Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना
Posted: 19 Aug 2015 13:15
अपना गिलास खत्म कर चुका था मैं, शर्मा जी भी अपना गिलास खत्म करने ही वाले थे, बाबा अमर नाथ लेट गए थे बिस्तर पर, और तभी उन्होंने करवट बदली हमारी तरफ, खांसी उठी उन्हें, खांसे, मुंह साफ़ किया और साँसें नियंत्रित करने लगे अपनी, बाबा गिरि ने अपना गिलास भर लिया था, मैं समझ रहा था कि वे उसी समय में पहुँच गए हैं जब वो युग्मा प्रकट हुई थी! न वो चूक होती और न आज ये कहानी मुझे पता चलती! ये समय है, समय ने ही सारी गांठें लगाई हैं, कब किसे खोले और कब कहाँ गाँठ मार दे! न वो चूक होती, और न मेरा आना ही होता वहाँ, न मैं इस विलक्षण युग्मा के विषय में जान ही पाता!
मैं खड़ा हुआ, जितना जानना था जान लिया था, बाबा अमर नाथ ने मुझे खड़े होते हुए देखा, लेकिन रोका नहीं, न बाबा गिरि ने ही, मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ गए थे, हम दोनों ने नमस्कार कही उन्हें और निकल आये बाहर उनके कमरे से, आज न तो मदिरा में ही आनंद आया था और न ही उस तले हुए मुर्गे में ही, मुझे तो लग रहा था कि जैसे सारी कहानी मेरे ही इर्द-गिर्द घूम रही है! जैसे ये सारा ही जंजाल मेरे लिए ही तैयार हुआ था! हम अपने कमरे में आ चुके थे, अब और मन था मदिरापान का, मैंने शर्मा जी से कहा, वे चले बाहर सामान लेने, पानी का जग साथ ले गए थे, अभी साढ़े आठ का ही समय था, और रात बाकी थी, मन में ऐसे ही सवाल आते तो सारी रात करवटों में ही कटती, इसीलिए मैंने और पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी! थोड़ी देर में ही सारा इंतज़ाम हो गया, और हम खाने-पीने लगे, दिमाग घूमे जा रहा था, जो बाबा अमर नाथ के साथ हुआ था, वो मेरे साथ भी हो सकता था! मैं कोई अनोखा नहीं, मानव-वृतियों से बंधा हूँ, मुझे में काम, स्वार्थ आदि है, इसमें कोई असत्य नहीं, कब कहाँ जाग जाए, पता नहीं! उन पर नियंत्रण करना असम्भव तो नहीं, परन्तु सम्भव करना असम्भव सा प्रतीत हुआ करता है! खैर, हमने खाया-पिया और फिर हाथ-मुंह धो लिए, उसके बाद लेट गए आराम से, थोड़ी देर में ही नींद ने आ घेरा हमें, और हम सो गए!
सुबह हुई! नहाये-धोये! और बाहर आये! आज चार दिन बाद सूर्यदेव पूर्वांचल से बाहर आये थे! मेघों को संधि द्वारा मना लिया गया था! और वर्षा देवी भी अब कुपित नहीं थीं! बाहर प्राकृतिक सौंदर्य में जैसे सोने के गोटे लगा दिए थे बारिश ने और उसकी नमी ने! पेड़-पौधों के पत्तों में हरा रंग ऐसे भर गया था जैसे किसी नव-यौवना के उन्नत ओंष्ठ!! सौंदर्य देखते ही बनता था, पौधे तो पौधे, घास को भी यौवन आ पहुंचा था, सुनहरी रंग की ताज़ा घास की कोंपले, अपने बुज़ुर्गों से आगे जा पहुंची थीं! पक्षीगण बहुत प्रसन्न थे! कड़े मकौड़े बहुतायत में थे तो उनका आहार उपलब्ध था हर कहीं, जहां भी वो बैठें!
"आइये, ज़रा टहलने चलें" मैंने कहा,
"चलिए" वो बीड़ी का बंडल साथ लेकर चले, और बोले,
हम आगे चले अब, रास्ते में जगह जगह, पानी भरा था, कहीं गड्ढे बन गए थे, कहीं कहीं पहले से बने हुए गड्ढे अब लबालब भर चुके थे! केंचुएं रेंग रहे थे मिट्टी में, हम उनसे बचते बचाते आगे बढ़ते हे! नमी तो थी, लेकिन सुबह के उस समय इतनी नमी बर्दाश्त के लायक थी! लोहबाग अपने अपने कामों पर लग गए थे, कुछ साइकिल पर चल निकले थे शहर की ओर, टेम्पो भरे हुए चल रहे थे! बारिश से ठहरी ज़िंदगी वापिस डगर पर आ पहुंची थी! ज़िंदगी कभी नहीं ठहरती, वो आगे बढ़ती ही रहती है, हाँ, कुछ अल्प-विराम हो सकता है, लेकिन डगर पर लौट ही आती है वो! बालक-बालिकाएं हँसते-खेलते अपने विद्यालय की तरफ चल निकले थे! हर तरफ इंसानी मौजूदगी बढ़ चुकी थी! वहीँ रास्ते में एक सरकारी नल लगा था, जो अब चलता नहीं था, शायद चला भी न हो कभी, उस चबूतरा टूट-फुट चुका था और आसपास पत्थर बिखरे पड़े थे, पेड़ भी टूटे पड़े थे, कुछ लोग उन टूटे हुए पेड़ों की लकड़ियाँ आदि इकट्ठी कर रहे थे, और कुछ लोग उनको ढोह केले जाने के लिए, प्रबंध करने में लगे थे! हम आगे बढ़े, सड़क के दोनों ओर पानी कहीं कहीं भरा हुआ था, बड़ा वाहन आता कोई तो नहला सकता था हमें, इसलिए हम उस से दूर ही रहे! हम करीब पौना घंटा टहले, और फिर वापिस हुए, आठ बजे का समय होने का था, अब चाय की तलब लगी थी शर्मा जी को, तो हम वापिस हो लिए!
वापिस आये तो मैं तो कमरे में चला आया, शर्मा जी सीधे सहायक के पास चले गए, वुर जब वापिस आये तो चाय की केतली, दो कप और साथ में थोड़ा नमकीन ले आये थे, नमकीन भी थी सीली हुई, मुझ स एनही खायी गयी, शर्मा जी ने भी चुन चुन कर, मूंगफली के दाने ही खाए, एक आद मैंने भी चबा ही लिया! चाय पी ली, और फिर उसके बाद आराम किया! मौसम साफ़ था तो आज रवानगी हो सकती थी यहां से ही! और वैसे भी मैं बाबा अमली से मिलने का इच्छुक था! और अब तो इच्छा और बलवती हो चुकी थी!
कोई एक घंटे के बाद बाबा गिरि आये कमरे में, बैठे, उनसे नमस्कार हुई, उन्होंने चाय-नाश्ते के बारे में पूछा, तो बता दिया कि चाय पी ली है, लेकिन उन्होंने कहा कि साथ में भी कुछ लेना चाहिए था, उन्होंने बताया कि अभी वे कह देंगे कि नाश्ते में आलू-पूरी बना लें वो! आलू-पूरी तो बढ़िया थी! फिर दोपहर मे कौन खाता भोजन!
"आज मौसम साफ़ है" बोले बाबा,
"हाँ, आज तो बिलकुल साफ़ है" मैंने कहा,
"क्या विचार है?" पूछा उन्होंने,
"नैनीताल?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"बाबा अमर नाथ की तबीयत कैसी है?" मैंने पूछा,
"फिलहाल बेहतर है, चल सकते हैं" वे बोले,
"तब तो ठीक है, चलते हैं" मैंने कहा,
"तो दोपहर में निकल चलते हैं?" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
"तो आप तैयार रहना" वे बोले,
"बिलकुल" मैंने कहा,
अब वे उठे, और चले गए बाहर,
"निकल ही पड़ते हैं" मैंने कहा,
"हाँ ठीक है" शर्मा जी बोले,
"देर भली नहीं, वापिस भी जाना है" मैंने कहा,
"सो तो है" वे बोले,
थोड़ी और बातें हुईं घरबार की,
और मेरी आँख लग गयी फिर, उबासियां आने लगी थीं! मौसम की खुमारी थी!
मैं सो गया था!
कोई डेढ़ घंटे के बाद शर्मा जी ने जगाया मुझे, मैं जागा, नास्ता आ गया था, नाश्ता क्या, पूरा भोजन ही था, गर्मागर्म पूरियां थीं और आलू की सब्जी, साथ में दही और अचार, मिर्चों का! पेट भर खाया! और फिर हमने किया थोड़ा सा आराम! पहले तो डकारों से निबटे! और फिर थोड़ा इधर उधर टहले, वो महिला जो कपडे ले गयी थी, कपड़े ले आई थी, हमने कपड़े अपने अपने बैग में रख लिए!
दोपहर हुई,
हमने अपने अपने बैग संभाल लिए थे, अब बस निकलने की तैयारी थी वहां से, बाबा अमली के पास जाना था, और मैं सच में बहुत बेसब्र था उस औघड़ को देखने के लिए जो इस पूरी गाथा का केंद्र बिंदु था! तभी कमरे में बाबा गिरि आये, नए भूरे कुर्ते में और नयी धोती में ऐसे लग रहे थे जैसे सरपंच!
"तैयार हो?" बोले वो,
"हाँ, पूरी तरह" मैंने कहा,
"चलिए फिर" वे बोले,
अब शर्मा जी ने आखिरी बार कमरे को टटोला, कि कहीं कुछ छूट न जाए, सब ठीक था,
"चलिए" मैंने कहा,
और अब हम बाहर चले, कमरे को कुण्डी लगाई,
बाबा आगे और हम पीछे पीछे, सीधे पहुंचे बाबा अमर नाथ के कमरे में, वे भी तैयार थे, वो महिला भी तैयार थी, बाबा से प्रणाम हुआ और बाबा ने बिठा लिया,
"तैयार हो गए?" बाबा अमर ने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
अब वे खड़े हुए, अपने आप, अब स्वास्थय ठीक था उनका!
उनका सामान उठाया कविश ने, और चला गया बाहर, वो महिला भी उसके संग ही चली गयी!
"आओ फिर" बोले बाबा अमर,
हम उठ खड़े हुए, और बाहर आये,
बाबा भी बाहर आये, बाबा गिरि ने कुण्डी लगा दी कक्ष की और चले अब सब बाहर के लिए,
हम चलते चलते बाहर आ गए, यहां से एक टेम्पो पकड़ा, और सीधा बस-अड्डे के लिए कूच कर गए!
मैं खड़ा हुआ, जितना जानना था जान लिया था, बाबा अमर नाथ ने मुझे खड़े होते हुए देखा, लेकिन रोका नहीं, न बाबा गिरि ने ही, मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ गए थे, हम दोनों ने नमस्कार कही उन्हें और निकल आये बाहर उनके कमरे से, आज न तो मदिरा में ही आनंद आया था और न ही उस तले हुए मुर्गे में ही, मुझे तो लग रहा था कि जैसे सारी कहानी मेरे ही इर्द-गिर्द घूम रही है! जैसे ये सारा ही जंजाल मेरे लिए ही तैयार हुआ था! हम अपने कमरे में आ चुके थे, अब और मन था मदिरापान का, मैंने शर्मा जी से कहा, वे चले बाहर सामान लेने, पानी का जग साथ ले गए थे, अभी साढ़े आठ का ही समय था, और रात बाकी थी, मन में ऐसे ही सवाल आते तो सारी रात करवटों में ही कटती, इसीलिए मैंने और पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी! थोड़ी देर में ही सारा इंतज़ाम हो गया, और हम खाने-पीने लगे, दिमाग घूमे जा रहा था, जो बाबा अमर नाथ के साथ हुआ था, वो मेरे साथ भी हो सकता था! मैं कोई अनोखा नहीं, मानव-वृतियों से बंधा हूँ, मुझे में काम, स्वार्थ आदि है, इसमें कोई असत्य नहीं, कब कहाँ जाग जाए, पता नहीं! उन पर नियंत्रण करना असम्भव तो नहीं, परन्तु सम्भव करना असम्भव सा प्रतीत हुआ करता है! खैर, हमने खाया-पिया और फिर हाथ-मुंह धो लिए, उसके बाद लेट गए आराम से, थोड़ी देर में ही नींद ने आ घेरा हमें, और हम सो गए!
सुबह हुई! नहाये-धोये! और बाहर आये! आज चार दिन बाद सूर्यदेव पूर्वांचल से बाहर आये थे! मेघों को संधि द्वारा मना लिया गया था! और वर्षा देवी भी अब कुपित नहीं थीं! बाहर प्राकृतिक सौंदर्य में जैसे सोने के गोटे लगा दिए थे बारिश ने और उसकी नमी ने! पेड़-पौधों के पत्तों में हरा रंग ऐसे भर गया था जैसे किसी नव-यौवना के उन्नत ओंष्ठ!! सौंदर्य देखते ही बनता था, पौधे तो पौधे, घास को भी यौवन आ पहुंचा था, सुनहरी रंग की ताज़ा घास की कोंपले, अपने बुज़ुर्गों से आगे जा पहुंची थीं! पक्षीगण बहुत प्रसन्न थे! कड़े मकौड़े बहुतायत में थे तो उनका आहार उपलब्ध था हर कहीं, जहां भी वो बैठें!
"आइये, ज़रा टहलने चलें" मैंने कहा,
"चलिए" वो बीड़ी का बंडल साथ लेकर चले, और बोले,
हम आगे चले अब, रास्ते में जगह जगह, पानी भरा था, कहीं गड्ढे बन गए थे, कहीं कहीं पहले से बने हुए गड्ढे अब लबालब भर चुके थे! केंचुएं रेंग रहे थे मिट्टी में, हम उनसे बचते बचाते आगे बढ़ते हे! नमी तो थी, लेकिन सुबह के उस समय इतनी नमी बर्दाश्त के लायक थी! लोहबाग अपने अपने कामों पर लग गए थे, कुछ साइकिल पर चल निकले थे शहर की ओर, टेम्पो भरे हुए चल रहे थे! बारिश से ठहरी ज़िंदगी वापिस डगर पर आ पहुंची थी! ज़िंदगी कभी नहीं ठहरती, वो आगे बढ़ती ही रहती है, हाँ, कुछ अल्प-विराम हो सकता है, लेकिन डगर पर लौट ही आती है वो! बालक-बालिकाएं हँसते-खेलते अपने विद्यालय की तरफ चल निकले थे! हर तरफ इंसानी मौजूदगी बढ़ चुकी थी! वहीँ रास्ते में एक सरकारी नल लगा था, जो अब चलता नहीं था, शायद चला भी न हो कभी, उस चबूतरा टूट-फुट चुका था और आसपास पत्थर बिखरे पड़े थे, पेड़ भी टूटे पड़े थे, कुछ लोग उन टूटे हुए पेड़ों की लकड़ियाँ आदि इकट्ठी कर रहे थे, और कुछ लोग उनको ढोह केले जाने के लिए, प्रबंध करने में लगे थे! हम आगे बढ़े, सड़क के दोनों ओर पानी कहीं कहीं भरा हुआ था, बड़ा वाहन आता कोई तो नहला सकता था हमें, इसलिए हम उस से दूर ही रहे! हम करीब पौना घंटा टहले, और फिर वापिस हुए, आठ बजे का समय होने का था, अब चाय की तलब लगी थी शर्मा जी को, तो हम वापिस हो लिए!
वापिस आये तो मैं तो कमरे में चला आया, शर्मा जी सीधे सहायक के पास चले गए, वुर जब वापिस आये तो चाय की केतली, दो कप और साथ में थोड़ा नमकीन ले आये थे, नमकीन भी थी सीली हुई, मुझ स एनही खायी गयी, शर्मा जी ने भी चुन चुन कर, मूंगफली के दाने ही खाए, एक आद मैंने भी चबा ही लिया! चाय पी ली, और फिर उसके बाद आराम किया! मौसम साफ़ था तो आज रवानगी हो सकती थी यहां से ही! और वैसे भी मैं बाबा अमली से मिलने का इच्छुक था! और अब तो इच्छा और बलवती हो चुकी थी!
कोई एक घंटे के बाद बाबा गिरि आये कमरे में, बैठे, उनसे नमस्कार हुई, उन्होंने चाय-नाश्ते के बारे में पूछा, तो बता दिया कि चाय पी ली है, लेकिन उन्होंने कहा कि साथ में भी कुछ लेना चाहिए था, उन्होंने बताया कि अभी वे कह देंगे कि नाश्ते में आलू-पूरी बना लें वो! आलू-पूरी तो बढ़िया थी! फिर दोपहर मे कौन खाता भोजन!
"आज मौसम साफ़ है" बोले बाबा,
"हाँ, आज तो बिलकुल साफ़ है" मैंने कहा,
"क्या विचार है?" पूछा उन्होंने,
"नैनीताल?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"बाबा अमर नाथ की तबीयत कैसी है?" मैंने पूछा,
"फिलहाल बेहतर है, चल सकते हैं" वे बोले,
"तब तो ठीक है, चलते हैं" मैंने कहा,
"तो दोपहर में निकल चलते हैं?" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
"तो आप तैयार रहना" वे बोले,
"बिलकुल" मैंने कहा,
अब वे उठे, और चले गए बाहर,
"निकल ही पड़ते हैं" मैंने कहा,
"हाँ ठीक है" शर्मा जी बोले,
"देर भली नहीं, वापिस भी जाना है" मैंने कहा,
"सो तो है" वे बोले,
थोड़ी और बातें हुईं घरबार की,
और मेरी आँख लग गयी फिर, उबासियां आने लगी थीं! मौसम की खुमारी थी!
मैं सो गया था!
कोई डेढ़ घंटे के बाद शर्मा जी ने जगाया मुझे, मैं जागा, नास्ता आ गया था, नाश्ता क्या, पूरा भोजन ही था, गर्मागर्म पूरियां थीं और आलू की सब्जी, साथ में दही और अचार, मिर्चों का! पेट भर खाया! और फिर हमने किया थोड़ा सा आराम! पहले तो डकारों से निबटे! और फिर थोड़ा इधर उधर टहले, वो महिला जो कपडे ले गयी थी, कपड़े ले आई थी, हमने कपड़े अपने अपने बैग में रख लिए!
दोपहर हुई,
हमने अपने अपने बैग संभाल लिए थे, अब बस निकलने की तैयारी थी वहां से, बाबा अमली के पास जाना था, और मैं सच में बहुत बेसब्र था उस औघड़ को देखने के लिए जो इस पूरी गाथा का केंद्र बिंदु था! तभी कमरे में बाबा गिरि आये, नए भूरे कुर्ते में और नयी धोती में ऐसे लग रहे थे जैसे सरपंच!
"तैयार हो?" बोले वो,
"हाँ, पूरी तरह" मैंने कहा,
"चलिए फिर" वे बोले,
अब शर्मा जी ने आखिरी बार कमरे को टटोला, कि कहीं कुछ छूट न जाए, सब ठीक था,
"चलिए" मैंने कहा,
और अब हम बाहर चले, कमरे को कुण्डी लगाई,
बाबा आगे और हम पीछे पीछे, सीधे पहुंचे बाबा अमर नाथ के कमरे में, वे भी तैयार थे, वो महिला भी तैयार थी, बाबा से प्रणाम हुआ और बाबा ने बिठा लिया,
"तैयार हो गए?" बाबा अमर ने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
अब वे खड़े हुए, अपने आप, अब स्वास्थय ठीक था उनका!
उनका सामान उठाया कविश ने, और चला गया बाहर, वो महिला भी उसके संग ही चली गयी!
"आओ फिर" बोले बाबा अमर,
हम उठ खड़े हुए, और बाहर आये,
बाबा भी बाहर आये, बाबा गिरि ने कुण्डी लगा दी कक्ष की और चले अब सब बाहर के लिए,
हम चलते चलते बाहर आ गए, यहां से एक टेम्पो पकड़ा, और सीधा बस-अड्डे के लिए कूच कर गए!