाई थी। नारी को एक ही नजर में देखकर वह बता देती थी कि यह कब तक मां बन जाएगी।
माथुर के कदम भी अपने स्थान पर स्थिर हो गए।
सुमन को भी बुढ़िया के वाक्य से एक झटका-सा लगा। भय से वह कांप गई, मन की चोट से भयभीत हो गई...उल्टी मानो एकदम ही बंद हो गई।
तभी उसके पिता ने उसे एक तीव्र धक्का दिया और चीखे–
‘‘ये तूने क्या किया?’’
सुमन धड़ाम से फर्श पर गिरी। गिरीश का हृदय मानो तड़प उठा।
सभी मूर्तिवत खड़े थे। सुमन फूट-फूटकर रोने लगी। सुमन के पिता की आँखें शोले उगलने लगीं। पिता तो मानो क्रोध में पागल ही हुए जा रहे थे।
क्रोध से थर-थर कांप रहे थे। आंखें आग उगल रही थीं, वे सुमन की ओर बढ़े और चीखे–
‘‘तू मेरी बेटी नहीं हो सकती कमीनी।’’
सुमन की सिसकारियां क्षण-प्रतिक्षण तीव्र होती जा रही थी। गिरीश तो शून्य में निहारे जा रहा था मानो वह खड़ा-खड़ा पत्थर का बुत बन गया हो, उसे जैसे कुछ ज्ञान ही न हो, मानो उसका शव खड़ा हो।
‘‘कमीनी...जलील...कुल्टा...कुतिया।’’ आवेश में सुमन के पिता जोर से चीखे–‘‘बोल किसका है ये पाप? कौन है वो कमीना जिसके साथ तूने मुंह काला किया?’’ साथ ही उन्होंने सुमन के बाल पकड़कर ऊपर उठाया।
उफ! कैसा जलालत से भरा हुआ चेहरा था सुमन का। लाल...आंसुओं से भरा–क्या यह वही सुमन थी जिसे गिरीश देवी कहता था? जिसकी वह पूजा करता था। क्या यही रूप है आधुनिक देवी का? कैसा कठोर सत्य है यह?
कैसा मासूम मुखड़ा? और ऐसा जघन्म पाप...देखने में लगती देवी...किंतु कार्य में वेश्या। सूरत कितनी गोरी...किंतु दिल कितना काला? क्या यही रूप है आज की भारतीय नारी का? ऐसे जघन्य अपराध के बाद भला किसे उससे प्यार होगा? कौन उसे सहानुभूति की दृष्टि से देखेगा? नहीं–किसी ने उसका साथ नहीं दिया।
तड़ाक–
उसके पिता ने उसके गाल पर एक तमाचा मारा। उसके बाल पकड़कर जोर से झंझोड़ा और चीखे–‘‘किसका है ये पाप–बता–वर्ना मैं तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।’’
लेकिन सुमन कुछ नहीं बोली। उसकी विचित्र-सी स्थिति थी।
और फिर मानो उसके पिता पागल हो गए–खून उनकी आंखों में उतर आया–राक्षसी ढंग से उन्होंने सुमन को बेइन्तहा मारा–कोई कुछ न बोला–सब मूर्तिवत-से खड़े रहे–अचानक उसके पिता के दोनों पंजे उसकी गर्दन पर जम गए तथा वे चीखकर बोले–‘‘अंतिम बार पूछता हूं जलील लड़की...बता ये पाप किसका है?’’
किंतु सुमन का उत्तर फिर मौनता ही थी–उसके पिता क्रोध से पागल हुए जा रहे थे। सुमन किसी प्रकार का प्रतिरोध भी नहीं कर रही थी, फिर सुमन की गर्दन पर उसके पिता की पकड़ सख्त होती चली गई, सुमन की सांस रुकने लगी, मुखड़ा लाल हो गया, नसों में तनाव आ गया। उसके पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वे एक बार फिर दांत भींचकर बोले–‘‘अब भी बता दे कौन है वो–किसका है यह पाप?’’
‘‘मेरा!’’ एकाएक सबने चौंककर गिरीश की ओर देखा...वह आगे बोला–‘‘हां...मेरा है ये बच्चा। जिसको आप पाप कह रहे हैं–मैं उसका पिता हूं।’’ ये शब्द कहते समय गिरीश का चेहरा भावरहित था। पत्थर की भांति सपाट और सख्त।
सभी चौंके थे–सबने गिरीश की ओर देखा, मुंह आश्चर्य से खुले के खुले रह गए। अनीता अपने भाई को देखती ही रह गई–कैसा भावरहित सख्त चेहरा।
सुमन ने स्वयं चौंककर गिरीश की ओर देखा–उसे लगा ये गिरीश वह गिरीश नहीं है–पत्थर का गिरीश है। उसके वाक्य के साथ ही सुमन के पिता की पकड़ सुमन के गले से ढीली पड़ गई–खूनी निगाहों से उन्होंने गिरीश की ओर देखा, गिरीश मानो अडिग चट्टान था।
खूनी राक्षस की भांति वे सुमन को छोड़कर गिरीश की ओर बढ़े किंतु गिरीश ने पलक भी नहीं झपकाई, तभी मानो सुमन में बिजली भर गई, वह तेजी से लपकी और गिरीश के आगे जाकर खड़ी हो गई, न जाने उसमें इतना साहस कहां से आ गया कि वह चीखी–
‘‘नहीं डैडी–अब तुम इन्हें नहीं मार सकते–अब ये ही मेरे पति हैं–मेरे होने वाले बच्चे के पिता हैं, इनसे पहले तुम्हें मुझे मारना होगा।’’
‘‘हट जाओ–इस कमीने के सामने से।’’ वे बुरी तरह दहाड़े और साथ ही सुमन को झटके के साथ गिरीश के सामने से हटाना चाहा किंतु सुमन ने कसकर गिरीश को पकड़ लिया था।
‘‘हम दोनों की शादी मंदिर में हो चुकी है...हम पति-पत्नी हैं।’’ इस बार गिरीश बोला। न जाने वह किन भावनाओं के वशीभूत बोल रहा था। चेहरे पर तो कोई भाव न थे।
‘‘हम बालिग हैं डैडी...मुझे अपना पति चुनने का पूरा अधिकार है, मैं गिरीश को अपना पति चुनती हूं।’’
उफ...! कैसी यातनाएं थीं ये बेटी की बाप को...क्या कोई बेटी अपने बाप को इस भरे समाज में इतना अपमानित कर सकती है। नहीं...उसके पिता इतना अपमान सहन न कर सके। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सारा वातावरण उन्हें घूमता-सा नजर आया। वे चकराए और धड़ाम से फर्श पर गिरे।
‘‘डैडी...ऽ...ऽ...!’’ सुमन बुरी तरह चीखी और अपने पिता की ओर लपकी।
‘‘ठहरो...।’’ एकाएक उसकी मम्मी चीखी...उनका चेहरा भी पत्थर की भांति सख्त था–तुम इन्हें हाथ नहीं लगाओगी। भाग जाओ यहां से।’’
सुमन ठिठक गई इस बीच माथुर लपककर उसके पिता को देख चुके थे, वे बोले–‘‘ये बेहोश हो गए हैं...किसी कमरे में ले चलो।’’
उसके बाद...! सुमन ने लाख चाहा कि अपने पिता से मिले किंतु उसे धक्के दे-देकर उस घर से निकाल दिया। उसकी बड़ी बहन मीना ने उसे ठोकर मार-मारकर निकाल दिया, मेहमानो ने उसे अपमानित किया। न जाने कितनी बेइज्जती करके उसे निकाल दिया गया, सुमन सिसकती रही...फफकती रही परन्तु गिरीश पत्थर की भांति सख्त था...उसकी आंखों में वीरानी थी। वह सब कुछ चुपचाप देख रहा था...बोला कुछ नहीं था। उस घर से ठुकराई हुई सुमन को वह अपने घर ले आया।
कैसी विडम्बना थी ये...कैसा अनर्थ...? कैसा पाप...? कैसा प्रेम? कितने रूप हैं प्रेम के...? ये गिरीश का कैसा प्यार है...आखिर सुमन का क्या रूप है?...क्या वह नारी जाति पर कलंक है...? वहा कहां तक सही है? उसके मन का भेद क्या है?
सब एक रहस्य था...एक गुत्थी...एक राज।
प्रेम...एक ऐसी अनुभति जो वक्त के साथ आगे बढ़ती ही जाती है। वक्त जितना बीतता है प्रेम के बंधन उतने ही सख्त होते चले जाते हैं।
प्रेम के ये दो हमजोली वक्त के साथ आगे बढ़ते रहे। सुमन गिरीश की पूजा करती...उसने उसकी सूरत अपने मन-मंदिर में संजो दी। सुमन उसके गले में बांहे डाल देती तो वह उसके गुलाबी अधरों पर चुम्बन अंकित कर देता।
समय बीतता रहा।
वे मिलते रहे, हंसी-खुशी...वक्त कटने लगा। दोनों मिलते, प्रेम की मधुर-मधुर बातें करते–एक-दूसरे की आंखों में खोकर...समस्त संसार को भूल जाते। सुमन को याद रहता गिरीश। गिरीश को याद रहती सिर्फ सुमन...।
वे प्रेम करते थे...अनन्त प्रेम...और गंगाजल से भी कहीं अधिक सच्चा। प्रेम के बांध को तोड़कर वे उस ओर कभी नहीं बढ़े जहां इस रिश्ते को पाप की संज्ञा में रख दिया जाता है। वे तो मिलते...और बस न मिलते तो दोनों तड़पते रहते।
किंतु उस दिन की गुत्थी एक कांटा-सा बनकर गिरीश के हृदय में चुभ रही थी। उसने कई बार सुमन से भी पूछा किंतु प्रत्येक बार वह सिर्फ उदास होकर रह जाती। अतः अब गिरीश ने सुमन से संजय के विषय में बातें करनी ही समाप्त कर दीं। किंतु दिल-ही-दिल में वह कांटा नासूर बनता जा रहा था।...जहरीला कांटा। गिरीश न जान सका कि रहस्य क्या है।
लेकिन अब कभी वह सुमन के सामने कुछ नहीं कहता। सब बातों को भुलाकर वे हंसते, मिलते, प्रेम करते और एक-दूसरे की बांहों में समा जाते। जब सुमन गिरीश से बातें करती तो गिरीश उसके साहस पर आश्चर्यचकित रह जाता। वह हमेशा यही कहती कि वह उसके लिए समस्त संसार से टकरा जाएगी।
शाम को तब जबकि सूर्य अपनी किरणों को समेटकर धरती के आंचल में समाने हेतु जाता उस समय वे किन्हीं कारणों से मिल नहीं पाते थे। ऐसे ही एक समय जब गिरीश अपनी छत पर था और सुमन के उस मकान की छत को देख रहा था जिसकी दीवार पुताई न होने के कारण काली पड़ गई थी। वह उसी छत को निहार रहा था कि चौंक पड़ा...प्रसन्नता से वह झूम उठा...क्योंकि छत पर उसे सुमन नजर आईं और बस फिर वे एक-दूसरे को देखते रहे। सूर्य अस्त हो गया...रजनी का स्याह दामन फैल गया...वे एक-दूसरे को सिर्फ धुंधले साए के रूप में देख सकते थे किंतु देख रहे थे। हटने का नाम कोई लेता ही नहीं था। अंत में गिरीश ने संकेत किया कि पार्क में मिलो तो वे पार्क में मिले। उस दिन के बाद ऊपर आना मानो उनकी कोई विशेष ड्यूटी हो। सूर्य अस्त होने जाता तो बरबस ही दोनों के कदम स्वयमेव ही ऊपर चल देते। फिर रात तक वहीं संकेत करते और फिर बाग में मिलते।
सुख...प्रसन्नताएं...खुशियां, इन्हीं के बीच से वक्त गुजरता रहा, लेकिन क्या प्रेम करना इतना ही सरल होता है? क्या प्रेम में सिर्फ फूल हैं? नहीं...अब अगर वो फूलों से गुजर रहे थे तो राह में कांटे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।...दुख उन्हें खोज रहे थे।
एक दिन...।
तब जबकि प्रतिदिन की भांति वे दोनों पार्क में मिले...मिलते ही सुमन ने कहा–‘‘गिरीश...बताओं तो कल क्या है?’’
‘‘अरे ये भी कोई पूछने वाली बात है...कल शुक्रवार है।’’
‘‘शुक्रवार के साथ और भी बहुत कुछ है?’’
‘‘क्या?’’
‘‘मेरी वर्षगांठ।’’
‘‘अरे...सच...!’’ गिरीश प्रसन्नता से उछल पड़ा।
‘‘जी हां जनाब, कल तुम्हें आना है, घर तो घर वाले स्वयं ही कार्ड पहुँचा देंगे किंतु तुमसे मैं विशेष रूप से कह रही हूं। आना अवश्य।’’
‘‘ये कैसे हो सकता है कि देवी का बर्थ डे हो और भक्त न आएं?’’
‘‘धत्।’’ देवी शब्द पर सदा की भांति लजाकर सुमन बोली–‘‘तुमने फिर देवी कहा।’’
‘‘देवी को देवी ही कहा जाएगा।’’
सुमन फिर लाज से दोहरी हो गई। गिरीश ने उसे बांहों में समेट लिया।
सुमन की वर्षगांठ–
घर मानो आज सज-संवरकर दुल्हन बन गया था। चारों ओर खुशियां–प्रसन्नताएं बच्चों की किलकारियां और मेहमानो के कहकहे। समस्त मेहमान घर में सजे-संवरे हॉल में एकत्रित हुए थे। उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सुमन को मुबारकबाद देता, सुमन मधुर मुस्कान के साथ उसे स्वीकार करती किंतु इस मुस्कान में हल्कापन होता–हंसी में चमक होती भी कैसे?...इस चमक का वारिस तो अभी आया ही नहीं था। जिसका इस मुस्कान पर अधिकार है।...हां...सुमन को प्रत्येक क्षण गिरीश की प्रतीक्षा थी जो अभी तक नहीं आया था। रह-रहकर सुमन की निगाहें दरवाज़े की ओर उठ जातीं किंतु अपने मन-मंदिर के भगवान को अनुपस्थित पाकर वह निराश हो जाती। सब लोग तो प्रसन्न थे...यूं प्रत्यक्ष में वह भी प्रसन्न थी किंतु अप्रत्यक्ष रूप में वह बहुत परेशान थी। उसके हृदय में भांति-भांति की शंकाओं का उत्थान-पतन हो रहा था।
‘‘अरे सुमन...!’’ एकाएक उसकी मीना दीदी बोली।
‘‘यस दीदी।’’
‘‘चलो केक काटो...समय हो गया है।’’
सुमन का हृदय धक् से रह गया।
केक काटे...किंतु कैसे...?...गिरीश तो अभी आया ही नहीं...नहीं वह गिरीश की अनुपस्थिति में केक नहीं काटेगी–अतः वह संभलकर बोली–‘‘अभी आती हूं, दीदी।’’
‘‘अब किसकी प्रतीक्षा है हमारी प्यारी साली जी को?’’ एकाएक संजय बीच में बोला।
‘‘आप मुझसे ऐसी बातें न किया कीजिए जीजाजी।’’ सुमन के लहजे में हल्की-सी झुंझलाहट थी जिसे मीना ने भी महसूस किया।
‘‘ये क्या बदतमीजी है सुमन–क्या इसी तरह बात होती है बड़े जीजा से?’’ मीना का लहजा सख्त था।
सुमन उत्तर में चुप रह गई–कुछ नहीं बोली वह। सिर्फ गर्दन झुकाकर रह गई।
संजय भी थोड़ा-सा गंभीर हो गया था। अचानक मीना फिर बोली–‘‘चलो–समय होने वाला है।’’
‘‘अभी मेरी एक सहेली आने वाली है।’’
इससे पूर्व कि मीना कुछ कहे दरवाजे से उसकी सहेली प्रविष्ट हुई, मीना तुरन्त स्वागत हेतु आगे बढ़ गई। संजय सुमन के पास ही खड़ा था। वह सुमन से बोला–‘‘क्यों सुमन–क्या हमसे नाराज हो?’’
‘‘नहीं तो–ऐसी कोई बात नहीं है।’’ सुमन गर्दन उठाकर बोली।
‘‘तो फिर हमसे तुम प्यार से बातें नहीं करतीं–क्या हमने तुम्हें वह उचित प्यार नहीं दिया जो एक जीजा साली को हो सकता है?’’ संजय प्यार-भरे स्वर में बोला।
‘‘आप तो बेकार की बातें करते हैं, जीजाजी।’’
सुमन अभी इतना ही कह पाई थी कि उसकी आंखों में एकदम चमक उत्पन्न हो गई। दरवाजे पर उसे गिरीश नजर आया–उसके साथ अनीता भी थी। वह संजय को वहीं छोड़कर तेजी के साथ उस ओर बढ़ी और अनीता का स्वागत करती हुई बोली–‘‘आओ अनीता–बहुत देर लगाई। कितनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं।’’ शब्द कहते-कहते उसने एक तीखी निगाह गिरीश पर भी डाली।
गिरीश को लगा जैसे ये शब्द उसी के लिए कहे जा रहे हो। तभी वहां संजय भी आ गया, संजय को देखकर गिरीश ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा–‘‘नमस्कार भाई साहब।’’
‘‘नमस्कार भई गिरीश। लगता है सुमन तुम्हीं लोगों की प्रतीक्षा कर रही थी।’’
संजय के शब्दों में छिपे व्यंग्य को समझकर एक बार को तो सुमन और गिरीश स्तब्ध रह गए, किंतु मुखड़े के भावों से उन्होंने यह प्रकट न होने दिया, तुरंत संभलकर गिरीश बोला–‘‘ये तो हमारा सौभाग्य है संजय जी कि यहां हमारी प्रतीक्षा हो रही है।’’
फिर सुमन अनीता को साथ लेकर एक ओर को चली गई–संजय और गिरीश एक अन्य दिशा में चल दिए। सुमन ने संजय की उपस्थिति में गिरीश से अधिक बातें करना उपयुक्त न समझा था, किंतु इस बात से वह अत्यंत प्रसन्न थी कि गिरीश आ चुका था।
पार्टी चलती रही।
इतनी भीड़ में भी गिरीश और सुमन के नयन समय-समय पर मिलकर दिल में प्रेम जाग्रत करते जबकि संजय पूरी तरह उनकी आंखों में एक दूसरे के प्रति छलकता प्रेम देख रहा था और अपने संदेह को विश्वास में बदलने का प्रयास कर रहा था। अन्य प्रत्येक व्यक्ति अपने में व्यस्त था।
समा यूं ही रंगीन चलता रहा–कहकहे लगते रहे–बच्चों की किलकारियों से वातावरण गूंजता रहा। सुमन और गिरीश के नयन अवसर प्राप्त होते ही मिलते रहे।
अंत में–
तब जबकि मीना ने समस्त मेहमानो में यह घोषणा की कि अब सुमन केक काटेगी तो सबने तालियां बजाकर उसका स्वागत किया। गिरीश को एक विचित्र-सी अनुभूति का अहसास हुआ। सुमन आगे बढ़ी और मेज पर रखे केक के निकट पहुंच गई। उसके दाएं-बाएं उसके मम्मी-डैडी खड़े थे। पीछे मीना और संजय–उसके ठीक सामने गिरीश था। उसने मोमबत्तियां बुझाईं और छुरी से केक काटने लगी–पहले हॉल तालियों की गड़हड़ाहट से गूंज उठा और फिर हैप्पी बर्थ डे के शब्दों से वातावरण गुंजायमान हो उठा।
इधर तालियां बज रही थीं–सुमन को शुभकामनाएं दी जा रही थीं–समस्त और खुशियां, प्रत्येक व्यक्ति खुश। खुशी-ही-खुशी–खुशी और सिर्फ खुशी–किंतु तभी ताली बजाता हुआ गिरीश चौंक पड़ा। ताली बजाते हुए उसके हाथ जहां के तहां थम गए। उसकी निगाह सुमन पर टिकी हुई थी।
उसे महसूस हुआ जैसे सुमन को कै आ रही हो–छुरी छोड़कर सुमन ने सीने पर हाथ रखा और उल्टी करनी चाही–कैसे अवसर पर उसकी तबीयत बिगड़ गई थी।
अगले ही पल सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो गया। क्षण-मात्र में वहां सन्नाटा छा गया। सभी की निगाहें सुमन पर टिकी हुई थीं। सभी थोड़े गंभीर-से हो गए थे।
सुमन अभी तक इस प्रकार की क्रियाएं कर रही थी मानो उल्टी करना चाहती हो। तभी उसके बराबर में खड़े उसके पिता ने उसको संभाला–मेहमान उधर लपके। मेहमानो में एक पोपली-सी बुढ़िया भी उस ओर लपकी और भीड़ को चीरती हुई सुमन तक पहुंची।
‘‘अरे! डॉक्टर माथुर, देखना सुमन को क्या हो गया?’’ एकाएक सुमन के पिता चीखे। उसके दोस्त। डॉक्टर माथुर, जो मेहमानो में ही उपस्थित थे उसी ओर लपके।
इससे पूर्व कि माथुर वहां तक पहुँचे...पोपली-सी बुढ़िया भली प्रकार से सुमन का निरीक्षण कर चुकी थी। एक ही पल में बुढ़िया की आँखें आश्चर्य से उबल पड़ीं। अपनी उंगली बूढ़े अधरों पर रखकर तपाक से आश्चर्यपूर्ण मुद्रा में बोली–‘‘हाय दैया...ये तो मां बनने वाली है।’’
‘‘क्या...ऽ...ऽ...?’’ एक साथ अनेक आवाजें।
एक ऐसा रहस्योद्घाटन जिससे सभी स्तब्ध रह गए...प्रत्येक इंसान सन्न रह गया, एक दूसरे की ओर देखा मानो पूछ रहे हो...इसका क्या मतलब है? सुमन तो अविवाहित है...फिर वह मां कैसे बनने लगी...? हॉल में मौत जैसी शान्ति छा गई।
और गिरीश!
उसके हदय पर मानो सांप ही लोट गया था। उसे लगा जैसे समस्त हॉल घूम रहा है...सब घूम रहे हैं। उसकी आत्माएं उसी के हाल पर कहकहे लगा रही है...उसका दिमाग चकरा गया। उसे विश्वास कैसे हो...? ये सब क्या है...? सुमन मां बनने वाली है किंतु क्यों? कैसा अनर्थ है ये? ये कैसा रूप है सुमन का...? आखिर ये सब कैसे हो गया? सुमन के पेट में बच्चा किसका...? उसे लगा जैसे ये समाज उसके प्यार पर कहकहे लगा रहा है। उसे धिक्कार रहा है। उसे लगा जैसे वह अभी चकराकर गिर जाएगा...किंतु नहीं...वह नहीं गिरा...उसने स्वंय को संभाला...उसका गिरना इस समय उचित न था।
सुमन के माता-पिता, बहन और संजय सभी उस पोपली बुढ़िया की सूरत देखते रहे...क्या कभी, उनका इससे अधिक अपमान हो सकता था? नहीं कभी नहीं...इतने मेहमानों के सामने-इतना बड़ा अपमान...भला कैसे सहन करें वे? ये क्या किया सुमन ने? सुमन ने समाज में उसके जीने के रास्ते ही बन्द कर दिए।
एक क्षण के लिए समस्त हॉल आश्चर्य के सागर में गोते लगाता रहा।
सबको इस पोपली-सी बुढ़िया का विश्वास था क्योंकि वह शहर की मशहूर दाई थी। नारी को एक ही नजर में देखकर वह बता देती थी कि यह कब तक मां बन जाएगी।
माथुर के कदम भी अपने स्थान पर स्थिर हो गए।
सुमन को भी बुढ़िया के वाक्य से एक झटका-सा लगा। भय से वह कांप गई, मन की चोट से भयभीत हो गई...उल्टी मानो एकदम ही बंद हो गई।
तभी उसके पिता ने उसे एक तीव्र धक्का दिया और चीखे–
‘‘ये तूने क्या किया?’’
सुमन धड़ाम से फर्श पर गिरी। गिरीश का हृदय मानो तड़प उठा।
सभी मूर्तिवत खड़े थे। सुमन फूट-फूटकर रोने लगी। सुमन के पिता की आँखें शोले उगलने लगीं। पिता तो मानो क्रोध में पागल ही हुए जा रहे थे।
क्रोध से थर-थर कांप रहे थे। आंखें आग उगल रही थीं, वे सुमन की ओर बढ़े और चीखे–
‘‘तू मेरी बेटी नहीं हो सकती कमीनी।’’
सुमन की सिसकारियां क्षण-प्रतिक्षण तीव्र होती जा रही थी। गिरीश तो शून्य में निहारे जा रहा था मानो वह खड़ा-खड़ा पत्थर का बुत बन गया हो, उसे जैसे कुछ ज्ञान ही न हो, मानो उसका शव खड़ा हो।
‘‘कमीनी...जलील...कुल्टा...कुतिया।’’ आवेश में सुमन के पिता जोर से चीखे–‘‘बोल किसका है ये पाप? कौन है वो कमीना जिसके साथ तूने मुंह काला किया?’’ साथ ही उन्होंने सुमन के बाल पकड़कर ऊपर उठाया।
उफ! कैसा जलालत से भरा हुआ चेहरा था सुमन का। लाल...आंसुओं से भरा–क्या यह वही सुमन थी जिसे गिरीश देवी कहता था? जिसकी वह पूजा करता था। क्या यही रूप है आधुनिक देवी का? कैसा कठोर सत्य है यह?
कैसा मासूम मुखड़ा? और ऐसा जघन्म पाप...देखने में लगती देवी...किंतु कार्य में वेश्या। सूरत कितनी गोरी...किंतु दिल कितना काला? क्या यही रूप है आज की भारतीय नारी का? ऐसे जघन्य अपराध के बाद भला किसे उससे प्यार होगा? कौन उसे सहानुभूति की दृष्टि से देखेगा? नहीं–किसी ने उसका साथ नहीं दिया।
तड़ाक–
उसके पिता ने उसके गाल पर एक तमाचा मारा। उसके बाल पकड़कर जोर से झंझोड़ा और चीखे–‘‘किसका है ये पाप–बता–वर्ना मैं तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।’’
लेकिन सुमन कुछ नहीं बोली। उसकी विचित्र-सी स्थिति थी।
और फिर मानो उसके पिता पागल हो गए–खून उनकी आंखों में उतर आया–राक्षसी ढंग से उन्होंने सुमन को बेइन्तहा मारा–कोई कुछ न बोला–सब मूर्तिवत-से खड़े रहे–अचानक उसके पिता के दोनों पंजे उसकी गर्दन पर जम गए तथा वे चीखकर बोले–‘‘अंतिम बार पूछता हूं जलील लड़की...बता ये पाप किसका है?’’
किंतु सुमन का उत्तर फिर मौनता ही थी–उसके पिता क्रोध से पागल हुए जा रहे थे। सुमन किसी प्रकार का प्रतिरोध भी नहीं कर रही थी, फिर सुमन की गर्दन पर उसके पिता की पकड़ सख्त होती चली गई, सुमन की सांस रुकने लगी, मुखड़ा लाल हो गया, नसों में तनाव आ गया। उसके पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वे एक बार फिर दांत भींचकर बोले–‘‘अब भी बता दे कौन है वो–किसका है यह पाप?’’
‘‘मेरा!’’ एकाएक सबने चौंककर गिरीश की ओर देखा...वह आगे बोला–‘‘हां...मेरा है ये बच्चा। जिसको आप पाप कह रहे हैं–मैं उसका पिता हूं।’’ ये शब्द कहते समय गिरीश का चेहरा भावरहित था। पत्थर की भांति सपाट और सख्त।
सभी चौंके थे–सबने गिरीश की ओर देखा, मुंह आश्चर्य से खुले के खुले रह गए। अनीता अपने भाई को देखती ही रह गई–कैसा भावरहित सख्त चेहरा।
सुमन ने स्वयं चौंककर गिरीश की ओर देखा–उसे लगा ये गिरीश वह गिरीश नहीं है–पत्थर का गिरीश है। उसके वाक्य के साथ ही सुमन के पिता की पकड़ सुमन के गले से ढीली पड़ गई–खूनी निगाहों से उन्होंने गिरीश की ओर देखा, गिरीश मानो अडिग चट्टान था।
खूनी राक्षस की भांति वे सुमन को छोड़कर गिरीश की ओर बढ़े किंतु गिरीश ने पलक भी नहीं झपकाई, तभी मानो सुमन में बिजली भर गई, वह तेजी से लपकी और गिरीश के आगे जाकर खड़ी हो गई, न जाने उसमें इतना साहस कहां से आ गया कि वह चीखी–
‘‘नहीं डैडी–अब तुम इन्हें नहीं मार सकते–अब ये ही मेरे पति हैं–मेरे होने वाले बच्चे के पिता हैं, इनसे पहले तुम्हें मुझे मारना होगा।’’
‘‘हट जाओ–इस कमीने के सामने से।’’ वे बुरी तरह दहाड़े और साथ ही सुमन को झटके के साथ गिरीश के सामने से हटाना चाहा किंतु सुमन ने कसकर गिरीश को पकड़ लिया था।
‘‘हम दोनों की शादी मंदिर में हो चुकी है...हम पति-पत्नी हैं।’’ इस बार गिरीश बोला। न जाने वह किन भावनाओं के वशीभूत बोल रहा था। चेहरे पर तो कोई भाव न थे।
‘‘हम बालिग हैं डैडी...मुझे अपना पति चुनने का पूरा अधिकार है, मैं गिरीश को अपना पति चुनती हूं।’’
उफ...! कैसी यातनाएं थीं ये बेटी की बाप को...क्या कोई बेटी अपने बाप को इस भरे समाज में इतना अपमानित कर सकती है। नहीं...उसके पिता इतना अपमान सहन न कर सके। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सारा वातावरण उन्हें घूमता-सा नजर आया। वे चकराए और धड़ाम से फर्श पर गिरे।
‘‘डैडी...ऽ...ऽ...!’’ सुमन बुरी तरह चीखी और अपने पिता की ओर लपकी।
‘‘ठहरो...।’’ एकाएक उसकी मम्मी चीखी...उनका चेहरा भी पत्थर की भांति सख्त था–तुम इन्हें हाथ नहीं लगाओगी। भाग जाओ यहां से।’’
सुमन ठिठक गई इस बीच माथुर लपककर उसके पिता को देख चुके थे, वे बोले–‘‘ये बेहोश हो गए हैं...किसी कमरे में ले चलो।’’
उसके बाद...! सुमन ने लाख चाहा कि अपने पिता से मिले किंतु उसे धक्के दे-देकर उस घर से निकाल दिया। उसकी बड़ी बहन मीना ने उसे ठोकर मार-मारकर निकाल दिया, मेहमानो ने उसे अपमानित किया। न जाने कितनी बेइज्जती करके उसे निकाल दिया गया, सुमन सिसकती रही...फफकती रही परन्तु गिरीश पत्थर की भांति सख्त था...उसकी आंखों में वीरानी थी। वह सब कुछ चुपचाप देख रहा था...बोला कुछ नहीं था। उस घर से ठुकराई हुई सुमन को वह अपने घर ले आया।
कैसी विडम्बना थी ये...कैसा अनर्थ...? कैसा पाप...? कैसा प्रेम? कितने रूप हैं प्रेम के...? ये गिरीश का कैसा प्यार है...आखिर सुमन का क्या रूप है?...क्या वह नारी जाति पर कलंक है...? वहा कहां तक सही है? उसके मन का भेद क्या है?
सब एक रहस्य था...एक गुत्थी...एक राज।