2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना )
Posted: 19 Aug 2015 13:09
सुबह सुबह का वक़्त था! कोई साढ़े पांच बजे होंगे, मैं और शर्मा जी उसी समय जागे थे, हम पीलीभीत आये हुए थे, जहां ये स्थान था, वो काफी सुंदर और प्राकृतिक सम्पदा से पूर्ण था! पहले मैं जागा था, फिर उनको जगाया था, वे भी जाग गए थे, मौसम बढ़िया था, अक्टूबर का महीना था तो गर्मी की पकड़ उन दिनों ढीली ही थी! कुल मिलाकर मौसम, खुशगवार था!
"कैसी नींद रही?" मैंने पूछा,
"बहुत बढ़िया, एक बार लेटने के बाद तो पता ही नहीं चला!" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
अपना ब्रश निकालते हुए और उस पर पेस्ट लगाते हुए,
मैं चला गुसलखाने की तरफ, तौलिया आदि वस्त्र ले लिए थे, नहाने-धोने का समय था, वैसे भी कल काफी सफर किया था! मैं यहां एक बाबा, गिरि के साथ आया था, हमें यहाँ मिलना था किसी से, जो कि आज पहुँचने वाले थे यहां!
तो मैं चला गया गुसलखाने,
स्नान किया, और फिर वस्त्र पहन बाहर आ गया,
फटकार के केश सुखाये और इतने में ही शर्मा जी चले गए स्नान करने, और मैं इतने में तैयार हो गया था!
मैं तैयार होकर बिस्तर पर बैठा, और जुराब पहनने लगा,
जुराब पहने तो फिर जूते भी पहन लिए, बाहर घूमने का कार्यक्रम था, अक्सर सुबह के समय ऐसे स्थान पर घूमना मुझे और शर्मा जी को सदैव ही अच्छा लगता है!
वे भी स्नान कर आये, वस्त्र पहने, फिर अपना साबुन आदि अलग रखा, और जुराब पहन, जूते पहन लिए उन्होंने भी, समझ ही गए थे कि हम चल रहे हैं बाहर टहलने!
हम आ गए बाहर,
कक्ष को ताला लगाया और चाबी मैंने शर्मा जी को दे दी,
उन्होंने अपनी कमीज़ की जेब में चाबी रख ली,
अब हम लगे टहलने, वहाँ काफी बढ़िया बगीचा लगा था,
फूल ऐसे खूबसूरत थे कि एक बार देखो तो छूने का मन करे!
कुछ जंगली फूल थे शखर के, वो बहुत सुंदर लगे! सुबह सुबह पक्षीगण का गीत-गान बहुत मधुर लगता है! इस से पता चलता है कि प्रकृति कितनी सतत है अपने नियम पर! सुबह, फिर दोपहर, फिर शाम, फिर रात! ये चक्र ऐसे ही सदैव चलता रहता है! चलता रहा है, और चलता ही रहेगा!
हम चलते जा रहे थे आगे, गीले बालों में मेरे जब हवा लगती, तो फुरफुरी सी उठ जाती!
"कल तक गए थे वैसे बस में" वो बोले,
"हाँ, बस भी ठीक नहीं थी" मैंने कहा,
"कमर का हलुआ बन गया!" वे कमर पर हाथ रखते हुए बोले!
"हाँ, कमर तीर-कमान हो गयी थी!" मैंने कहा,
"और उस पर से भीड़!" वे बोले,
"शुक्र है ठिकाने के लिए जगह मिल गयी, नहीं तो आज पाँव भी मन ही मन गालियां दे रहे होते!" मैंने कहा,
वे हंस पड़े!
तभी एक बड़ा सा शहतीर दिखा, जल्दी में ही काटा गया था शायद वो पेड़,
देखने से ठूंठ ही लग रहा था,
हम बैठ गए उसके ऊपर,
हमारे सामने ही बगुले बैठे थे, दरअसल वहाँ एक छोटा सा तालाब सा था, वहीँ आ बैठे थे वे सभी! उनकी तो दिन-चर्या आरम्भ हो गयी थी! भोजन का समय हो चला था उनका! कुछ छोटे बगुले भी थे, जो लगातार अपने पंख फैलाते और मुंह खोलते, बगुला-माँ या बगुला-पिता, उसके मुंह में वो चारा डाल देता! साथ ही साथ उन नन्हे बगुलों को सीख भी मिल रही थी कि किस प्रकार अपना अस्तित्व बचाये रखना है! चूंकि, कुछ ही दिनों के बाद, उसको निकाल दिया जाता परिवार से!
ये भी एक नियम है प्रकृति का! सब बंधे हैं इस से! कोई अछूता नहीं! न मैं और न आप!
उन बगुलों का शोर बहुत हो रहा था! खासतौर पर वो छोटे बगुले तो चिल्ला रहे थे! अपने माता-पिता के पीछे पीछे भाग रहे थे!
शर्मा जी और मैं, एकटक उन्ही को देखे जा रहे थे!
"अब बताओ, कैसे ये अपना मुंह फाड़ रहे हैं! छीन रहे हैं, और इन माँ-बाप को देखो! कैसे खिला रहे हैं इनको! ये क्या इनको कमा के खिलाएंगे!" वे बोले,
मैं मुस्कुराया!
"ये इनकी सहज-प्रवृति है शर्मा जी, जो इन्होने अपने माँ-बाप से सीखा, वही दोहराते जा रहे हैं, नया कुछ नहीं!" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो सच है!" वे बोले,
तभी कुछ सारस भी आ धमके उधर! कोई आठ-दस!
अब बगुलों में मची खलबली!
सारस ने अपनी गर्दन हिलाकर, मंशा ज़ाहिर कर दी अपनी!
क्या करते बेचारे बगुले! स्थान बदलने को हुए विवश!
एक ये भी नया पाठ सीखा उन नन्हे बगुलों ने!
कुछ हिम्मती बगुले डटे रहे, लेकिन एकदम सावधान होकर!
और जब सारस ने आवाज़ लगाई तो वे भी भाग निकले वहाँ से!
बहुत ही खूबसूरत नज़ारा था वो! पानी से टकराती हवा जब आती तो ठंडक लाती! और ये ठंडक जब हमारी त्वचा पर पड़ती, तो आनंद आ जाता!
हम करीब एक घंटे तक बैठे रहे, उसी तालाब का हिस्सा बन चुके थे!
बस फ़र्क़ इतना कि वे सब जल में आहार ढूंढ रहे थे और हम सूखे में बैठे थे!
शर्मा जी को चाय की तलब लगी! हम उठे, और चल दिए वापिस!
हम आ गए वापिस उस स्थान पर, ये स्थान बड़ा तो नहीं था, हाँ, फिर भी, छोटा भी नहीं कहा जा सकता था, कुल अठारह-बीस कक्ष रहे होंगे वहां, साथ ही साथ, इस स्थान में खाली भूमि बहुत थी, और यहीं ये डेरे के लोग, सब्जियां आदि उगा लेते थे!
हम आये अपने कक्ष में,
ताला खोला,
और अंदर बैठ गए,
जग उठाया, और पानी डाला गिलास में, दो गिलास मैंने पिए और एक शर्मा जी ने,
तभी एक सहायक आ गया वहाँ,
उसने चाय-नाश्ते की पूछी तो हमने हामी भर दी!
कोई पंद्रह मिनट के बाद, कुछ गर्म पकौड़ियों और चाय के साथ वो आ गया!
पकौड़े आलू के थे, प्याज के भी और मूंग की दाल के, पालक के साथ मथ दिए गए थे!
लेकिन थे लाजवाब! बहुत ज़ायक़ा था उनमे!
चाय का मजा चार गुना हो गया था!
चाय पी ली, बर्तन अलग रख दिए, और अब हाथ-मुंह धोने में चला गया गुसलखाने, वापिस आया तो शर्मा जी भी हो आये!
बैठ गए हम वहीँ!
तभी दरवाज़े से अंदर आये वो गिरि बाबा!
नमस्कार हुई, और वे भी बैठ गए!
"चाय-नाश्ता हो गया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ! हो गया!" मैंने कहा,
"यही पूछने आया था मैं!" वे बोले,
"सहायक ले आया था अपने आप!" मैंने कहा,
"बता दिया था मैंने उसको" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
कुछ देर चुप्पी!
बाहर हवा चल रही थी, सूखते कपड़े हिल रहे थे रस्सी पर, और कुछ लडकियां उन्हें संभाल रही थीं! मैं खिड़की से बाहर झाँक रहा था और यही देख रहा था!
"अमर नाथ भी आ जाएंगे दोपहर बाद तलक" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"कल रात को ही बात हुई थी उनसे" वे बोले,
"अच्छा, ठीक!" मैंने कहा,
"आप आराम करो, कुछ चाहिए हो, तो बता देना" वे बोले,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
वे उठे, हाथ जोड़े, और चले गए बाहर,
"अमर नाथ रुद्रपुर से आ रहे हैं?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं, गोरखपुर से" मैंने कहा,
"ओह.." वे बोले,
मैंने अपने जूते खोल लिए,
अब मैं लेटा बिस्तर पर,
तकिया लगाया सर के नीचे,
और कर लीं आँखें बंद!
शर्मा जी के लाइटर की आवाज़ आई, बीड़ी जला ली थी उन्होंने,
उस बीड़ी की गंध ने इसे और साबित कर दिया!
"कैसी नींद रही?" मैंने पूछा,
"बहुत बढ़िया, एक बार लेटने के बाद तो पता ही नहीं चला!" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
अपना ब्रश निकालते हुए और उस पर पेस्ट लगाते हुए,
मैं चला गुसलखाने की तरफ, तौलिया आदि वस्त्र ले लिए थे, नहाने-धोने का समय था, वैसे भी कल काफी सफर किया था! मैं यहां एक बाबा, गिरि के साथ आया था, हमें यहाँ मिलना था किसी से, जो कि आज पहुँचने वाले थे यहां!
तो मैं चला गया गुसलखाने,
स्नान किया, और फिर वस्त्र पहन बाहर आ गया,
फटकार के केश सुखाये और इतने में ही शर्मा जी चले गए स्नान करने, और मैं इतने में तैयार हो गया था!
मैं तैयार होकर बिस्तर पर बैठा, और जुराब पहनने लगा,
जुराब पहने तो फिर जूते भी पहन लिए, बाहर घूमने का कार्यक्रम था, अक्सर सुबह के समय ऐसे स्थान पर घूमना मुझे और शर्मा जी को सदैव ही अच्छा लगता है!
वे भी स्नान कर आये, वस्त्र पहने, फिर अपना साबुन आदि अलग रखा, और जुराब पहन, जूते पहन लिए उन्होंने भी, समझ ही गए थे कि हम चल रहे हैं बाहर टहलने!
हम आ गए बाहर,
कक्ष को ताला लगाया और चाबी मैंने शर्मा जी को दे दी,
उन्होंने अपनी कमीज़ की जेब में चाबी रख ली,
अब हम लगे टहलने, वहाँ काफी बढ़िया बगीचा लगा था,
फूल ऐसे खूबसूरत थे कि एक बार देखो तो छूने का मन करे!
कुछ जंगली फूल थे शखर के, वो बहुत सुंदर लगे! सुबह सुबह पक्षीगण का गीत-गान बहुत मधुर लगता है! इस से पता चलता है कि प्रकृति कितनी सतत है अपने नियम पर! सुबह, फिर दोपहर, फिर शाम, फिर रात! ये चक्र ऐसे ही सदैव चलता रहता है! चलता रहा है, और चलता ही रहेगा!
हम चलते जा रहे थे आगे, गीले बालों में मेरे जब हवा लगती, तो फुरफुरी सी उठ जाती!
"कल तक गए थे वैसे बस में" वो बोले,
"हाँ, बस भी ठीक नहीं थी" मैंने कहा,
"कमर का हलुआ बन गया!" वे कमर पर हाथ रखते हुए बोले!
"हाँ, कमर तीर-कमान हो गयी थी!" मैंने कहा,
"और उस पर से भीड़!" वे बोले,
"शुक्र है ठिकाने के लिए जगह मिल गयी, नहीं तो आज पाँव भी मन ही मन गालियां दे रहे होते!" मैंने कहा,
वे हंस पड़े!
तभी एक बड़ा सा शहतीर दिखा, जल्दी में ही काटा गया था शायद वो पेड़,
देखने से ठूंठ ही लग रहा था,
हम बैठ गए उसके ऊपर,
हमारे सामने ही बगुले बैठे थे, दरअसल वहाँ एक छोटा सा तालाब सा था, वहीँ आ बैठे थे वे सभी! उनकी तो दिन-चर्या आरम्भ हो गयी थी! भोजन का समय हो चला था उनका! कुछ छोटे बगुले भी थे, जो लगातार अपने पंख फैलाते और मुंह खोलते, बगुला-माँ या बगुला-पिता, उसके मुंह में वो चारा डाल देता! साथ ही साथ उन नन्हे बगुलों को सीख भी मिल रही थी कि किस प्रकार अपना अस्तित्व बचाये रखना है! चूंकि, कुछ ही दिनों के बाद, उसको निकाल दिया जाता परिवार से!
ये भी एक नियम है प्रकृति का! सब बंधे हैं इस से! कोई अछूता नहीं! न मैं और न आप!
उन बगुलों का शोर बहुत हो रहा था! खासतौर पर वो छोटे बगुले तो चिल्ला रहे थे! अपने माता-पिता के पीछे पीछे भाग रहे थे!
शर्मा जी और मैं, एकटक उन्ही को देखे जा रहे थे!
"अब बताओ, कैसे ये अपना मुंह फाड़ रहे हैं! छीन रहे हैं, और इन माँ-बाप को देखो! कैसे खिला रहे हैं इनको! ये क्या इनको कमा के खिलाएंगे!" वे बोले,
मैं मुस्कुराया!
"ये इनकी सहज-प्रवृति है शर्मा जी, जो इन्होने अपने माँ-बाप से सीखा, वही दोहराते जा रहे हैं, नया कुछ नहीं!" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो सच है!" वे बोले,
तभी कुछ सारस भी आ धमके उधर! कोई आठ-दस!
अब बगुलों में मची खलबली!
सारस ने अपनी गर्दन हिलाकर, मंशा ज़ाहिर कर दी अपनी!
क्या करते बेचारे बगुले! स्थान बदलने को हुए विवश!
एक ये भी नया पाठ सीखा उन नन्हे बगुलों ने!
कुछ हिम्मती बगुले डटे रहे, लेकिन एकदम सावधान होकर!
और जब सारस ने आवाज़ लगाई तो वे भी भाग निकले वहाँ से!
बहुत ही खूबसूरत नज़ारा था वो! पानी से टकराती हवा जब आती तो ठंडक लाती! और ये ठंडक जब हमारी त्वचा पर पड़ती, तो आनंद आ जाता!
हम करीब एक घंटे तक बैठे रहे, उसी तालाब का हिस्सा बन चुके थे!
बस फ़र्क़ इतना कि वे सब जल में आहार ढूंढ रहे थे और हम सूखे में बैठे थे!
शर्मा जी को चाय की तलब लगी! हम उठे, और चल दिए वापिस!
हम आ गए वापिस उस स्थान पर, ये स्थान बड़ा तो नहीं था, हाँ, फिर भी, छोटा भी नहीं कहा जा सकता था, कुल अठारह-बीस कक्ष रहे होंगे वहां, साथ ही साथ, इस स्थान में खाली भूमि बहुत थी, और यहीं ये डेरे के लोग, सब्जियां आदि उगा लेते थे!
हम आये अपने कक्ष में,
ताला खोला,
और अंदर बैठ गए,
जग उठाया, और पानी डाला गिलास में, दो गिलास मैंने पिए और एक शर्मा जी ने,
तभी एक सहायक आ गया वहाँ,
उसने चाय-नाश्ते की पूछी तो हमने हामी भर दी!
कोई पंद्रह मिनट के बाद, कुछ गर्म पकौड़ियों और चाय के साथ वो आ गया!
पकौड़े आलू के थे, प्याज के भी और मूंग की दाल के, पालक के साथ मथ दिए गए थे!
लेकिन थे लाजवाब! बहुत ज़ायक़ा था उनमे!
चाय का मजा चार गुना हो गया था!
चाय पी ली, बर्तन अलग रख दिए, और अब हाथ-मुंह धोने में चला गया गुसलखाने, वापिस आया तो शर्मा जी भी हो आये!
बैठ गए हम वहीँ!
तभी दरवाज़े से अंदर आये वो गिरि बाबा!
नमस्कार हुई, और वे भी बैठ गए!
"चाय-नाश्ता हो गया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ! हो गया!" मैंने कहा,
"यही पूछने आया था मैं!" वे बोले,
"सहायक ले आया था अपने आप!" मैंने कहा,
"बता दिया था मैंने उसको" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
कुछ देर चुप्पी!
बाहर हवा चल रही थी, सूखते कपड़े हिल रहे थे रस्सी पर, और कुछ लडकियां उन्हें संभाल रही थीं! मैं खिड़की से बाहर झाँक रहा था और यही देख रहा था!
"अमर नाथ भी आ जाएंगे दोपहर बाद तलक" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"कल रात को ही बात हुई थी उनसे" वे बोले,
"अच्छा, ठीक!" मैंने कहा,
"आप आराम करो, कुछ चाहिए हो, तो बता देना" वे बोले,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
वे उठे, हाथ जोड़े, और चले गए बाहर,
"अमर नाथ रुद्रपुर से आ रहे हैं?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं, गोरखपुर से" मैंने कहा,
"ओह.." वे बोले,
मैंने अपने जूते खोल लिए,
अब मैं लेटा बिस्तर पर,
तकिया लगाया सर के नीचे,
और कर लीं आँखें बंद!
शर्मा जी के लाइटर की आवाज़ आई, बीड़ी जला ली थी उन्होंने,
उस बीड़ी की गंध ने इसे और साबित कर दिया!