2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना )

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Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:10

वो बाबा अमर नाथ का करीबी लग रहा था, चूंकि वो उनके सिरहाने आ बैठा था, और उस से पहले मैंने कभी नहीं देखा था उसको उनके साथ, इसीलिए अजीब सा लगा था मुझे पहली नज़र में, बाबा गिरि से तो काफी पुरानी जान-पहचान थी, करीब पचास साल पुरानी तो होगी ही, उनके गुरु भी एक ही थे, बाबा अमर नाथ श्री श्री श्री महाबल नाथ के भी पुराने जानकार थे, और इसी कारण से मैं उनके सम्पर्क में आया था! और यही कारण था कि बाबा गिरि के कहने पर कि बाबा अमर नाथ मुझसे मिलना चाहते हैं, मैं नियत दिन पर यहां आ पहुंचा था!
बाहर अभी भी बारिश ही थी, बारिश अब तेज तो नहीं थी, लेकिन भिगोने के लिए पर्याप्त थी! कभी-कभार मेघ गरज कर अभी आकाश में हैं वो, बतला दिया करते थे!
"जी बाबा, बताइये कैसे याद किया, मैं हाज़िर हूँ" मैंने कहा,
वे उठने लगे, तो उनके भांजे ने सहारा दिया उनको, तो उठ गए वो, अपनी चादर सही की उन्होंने, फिर अपना कुरता भी और गला खखारा अपना!
"क्या आप अमली बाबा को जानते हैं?" उन्होंने पूछा,
अमली बाबा?
मैंने ज़ोर लगाया दिमाग पर, कुछ याद आया!
"हाँ, वो नेपाल वाले?" मैंने पूछा,
"हाँ, वही" वे बोले,
तो अमली बाबा अभी जीवित थे! जब में उनसे कोई सात साल पहले मिला था तो उनकी आयु पिचासी वर्ष की रही होगी! और मुझे बहुत ख़ुशी हुई ये जानकर कि अमली बाबा आज भी जीवित हैं!
"वो आजकल नैनीताल में हैं, अपने पुत्र के साथ, छोटा पुत्र नेपाल में है और बड़ा वाला उनके साथ ही रहता है, नाम है अनिरुद्ध, मेरी उनसे पिछले साल मुलाक़ात हुई थी, तब उन्होंने कुछ बताया था मुझे, मैंने काफी जानकारी जुटाई उस बारे में, लेकिन अधिक नहीं पता चल सका, एक तो अब मेरा स्वास्थ्य सही नहीं रहता, सांस की तकलीफ रहती है, और दूसरा अब साधना भी नहीं होती, कभी-कभार विद्या-जागरण कर लिया करता हूँ, अब मेरे शेष कार्य ये मेरा भांजा, कविश ही करता है" वे बोले, उस भांजे के कंधे पर हाथ रखते हुए,
अब तक तो सब सही था! स्वास्थ्य सही नहीं रहता, ठीक है, दिख भी रहा था, कविश वहीँ बैठा था, अच्छी कद-काठी का व्यक्ति था, स्वाभाव के बारे में मैं जानता नहीं था, चूंकि कभी परखा नहीं था!
"अच्छा बाबा! वैसे क्या बताया था अमली बाबा ने आपको?" मैंने पूछा,
वे चुप हुए, और सोचने लगे कुछ, अपनी हल्की दाढ़ी पर हाथ फेरा, फिर गले में पहना हुआ ताबीज़ पकड़ा, और मुझे देखा,
कुछ पल ऐसे ही देखा मुझे!
"कौमुदी के बारे में सुना है?" उन्होंने पूछा!
कौमुदी!!
क्या?
कौमुदी???
मैं हुआ सन्न!
क्या कह रहे हैं बाबा?
क्या हुआ इनको?
ये तो मात्र किवदंती सी लगती है मुझे!
सुना तो है, लेकिन बहुत कम! एक बार अपने दादा श्री के श्री मुख से! बाबा क्यों पूछ रहे हैं मुझसे?
"कौमुदी?" मैंने पूछा,
दबी सी आवाज़ में...
सहमी सी आवाज़ में......
यक़ीन से परे से लहजे में.......
हाँ....यक़ीन से परे के लहजे में.....
"हाँ, कौमुदी!" वे बोले!
मुझे अब भी यक़ीन नहीं हुआ!
शर्मा जी का तो ये हाल था कि जैसे कोई कहे हवा आई तो नज़रें गढ़ा के देखें कि कहाँ? किस ओर!!
मैंने कभी नहीं बताया था उन्हें इस तंत्र-कौमुदी के विषय में! इस साधना को आज सात्विक लोगों ने कमाई का धंधा बना दिया है! इसको यक्षिणी और अप्सरा साधना से जोड़ दिया गया है! लेकिन ऐसा है नहीं! दरअसल कौमुदी भी एक स्वच्छंद महाशक्ति है! साधक जिस रूप में पूजे, उसी रूप में प्रकट होती है, और इस संसार और उस संसार में ऐसा कुछ नहीं, जो ये प्रदान न कर सके! मेरे लिए तो ये किवदंती ही थी! मैंने न तो कोई ऐसा चिन्ह देखा था, न ही कोई ऐसा साक्ष्य, प्रमाण आदि , न कोई मूर्ति, न कोई लिखित में प्रमाण! कुछ भी नहीं! और सबसे बड़ी बात, न ही कोई साधक!!!
इसीलिए मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था!
(मित्रगण, ये तंत्र में बहुत बड़ा रहस्य है, सबसे गूढ़तम विषयों में से एक है)
"लेकिन मैंने कभी नहीं सुना कौमुदी के विषय में बाबा" मैंने कहा,
"मैं बताता हूँ" वे बोले,
फिर कुछ देर चुप हुए,
और कविश की ओर देखा, कविश से कुछ कहा,
कविश उठा और चला एक तरफ! मैं उसे ही देख रहा था! वो एक बैग तक गया, बैग खोला, और उसमे से कपड़े में लिपटी हुई कोई वस्तु थी वो, वो ले आया बाबा के पास उसे, बाबा को दे दी,
मेरे कान लाल हुए!
आँखें चौड़ी भट्टा सी हो गयीं!
क्या है इसमें?
के वस्तु है ये?
मारे जिज्ञासा के दिमाग घूमने लगा!
बाबा ने उस वस्तु को निकाला आराम आराम से वो कपड़ा खोलकर, और जो वस्तु निकली, वो एक मूर्ति थी, शुद्ध सोने की बनी हुई मूर्ति, और उस मूर्ति के साथ में ही एक और पोटली थी, छोटी सी, वो भी खोली, उसने से एक और पोटली सी निकली, वो भी खोली, तो उसमे से कोई चमकदार सी मिट्टी सी निकली! सबकुछ आँखों के समक्ष हो रहा था! लेकिन ये सब था क्या?
"इधर आओ" वो बोले,
मैं झट से उठा!
जैसे मांस का टुकड़ा देखते ही कोई श्वान उठ जाता है! उन तक पहुंचा!
"ये, ये देखो" वो बोले,
उन्होंने वो मूर्ति मुझे दी, वजन में कोई डेढ़ किलो के आसपास होगी वो मूर्ति, कोई सवा फ़ीट लम्बी, किसी अत्यंत ही सुंदर स्त्री की नग्न मूर्ति, ढालने वाले ने, पहले स्त्री सौंदर्य का परमोच्च देखा होगा, छत्तीस काम-कलाएं जानी होंगी, चौंसठ स्त्री-मुद्रा सीखी होंगी, एक सौ इक्कीस स्त्री के अंग-प्रत्यंग विन्यासों का अध्ययन किया होगा! कमाल था!! बेहद कमाल की मूर्ति! लगता था कि अभी बोल पड़ेगी!
"कौमुदी!" बाबा ने कहा,
यदि ये कौमुदी है, तो रति की कट्टर शत्रु है! रति तो युद्ध ही छेड़ देगी उसके साथ! यही सोच था मैंने उस पल! एक पल के लिए तो, मुझे भी हैरत हो गयी थी कि ये मूर्ति कौमुदी का रूप है!
"ये कहाँ से मिली बाबा?" मैंने पूछा,
"बाबा अमली ने दी थी मुझे" वे बोले,
"अच्छा" मैंने धीरे से कहा,
मैं अभी भी, उस मूर्ति के अंग-प्रत्यंग देख रहा था! एक एक अंग ऐसा था कि जैसे किसी अप्सरा को श्राप मिला हो और वो इस मूर्ति के रूप में श्राप भोग रही हो!!
"और उन्हें?" मैंने पूछा,
वे चुप हुए,
मैंने प्रतीक्षा की,
जब कोई उत्तर नहीं दिया उन्होंने तो, मैंने ही पूछा फिर से,
"उन्हें कहाँ से मिली ये मूर्ति?" मैंने पूछा,
"कौमुदी से" वे बोले,
क्या?????????
मेरे कान में विस्फोट हुआ!
बाबा का दिमाग चल गया है क्या?
क्या ऐसा सम्भव है?
मेरे दिमाग में सोच-विचार की रेलगाडी दौड़ पड़ीं! बेलगाम! किसी भी मुक़ाम पर न रुकने वाली वो रेलगाड़ियां!!! भागे जा रही थी अपनी उच्च-गति पर!
"विश्वास नहीं हुआ?" वे बोले,
कैसे होता?
कैसे करता मैं विश्वास?
और मान भी लिया जाए, तो कौमुदी क्यों देगी कोई मूर्ति?
किसलिए?
क्या औचित्य?
"नहीं हुआ विश्वास" मैंने कह दिया!
अब नहीं हुआ था तो कहना ही था!
मैं बैठ गया वो मूर्ति पकड़े पकड़े! वहीँ, कुर्सी पर, उस मूर्ति ने मुझे जैसे सम्मोहन में ग्रस्त कर लिया था! मैं बार बार उसको देखता, निहारता और डूब जाता उसमे!
"ये देखो" वो बोले,
मैंने मूर्ति एक हाथ में पकड़ी, और उठ कर गया उनके पास,
उन्होंने मुझे मेरे सीधे हाथ में कुछ दिया, मैंने गौर से देखा, ये तो कीकर के पेड़ की पत्तियां थीं, शुद्ध सोने की बनी हुई, एकदम असली जैसी, लेकिन था खालिस सोना! आज का कोई भी कारीगर उनको नहीं गढ़ सकता! मुझे विश्वास है!
"ये कीकर की पत्तियां सी लगती हैं" मैंने कहा,
"नहीं, रमास है" वे बोले,
"ओह..हाँ! रमास ही है!" मैंने कहा,
रमास!
रमास!
सर में फिर से धमाके से हुए!
रमास के नीचे ही तो, सिद्ध किया जाता है कौमुदी को? ओह!! कहाँ फंसा मैं!!!! रमास का पौधा भी अपने हाथों से ही लगाया जाता है, उसका रोपण, रक्त से हुआ करता है, बलि-कर्म पश्चात, उसको भूमि में रोपा जाता है! और जब वो वृक्ष बन जाता है, तो उसका पूजन कर, उस कौमुदी की साधना की जाती है!!
मेरे हाथ कांपे!
शरीर कांपा!
मेरी तो रूह ही ठंडी पड़ गयी थी!!!
तो क्या कौमुदी सत्य है?
और जब कौंड़ी प्रकट हुआ करती है, तो वो रमास का वृक्ष अपने पूर्ण जीवन तक, स्वर्ण सी पत्तियां दिया करता है! इसके आभूषण तो नहीं बन सकते, लेकिन गुण-धर्म में वो स्वर्ण ही होता है!! और वो पत्तियां ही इस समय मेरे हाथ में थीं! मैंने फिर से मूर्ति को देखा! लगा, देख रही हैं उसकी आँखें मुझे! मैं सिहर गया! पसीने छलछला गए शरीर पर! कीड़े से रेंग गए बदन पर!
"अब विश्वास हुआ?" उन्होंने पूछा,
कैसे? कैसे करता मैं विश्वास?
मेरे हाथ अभी तक काँप रहे थे!
और जब बाबा ने वो मूर्ति मुझसे लेनी चाही, तो मैंने कस के पकड़ ली थी वो मूर्ति!!

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Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:11

वो मूर्ति लें चाहते थे और मैं, छोड़ नहीं रहा था! एक अजीब सा लगाव सा हो गया था, एक अजीब सा खिंचाव! सच कहता हूँ, न जाने कैसा अजीब खिंचाव था वो! शायद यही सोच रहा था मेरे मन का चोर की जब ये मूर्ति इतनी सुंदर है तो स्वयं कौमुदी कैसी होगी! और बाबा अमली! उन्होंने सिद्ध कर ली? कैसे? कैसे?? ये कैसे का जवाब नहीं मिल पा रहा था! और यही कैसे, जैसे मेरी जान ही लेके छोड़ता! मैंने नहीं छोड़ी मोररटी, आखिर में, बाबा ने ही छोड़ दी वो मूर्ति! मैंने फिर से निहारा उसको! स्वर्ग की अप्सरा थी वो मूर्ति! उसकी देह तो जैसे जीवंत ही हो चली थी! और मैं, कौए की तरह उसी को देखे जा रहा था! एकटक!
बाबा ने वो पत्तियाँ मेरे हाथ से ले लीं, मैं चौंका तो ज़रूर, लेकिन दे ही दीं!
"अब मेरा यक़ीन आया?" उन्होंने पूछा,
मैंने ध्यान नहीं दिया उनके प्रश्न पर!
मैं तो मूर्ति में ही गड़ गया था!
उन्होंने दुबारा पूछा!
"जी?" मैंने कहा,
"मेरा यक़ीन आया आपको अब?" वे फिर से बोले,
"हाँ....हाँ....हाँ" मैंने कहा,
और फिर से उस मूर्ति को देखा, उस मूर्ति के कुछ केश जो स्वर्ण से बने थे, उसके आधे वक्ष को ढके थे, बड़ा ही खूबसूरत सा दृश्य लगा मुझे वो सब! उसकी नाभि के नीचे, एक स्वर्ण-डोर बंधी थी, वो डोर ऐसी डोर थी कि जैसे, खींच ही ले अपने अंदर!
"कौमुदी!" मैंने मन ही मन आनंदित होते हुए कहा!
बाबा भांप गए थे मेरा आशय! उनके लिए तो बेहतर था कि मैं इसमें विशेष ध्यान दूँ! यदि मैं लालायित हो गया, तो काम हो सकता है! लेकिन काम? वो क्या था? कैसा काम? क्या चाहते थे बाबा मुझसे इस कौमुदी को लेकर? ये जानना ज़रूरी था! और इसीलिए मैंने प्रश्न कर ही लिया!
"बाबा इसमें आप क्या मदद चाहते हैं मेरी?" मैंने कहा,
बाबा चुप थे, लेकिन देख मुझे ही रहे थे!
"भोग लगा लिया?" उन्होंने पूछ लिया!
लेकिन ये उत्तर नहीं था मेरे प्रश्न का! अजीब सी बात थी! मैं चौंका तो ज़रूर!
"हाँ, लगा ही रहे थे हम लोग" मैंने कहा,
उन्होंने बाबा गिरि कि ओर देखा, और बाबा गिरि ने मुझे! मुझे समझ ही नहीं आया! फिर बाबा अमर नाथ ने, कविश को देखा, आँखों ही आँखों में बात हुई उनकी! कविश उठा और चल पड़ा एक तरफ! मुझे समझ नहीं आया, लेकिन मेरी नज़रें उसी पर गड़ी रहीं! वो अपने बैग के पास गया, और एक बोतल निकाल ली, ये बढ़िया अंग्रेजी शराब थी! लगता था कोई विदेशी चेला-चपाटा दे गया था उनको!
अब समझ में आ गया!
सारा माज़रा! सारा खेल!
बाबा गिरि बाहर गए, और कुछ देर बाद ही अंदर आ गए! शायद सहायक को बता कर आये थे कुछ माल-शाल लाने के लिए!
"और आपके गुरु जी कैसे हैं?" बाबा ने पूछा,
"स्वस्थ हैं!" मैंने कहा,
"आपने सूचित किया उनको?" उन्होंने पूछा,
"किस विषय में?" मैंने पूछा,
"कि आप मुझे मिलोगे?" बोले वो,
"हाँ, यहां आने से पहले आज्ञा ले ली थी" मैंने कहा,
"अच्छा किया" वे बोले,
"नरकेश पूर्ण हुआ?' वो बोले,
"जी बाबा" मैंने कहा,
"अच्छा अच्छा!" वे बोले,
तभी सहायक आ पहुंचा वहाँ! थाली लिए! रख दी, थाली में सलाद और तला हुआ मुर्गा था! वही बढ़िया देसी मुर्गा!
फिर गिलास रखे, और फिर पानी!
"कविश, भोग दो" बोले बाबा,
कविश ने स्थान भोग दे दिया! और बोतल मेरे सामने सरका दी,
"भोग लगाएं" बोला कविश,
"आप ही बनायें" मैंने कहा,
"आप बनाएं" बोला कविश,
"लाओ, मैं बनाता हूँ!" बोले अमर नाथ बाबा!
अब अमर नाथ बाबा जैसा बुज़ुर्ग अपने हाथों से भोग दे, तो उस से बड़ा सौभाग्य ही क्या!!
बाबा ने बना दिए पैग! और बढ़ा दिए हमारी तरफ! थाली से मैंने मुर्गे का टुकड़ा उठाया, और उस पैग को खाली कर दिया! सभी ने अपने अपने तरीके से अपने अपने गिलास खाली किये! हाँ, शर्मा जी ने मेरा साथ दिया! मेरे संग ही गिलास उठाया था और मेरे संग ही खाली भी किया!
और वो मूर्ति! देखिये! अभी तक मेरी गोद में थी!
सच कहता हूँ मित्रगण!
एकदम सच!
मुझे उस निर्जीव मूर्ति में, सजीवता के दर्शन हुए थे! और शायद, मुझे प्रेम हो चला था उस से!
हा! हा! हा! कैसा प्रेम! देखिये! औघड़ मरा तो मूर्ति पर!
लेकिन मित्रगण! यही 'प्रेम' तो अगन है आगे बढ़ने की!
सो आगे बढ़ने के लिए एक कदम नहीं, कई कदम बढ़ चुके थे!
"बाबा अमली ने सिद्ध किया था कौमुदी को!" वो बोले,
मेरा तो रोम रोम सिहर गया! जानता तो था, पर अब मुहर लगते देख, बाबा अमली से चिढ़न सी होने लगी! सच में, एक अजीब सी चिढ़न!
"कब की बात है ये बाबा?" मैंने पूछा,
"जब उनकी उम्र चालीस बरस थी" वे बोले,
चालीस बरस!
एक प्रबल औघड़!
वाह! क्या लगन थी!
"और उन्हें किसने सूचित किया?'' मैंने पूछा,
"उनके गुरु, मल्लनाथ ने" वे बोले,
"आज क्या उम्र है उनकी?" मैंने पूछा,
"इक्यानवें बरस" वे बोले,
इक्यानवें वर्ष! ओह!!!!! इक्यावन वर्ष कौमुदी संग रही! एक और कील ठुक गयी!
"लेकिन कौमुदी अप्रसन्न हो गयी थी" वे बोले,
अब ये तो वार था!
तलवार का वार!
एक ही झटके में गर्दन उतार देने वाला वार!
अप्रसन्न?
क्यों?
किसलिए?
क्या ऐसा भी होता है?
यदि हाँ, तो कैसे?
रहस्य!
एक और रहस्य!
"ये मैं नहीं बता सकता" वे बोले,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"इसी क्यों के लिए आपको बुलाया था मैंने" वे बोले,
हैं?
नहीं समझा मैं!
"किसलिए बाबा?" मैंने पूछा,
"अमली बाबा के हृदय में एक फांस है, वही निकालनी है" वे बोले,
फांस?
कैसी फांस?
अजीब रहस्य था! समझ से परे!
"कुछ तो बताइये बाबा?" मैंने पूछा,
वे चुप!
मैं उत्सुक!
उत्सुकता के बिच्छू डंक मारें!
"बताइये?" मैंने पूछा,
"बता दोऊँगा, ज़रूरी भी है" वे बोले,
आखिर में नहीं बताया उन्होंने!
"लो" वे बोले, गिलास भर दिया था उन्होंने!
मैंने उठाया, और उत्सुकता में, खींच लिया!
"ये मूर्ति?" वो बोले,
"हाँ...हाँ" मैंने कहा,
और ले ली उन्होंने मुझसे!
दिल का कोई टुकड़ा ही नहीं, पूरा दिल ही बाहर निकल आया मेरा तो पसलियों से बाहर!
उन्होंने कपड़े में लपेट दिया उसको!
और मुझे देखो!
मैं उसको देखता रहा, जहां उसका हिस्सा दिखाई देता, वहीँ नज़रें मार लेता!
"मैं सब बता दूंगा आपको" वे बोले,
और मूर्ति उस कविश को दे दी! कविश ने मूर्ति वापसी उस बैग में रख दी,
लेकिन रहस्य बही भी बना हुआ था!
"लो" वो बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
अब जिसका दिल ही चला आये बाहर, उसके लिए क्या मदिरा और क्या ज़हर! खींच लिया वो भी पैग!
मैं तो अभी भी उसी बैग को देख रहा था! दांव लगता तो ले उड़ता!! ऐसे ख़याल आया था मेरे दिल में!
"बाबा अमली, जीवन भर, दुःख से पीड़ित ही रहे" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब मुझे क्या लेना!! हों परेशान!
"अपनी व्यथा मुझे सुनाई उन्होंने" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मैंने मदद करने को कहा, लेकिन कर नहीं सका" वे बोले,
"कैसी मदद?" मैंने पूछा,
कान फिर से श्वान की तरह खड़े हुए मेरे!
चुप! सिर्फ गरदन ही हिलाएं!
"बता दूंगा, बता दूंगा" वे बोले,
मैंने इतंजार किया, लेकिन कुछ न बोले, और जब बोले तो.................

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Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:11

सच कहता हूँ, हालत बहुत खराब थी, उस कौमुदी की मूर्ति में तो जैसे प्राण ही बसने लगे थे मेरे! नाना-नानी की सुनाई हुई कहानियों में आये नाके का वर्णन आज मुझे सत्य सा लगने लगा! नाका, अर्थात दैत्य, जिसके प्राण या तो किसी तोते में बसते थे अथवा किसी गुड़िया में! अब समझ आ गया था कि प्राण कैसे बसते हैं! ये मूर्ति भी कुछ ऐसी ही थी! सच में प्राण बसने थे! मई अभी तक उस मूर्ति के विषय में ही सोचे जा रहा था, काश मैं रख सकूँ वो मूर्ति अपने पास! लेकिन वो अब उस बैग में थी जिसे कविश ने रख दिया था! और बाबा अमर नाथ के स्वामित्व में थी! आज तो मदिरा ने भी असर नहीं किया था! बल्कि और ध्यान केंद्रित कर दिया था! मुझे तो रह रह कर उस मूर्ति के अंग-प्रत्यंग और मुद्रा ही याद आये जा रही थी! स्वर्ण से कोई लेना देना नहीं था, स्वर्ण का कोई मोल नहीं था, बस किसी भी हालत में वो मूर्ति मिल जाए तो चैन आये! और बाबा अमर नाथ, वो अभी, फिलहाल में कुछ नहीं बता रहे थे, इस से उत्सुकता अब मेरी घोर निराशा में परिवर्तित हुए जा रही थी! मूर्ति मिलेगी अथवा नहीं? मिलेगी तो कैसे? दिमाग यहीं अटक गया था! कौमुदी-तंत्र से दिमाग हट चुका था, जैसे कोई व्यक्ति, गंगा जी का ध्यान तो करे लेकिन श्री गंगोत्री को भूल जाए! ऐसा आकर्षण था उसमे! या यूँ कहो कि एक ऐसी स्त्री के मादक-सौंदर्य ने ऐसा झकझोर दिया था कि समस्त संसार ही फीका लगे, ये जानते हुए भी कि वो स्त्री ब्याहता है! मैं अपने आपको बहुत 'कठोर' मानता हूँ इस विषय को लेकर, या यूँ कहो कि तटस्थ ही रहता हूँ, लेकिन उस मूर्ति ने मेरी तो सच्चाई ही उजागर कर डाली थी! वैसे मैंने एक से एक रूपवान और मादक मानव-स्त्री देखि हैं, परा-सौंदर्य भी देखा है, जिन्नाती-खूबसूरती भी देखी है, लेकिन इस निर्जीव मूर्ति ने तो मेरा अन्तःमन ऐसे भाव से भर दिया था, जिसको मैं अभी तक कोई संज्ञा नहीं दे पा रहा था!
"लो, ये लो" आवाज़ आई बाबा की,
मेरी तन्द्रा टूटी तभी!
ये गिलास था, भरा हुआ लबालब, सबसे अधिक मदिरा इस बार, मुझे ही परोसी गयी थी, मैंने झट से गिलास उठाया और खींच लिए! कड़वी लगी थी मदिरा, लेकिन काम-भाव में वो कड़वापन भी अत्यंत ही मृदु और मधुर लगा! तभी बाहर बिजली कड़की! बिजली ने मेरे मन की बात कही थी! मेरे मन में भी एक नहीं, अनेकों बिजलियाँ कड़क रही थीं! और मैं उस बिजली के प्रकाश में नहाये जा रहा था! बारिश ने फिर से ज़ोर पकड़ा! और तभी बत्ती चली गयी! घुप्प अँधेरा हो गया वहाँ, हाथ को हाथ न सुझाई दे, तभी शर्मा जी ने अपना लाइटर जलाया, प्रकाश हुआ, और तब कविश ने, वहीँ रखी एक मिट्टी के तेल से बनी हुई डिबिया जला दी, डिबिया की रौशनी लपलपा रही थी, उसके सामने रखी सभी वस्तुओं की परछाइयाँ अपने रूप से दोगुनी हो, दीवार पर नृत्य करने लगीं!
"आज नहीं रुकने वाली ये बारिश" बोले शर्मा जी,
"हाँ, सुबह से ही मौसम बना हुआ था" बोले बाबा गिरि,
बिजली फिर से कड़की!
और इस बार तो ऐसा लगा कि जैसे इस डेरे की मेहमान बन गयी है वो! जैसे शायद यहीं उतर आई है आकाश से!
"और लेंगे?" पूछा बाबा ने,
"नहीं, अब नहीं, अब आराम करूँगा" मैंने कहा,
मैं उठ खड़ा हुआ, शर्मा जी भी उठ गए, लेकिन बाबा गिरि वहीँ बैठे रहे,
"कमरे में ही रखी होगी डिबिया" बोले बाबा गिरि,
"ठीक है, देख लेते हैं" बोले शर्मा जी,
अब हम चले बाहर,
कमरे से बाहर आये तो बारिश ने स्वागत किया हमारा दिल खोल के, बाहर पतनाले बह रहे थे छतों से! अब तो पानी भी भर चुका था बाहर, लेकिन अँधेरा तो था ही, लाइटर को हाथ की आड़ में लिए हम आगे बढ़ते गए, और आ गए अपने कक्ष में, कक्ष में कुण्डी ही लगी थी, सो खोली, और अंदर गए, अब डिबिया ढूंढी, फर्श पर, कोने में डिबिया रखी थी, जला ली, और रख दी मेज़ पर! और अब बैठे गए हम बिस्तर पर, मैंने दीवार से टेक लगा ली तभी और चुपचाप से उस मूर्ति के विषय में ही सोचने लगा!
"गुरु जी?" बोले शर्मा जी,
मैंने देखा उन्हें,
"हाँ?" मैंने कहा,
"ये तंत्र-कौमुदी क्या है?" जिज्ञासा उन्हें भी थी, सो पूछ लिया उन्होंने,
"एक छलावा! सबसे गूढ़ विषय! इस तंत्र-जगत का!" मैंने कहा,
"छलावा?" बोले वो,
"हाँ, छलावा!" मैंने कहा,
"वो कैसे?" बोले वो,
"मुझे कुछ बताया तो गया था दादा श्री द्वारा, परन्तु अधिक नहीं, जितना बताया गया था, उसके अनुसार ये एक महा-शक्ति है, इसको अप्सरा और यक्षिणी-साधना के रूप में जाना गया है, लेकिन कौन सी अप्सरा, और कौन सी यक्षिणी, इस विषय में अधिक जानकारी किसी को नहीं! हाँ, अक्सर कुछ लम्पट व्यक्ति, सात्विक भी और तामसिक भी, अपने अपने ढंग से इसकी व्याख्या किया करते हैं! इस विषय में लिखित प्रमाण भी नहीं, हाँ, कुछ न कुछ अवश्य ही लिखा हो सकता है, मध्य-युग के उपरान्त, पर वो सटीक ही हो, इसमें संदेह है!" मैंने कहा,
"तो बाबा अमली ने कैसे सिद्ध किया?" पूछा उन्होंने,
"यही तो मैं सोच रहा हूँ!" मैंने कहा,
वे चुप हुए,
सोच में डूबे,
और फिर सिगरेट के पैकेट में रखी अपनी देसी सिगरेट निकाल ली!
"एक मेरे लिए भी" मैंने कहा,
उन्होंने दूसरी बीड़ी भी निकाल ली, और जला लीं दोनों, एक मुझे दी, और एक खुद ने ली,
मैंने एक ज़ोर का कश खींचा, और छोड़ा धुआं!
ऐसे ही शर्मा जी ने भी!
"तो ये बाबा क्या चाहते हैं?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं, अभी तक तो बताया ही नहीं" मैंने कहा,
"कुछ भी हो, मामला संगीन सा लगता है" बोले वो,
"निःसंदेह!" मैंने कहा,
तभी बिजली फिर से कड़की!
खिड़की के रास्ते प्रकाश अंदर आया!
और एक पल के लिए मुझे सामने दीवार पर, वो मूर्ति ही देखने को मिली! मेरे तो दिलोदिमाग पर छा गयी थी वो! फिर से उलझ गया मैं उस मूर्ति में!
"और वो मूर्ति?" बोले वो!
जैसे चोर पकड़ा गया था! रंगे हाथ!
मैं मुस्कुराया!
"नायाब! उस मूर्ति जैसी कोई भी मूर्ति मैंने आज तक नहीं देखी! लगता है, प्राण हैं उसमे!" मैंने कहा,
"नहीं नहीं! मैंने पूछा, वो अमली बाबा को मिली?" बोले वो,
"हाँ, बताया तो यही गया था" मैंने दूसरा कश छोड़ते हुए कहा,
"किसने दी बाबा अमली को?" बोले वो,
"कहा था बाबा ने, कि कौमुदी ने" मैंने कहा,
अब मेरा उत्तर उन्हें पचा नहीं!
चुप हो गए!
मैं भी चुप!
कैसे बताऊँ?
मुझे तो स्वयं ही नहीं पता!
समय कोई ग्यारह का हो चुका था, अब रात गहरा चुकी थी, तो निर्णय हुआ कि अब सोना ही ठीक है, कल बात करते हैं इस विषय पर, तो हमने हाथ-मुंह धोये, और सोने की तैयारी की, बिस्तर ठीक किया, अपनी अपनी चादर निकले, चादर ओढ़ी और लेट गए!
लेकिन नींद नहीं आई!
आई भी तो टुकड़ों टुकड़ों में!
रात भर वो मूर्ति आदमकद बन, मेरे पास ही रही!
मैंने तो न जाने क्या क्या सोच लिया था! मेरी सोच का घोड़ा, निर्बाध और बेलगाम भागे जा रहा था! मैंने भी न रोका, भागने ही दिया!
खैर,
सुबह हुई, मेरी नींद खुली, शर्मा जी अभी सोये हुए थे, सुबह कोई छह का वक़्त हुआ था, खिड़की से बाहर झाँका तो बारिश बंद थी, लेकिन हवा अभी भी तेज थी, दूसरी तरफ की गैलरी में कुछ महिलायें आ-जा रही थीं, उनकी दैनिक-क्रिया आरम्भ हो चुकी थी, बाहर मैदान में जगह जगह पानी भर चुका था! मैं निवृत होने चला गया, फिर स्नान किया और आ गया बाहर, अब शर्मा जी को जगाया, वे उठे, और वे भी फिर फारिग होने चले गए, वापिस आये तो वहीँ बैठे!
बत्ती अभी तक गोल थी, नहीं आई थी, हमारे मोबाइल्स भी चार्ज नहीं थे, बैटरी आधे से ज़्यादा खत्म थी, अब बत्ती आती तो इनको भी इनकी ख़ुराक मिलती!
"मैं आता हूँ अभी" बोले वो,
और चले गए,
थोड़ी देर बाद, एक केतली और दो कप ले आये, साथ में फैन थे, कोई एक फुट के फैन तो रहे ही होंगे वो! दो मैंने खाए चाय के साथ, बारिश की नमी से वो भी अब पीड़ित हो गए थे, मुंह में मैदा, चमड़े का सा एहसास करा रही थी! खैर, हमने उतार लिए पेट में, चाय भी पी ली, और शर्मा जी ने अपनी देसी सिगरेट जला ली!
अचानक से ही मुझे फिर से मूर्ति का ख़याल हो आया! अब तो मछली तड़पी! उछाल मारे! पानी में जाने के लिए, अपना बदन ऐंठे!
"बारिश बंद है फिलहाल" बोले वो!
और मैं बाहर आया उस मछली की तड़पन से!
"हाँ, अभी तो बंद है" मैंने कहा,
"लेकिन आकाश में अभी बादल बने हुए हैं" वो बोले,
"बारिश होगी फिर" मैंने बाहर देखते हुए कहा,
"लगता तो यही है" बोले वो!
मौसम में ठंडक आ गयी थी! बिना पंखे के भी आराम से बैठे थे हम! हाँ, मच्छर बहुत थे वहाँ! उनसे पार पाना कोई आसान काम नहीं था! वो भी खारे पानी के मच्छर! काट लेते तो जहां त्वचा पर ददोड़े बनते, वहीँ टीस से उठती रहती! जितना मार सकते थे हाथों से, उतनों को मार रहे थे, लेकिन उनकी सेना में दम था! एक शहीद होता तो एक टुकड़ी फिर से आ धमकती!

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