Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना
Posted: 19 Aug 2015 13:16
इंतज़ार नहीं हो पा रहा था! क्या करते, करना पड़ा! बाबा अमली तो टस से मस भी न हो रहे थे, एक करवट भी न बदली थी, एक आवाज़ भी न आई थी मुंह से, लगता था जैसे कोई मृत शरीर लिटा रखा हो बिस्तर पर! मुझे बहुत लालसा थी उनसे मिलने की, लेकिन वे जागते तभी कुछ होता, बाबा गिरि ने बताया था कि अब वे बोल भी नहीं पाते, आँखें बंद ही रखा करते हैं, शायद अब सुनाई देना भी बंद हो गया है उनका, कोई हाव-भाव नहीं होता उनको देख कर, अपनी मर्ज़ी से ही बोलते हैं या कुछ कहते हैं, ऐसा लगता है जैसे किसी ध्यान में लगें हों लेटे लेटे, लगता तो ऐसा ही था, और तभी उन्होंने अपना एक घुटना उठाया, वो व्यक्ति दौड़ के उनके पास गया, हम भी झट से खड़े हो गए, उस व्यक्ति ने नीचे झुक कर कुछ कहा बाबा अमली से, और अगले ही पल इशारा कर दिया हमको! हम सभी दौड़ के भागे आगे, मैं उनमे लम्बा था था सबसे, मुझे बाबा अमर नाथ के कंधे के ऊपर से उनका चेहरा देखने का अवसर मिला, बाबा के चेहरे पर वक़्त की झुर्रियां एक पर एक चढ़ी थीं, दाढ़ी सारी सफ़ेद थी, उनमे लटें पड़ चुकी थीं, सर उनका गंजा था, वक़्त के साथ उनके सभी बाल उड़ चुके थे, बस गर्दन के पीछे कुछ बाल शेष थे, वो भी सफ़ेद रुई की तरह! बाबा ने आँखें बंद कर रखी थीं, चेहरा बहुत कृशकाय था, चेहरे की हड्डियां साफ़ दिखाई दे रही थीं, कनपटियों का मांस अंदर घुस चुका था, देखने पर बस इतना पता चलता था कि जैसे किसी नर-मुंड पर इंसानी खाल का मुलम्मा चढ़ा दिया हो! उनकी पूरी देह का वजन पैंतीस किलो से अधिक नहीं होगा, हाँ, उनकी लम्बाई आदि को देखकर ये अवश्य ही पता चलता था कि अपनी जवानी में वो बेहद तंदुरुस्त, हृष्ट-पुष्ट और मज़बूत रहे होंगे! मेरे सामने उस युग्मा का एक प्रबल और महान साधका आज बेबस पड़ा था! मौत का इंतज़ार करता हुआ एक महान साधक! अपने जीवन से लड़ रहा था! कैसी विडंबना थी ये अजीब ही! जहाना मेरे मन में उनके लिए आदर उमड़ा, वहीँ दया का कुण्ड भी भर गया, हालांकि मैं तो उन बाबा अमली के पाँव के एक अंगूठे के बराबर की धूल भी नहीं था, इसीलिए वहीँ निर्णय कर लिया कि मैं यथासम्भव प्रयास करूँगा कि बाबा को मुक्ति मिल जाए इस संसार से, कट जाए वो डोर जिसके कारण युग्मा का वो साधक आजतक लम्बी आयु भोगने के श्राप से में बंधा था! बस! इतना ही समय मिला बाबा अमली को देखने का, उनसे नज़रें नहीं मिलीं, इसका अफ़सोस रहा मुझे, उसके बाद हम वापिस हुए, बाबा गिरि ने मुझे बताया कि वो बाद में आएंगे मेरे पास बात करने, और तब मैं और शर्मा जी, वापिस अपने कक्ष में लौट आये!
कक्ष में आये तो बैठे, मैंने पानी पिया, शर्मा जी ने भी पिया, मैंने अपने जुराब उतारे और जूतों में घुसेड़ दिए, शर्मा जी अपने जुराब उतार रहे थे, उन्होंने भी अपने जुराब जूतों में घुसेड़ दिए, और पाँव ऊपर करके बैठ गए!
"मुझे तो सौ वर्ष से भी अधिक आयु लगी बाबा की" वे बोले,
"हाँ, मुझे भी" मैंने कहा,
"बेचारे" वे बोले,
"उनको खेमा का ग़म साल रहा है शर्मा जी, आज तक" मैंने कहा,
"हाँ, वो इसलिए कि वो कुछ नहीं कर सके" वे बोले,
"यही कारण है" मैंने कहा,
"जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ" वे बोले,
"हुआ तो बहुत ही बुरा" मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने बीड़ी निकाली, मुझसे पूछा, मैंने मना किया, सो अपने लिए लगा ली उन्होंने,
"लेकिन एक बात तो बताइये?" वे बोले,
"पूछो?" मैंने कहा,
"रमास का पेड़?" वे बोले,
उनका मैं आशय समझ गया! उसको तो दो-ढाई वर्ष चाहियें रोपने के लिए! ये बात तो सोची ही नहीं थी! या फिर इसका भी प्रबंध कर रखा था बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि ने?
"हाँ, सवाल अच्छा है, वाज़िब है!" मैंने कहा,
"अब बाबा आएं तो ही बताएं" वे बोले,
"हाँ, मैं खुद ही पूछ लूँगा" मैंने कहा,
"क्योंकि दो-ढाई साल तो बहुत लम्बा समय है" वे बोले,
"सही में" मैंने कहा,
तभी हरकिशन आया अंदर, कुछ खाने आदि के लिए पूछा उसने, अभी भूख नहीं थी, तो मना कर दिया, वैसे भी खाने की इच्छा नहीं थी तब,
"देख लो, एक ऐसा साधक जो विरला है, उसका हाल!" वे बोले,
"सच कहा" मैंने कहा,
"ये प्रेम-मोह यही है असली बंधन" वे बोले,
"हाँ, ऐसे नहीं टूट पाते ये" मैंने कहा,
कुछ देर अपने अपने ढंग से सोचते रहे हम!
मैं उठा फिर, चप्पल पहनीं और बाहर चला गया, बाहर का माहौल देखा, धूप खिली हुई थी, तितलियाँ आदि अपने अपने काम पर लगी थीं! महिलायें भी पानी भर रही थीं, कुछ वहीँ कपड़े धो रही थीं, कुछ अन्य कामों में लगी थीं, कुछ पुरुष भी अपने अपने कामों में लगे थे, दूर एक जगह गाय-भैंस बंधी थीं, बकरियां और उनके बच्चे भी वहीँ उछलकूद मचा रहे थे! ठेठे देहाती माहौल था, और ये सब देखकर लगता था कि वो डेरा जैसे अपना रूप खो चुका है, अब वहाँ कोई क्रियाएँ आदि नहीं होतीं, वो डेरा अब गए वक़्त का ही प्रतीक है, न जाने कब से ऐसे ही सोया पड़ा है! इन वर्षों में किसी ने नहीं जगाया है उसको! दूर एक जगह एक बाड़ा सा बना था, वहां बड़े बड़े पीपल के पेड़ लगे थे, उन्ही पेड़ों के बीच में एक स्थान और था, अब उसकी छत नहीं बची थी, मात्र दीवारें ही थीं, कुछ लोहे के जंग लगे गार्टर वहीँ पड़े थे, अभी मैं देख ही रहा था कि मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा, ये शर्मा जी थे, वे भी बाहर आ गए थे,
"क्या देख रहे हो आप?" बोले वो,
"वो सामने" मैंने इशारा किया,
"उन पेड़ों को?" वे बोले,
"हाँ, उनके नीचे" मैंने कहा,
"हाँ, कुछ बना हुआ है" वे बोले,
"आओ" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम चल पड़े वहीँ के लिए,
वहाँ पहुंचे,
मैंने गौर से देखा, ये तो एक क्रिया-स्थल था! जो अब वीरान पड़ा था! मिट्टी जम चुकी थी, जंगली पेड़-पौधे और झाड़ियाँ ही थीं हर तरफ! और कुछ नहीं! बस दीवारें ही शेष थीं, उन दीवारों में भी पीपल के पौधे सेंध लगा चुके थे!
"ये क्रिया-स्थल है बाबा अमली का!" मैंने हाथ जोड़े!
उन्होंने भी हाथ जोड़े!
"क्या हाल हो गया" वे बोले,
"बाबा अमली की तरह से मृत है!" मैंने कहा,
"निःसंदेह" वे बोले,
हमने उसके आसपास देखा, सारा स्थान खाली था, कोई नहीं आता था यहां अब!
'एक समय सोचो, कैसा रहा होगा!" मैंने कहा,
"मसान नाचता होगा यहां!" वे बोले,
"सच में!" मैंने कहा,
"बाबा अमली का स्थान कैसा होगा उस समय, अंदाजा नहीं लगाया जा सकता!" वे बोले,
"हाँ, वैसे साधक का अंदाजा लगाना असम्भव ही है" मैंने कहा,
तभी पीपल के पेड़ पर बैठी कोयल बोली! बहुत मधुर थी उसको बोली!
फिर कुछ अन्य पक्षी भी! सभी अपनी अपनी भाषा बोल रहे थे!
कुछ अन्य पेड़ भी लगे थे वहां, जिन पर फल आये हुए थे, जंगली फल, कुछ लोकाट के भी थे, मैं आगे गया, एक शाख पकड़ी और उसके झुकाया, एक गुच्छा तोड़ लिया लोकाट का, पका सा! और छोड़ दी शाख, शाक्ष छोड़ी तो उस पर जमा पानी भिगो गया मुझे! मैंने रुमाल से अपना चेहरा साफ़ किया, हाथ भी!
"ये लो" मैंने उनको दिया वो गुच्छा,
"लोकाट?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"धो लेते हैं इन्हे" वे बोले,
और अब हम वापिस चले वहाँ से, अपने कमरे की तरफ...
कक्ष में आये तो बैठे, मैंने पानी पिया, शर्मा जी ने भी पिया, मैंने अपने जुराब उतारे और जूतों में घुसेड़ दिए, शर्मा जी अपने जुराब उतार रहे थे, उन्होंने भी अपने जुराब जूतों में घुसेड़ दिए, और पाँव ऊपर करके बैठ गए!
"मुझे तो सौ वर्ष से भी अधिक आयु लगी बाबा की" वे बोले,
"हाँ, मुझे भी" मैंने कहा,
"बेचारे" वे बोले,
"उनको खेमा का ग़म साल रहा है शर्मा जी, आज तक" मैंने कहा,
"हाँ, वो इसलिए कि वो कुछ नहीं कर सके" वे बोले,
"यही कारण है" मैंने कहा,
"जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ" वे बोले,
"हुआ तो बहुत ही बुरा" मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने बीड़ी निकाली, मुझसे पूछा, मैंने मना किया, सो अपने लिए लगा ली उन्होंने,
"लेकिन एक बात तो बताइये?" वे बोले,
"पूछो?" मैंने कहा,
"रमास का पेड़?" वे बोले,
उनका मैं आशय समझ गया! उसको तो दो-ढाई वर्ष चाहियें रोपने के लिए! ये बात तो सोची ही नहीं थी! या फिर इसका भी प्रबंध कर रखा था बाबा अमर नाथ और बाबा गिरि ने?
"हाँ, सवाल अच्छा है, वाज़िब है!" मैंने कहा,
"अब बाबा आएं तो ही बताएं" वे बोले,
"हाँ, मैं खुद ही पूछ लूँगा" मैंने कहा,
"क्योंकि दो-ढाई साल तो बहुत लम्बा समय है" वे बोले,
"सही में" मैंने कहा,
तभी हरकिशन आया अंदर, कुछ खाने आदि के लिए पूछा उसने, अभी भूख नहीं थी, तो मना कर दिया, वैसे भी खाने की इच्छा नहीं थी तब,
"देख लो, एक ऐसा साधक जो विरला है, उसका हाल!" वे बोले,
"सच कहा" मैंने कहा,
"ये प्रेम-मोह यही है असली बंधन" वे बोले,
"हाँ, ऐसे नहीं टूट पाते ये" मैंने कहा,
कुछ देर अपने अपने ढंग से सोचते रहे हम!
मैं उठा फिर, चप्पल पहनीं और बाहर चला गया, बाहर का माहौल देखा, धूप खिली हुई थी, तितलियाँ आदि अपने अपने काम पर लगी थीं! महिलायें भी पानी भर रही थीं, कुछ वहीँ कपड़े धो रही थीं, कुछ अन्य कामों में लगी थीं, कुछ पुरुष भी अपने अपने कामों में लगे थे, दूर एक जगह गाय-भैंस बंधी थीं, बकरियां और उनके बच्चे भी वहीँ उछलकूद मचा रहे थे! ठेठे देहाती माहौल था, और ये सब देखकर लगता था कि वो डेरा जैसे अपना रूप खो चुका है, अब वहाँ कोई क्रियाएँ आदि नहीं होतीं, वो डेरा अब गए वक़्त का ही प्रतीक है, न जाने कब से ऐसे ही सोया पड़ा है! इन वर्षों में किसी ने नहीं जगाया है उसको! दूर एक जगह एक बाड़ा सा बना था, वहां बड़े बड़े पीपल के पेड़ लगे थे, उन्ही पेड़ों के बीच में एक स्थान और था, अब उसकी छत नहीं बची थी, मात्र दीवारें ही थीं, कुछ लोहे के जंग लगे गार्टर वहीँ पड़े थे, अभी मैं देख ही रहा था कि मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा, ये शर्मा जी थे, वे भी बाहर आ गए थे,
"क्या देख रहे हो आप?" बोले वो,
"वो सामने" मैंने इशारा किया,
"उन पेड़ों को?" वे बोले,
"हाँ, उनके नीचे" मैंने कहा,
"हाँ, कुछ बना हुआ है" वे बोले,
"आओ" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम चल पड़े वहीँ के लिए,
वहाँ पहुंचे,
मैंने गौर से देखा, ये तो एक क्रिया-स्थल था! जो अब वीरान पड़ा था! मिट्टी जम चुकी थी, जंगली पेड़-पौधे और झाड़ियाँ ही थीं हर तरफ! और कुछ नहीं! बस दीवारें ही शेष थीं, उन दीवारों में भी पीपल के पौधे सेंध लगा चुके थे!
"ये क्रिया-स्थल है बाबा अमली का!" मैंने हाथ जोड़े!
उन्होंने भी हाथ जोड़े!
"क्या हाल हो गया" वे बोले,
"बाबा अमली की तरह से मृत है!" मैंने कहा,
"निःसंदेह" वे बोले,
हमने उसके आसपास देखा, सारा स्थान खाली था, कोई नहीं आता था यहां अब!
'एक समय सोचो, कैसा रहा होगा!" मैंने कहा,
"मसान नाचता होगा यहां!" वे बोले,
"सच में!" मैंने कहा,
"बाबा अमली का स्थान कैसा होगा उस समय, अंदाजा नहीं लगाया जा सकता!" वे बोले,
"हाँ, वैसे साधक का अंदाजा लगाना असम्भव ही है" मैंने कहा,
तभी पीपल के पेड़ पर बैठी कोयल बोली! बहुत मधुर थी उसको बोली!
फिर कुछ अन्य पक्षी भी! सभी अपनी अपनी भाषा बोल रहे थे!
कुछ अन्य पेड़ भी लगे थे वहां, जिन पर फल आये हुए थे, जंगली फल, कुछ लोकाट के भी थे, मैं आगे गया, एक शाख पकड़ी और उसके झुकाया, एक गुच्छा तोड़ लिया लोकाट का, पका सा! और छोड़ दी शाख, शाक्ष छोड़ी तो उस पर जमा पानी भिगो गया मुझे! मैंने रुमाल से अपना चेहरा साफ़ किया, हाथ भी!
"ये लो" मैंने उनको दिया वो गुच्छा,
"लोकाट?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"धो लेते हैं इन्हे" वे बोले,
और अब हम वापिस चले वहाँ से, अपने कमरे की तरफ...