2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना )

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Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:11

मच्छरों से तो निबट ही रहे थे हम, कि बाहर फिर से मेघ गरजे, लगता था कि आज फिर से बरसात होगी! वो भी मूसलाधार! उनकी गर्जन खोखली नहीं थी! क्योंकि कुछ ही देर में, आकाश में बादल छा गए थे, एकाएक मौसम ने करवट बदल ली थी और अब अँधेरा हो चला था बाहर! बिजली कड़की! और हुई रिमझिम शुरू! कुछ भी कहो, मौसम बहुत खुशगवार था! ठंडक बढ़ गयी थी! मैंने तो चादर ओढ़ ली थी, मच्छरों से तो बचाव होता ही, उस ठंडक से भी आराम मिलता! अक्सर ऐसे बदलते मौसम में शरीर का तापमान बाहर के तापमान से सामंजस्य नहीं रख पाता, जिसके कारण ज्वर हो जाता है, गला ख़राब और खांसी की भी संभावना बनी रहती है, और हम तो अपने घरों से दूर तो थे ही, यहां के शहर से भी दूर थे! थोड़ी बहुत दवा शर्मा जी के पास ज़रूर थी, वो वक़्त और ज़रुरत आने पर इस्तेमाल होती, तब तक बचाव करना बहुत ज़रूरी था! और यही सबसे बढ़िया इलाज है!
"लो जी! हो गयी शुरू" बोले शर्मा जी,
"हाँ, आज तो सुबह से ही झड़ी लग गयी!" मैंने कहा,
"चौमासे जैसा मौसम हो रहा है ये तो!" बोले वो,
"सही बात है, हमारे यहाँ तो चौमासे में भी ऐसा नहीं होता! रात-दिन की तो बात ही छोड़िये!" मैंने कहा,
"शहरों में पेड़ आदि काट दिए जाते हैं, घनत्व बनता नहीं, बारिश कहाँ से हो!" बोले वो!
"हाँ, ये ही बात है" मैंने कहा,
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई,
शर्मा जी उठे, दरवाज़ा खोला,
तो सामने सहायक था! चाय ले आया था फिर से, साथ में कुछ गर्मागर्म पकौड़े भी! अब इस से बढ़िया क्या होता! ऐसा मौसम, बारिश की रिमझिम! चाय और गर्मागर्म पकौड़े! शर्मा जी ने झट से पकड़े! ले आये, चाय दी मुझे, खुद बैठे, और वो छबड़िया रख ली बिस्तर पर जिसमें पकौड़े थे!
"ये सहायक बढ़िया आदमी है!" बोले वो,
"उसे पता है, चाय ही ले गया तो आप मांग लोगे उस से पकौड़े!" मैंने कहा,
वे हंस पड़े!
हम चाय के साथ वो गर्मागर्म पकौड़े खाते रहे! उनमे से निकलती भाप सर्दी का सा एहसास करा रही थी! कुछ भी कहो, वो पकौड़े बड़े ज़रूर थे लेकिन थे बहुत बढ़िया! पेट भर जाए लेकिन नीयत नहीं!
अभी हम चाय पी ही रहे थे कि बाबा गिरि ने प्रवेश किया! नमस्कार हुई उनसे और वे बैठ गए वहीँ, हमने चाय के बारे में पूछा तो बोले कि पी कर ही आ रहे हैं वो!
"आज फिर से बारिश है" मैंने कहा,
"हाँ, कल से ही झड़ी लगी हुई है" वे बोले,
"रात में तो बंद थी?" मैंने कहा,
"एक आद घंटे को ही बंद हुई थी, या फिर सुबह" वे बोले,
"अच्छा अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"तो अब तो रास्तों में भी पानी होगा?" मैंने पूछा,
"भर गया होगा!" वे बोले,
"यानि कि अभी यहीं ही रहना है हमको!" मैंने कहा,
"तो क्या परेशानी है! चाय पियो, पकौड़े खाओ!" वे हँसते हुए बोले!
मैं भी हंस पड़ा!
"रात को कुछ समझ आया?" उन्होंने पूछा,
"सच पूछिए तो कुछ नहीं" मैंने कहा,
"वो कैसे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जान सका कि क्या चाहते हैं मुझसे वो" मैंने कहा,
"आज बता देंगे" वो बोले,
"आप ही बता दो?" मैंने कहा,
"मुझे भी नहीं पता सच पूछो तो" बोले बाबा!
अब रहस्य ऐसे आगे और गहरा जाता है, सो गहरा गया था! न जाने कैसी मदद चाहते हैं मुझसे वो, न जाने क्या बात है!
"अजीब सी बात है" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"बताना चाहते तो कल ही बता न देते?" मैंने कहा,
"बता देंगे, इसीलिए यहां आये हैं वो और आपको बुलाया है" वो बोले,
"चलो, देखते हैं आज" मैंने कहा,
"आज बता देंगे" वे फिर से बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
बाहर अजीब सी बिजली कड़की! एक के बाद एक! पूरा कमरा नहा उठा उस रौशनी में!
"आज तो बहा ले जाएगा, ऐसा लग रहा है!" मैंने कहा,
"निकासी अच्छी है यहाँ की, और ये जगह है भी ऊंचाई पर" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
"चलो, आराम करो, भोजन आ ही जाएगा" वे बोले,
"जी" मैंने कहा,
वे उठे, अपनी धोती संभाली और चले गए बाहर, शर्मा जी ने दरवाज़ा बंद कर लिया था, और हमारे चाय-पकौड़े भी अब खत्म हो चले थे! अब हम हाथ पांच कर, लेट गए थे, कम था नहीं कुछ, ठाली ही बैठे थे, कहीं बाहर जाते तो बारिश ने अवरोध लगा दिए थे!
तभी शर्मा जी का फ़ोन बजा, उन्होंने उठाया, ये घर से था उनके, बातें हुईं, बताया कि अभी कोई हफ्ता लगा जाएगा, मौसम ख़राब है और बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही है! तो अभी हफ्ता था हमारे साथ, मुझे भी हफ्ते के बाद कुछ आवश्यक काम था दिल्ली में ही, सोच रहा था कि बारिश रुके तो हम जल्दी जल्दी ये काम निबटा लें!
कोई एक बजे भोजन किया हमने! भोजन कल की तरह ही स्वादिष्ट बना था! पेट भर के खाया हमने और फिर से आराम किया, उसके बाद मेरी आँख लग गयी थी, शर्मा जी भी सो गए थे, और जब नींद खुली तो पांच बजे का समय था! बारिश तो रुक चुकी थी, लेकिन बादल अभी भी धमका रहे थे! रह रह कर कभी कभी चाबुक चला ही देते थे!
शर्मा जी ने बाहर झाँका,
"अभी तो बंद है" वे बोले,
"हाँ, देखा मैंने" मैंने कहा,
"बस अब रुक जा!" वे बाहर देखते हुए बोले!
और तभी बादल गरज उठे!
मैं हंस पड़ा!
"मिल गया जवाब?" मैंने कहा,
"हाँ जी! फ़ौरन ही मिल गया! धमकी दे दी है!" वे बोले,
किसी तरह से और दो घंटे काटे! अपने कमरे में ही क़ैद थे हम, अब अँधेरा छा चुका था, बत्ती चार बजे करीब आई तो थी, लेकिन आधे घंटे के बाद, फिर से चली गयी थी! कमरे में वही मिट्टी के तेल की डिबिया जला ली गयी थी! थोड़ा बहुत प्रकाश हुआ था उस से, कम से कम दिख तो रहा ही था!
तो मित्रगण! अब हुई शाम! और हुई शाम तो लगी हुड़क!
मैंने शर्मा जी को कहा कि सहायक के पास जाएँ, कुछ खाने-पीने को ले आएं, गिलास आदि और पानी भी, तब तक मैं, बोतल निकला लेता हूँ! वे चले गए, मैंने बोतल निकाल ली, और रख दी बिस्तर पर, डिबिया खिसका कर, सामने मेज़ पर रख ली थी, तो मैंने बिस्तर पर अखबार लगा लिया, थोड़ी देर में ही शर्मा जी और वो सहायक आ गए, शर्मा जी के हाथों में गिलास और पानी था और सहायक छबड़िया में कुछ मसालेदार लाया था, कुछ सलाद भी थी! रखा सामान उन्होंने!
मैंने झट से छबड़िया का कपड़ा उठा के देखा, वाह! भुनी हुई कलेजी थी वो! अब वो कहाँ से लाया, पता नहीं, चूंकि बाहर तो बारिश थी, शहर तक जाना और आना इतनी जल्दी सम्भव न था! अब हमें क्या! जो चाहिए था, मिल गया था! अब शायद वहीँ किसी बकरे या मेढ़े को 'चटका' दिया होगा उसने! सहायक जाने से पहले कह गया था कि कुछ चाहिए हो तो बता दें हम उसे!
अब वो गया तो हम हुए शुरू! शर्मा जी ने पैग बनाया! और हमने पैग खींचने किये शुरू! भुनी हुई कलेजी के ऊपर नीम्बू छिड़क कर तो स्वाद ऐसा हो गया था कि और कुछ खाने का मन ही न करे!
"लज़ीज़!" मैंने कहा,
"हाँ, लेकिन मैं सलाद ही लूँगा" वो बोले,
"एक आद तो?" मैंने कहा,
"लेता रहूँगा" बोले वो,
अपने पेट का ख़याल रखा करते हैं शर्मा जी, इसीलिए कम ही खा रहे थे कलेजी, बाकी सलाद पर टूटे पड़े थे, मैं भी सलाद का एक आद टुकड़ा चबा ही लेता था!
बाहर मेघ गरजे!
और हुई फिर से बूंदाबांदी शुरू!
"लो! फिर से" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोले,
इस बार ऐसी बिजली कड़की, कि कान के पर्दे तक सतर्क हो गए!
"आज तो लगता है यहीं फट के रहेगा!" वे बोले,
मुझे हंसी आई!
तभी बाबा गिरि अंदर आये! बैठे, हमने उन्हें भी एक गिलास भरके दे दिया!
"बारिश फिर से तेज हो गयी" मैंने कहा,
"हाँ, रुकने का नाम ही नहीं ले रही" वे बोले,
मैंने अपना गिलास खत्म किया तब ही,
"अब बाबा कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"दोपहर में बुखार था उन्हें, काढ़ा दिया है उनको, खांसी-ज़ुकाम भी हो गया है" वे बोले,
"मौसम की चपेट में आ गए हैं" मैंने कहा,
"यही बात है" शर्मा जी बोले,
"चलना है उनके पास?" मैंने पूछा,
"अभी चलते हैं, मैंने हण्डा लगाने को कहा है वहां" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
फिर से एक और गिलास, और वो भी खत्म!

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Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:12

बारिश अपने यौवन पर थी उस समय! मेघों ने सारी कसर झोंक मारी थी! और अब तो जैसे कुँए ही उलट दिए हे उन्होंने! बाहर सिर्फ शोर ही था, उस बारिश का शोर! जैसे सागर की लहरें तट पर बांधे हुए पत्थरों से टकराया करती हैं! ऐसी बारिश हाल-फिलहाल में मैने यहीं देखी थी! घनघोर बरसात! लगता था बारिश बूंदों में नहीं, कतार में हो रही हो जैसे! छत पर ऐसी पड़ रही थी कि जैसे आज छत में छेद कर देगी!
मैंने अपना आधा कोटा निबटा लिया था, बाबा ने भी दो गिलास खींच मारे थे, ठेठ पटियाला पैग! मेरे चार और उनके दो! पुराने चावल थे बाबा! अब अंग्रेजी कहाँ असर करती उनको! यही कारण था!
"आओ, चलते हैं" वे बोले, और खड़े हुए,
"चलो" मैंने कहा,
मैं खड़ा हुआ और जूते पहन लिए, शर्मा जी भी जूते पहन चल पड़े, बाहर अँधेरा था, दूर सहायक की रसोई में लगी डिबिया चमक रही थी, उसी का प्रकाश खिड़की उसके कमरे के दरवाज़े से बाहर आ रहा था, और दूर बायीं तरफ, तेज प्रकाश था, यहीं लगा था वो हण्डा, जहाँ बाबा अमर नाथ ठहरे हुए थे, हमने सहायक के कक्ष को पार किया, अरहर की दाल की खुश्बू आ रही थी वहां से! अब दूसरे लोगों के लिए भोजन बनाया जा रहा था शायद! हम आगे चलते रहे और पहुँच गए वहीं जहां बाबा अमर नाथ का कमरा था, कमरे से रौशनी आ रही थी, लेकिन कुछ कीट-पतंगे भी आ डटे थे, कुछ टिड्डे और दूसरे पतंगे भी थे, एक मेरे कंधे पर आ बैठा था, मैंने हाथ से हटाया उसको! अंदर गए, प्रणाम किया बाबा से, वो अपने बिस्तर पर, कंबल लपेटे बैठे थे, साथ की कुर्सी पर, कविश बैठा था, और संग उनके एक महिला भी थी, कोई चालीस बरस की रही होगी, दिखने में साध्वी तो नहीं लगती थी, तोतई रंग की साड़ी पहनी थी उसने, और हाथों में ज़ेवर भी थे, गले में भी और कानों में भी, ये कौन थी, पता नहीं चला था!
हम बैठ गए सभी वहाँ, वो औरत उठ गयी और चली गयी बाहर तभी के तभी, कद-काठी मज़बूत थी उस औरत की, वो जिस तरह से उठी थी, स्पष्ट था कि वो जानती थी कि हम आने वाले हैं और कुछ राय-मशविरा होने को है!
'आइये" बोले बाबा,
हम बैठ गए उधर ही, कविश उठा गया था, शर्मा जी वहां अब बैठ गए थे, दूसरी कुर्सी पर मैं बैठ गया था, बाबा गिरि बाबा के पास बैठ गए थे!
बारिश ने गति पकड़ ली थी! छत पर ऐसे पड़ रही थी जैसे गोलीबारी हो रही हो! और बाहर तो पूछो ही मत! सब कुछ तरबतर करने की फ़िराक में थी वो! पास रखे हंडे पर कीट-पतंगे होलिका-दहन की तैयारी में लगे थे, कुछ मौत से न डरने वाले, टक्कर मारने लगते थे उसे! पट-पट की आवाज़ें आ रही थीं! हण्डा ढका हुआ था, नहीं तो वो भी नेस्तनाबूद हो चुका होता उन चौड़ी छाती वाले वीरों से! कम से कम अपने समूह में सबसे चौड़ी छाती उन्ही की होगी, तभी तो आ डटे थे!
बाबा ने गला खखारा अपना, फिर खांसी, और रुमाल से अपनी नाक पोंछी, ज़ुकाम बढ़ गया था उनका, आवाज़ भी अलग ही हो गयी थी अब!
"अब कैसी तबीयत है आपकी?" मैंने पूछा,
"ठीक नहीं है, खांसी और ज़ुकाम ने ज़ोर पकड़ लिया है" वे बोले,
"कुछ दवा है हमारे पास, कहो तो दे दूँ?" मैंने कहा,
"काढ़ा पिया है अभी, सुबह तक आराम हो जाना चाहिए" वे बोले,
पुराने लोग दवा-दारु से, खासतौर पर अंग्रेजी दवाओं से बचते हैं, इसीलिए हाँ को न में कहने के लिए उत्तर दिया था उन्होंने अपने ही अंदाज़ में!
मैंने उनका हाथ पकड़ के देखा, बुखार था उन्हें, कम से कम एक सौ एक या दो तो रहा ही होगा,
"आप दवा ले लें, बुखार तेज है" मैंने कहा,
वो खांसी, और अपने हाथ से इशारा करके न कह दिया!
अब मुझे चुप होना पड़ा!
चुप्पी छा गयी थी तभी! और तभी बादल गरजे! बिजली कड़की! और उस हंडे की रौशनी उस बिजली की रौशनी में मोमबत्ती समान हो गयी थी एक पल को तो! हवा तेज चली तो दरवाज़ा भनभना गया, कविश गया और दरवाज़ा बंद कर दिया उसने, फिर से आ बैठा वहीँ!
"कल मैंने आपको बताया था बाबा अमली के विषय में" बोले बाबा,
"हाँ बाबा जी" मैंने कहा,
"उन्ही के विषय में आपको बुलाया गया है यहाँ" वे बोले,
"जी" मैंने कहा,
"सबसे पहले ये बता दूँ कि कौमुदी है क्या?" वे बोले,
"जी बाबा!" मैंने कहा,
यही तो जानना चाहता था मैं! अब आई थी पटरी पर गाड़ी! सीटी मारते हुए!
"कौमुदी......आज के समय में इस परा-विद्या का आधुनिक नाम है, कौमुदी नाम की कोई यक्षिणी और अप्सरा नहीं" वे बोले,
मेरे तो कान जठर गए!
मुंह खुला रहा गया!
जिव्हा हलक में जाते जाते रुकी!
कोई नहीं है ये कौमुदी?
ऐसा कैसे?
"हाँ, कोई नहीं! कौमुदी एक जंगली पुष्प है, और एक शिला-खंड! हाँ, एक मुद्रा को भी कौमुदी-मुद्रा कहा जाता है, आजकल के समय में इस नाम का ही प्रचलन है!" वे बोले!
"अच्छा! तो सत्य क्या है?" मैंने पूछा,
"तृप्तिका अप्सरा!" वे बोले,
तृप्तिका?
ये तो पहली बार सुना मैंने! कौन है ये तृप्तिका? मुख्य अप्सराओं में तो इसका नाम कहीं नहीं है? जो सुनी हैं, जिनकी साधना होती है, उनमे से भी नहीं है, तो ये कौन है?
"ये कौन है बाबा?" मैंने पूछा,
"बस यूँ समझ लो कि एक शापित अप्सरा है ये!" वे बोले,
शापित अप्सरा! इतना लम्बा श्राप! कलयुग तक चलता आ रहा है ये श्राप? भला एक अप्सरा को ऐसा श्राप क्यों मिलेगा?
"किसने दिया श्राप?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" वे बोले,
"आदि कुछ नहीं?" मैंने पूछा,
:किसी को ज्ञात नहीं" वे बोले,
"बाबा अमली?" मैंने पूछा,
"उन्हें भी ज्ञात नहीं" वे बोले,
ज्ञात नहीं, फिर भी सिद्ध? मान लिया चलो!
बाबा फिर से खांसी, गला साफ़ किया, बलग़म तक गया था, खींच कर साफ़ किया, और फिर उठ कर, बाहर चले गए, थूकने, वापिस आये तो रुमाल से नाक-मुंह पोंछा, वापिस बिस्तर में घुस गए,
अब कहानी में मोड़ नहीं, चौराहे आने लगे थे! वो भी एक नहीं, असंख्य!
"कविश? वो...(खांसी उठी, खांसे)..." इस से पहले वो बोलते, कविश उठ गया था,
वो बैग तक गया, और कल वाली एक और मदिरा की बोतल निकाल लाया, वहीँ रखी और बाहर चला गया, तब तक हमारे बीच बाहर बारिश के विषय में बातें होने लगीं!
कोई दस मिनट में कविश आ गया, साथ में सहायक भी सामान ले आया था, वहीँ रखा उन्होंने सामान, हण्डा उठकर, नीचे रख दिया, और सामान मेज़ पर रखा फिर,
वही भुनी कलेजी, सलाद और पानी था, गिलास, बस अब गिलास कांच के न होकर, स्टील के थे! सहायक गया वापिस,
"डालो कविश" बोले बाबा गिरि,
अब कविश ने डालना शुरू की मदिरा, भर भर के गिलास बना दिए,
"लो जी" बोला वो,
अब हम सभी ने अपने अपने गिलास उठा लिए,
"ये लो, मैंने ही बनवायी थी" बाबा अमर नाथ बोले, कलेजी की तरफ इशारा करके,
"अच्छा! बहुत लज़ीज़ बनी हैं!" मैंने कहा,
"खाइये फिर" बोले वो!
और हम सभी ने एक एक टुकड़ा उठा लिया! टुकड़ा काटा, और गिलास खींच लिया, फिर बचा हुआ टुकड़ा भी खत्म कर दिया!
"बाबा अमली ने इसी तृप्तिका को सिद्ध किया था" बोले बाबा!
"अच्छा" मैंने कहा,
दरसल मैं अभी तक इसी ख़याल में खोया हुआ था कि बाबा अमली ने कैसे सिद्ध कर लिया? किसे ज्ञान था इस तृप्तिका का? किसने बताया उनको? विधि या रीत कैसे पता चली? कौन था वो महा-तांत्रिक??
"आप सोच रहे होंगे कि कैसे सिद्ध किया?" बोले बाबा,
यक़ीनन!
मैं यही तो सोच रहा था!
"हाँ.....हां बाबा!" मैंने कहा,
"शतभाल शव! घाड़!" वे बोले,
मैं तो गिरते गिरते संभला!
शतभाल घाड़?
अर्थात एक नपुंसक का शव?
उसकी शव-साधना?
"उसी शतभाल घाड़ ने बताया था उनको!" वे बोले,
अब तो मित्रगण! मैंने अपने आपको नगण्य ही जाना अपने आपको! बाबा अमली ने शतभाल-साधना की थी! शतभाल-साधना में ऐसे कई गूढ़ रहस्य हैं जिनसे आप बहुत कुछ जान सकते हैं! आप जो पूछना चाहें, वो बताता जाएगा! सभी विधियां! सभी क्रियाएँ! अब समझा में! अब कम से कम ये तो पता चला, कि वो महा-तांत्रिक आखिर था कौन!! मैंने कभी ये साधना नहीं की थी, किसी भी नपुंसक का शव नहीं प्राप्त हुआ था मुझे पच्चीस वर्षों में! देखा तो था, लेकिन कभी इसकी साधना नहीं की थी!
लेकिन बाबा अमली! वो सफल हुए थे!
सफल इस शतभाल-साधना में!
अब सुलझने लगी थी डोर! बस ढूंढना था अब उसका छोर!

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Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:12

छोर ढूंढने के लिए अभी मेहनत बाकी थी! लेकिन अभी भी ये ज्ञात नहीं था कि इसमें मेरी क्या आवश्यकता आन पड़ी थी? बाबा अमर नाथ सब जानते थे, बाबा अमली अभी भी जीवित थे, वो पूर्ण रूप से मदद करने के समर्थ थे! तो मैं कहाँ टिकता था बाबा अमली के सामने? बाबा अमली तो स्वयं ही सिद्ध कर चुके थे उस तृप्तिका को! तो मामला अभी अटका ही हुआ था! हाँ, इतना ज़रूर कि डोर पकड़ में आ चुकी थी! लेकिन बाबा अमर पहेलियाँ सी बुझाए जा रहे थे, स्पष्ट रूप से नहीं बता रहे थे! और मुझे यही जिज्ञासा काटे जा रही थी! हाँ, एक बात बड़ी ही विशेष थी! वो वो, वो शतभाल क्रिया! मेरे इस पूर्ण तांत्रिक-जीवन में आजतक मैंने शतभाल क्रिया नहीं देखी थी, सुनी अवश्य ही थी, लेकिन कभी बैठा नहीं था उसमे, न ही कोई निमंत्रण आदि ही आया था! इतना तो पता ही था कि शतभाल-क्रिया से वो रहस्य उजागर हुआ करते हैं जो मालूम ही नहीं किसी को! अच्छे से अच्छा साधक भी इस से अनजान ही रहता है! तो इसी शतभाल-क्रिया से बाबा अमली ने वो रहस्य जाना होगा, और ये तृप्तिका-साधना चुनी होगी! अब किसलिए चुनी, ये तो बाबा अमली ही जानें! इस से क्या मिलता है, प्रथमदृष्टया तो काम की प्राप्ति हुआ करती है! और शायद यही कारण रहा होगा! तब बाबा की आयु भी कम ही रही होगी और देह में जान होगी!
मुझे तो यही लग रहा था, नहीं तो कोई साधक भला अप्सरा-सिद्धि की विधि क्यों पूछेगा! वो मार्ग में आगे बढ़ता जाए, कोई विघ्न न हो, कोई अवरोध न आये, इसके लिए निर्बाध-क्रिया विधि पूछे तो कोई औचित्य समझ में आता है, अब अप्सरा-सिद्धि से लाभ क्या?
अभी हम बात कर ही रहे थे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई, कविश उठा और चला दरवाज़ा खोलने, एक औरत आंध्र आई, गौर से देखा तो वो, वही औरत थी जो अभी गयी थी वहां से, कपड़े से पकडे हुए एक लोटा ले आई थी, शायद काढ़ा था इसमें, कविश ने लिया और एक गिलास में डाल दिया, और दे दिया बाबा को, बाकी वहीँ रख दिया, धक दिया एक तश्तरी से, वो औरत एक चादर ले गयी अपने साथ, और वापिस चली गयी, कविश ने दरवाज़ा बंद कर दिया उसके जाते ही!
बाहर बिजली कड़क रही थी! बारिश अपने ज़ोर पर थी! खिड़की से अंदर आता प्रकाश कमरे में बैठे कुछ भूतों समान हमें चमका जाता था!
"तो बाबा एक बात बताइये, मुझे अब तक समझ जो आया है वो ये कि बाबा अमली ने शतभाल-क्रिया की, विधि जानी, और फिर उसके बाद तृप्तिका-अप्सरा को साध लिया और कर ली सिद्ध, अब तक तो यही है, और वो मूर्ति उस कौमुदी अथवा तृप्तिका की ही है, लेकिन इसमें मेरा क्या काम है?" मैंने पूछा,
"यही तो बताना है आपको!" बाबा ने कहा,
"तो बताइये?" मैंने कहा,
"एक बात बताइये, ये तृप्तिका अप्सरा, कैसी होगी रूप में?" उन्होंने पूछा,
"दूसरी अप्सराओं जैसी" मैंने कहा,
वे मुस्कुराये, काढ़े का एक घूँट पिया और मुझे देखा,
"नहीं!" वे बोले,
नहीं???
कई नहीं? अप्सरा तो अप्सरा ही है, उनमे क्या अंतर?
"अप्सरा क्या प्रदान किया करती यही, ये विषय नहीं है, ऐसा कुछ नहीं लिया बाबा अमली ने!" वे बोले,
"नहीं लिया?' मेरे मुंह से निकला,
"हाँ, नहीं" वे बोले,
"तो फिर?" मैंने पूछा,
"तृप्तिका एक अप्सरा नहीं है! वो स्वयंभू महाशक्ति है! जैसा मैंने पहले बताया, वो साधक को उसी रूप में दर्शन देती यही, जैसी उसकी मनोदशा हुआ करती है उस समय!" वे बोले,
स्वयंभू?
क्या ऐसा भी सम्भव है?
और स्वयंभू को श्राप?
ये क्या कह रहे हैं बाबा?
लगता है उम्र का असर होने लगा है अब उन पर! बाबा अमली की बातों में आ गए हैं! तभी ऐसी ऐसी बातें कर रहे हैं! यही सोचा था मैंने!
"तो बाबा उसको साधने का लाभ क्या है?" मैंने पूछा,
"परमोच्च!" वे बोले,
"परमोच्च?" मैंने कहा,
दरअसल समझ नहीं आया मुझे!
खांसे वो, गला साफ़ किया, नाक पोंछी,
"कविश?" बोले बाबा,
और कविश ने गिलास फिर से भर दिए! मैं तो जोश में जल्दी जल्दी खींच गया गिलास! मुझे ये परमोच्च समझना था! कि किस प्रकार का परमोच्च!
"साधना बहु-आयामी मार्ग है, आपको ज्ञात है न?" वे बोले,
"हाँ बाबा" मैंने कहा,
"आयाम साधने पड़ते हैं" वे बोले,
"हाँ, निःसंदेह!" मैंने कहा,
"कंज में आ कर, आगे बढ़ना पड़ता है, हमेशा, पीछे लौटने का प्रश्न ही नहीं" वे बोले,
"सत्य है" मैंने कहा,
"द्वितीय चरण में साधक को क्या करना होता है, आपको ज्ञात है, अब यदि आपके पास ऐसा मार्ग हो, जो आपको सीधा ही चौथे चरण के उत्तरार्ध में पहुंचा दे, बिना किसी लाग-लपेट के, तो कैसा रहे?" वे बोले,
"क्या?" मैंने कहा,
"सोचो और बताओ" वे बोले, एक छींक मारने के बाद,
ये क्या कह रहे हैं बाबा? ऐसा कौन सा मार्ग है? तो क्या ये वो अप्सरा नहीं? दिमाग सूखने लगा था! इतना चला था कि अब तो कुंद पड़ने लगा था! अब ऐसा कौन सा मार्ग आ गया ऐसा?
"क्या ऐसा मार्ग है?" मैंने पूछा,
"यदि हो तो?" उन्होंने पूछा,
"हो तो, मैं जानना चाहूंगा" मैंने कहा,
कविश ने गिलास फिर से भरा!
"तो समझ लीजिये, तभी बुलाया गया है आपको" वे बोले,
अब ये तो वही बात हुई, कि इशारा करके बुलाया और जब आया तो भड़ाक से दरवाज़ा बंद! मैंने अब भी नहीं समझ सका था कुछ भी! बाबा अमर नाथ ने कुछ नहीं खोला था अभी तक, रहस्य बरकरार ही था!
"आप मुझे ये तो बताइये इस से मेरा क्या लेना देना?" मैंने पूछा,
"आपको अभी पूरी बात पता नहीं चली है" वे बोले,
"तो बताइये?" मैंने कहा,
"कविश" बोले बाबा,
अब कविश ने गिलास नहीं भरा!
शायद अब कविश को ही कहना था आगे!
"क्या आप चल सकते हैं बाबा अमली के पास?" उसने पूछा,
ये कैसा सवाल था! मैं दो-तीन दिन से यहाँ अटका था, और अब बाबा अमली के पास? तो मुझे क्यों बुलाया था उन्होंने यहां?
"कहाँ? नेपाल?" मैंने कहा,
"नहीं, नैनीताल" वो बोला,
नैनीताल, अधिक तो दूर नहीं दिल्ली से, और यहाँ से भी, जा तो सकते ही था मैं,
"वहां क्या काम है?" मैंने पूछा,
अब उसने बाबा को देखा,
बाबा ने मुझे देखा,
"आप चल सकते हैं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, चल सकता हूँ" मैंने कहा,
अब कविश उठा, और अपना फ़ोन उठाया उसने, कुछ उंगलियां सी फिरायीं उसने उस पर, और फिर मेरी तरफ आया वो,
"ये देखिये" वो बोला,
मैंने फ़ोन हाथ में लिए, गौर से देखा, इसमें एक बुज़ुर्ग व्यक्ति था, लेटा हुआ, कृशकाय, बीमार, मृत्यु की बाट जोहता!
"कौन हैं ये?" मैंने पूछा,
"बाबा अमली" बोले बाबा अमर,
मैं चौंका!
उस कौमुदी, तृप्तिका के साधका का ये हश्र? अप्सरा के साधक तो, हृष्ट-पुष्ट, मज़बूत देह वाले, डील-डौल वाले, लम्बी आयु भोगने वाले, सदैव ही प्रौढ़ से रहने वाले और जवानी की चादर ओढ़े से रहते हैं, तो फिर बाबा अमली का ये हाल?
"ये बाबा अमली हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"ऐसा क्या हो गया इनको?" मैंने पूछा,
"ये गत छह-सात बरस से ऐसे ही हैं" बोले बाबा,
और तभी हंडे की बत्ती कम हुई! धीरे धीरे कम होती चली गयी! शायद गैस खत्म हो गयी थी, यही वजह थी, अब बस हलकी सी रौशनी थी, और कुछ नहीं! तो डिबिया जलानी पड़ी फिर!
"क्या, बीमार हैं वो?" मैंने पूछा,
उन्होंने एक लम्बी सांस भरी,
"हाँ, बीमार हैं, लेकिन इस संसार की कोई बीमारी नहीं है उन्हें" वे बोले,
"मतलब?" मैंने पूछा,
वे खांसे, और बलग़म फेंकने बाहर गए, फिर आ गए, बैठ गए बिस्तर पर, कंबल ओढ़ा, और फिर देखा मुझे, तभी मैंने देखा, कविश ने फिर से गिलास भर दिए थे, हमने गिलास उठाये और खींच लिए,
"जानते ही होंगे, कि व्यक्ति मृत्यु मांगे, और मृत्यु ही ना आये उसे!" वे बोले
दयनीय! इस से अधिक और क्या दयनीयता होगी?
"हाँ, समझ रहा हूँ आशय आपका" मैंने कहा,
"बाबा अमली का यही हाल है" वे बोले,
और अब तो ये मरते में दो लात और मारने की सी बात थी!!!

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