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Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Posted: 19 Aug 2015 13:15
by sexy
अपना गिलास खत्म कर चुका था मैं, शर्मा जी भी अपना गिलास खत्म करने ही वाले थे, बाबा अमर नाथ लेट गए थे बिस्तर पर, और तभी उन्होंने करवट बदली हमारी तरफ, खांसी उठी उन्हें, खांसे, मुंह साफ़ किया और साँसें नियंत्रित करने लगे अपनी, बाबा गिरि ने अपना गिलास भर लिया था, मैं समझ रहा था कि वे उसी समय में पहुँच गए हैं जब वो युग्मा प्रकट हुई थी! न वो चूक होती और न आज ये कहानी मुझे पता चलती! ये समय है, समय ने ही सारी गांठें लगाई हैं, कब किसे खोले और कब कहाँ गाँठ मार दे! न वो चूक होती, और न मेरा आना ही होता वहाँ, न मैं इस विलक्षण युग्मा के विषय में जान ही पाता!
मैं खड़ा हुआ, जितना जानना था जान लिया था, बाबा अमर नाथ ने मुझे खड़े होते हुए देखा, लेकिन रोका नहीं, न बाबा गिरि ने ही, मैं उठा तो शर्मा जी भी उठ गए थे, हम दोनों ने नमस्कार कही उन्हें और निकल आये बाहर उनके कमरे से, आज न तो मदिरा में ही आनंद आया था और न ही उस तले हुए मुर्गे में ही, मुझे तो लग रहा था कि जैसे सारी कहानी मेरे ही इर्द-गिर्द घूम रही है! जैसे ये सारा ही जंजाल मेरे लिए ही तैयार हुआ था! हम अपने कमरे में आ चुके थे, अब और मन था मदिरापान का, मैंने शर्मा जी से कहा, वे चले बाहर सामान लेने, पानी का जग साथ ले गए थे, अभी साढ़े आठ का ही समय था, और रात बाकी थी, मन में ऐसे ही सवाल आते तो सारी रात करवटों में ही कटती, इसीलिए मैंने और पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी! थोड़ी देर में ही सारा इंतज़ाम हो गया, और हम खाने-पीने लगे, दिमाग घूमे जा रहा था, जो बाबा अमर नाथ के साथ हुआ था, वो मेरे साथ भी हो सकता था! मैं कोई अनोखा नहीं, मानव-वृतियों से बंधा हूँ, मुझे में काम, स्वार्थ आदि है, इसमें कोई असत्य नहीं, कब कहाँ जाग जाए, पता नहीं! उन पर नियंत्रण करना असम्भव तो नहीं, परन्तु सम्भव करना असम्भव सा प्रतीत हुआ करता है! खैर, हमने खाया-पिया और फिर हाथ-मुंह धो लिए, उसके बाद लेट गए आराम से, थोड़ी देर में ही नींद ने आ घेरा हमें, और हम सो गए!
सुबह हुई! नहाये-धोये! और बाहर आये! आज चार दिन बाद सूर्यदेव पूर्वांचल से बाहर आये थे! मेघों को संधि द्वारा मना लिया गया था! और वर्षा देवी भी अब कुपित नहीं थीं! बाहर प्राकृतिक सौंदर्य में जैसे सोने के गोटे लगा दिए थे बारिश ने और उसकी नमी ने! पेड़-पौधों के पत्तों में हरा रंग ऐसे भर गया था जैसे किसी नव-यौवना के उन्नत ओंष्ठ!! सौंदर्य देखते ही बनता था, पौधे तो पौधे, घास को भी यौवन आ पहुंचा था, सुनहरी रंग की ताज़ा घास की कोंपले, अपने बुज़ुर्गों से आगे जा पहुंची थीं! पक्षीगण बहुत प्रसन्न थे! कड़े मकौड़े बहुतायत में थे तो उनका आहार उपलब्ध था हर कहीं, जहां भी वो बैठें!
"आइये, ज़रा टहलने चलें" मैंने कहा,
"चलिए" वो बीड़ी का बंडल साथ लेकर चले, और बोले,
हम आगे चले अब, रास्ते में जगह जगह, पानी भरा था, कहीं गड्ढे बन गए थे, कहीं कहीं पहले से बने हुए गड्ढे अब लबालब भर चुके थे! केंचुएं रेंग रहे थे मिट्टी में, हम उनसे बचते बचाते आगे बढ़ते हे! नमी तो थी, लेकिन सुबह के उस समय इतनी नमी बर्दाश्त के लायक थी! लोहबाग अपने अपने कामों पर लग गए थे, कुछ साइकिल पर चल निकले थे शहर की ओर, टेम्पो भरे हुए चल रहे थे! बारिश से ठहरी ज़िंदगी वापिस डगर पर आ पहुंची थी! ज़िंदगी कभी नहीं ठहरती, वो आगे बढ़ती ही रहती है, हाँ, कुछ अल्प-विराम हो सकता है, लेकिन डगर पर लौट ही आती है वो! बालक-बालिकाएं हँसते-खेलते अपने विद्यालय की तरफ चल निकले थे! हर तरफ इंसानी मौजूदगी बढ़ चुकी थी! वहीँ रास्ते में एक सरकारी नल लगा था, जो अब चलता नहीं था, शायद चला भी न हो कभी, उस चबूतरा टूट-फुट चुका था और आसपास पत्थर बिखरे पड़े थे, पेड़ भी टूटे पड़े थे, कुछ लोग उन टूटे हुए पेड़ों की लकड़ियाँ आदि इकट्ठी कर रहे थे, और कुछ लोग उनको ढोह केले जाने के लिए, प्रबंध करने में लगे थे! हम आगे बढ़े, सड़क के दोनों ओर पानी कहीं कहीं भरा हुआ था, बड़ा वाहन आता कोई तो नहला सकता था हमें, इसलिए हम उस से दूर ही रहे! हम करीब पौना घंटा टहले, और फिर वापिस हुए, आठ बजे का समय होने का था, अब चाय की तलब लगी थी शर्मा जी को, तो हम वापिस हो लिए!
वापिस आये तो मैं तो कमरे में चला आया, शर्मा जी सीधे सहायक के पास चले गए, वुर जब वापिस आये तो चाय की केतली, दो कप और साथ में थोड़ा नमकीन ले आये थे, नमकीन भी थी सीली हुई, मुझ स एनही खायी गयी, शर्मा जी ने भी चुन चुन कर, मूंगफली के दाने ही खाए, एक आद मैंने भी चबा ही लिया! चाय पी ली, और फिर उसके बाद आराम किया! मौसम साफ़ था तो आज रवानगी हो सकती थी यहां से ही! और वैसे भी मैं बाबा अमली से मिलने का इच्छुक था! और अब तो इच्छा और बलवती हो चुकी थी!
कोई एक घंटे के बाद बाबा गिरि आये कमरे में, बैठे, उनसे नमस्कार हुई, उन्होंने चाय-नाश्ते के बारे में पूछा, तो बता दिया कि चाय पी ली है, लेकिन उन्होंने कहा कि साथ में भी कुछ लेना चाहिए था, उन्होंने बताया कि अभी वे कह देंगे कि नाश्ते में आलू-पूरी बना लें वो! आलू-पूरी तो बढ़िया थी! फिर दोपहर मे कौन खाता भोजन!
"आज मौसम साफ़ है" बोले बाबा,
"हाँ, आज तो बिलकुल साफ़ है" मैंने कहा,
"क्या विचार है?" पूछा उन्होंने,
"नैनीताल?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"बाबा अमर नाथ की तबीयत कैसी है?" मैंने पूछा,
"फिलहाल बेहतर है, चल सकते हैं" वे बोले,
"तब तो ठीक है, चलते हैं" मैंने कहा,
"तो दोपहर में निकल चलते हैं?" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
"तो आप तैयार रहना" वे बोले,
"बिलकुल" मैंने कहा,
अब वे उठे, और चले गए बाहर,
"निकल ही पड़ते हैं" मैंने कहा,
"हाँ ठीक है" शर्मा जी बोले,
"देर भली नहीं, वापिस भी जाना है" मैंने कहा,
"सो तो है" वे बोले,
थोड़ी और बातें हुईं घरबार की,
और मेरी आँख लग गयी फिर, उबासियां आने लगी थीं! मौसम की खुमारी थी!
मैं सो गया था!
कोई डेढ़ घंटे के बाद शर्मा जी ने जगाया मुझे, मैं जागा, नास्ता आ गया था, नाश्ता क्या, पूरा भोजन ही था, गर्मागर्म पूरियां थीं और आलू की सब्जी, साथ में दही और अचार, मिर्चों का! पेट भर खाया! और फिर हमने किया थोड़ा सा आराम! पहले तो डकारों से निबटे! और फिर थोड़ा इधर उधर टहले, वो महिला जो कपडे ले गयी थी, कपड़े ले आई थी, हमने कपड़े अपने अपने बैग में रख लिए!
दोपहर हुई,
हमने अपने अपने बैग संभाल लिए थे, अब बस निकलने की तैयारी थी वहां से, बाबा अमली के पास जाना था, और मैं सच में बहुत बेसब्र था उस औघड़ को देखने के लिए जो इस पूरी गाथा का केंद्र बिंदु था! तभी कमरे में बाबा गिरि आये, नए भूरे कुर्ते में और नयी धोती में ऐसे लग रहे थे जैसे सरपंच!
"तैयार हो?" बोले वो,
"हाँ, पूरी तरह" मैंने कहा,
"चलिए फिर" वे बोले,
अब शर्मा जी ने आखिरी बार कमरे को टटोला, कि कहीं कुछ छूट न जाए, सब ठीक था,
"चलिए" मैंने कहा,
और अब हम बाहर चले, कमरे को कुण्डी लगाई,
बाबा आगे और हम पीछे पीछे, सीधे पहुंचे बाबा अमर नाथ के कमरे में, वे भी तैयार थे, वो महिला भी तैयार थी, बाबा से प्रणाम हुआ और बाबा ने बिठा लिया,
"तैयार हो गए?" बाबा अमर ने पूछा,
"जी" मैंने कहा,
अब वे खड़े हुए, अपने आप, अब स्वास्थय ठीक था उनका!
उनका सामान उठाया कविश ने, और चला गया बाहर, वो महिला भी उसके संग ही चली गयी!
"आओ फिर" बोले बाबा अमर,
हम उठ खड़े हुए, और बाहर आये,
बाबा भी बाहर आये, बाबा गिरि ने कुण्डी लगा दी कक्ष की और चले अब सब बाहर के लिए,
हम चलते चलते बाहर आ गए, यहां से एक टेम्पो पकड़ा, और सीधा बस-अड्डे के लिए कूच कर गए!

Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Posted: 19 Aug 2015 13:15
by sexy
रास्ता बहुत खराब था! कभी कभार तो लगता था कि सड़क खेत में और खेत सड़क पर आ गए हैं! ऐसे ऐसे हिचकोले कि लगे अभी पहिया उठा और टांगें टूटीं! वो तो चालक माहिर था, अादी रहा होगा इन सड़कों का, या ऐसी सड़कों का जो बचा लेता था! कभी कभी तो आमने सामने बैठे लोगों के सर टकरा जाते थे एक दूसरे से! मेरे सामने शर्मा जी बैठे थे, उन्होंने तो चश्मा उतार लिया था और रख लिया था जेब में! नहीं तो टूट-फूट जाता पक्का! कहीं कहीं मवेशी बीच सड़क में आ बैठते थे, उन्हें खदेड़ा जाता, कभी कभी कोई ज़िद्दी बकरी सामने आ खड़ी होती, हटती ही नहीं! कोई कोई बकरी का बच्चा अपने नए सींगों का परीक्षण करने आ खड़ा होता सड़क के बीच! तो ये सड़क ऐसी थी! डर लगता था कि कहीं टेम्पो अपनी टांग न उठा जाए कोई! आखिरकार वो भयानक यात्रा समाप्त हुई हमारी! और हम पहुंचे बस अड्डे! जान बची लाखों पाये! खून जमते जमते बचा था! अब शर्मा जी ने अपना चश्मा निकाल लिया था और पहन भी लिया था! अब जाकर टांगें सीढ़ी हुईं थीं, नहीं तो उसमे बैठे बैठे पता ही नहीं चल रहा था कि टांग है कहाँ अपनी!
"आओ" बोले बाबा गिरि!
हम चले उनके पीछे पीछे!
बारिश के कारण ऐसी कीचड़-काचड़ मची थी कि हाल खराब था, सड़क कहाँ है ये बताना ही मुश्किल था, ऊपर से वो फल और चाँट वाले ठेलों ने ऐसी गंदगी मचाई थी कि कोई जानवर भी न आये वहाँ बचा-खुचा खाने!
बाबा ने बस देख ली, बस की हालत ऐसी थी कि जैसे नीलामी से खरीदी गयी हो! इंजन की आवाज़ से पूरी बस ऐसे कचकचा रही थी जैसे किसी युद्ध में रसद लेके जाती हो! जोड़-जोड़ खुला था उसका, और दूसरी बात और, उसके बाद बस भी कब आये, पता नहीं! बैठना मज़बूरी थी, सो बैठ गए हम उसमे! हमें जगह मिल गयी बैठने की, मैं खिड़की की तरफ बैठा, और शर्मा जी साथ में, और उनके साथ बाबा गिरि बैठे! डीज़ल के धुंए की बदबू फैली थी वहां! जितनी भी बसें वहां थीं, सभी चालू थीं! नैनीताल पहुँच कर आँखें साफ़ न की जाएँ तो अगले दिन खुलेंगी ही नहीं, सूज जातीं!
"अब चला ले भाई?" शर्मा जी ने कहा,
उनका इशारा चालक की तरफ था! और चालक बार बार हुर्र ही हुर्र मचा रहा था स्पीड-पैडल दबा कर! एक स्थानीय भाषा की को कोई सी.डी. चल रही थी! गायक और गायिका क्या गा रहे थे, समझ से परे थे हमारे तो! शायद भोजपुरी गाना था वो, या अन्य कोई भाषा! नीचे कंडक्टर और दूसरे हेल्पर उस बस को पीट रहे थे! बुला रहे थे, लोगों को पकड़ पकड़ के ला रहे थे कि आओ, शाही-सवारी जाने को है! ये छूटी तो खटारा भी नहीं मिलेगी!
"अरे चला ले यार?" बोले शर्मा जी!
"ऐसे कैसे!" मैंने कहा,
"यहाँ तो दम घुट जाएगा!" वे बोले,
"अरे जब तक बन्दे पर बंदा नहीं चढ़ जाएगा, पाँव रखने की जगह भी नहीं मिलेगी, तब चलाएगा ये!" मैंने कहा,
इंजन की हुर्र ही हुर्र सुनते सुनते पक गए हम तो!
और आखिर में चालक मेहरबान हुआ! सीट अभी भी खाली ही थीं, तो अंदाजा यही था कि अब सड़क पर मंद गति से ही रेंगने वाली है ये बस! सड़क से ही उठाती जायेगी सवारियों को! और इस तरह से बस चली! जब बस चली तो बाहर आते ही यातायात में फंस गयी! ऐसा शोर था वाहनों का जैसे रेल-इंजन के हॉर्न लगवा लिए हों सभी ने! किसी तरह से बस निकली वहाँ से, और अब दूसरे गियर में ही चलने लगी! हालांकि सड़क खाली थी! लेकिन सवारी उठानी थी, रोक रोक के हाल खराब कर दिया उन्होंने!
"साला घंटा तो यहीं बीत गया!" शर्मा जी बोले,
"हाँ! अब समझो कि शाम तक पहुँच जाएँ तो गनीमत है!" मैंने कहा,
"देखो, क्या होता है" वो बोले,
अब थोड़ी देर में, वो भी ऊँघने लगे, और मैं भी!
बस चालीस की रफ़्तार से भी नहीं भाग रही थी!
तभी ब्रेक लगी! रास्ते में कोई दुर्घटना हुई थी, तो जाम लगा था, बीस-पच्चीस मिनट यहां लग गए! पुलिस ने रास्ता बनाया तो आगे निकले हम! रास्ता ऐसा था कि अगर कोई विदेशी राजदूत आ जाए इस रास्ते से तो रोज सपने में यही सड़क देखे!
आखिरकार उस उबाऊ और थकाऊ यात्रा का अंत हुआ! हम उतरे बस से! टांगें अकड़ गयी थीं! कमर में नचके आ चुके थे! तोड़-मोड़ के ठीक की कमर!
"भ*** बचाये ऐसी यात्रा से तो!" बोले शर्मा जी,
"सही कहा" मैंने कहा,
अभी तो एक और धमाका होना था! बाबा गिरि ने कहा कि अभी यहाँ से अठारह-बीस किलोमीटर और दूर जाना है! ये सुनते ही बेहोशी आने लगी! लेकिन क्या करते! आखिर में पकड़ी सवारी, बैठे और चल दिए! हम कोई आठ बजे पहुंचे वहां!
ये स्थान बहुत बड़ा था! झंडे लगे थे! तेज हवाओं ने फाड़ दिया था उनको! कुछ से तो झंडे गायब थे, अब बांस ही बांस थे!
हम अंदर गए!
मैं तो बैठ गया एक जगह! शर्मा जी भी बैठ गए! दस मिनट बाद एक व्यक्ति के संग आये बाबा गिरि, और ले गए संग हमें! हमें कमरा दिया गया! कमरा क्या था, कोठरी सी थी! एक पलंग पड़ा था, दो आदमी सो सकते थे वैसे आराम से, लेकिन स्नानालय बाहर बना था! हम बैठ गए, सामान रखा, और मैं तो जूते खोल, आ लेटा बिस्तर पर! मेरे संग शर्मा जी भी आ बैठे, खड़े हुए, पंखा चलाया, रेगुलेटर को घुमाया, उल्टा-सीधा, पंखा नहीं चला! बत्ती जलायी, बत्ती थी ही नहीं!! ये तो हमें मालूम ही होना चाहिए था, क्योंकि जब हम आये थे, तो वहां अँधेरा था, सिर्फ हंडे ही जल रहे थे! हमने ही उन्हें बिजली का प्रकाश समझ लिया था! वे फिर से आ लेटे वहाँ! तभी वही व्यक्ति आया, हण्डा लेकर! हण्डा लगा दिया उसने! उस से बात हुई उसने अपना नाम हरकिशन बताया! उसने खाने-पीने को पूछा, तो फिलहाल में मना कर दिया हमने, हाँ, थोड़ी देर बाद बताने को कह दिया था उसको!
"जगह तो बहुत बड़ी लगती है" शर्मा जी बोले,
"हाँ, है तो बड़ी" मैंने कहा,
"लेकिन इसने ठहराया कहाँ है हमें?" उन्होंने पूछा,
"अब जो जगह होगी, दे दी" मैंने कहा,
मुंह से कराह निकाली उन्होंने करवट लेते हुए!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"कमर का फलूदा बन गया!" वे बोले,
मुझे हंसी आ गयी!
हमने आराम किया कोई आधा घंटा! कमर सीधी की तो आराम मिला! उसके बाद हम उठे, मैं स्नान करने चला गया था, अच्छी तरह से रगड़-रगड़ के स्नान किया! मोमबत्ती जल रही थी उधर, गुसलखाने में, पानी भी बरमे का ही था, पानी ठंडा था, फुरफुरी छूट गयी! मैं वापिस आया तो शर्मा जी चले गए स्नान करने! आ गये वापिस तो हमने अब जुगाड़ करने की सोची! हुड़क लगी थी ज़बरदस्त!
शर्मा जी चले गए बाहर, मैंने बोतल निकला ली, ये आखिरी बोतल थी दिल्ली वाली, अब आगे क्या हो, ये आगे ही देखना था! आये शर्मा जी, कह आये थे सामान भेजने को!
थोड़ी देर बाद एक लड़की आई उधर, बड़ी ही तेज-तर्रार सी लगी! झटपट से सामान रखा उसने, कपड़े से मेज़ साफ़ कर दी!
"कुछ और चाहिए हो तो बोलो?" बोली वो,
मैं उठा, सामान देखा, खीरे कटे थे, गाज़र भी थी, लेकिन आधी चिरी हुई, थोड़ी सी नमकीन थी, ये तो पर्याप्त नहीं था!
"कोई मसालेदार नहीं है सामान?" मैंने पूछा,
"कैसा मसाला?" उसने पूछा,
"अरे कोई मुर्गा आदि?" मैंने पूछा,
"वो खाने में मिल जाएगा" वो बोली,
"अभी नहीं?" मैंने पूछा,
"अभी चाहिए?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
बिना हाँ-ना कहे चली गयी!
मैं और शर्मा जी मुंह देखें एक दूसरे का!
"लड़की है या अफ़लातून!" बोले वो!
"तेजी भरी है इसमें!" मैंने कहा,
"वो तो दीख रहा है" वे बोले,
तभी वो आ गयी, एक कटोरा पकड़े हुए, रख दिया वहीँ,
"ये लो" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
"और कुछ?" पूछा उसने,
"गिलास?" मैंने पूछा,
गिलास नहीं थे वहां!
"लायी" वो बोली, और चली गयी!
"ये तो ओख से पिलाने वाली थी!" मैंने कहा,
"कमाल है!" वे बोले,
तभी आई वो, भागते भागते!
"ये लो" वो बोली, स्टील के गिलास ले आई थी!
"ठीक है" मैंने कहा,
"पानी वहां है, वहाँ से ले लेना अगर ज़रूरत पड़े तो" वो बोली,
"ले लेंगे" मैंने कहा,
वो बाहर चली गयी तभी के तभी!
"लो जी! हो जाओ शुरू!" मैंने कहा,
"आता हूँ" वे बोले और बाहर चले, लघु-शंका त्याग करने!
तभी बाबा गिरि आये अंदर! बैठे!
"आओ बाबा!" मैंने कहा,
"करो करो!" बोले वो!
और तभी शर्मा जी भी आ गए!
गिलास दो बने ही थे, बाबा ने कहा कि वे बाबा अमर नाथ के संग हैं, वहीँ है उनका इंतज़ाम! वो देखने आये थे कि सामान मिला या नहीं! इसके बाद वे चले गए वहां से!
और हम हो गए शुरू फिर!

Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना

Posted: 19 Aug 2015 13:16
by sexy
तो हमारा कार्यक्रम अब गति पकड़ने लगा था! वो लड़की जो कटोरे में सामान लायी थी वो बकरे का मांस था, तरी वाला, स्वाद बेहद लज़ीज़ था! सारे मसाले देसी ही थे और शायद सिल पर पीसे गए थे! बनाया किसी महिला ने ही था, ये भी पता चलता था, चूंकि पानी अधिक था उसमे, मर्द लोग अक्सर गाढ़ा ही पसंद करते हैं बकरे का मांस! ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, पक्का ही हो, मुझे पता नहीं! लेकिन मसाला इतना बेहतर था कि स्वाद दोगुना हो गया था, अदरक के लच्छे से आते थे मुंह में, साबुत काली-मिर्च भी आती थी! और साबुत दालचीनी तो हाथ से ही निकालनी पड़ती थी! मिर्चें बेशुमार थीं! नाक से पानी बहने लगा था लेकिन स्वाद के मारे, हम खाते जा रहे थे, उसकी तरी बेहतरीन थी! मदिरा का आनंद दोगुना हो चला था! तभी हमारा पानी समाप्त हुआ, शर्मा जी उस लड़की के बताये हुए स्थान तक जाने के लिए उठे, और जग ले, चले गए बाहर! जब वापिस आये तो जग हाथ में नहीं था उनके!
"क्या हुआ, जग कहाँ है?" मैंने पूछा,
वे बैठे, तौलिये से हाथ पोंछे,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"भीड़ लगी थी वहां तो! तभी वही लड़की आई उधर, मुझे भेज दिया बोली मैं ले आउंगी पानी" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
और तभी वो लड़की धड़धड़ाती हुई अंदर आई, हाथ में जग था, रख दिया जग वहीँ उसने! कटोरे को हाथ लगाया,
"ये तो ठंडा हो गया?" वो बोली,
"कोई बात नहीं" मैंने कहा,
"कैसे कोई बात नहीं?" वो बोली और उठा ले गयी कटोरा हमारा!
अब फिर से मैं और शर्मा जी एक दूसरे को देखने लगे!
"लड़की है या तूफ़ान मेल?" शर्मा जी बोले,
"लेकिन दिल की साफ़ लगती है, आपको खड़े नहीं रखा, शोरबा गर्म करने के लिए ले गयी है!" मैंने कहा,
"हाँ, ये तो है" वे बोले,
तभी आई वो अंदर, कटोरा पकड़े, हाथ में और हाथ में एक कपड़ा था, उस पर ही रख कर लायी थी, उसने कटोरा रखा, अब कटोरा भरा था पूरा, उसने और डाल दिया था शोरबा और बोटियाँ!
"नाम क्या है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"ज्योति" वो बोली, बिना आँखें मिलाये,
"अच्छा" मैंने कहा,
"कहाँ से आये हो आप?" उसने पूछा,
"दिल्ली से" मैंने कहा,
मैंने दिल्ली कहा तो अपनी आँखों से उसने मुझे और शर्मा जी को तोल लिया, शायद दिल्ली के या शहर के लोग विश्वास के काबिल नहीं थे! देखा तो उसने ऐसे ही था हमें!
"कभी दिल्ली गयी हो?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब तक उसने कटोरा रख दिया था, और सलाद को देख रही थी,
"ये और चाहिए क्या?" उसने पूछा,
"नहीं, बहुत है" मैंने कहा,
"पानी?" उसने पूछा,
"अभी ज़रूरत नहीं" मैंने कहा,
"और लाऊँ?" वो बोली,
"ले आओ" मैंने कहा,
वो फिर से लपक के बाहर दौड़ी!
"लगता है शहरी लोग पसंद नहीं इसको" वे बोले,
"लगता तो ऐसे ही है" मैंने कहा,
हमने गिलास भरे अपने, कि वो आ गयी, एक और जग ले आई थी पानी का, रख दिया मेज़ पर,
"और कुछ?" उसने पूछा,
"नहीं जी, बस" मैंने कहा,
"ठीक है, मैं बर्तन बाद में ले जाउंगी" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
चली गयी वो! बहुत जल्दी में रहती थी! तेज ही बोलती थी और तेज ही काम भी करती थी! तेजी से बहुत प्यार था उसको! नाम भी ज्योति था! ज्योत की तरह से चटकदार थी!
हमने फिर से अपना कार्यक्रम आगे बढ़ाया!
शोरबा गरम हुआ, तो मजा आ गया था!
हमें एक घंटा लगा, दूसरा जग भी खाली कर दिया था! जग बड़ा भी नहीं था, मुश्किल से ही एक लीटर पानी आये तो आये! बर्तन रख दिए एक तरफ! ताकि वो आये और आराम से ले जाए! और हम अब बैठ गए अपने बिस्तर पर! थकावट थी, लेकिन थकावट हरने वाली बूटी आज रात अपना काम करने वाली थी! सुबह ताज़ा ही उठना था!
कोई दस मिनट के बाद वो आई अंदर,
"हो गया?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
उसने बर्तन उठाने शुरू किये,
"खाना?" उसने पूछा,
"भिजवा दो" मैंने कहा,
कुछ न बोली वो,
बर्तन उठाये वो निकल गयी!
"कमाल की लड़की है, अधिक बात नहीं करती!" शर्मा जी बोले,
"हाँ" मैंने कहा, और मुस्कुराया,
थोड़ी देर में वो आई!
खाना ले आई थी, बिस्तर पर रखा उसने, हमने आराम से खाना अपने अपने पास रखा, और खाना शुरू किया, वो चली गयी थी, बिना कुछ कहे!
हमने खाना खाना शुरू किया! रोटियां और चावल थे साथ में, दोनों ही खा लिए! बर्तन रख दिए एक जगह अलग, हाथ-मुंह धोये, कुल्ला किया और पकड़ लिया बिस्तर, दरवाज़ा बंद कर लिया था, अब वो आये तो ठीक, न आये तो ठीक! बर्तन अब सुबह ही मिलते!
सुबह हुई!
हम उठे! नहाये-धोये और फारिग हुए!
सुबह सुबह ही बाबा गिरि आ गए थे हमारे पास! नमस्कार हुई, अब आगे का कार्यक्रम तय हुआ, कोई ग्यारह बजे हमें मिलना था बाबा अमली से!
कोई साढ़े आठ बजे वो लड़की आई, नमस्ते हुई और बर्तन ले गयी, चाय ले आई थी, तो हमने चाय पीनी शुरू की, साथ में ब्रेड मिली थी सिकी हुई, वही खायी!
मित्रगण!
फिर बजे ग्यारह!
बाबा गिरि आये हमारे पास! और हम उनके साथ चल पड़े! पहले पहुंचे हम बाबा अमर नाथ के पास, उनकी तबीयत अब पहले से बेहतर थी! अब तरोताज़ा लग रहे थे, नमस्कार हुई उनसे, और अब हम चले उनके साथ बाबा अमली को देखने!
उनका कक्ष उस जगह से काफी दूर था, एक दूर जगह कुछ कक्ष बने थे, ये ऊंचाई पर थे, फलदार वृक्ष लगे थे, शायद लोकाट था वो, आड़ू के भी पेड़ थे वहां! हम चलते रहे उनके साथ और एक जगह आ गए, यहाँ कुछ कक्ष थे, खपरैल से बनी थीं उनकी छतें! बाबा गिरि रुके, तो हम भी रुके,
"आइये" वे बोले,
अब जूते उतारे हमने, सभी ने,
और चल पड़े उनके साथ,
एक जगह रुके, बाहर कुछ महिलायें बैठी थीं, शायद अन्न फटकार रही थीं! कुछ धान साफ़ कर रही थीं, हमें देखा तो सभी उठ गयीं वहाँ से और चली गयीं एक कमरे में,
"वो, वहाँ" बाबा गिरि ने इशारा किया एक तरफ,
वो एक बड़ा सा कक्ष था, पीले रंग से लीपा गया था,
"आओ" बोले वो,
हम चल पड़े, ये एक गलियारा था, वो पार किया, फिर एक और गलियारा आया दायें, वहाँ मुड़े, और अब बाबा अमर नाथ के कक्ष के सामने रुके, हम सभी रुक गए, उस जगह अगरबत्तियां सुलग रही थीं, ख़ुश्बू आ रही थी भीनी भीनी!
"ये है उनका कमरा" बोले बाबा गिरि,
मैं चुप खड़ा था, इंतज़ार में, दर्शन के लिए, बाबा अमली के!
लेकिन कक्ष बंद था अंदर से!
बाबा गिरि ने आवाज़ लगाई, कोई दो बार, अंदर से कोई आ रहा था! तभी दरवाज़ा खुला, बाबा गिरि को देखा उसने तो चरण छुए एक व्यक्ति ने, फिर बाबा अमर नाथ के भी चरण छुए! वो व्यक्ति अंदर ले गया हमने, पता चला ये बाबा अमली के ज्येष्ठ पुत्र हैं!
हम अंदर गए, बीच में एक जगह, छत में जाल लगा था, धूप अंदर आ रही थी वहाँ से, जाल बड़ा तो नहीं था लेकिन धूप के लिए पर्याप्त था! वो व्यक्ति एक जगह रुका, सभी को देखा, उसने, और उसने दरवाज़ा खोला एक छोटे से कक्ष का, और चला गया अंदर, फिर वापिस आया, हमें अंदर ले जाने के लिए! हम अंदर चले! अंदर एक जगह पलंग बिछा था, एक पुराने ज़माने का निवाड़ वाला पलंग! कोई लेटा था उस पर, आसपास, मेज़ रखी थीं, मेज़ों पर शायद देसी दवाइयाँ रखी थीं, या ऐसा ही कुछ था! उस व्यक्ति ने बिठा दिया हमें वहीँ, हम वहीँ, रखी हुई कुर्सियों पर बैठ गए!
अब बाबा गिरि उठे, उस व्यक्ति के पास गए, उस व्यक्ति ने उनकी बात सुनी, उस व्यक्ति ने मुझे देखा, शायद मेरे विषय में बात कर रहे थे वो उस से! फिर बाबा गिरि वापिस आये, बाबा अमली अभी सोये हुए थे, अब हमें करनी थी, उनके जागने की प्रतीक्षा! और कोई विकल्प नहीं था!!
Last edited by rentme4nite : 18th August 2014 at 07:59 PM.