Re: 2012- pilibheet ki ghatna.(वर्ष २०१२ पीलीभीत की एक घटना
Posted: 19 Aug 2015 13:12
मेरी समझ में झाग बन चुके थे, झाग भी ऐसे, जिनमे प्रश्नों के बुलबुले बनते तो स्थिर ही हो जाते, फूटते नहीं थे! और तब तक मेरे दिमाग में उछलकूद मची रहती थी! एक कारण स्पष्ट था इसके लिए, वो ये, कि बाबा अमली ने सिद्ध किया तृप्तिका को, अथवा कौमुदी को, जब वो सिद्ध हुई होगी, तो सबसे पहले अपने साधक की काय को निरोगी बनाएगी, लम्बी आयु प्रदान करेगी, आदि आदि, लेकिन बाबा की तस्वीर देख कर तो ऐसा लगता था कि जैसे वो कोई श्राप भोग रहे हैं, जैसे उस तृप्तिका ने श्राप दिया हो उन्हें! अब जो भी बात थी, वो या तो अभी पता चलने वाली थी, या फिर नैनीताल जाकर ही पता चलती! और नैनीताल यहाँ से दो घंटे की दूरी पर था! लेकिन बारिश ने रास्ते डुबो के रख दिए थे!
"बाबा?" मैंने सवाल किया,
"हाँ?" बोले वो,
"जब उन्होंने सिद्ध किया उस कौमुदी अथवा तृप्तिका को, तो वो तो आजीवन सेवा करती है, बाबा की ऐसी हालत क्यों है?" मैंने पूछा,
"इसी क्यों का उत्तर मैं आपको दूंगा" वो बोले,
"कब?" मैंने पूछा,
"नैनीताल पहुँच कर" वे बोले,
फिर से स्पष्ट नहीं बताया था उन्होंने!
"यहां क्यों नहीं?" मैंने पूछा,
"वहाँ कुछ दिखाना है आपको" वे बोले,
अब मैं चुप था, अब बोलने से कुछ फायदा ही नहीं था, अब सबकुछ वही पता चलना था, इसीलिए कुछ नहीं बोला मैं!
मैं उठा,
"रुको" बोले बाबा,
मैं रुक गया,
"अभी बैठो" वे बोले,
मैं फिर से बैठ गया,
कविश ने बची-खुची बोतल भी उड़ेल दी गिलासों में, सो अब वो खाली किये! कलेजी के जो टुकड़े बाकी थे, वे आपस में बाँट लिए!
"कभी नैनीताल जाना हुआ है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, कई बार" मैंने कहा,
"बाबा अमली के पास?" पूछा उन्होंने,
"एक बार कोई आठ साल पहले, या फिर सात" मैंने कहा,
"उनसे मुलाक़ात हुई थी?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर कौन मिला था?" उन्होंने पूछा,
वो तो ऐसे पूछ रहे थे जैसे सभी को नाम से और चेहरे से जानते हों सभी को! जैसे वो ही उस डेरे के संचालक हों!
"बाबा शंकर से" मैंने कहा,
"अच्छा, बाबा शंकर" वो बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब बाबा शंकर नेपाल में हैं" बताया उन्होंने,
"अच्छा" मैंने कहा,
"तब बाबा अमली नहीं थे नैनीताल में, वो गोरखपुर में थे" वे बोले,
"आपके यहां" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मैं जानता था, तभी बाबा अमर नाथ उनके लिए ये भागदौड़ कर रहे थे! बाबा अमली और बाबा अमर नाथ, जानकार थे एक दूसरे के, काफी लम्बे समय से!
तभी वो औरत अंदर आई, और वो लोटा ले गयी उठाकर, कविश उसके पीछे गया, कुछ बात हुई उनमे और फिर कविश आ बैठा वहीँ!
"अब आप आराम कीजिये, मौसम खुलते ही हम चलेंगे नैनीताल" बोले बाबा,
हम खड़े हो गए, बाबा गिरि वहीँ बैठे रह गए, मैं और शर्मा जी, नमस्कार करके बाहर चले आये! बत्ती थी नहीं, बस हम चलते रहे अंदाज़े से, दायें मुड़े तो उसी सहायक के कमरे से रौशनी आती दिखी, वहीँ मुड़ लिए, उस से दायें होते ही, गैलरी में हमारा कमरा था! आ गए हम वहाँ! डिबिया जल रही थी अभी तक, वैसे तेल बहुत था उसमे! मैंने जूते खोले, और लेट गया बिस्तर पर! शर्मा जी गुसलखाने चले गए!
वापिस आये वो, तो मैं तकिया लगाए बैठा था बिस्तर पर,
"क्या पहेलियाँ बुझा रहे हैं ये?" बोले वो,
"पता नहीं, क्या माज़रा है" मैंने कहा,
"पूछो तो बता दूंगा, बता दूंगा" वो बोले, जूते उतारते हुए,
"वैसे एक बात अजीब है" मैंने कहा,
"वो क्या?" उन्होंने पूछा,
"बाबा अमली के साथ जो भी हुआ है, उस कौमुदी अथवा तृप्तिका के कारण ही हुआ है, और ये मेरे जीवन का पहला ऐसा वाक़या होगा जब ऐसा हुआ हो, यहाँ तक कि अंत-समय में तो कर्ण-पिशाचिनी भी दुखी हो जाया करती है" मैंने कहा,
"हाँ, ये है रहस्य" वे बोले,
"अब ये सब वहीँ जाकर खुलेगा" मैंने कहा,
तभी बिजली कड़की!
"वो तो तब खुलेगा जब ये खुलेगा!" वो बोले,
"हाँ! ये तो पीछे ही पड़ा है!" मैंने कहा,
"अब सुबह देखी जायेगी, मुझे तो आ रही है नींद!" वे बोले,
"हाँ, सुबह ही देखते हैं" मैंने कहा,
अब वो लेटे तो मैं भी अपनी चादर ओढ़ के लेट गया था! मच्छर आ धमके थे तो मुंह ढकना पड़ा चादर से! और तब चैन की बंसी बजाई हमने! हम सो गए थे!
सुबह हुई! हम उठे! घड़ी देखी, तो आठ बजे थे! निवृत हुए, आज बारिश नहीं थी! मौसम खुला तो नहीं था लेकिन बरसात होगी, ऐसा भी नहीं लगा रहा था, आकाश में कहीं कहीं नीला आकाश दिख रहा था! दो दिन तो ताबड़तोड़ बरसात हुई थी!
"आज तो साफ़ लगता है!" शर्मा जी बोले,
"हाँ! आज साफ़ है" मैंने कहा,
तभी सहायक आया, चाय और कचौड़ियां लेकर! भूख लगी थी वैसे ही, रात को भोजन तो किया नहीं था, इसीलिए कचौड़ियां ही खेंच मारीं चाय के साथ! लेकिन मिर्च बहुत थी उनमे! लाल-मिर्च भी और हरी मिर्च भी! लेकिन स्वाद में बढ़िया थीं!
करीब नौ बजे बत्ती आई, हमने अपने अपने मोबाइल्स लगाए चार्जिंग में! न जाने कब चली जाए, पता नहीं था! दोपहर आते आते, बिजली चली गयी, और मौसम फिर से करवटें बदलने लगा! आकाश में फिर से बाद छा गए थे!
अब साफ़ था, कि अब बारिश हो कर ही रहेगी! और यही हुआ, चार बजे रिमझिम शुरू हो गयी! बादल तो नहीं गरजे, लेकिन बारिश अच्छी-खासी होने लगी थी!
थोड़ी देर बाद कविश और बाबा गिरि आये हमारे पास, कविश ने दवा मांगी, शर्मा जी ने दवा दे दी, बाबा का बुखार नहीं टूट रहा था, और अब कमज़ोरी ने जकड़ लिया था उन्हें बहुत! शर्मा जी ने दवा दे दी, कविश चला गया, बाबा गिरि हमारे साथ ही बैठे रहे!
"यहाँ तो मेघराज स्वयं ही आ धमके हैं बाबा!" मैंने कहा,
"देख लो! क्या हाल है" बोले वो,
और तभी बादल गरज उठे!
"यहां बाढ़ तो नहीं आती?" मैंने पूछा,
"नहीं, कभी नहीं आई" बताया उन्होंने,
पीछे बरसाती नदियां उफान पर थीं, बड़ी नदी में भी पानी बढ़ ही रहा होगा!
"एक बात बताइये बाबा?" मैंने कहा,
"पूछो" बोले बाबा,
"आप जानते हैं बाबा अमली को?" मैंने पूछा,
"हाँ, जानता हूँ" वे बोले,
"कब से?" मैंने पूछा,
"बरसों हो गए" बोले वो,
"सच में उनकी तक़लीफ़ है क्या?" मैंने पूछा,
"आप खुद देख लेना" वे बोले,
"वो तो देख ही लूँगा, आप बताइये तो सही?" मैंने कहा,
"अनुत्क्लन!" वे बोले,
"क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ! वे मुक्त नहीं हो रहे हैं इस देह-बंधन से!" वे बोले,
ये तो बड़ी ही हैरत वाले बात थी! वो उत्कलन से दूर थे! ऐसा तो मैंने कभी नहीं सोचा था, न कभी सुना ही था! मृत्यु भी नहीं आ पा रही थी! कौन रोक रहा था? क्या वो कौमुदी??
मुझे फिर भी उनका ये उत्तर उत्तराभास से पूर्ण ही लगा! ऐसा कैसे सम्भव है!!
"क्या ये सत्य है?" मैंने पूछा,
"असत्य क्यों बोलूंगा?" उन्होंने कहा,
एक के बाद एक हथौड़ा पड़े जा रहा था सर में!
पहले कौमुदी अथवा तृप्तिका!
फिर बाबा अमली का उसे सिद्ध करना!
फिर बाबा अमली का इस हाल में होना!
और अब ये अनुत्क्लन!
आत्मा के उत्कलन से दूर पड़े थे बाबा अमली!!
"क्या ये सम्भव है?" मैंने पूछा,
"असम्भव क्या है इस संसार में?" उन्होंने मुझसे ही प्रश्न किया!
अब ये तो सच है! असम्भव तो कुछ भी नहीं!
"बाबा?" मैंने सवाल किया,
"हाँ?" बोले वो,
"जब उन्होंने सिद्ध किया उस कौमुदी अथवा तृप्तिका को, तो वो तो आजीवन सेवा करती है, बाबा की ऐसी हालत क्यों है?" मैंने पूछा,
"इसी क्यों का उत्तर मैं आपको दूंगा" वो बोले,
"कब?" मैंने पूछा,
"नैनीताल पहुँच कर" वे बोले,
फिर से स्पष्ट नहीं बताया था उन्होंने!
"यहां क्यों नहीं?" मैंने पूछा,
"वहाँ कुछ दिखाना है आपको" वे बोले,
अब मैं चुप था, अब बोलने से कुछ फायदा ही नहीं था, अब सबकुछ वही पता चलना था, इसीलिए कुछ नहीं बोला मैं!
मैं उठा,
"रुको" बोले बाबा,
मैं रुक गया,
"अभी बैठो" वे बोले,
मैं फिर से बैठ गया,
कविश ने बची-खुची बोतल भी उड़ेल दी गिलासों में, सो अब वो खाली किये! कलेजी के जो टुकड़े बाकी थे, वे आपस में बाँट लिए!
"कभी नैनीताल जाना हुआ है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, कई बार" मैंने कहा,
"बाबा अमली के पास?" पूछा उन्होंने,
"एक बार कोई आठ साल पहले, या फिर सात" मैंने कहा,
"उनसे मुलाक़ात हुई थी?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर कौन मिला था?" उन्होंने पूछा,
वो तो ऐसे पूछ रहे थे जैसे सभी को नाम से और चेहरे से जानते हों सभी को! जैसे वो ही उस डेरे के संचालक हों!
"बाबा शंकर से" मैंने कहा,
"अच्छा, बाबा शंकर" वो बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब बाबा शंकर नेपाल में हैं" बताया उन्होंने,
"अच्छा" मैंने कहा,
"तब बाबा अमली नहीं थे नैनीताल में, वो गोरखपुर में थे" वे बोले,
"आपके यहां" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
मैं जानता था, तभी बाबा अमर नाथ उनके लिए ये भागदौड़ कर रहे थे! बाबा अमली और बाबा अमर नाथ, जानकार थे एक दूसरे के, काफी लम्बे समय से!
तभी वो औरत अंदर आई, और वो लोटा ले गयी उठाकर, कविश उसके पीछे गया, कुछ बात हुई उनमे और फिर कविश आ बैठा वहीँ!
"अब आप आराम कीजिये, मौसम खुलते ही हम चलेंगे नैनीताल" बोले बाबा,
हम खड़े हो गए, बाबा गिरि वहीँ बैठे रह गए, मैं और शर्मा जी, नमस्कार करके बाहर चले आये! बत्ती थी नहीं, बस हम चलते रहे अंदाज़े से, दायें मुड़े तो उसी सहायक के कमरे से रौशनी आती दिखी, वहीँ मुड़ लिए, उस से दायें होते ही, गैलरी में हमारा कमरा था! आ गए हम वहाँ! डिबिया जल रही थी अभी तक, वैसे तेल बहुत था उसमे! मैंने जूते खोले, और लेट गया बिस्तर पर! शर्मा जी गुसलखाने चले गए!
वापिस आये वो, तो मैं तकिया लगाए बैठा था बिस्तर पर,
"क्या पहेलियाँ बुझा रहे हैं ये?" बोले वो,
"पता नहीं, क्या माज़रा है" मैंने कहा,
"पूछो तो बता दूंगा, बता दूंगा" वो बोले, जूते उतारते हुए,
"वैसे एक बात अजीब है" मैंने कहा,
"वो क्या?" उन्होंने पूछा,
"बाबा अमली के साथ जो भी हुआ है, उस कौमुदी अथवा तृप्तिका के कारण ही हुआ है, और ये मेरे जीवन का पहला ऐसा वाक़या होगा जब ऐसा हुआ हो, यहाँ तक कि अंत-समय में तो कर्ण-पिशाचिनी भी दुखी हो जाया करती है" मैंने कहा,
"हाँ, ये है रहस्य" वे बोले,
"अब ये सब वहीँ जाकर खुलेगा" मैंने कहा,
तभी बिजली कड़की!
"वो तो तब खुलेगा जब ये खुलेगा!" वो बोले,
"हाँ! ये तो पीछे ही पड़ा है!" मैंने कहा,
"अब सुबह देखी जायेगी, मुझे तो आ रही है नींद!" वे बोले,
"हाँ, सुबह ही देखते हैं" मैंने कहा,
अब वो लेटे तो मैं भी अपनी चादर ओढ़ के लेट गया था! मच्छर आ धमके थे तो मुंह ढकना पड़ा चादर से! और तब चैन की बंसी बजाई हमने! हम सो गए थे!
सुबह हुई! हम उठे! घड़ी देखी, तो आठ बजे थे! निवृत हुए, आज बारिश नहीं थी! मौसम खुला तो नहीं था लेकिन बरसात होगी, ऐसा भी नहीं लगा रहा था, आकाश में कहीं कहीं नीला आकाश दिख रहा था! दो दिन तो ताबड़तोड़ बरसात हुई थी!
"आज तो साफ़ लगता है!" शर्मा जी बोले,
"हाँ! आज साफ़ है" मैंने कहा,
तभी सहायक आया, चाय और कचौड़ियां लेकर! भूख लगी थी वैसे ही, रात को भोजन तो किया नहीं था, इसीलिए कचौड़ियां ही खेंच मारीं चाय के साथ! लेकिन मिर्च बहुत थी उनमे! लाल-मिर्च भी और हरी मिर्च भी! लेकिन स्वाद में बढ़िया थीं!
करीब नौ बजे बत्ती आई, हमने अपने अपने मोबाइल्स लगाए चार्जिंग में! न जाने कब चली जाए, पता नहीं था! दोपहर आते आते, बिजली चली गयी, और मौसम फिर से करवटें बदलने लगा! आकाश में फिर से बाद छा गए थे!
अब साफ़ था, कि अब बारिश हो कर ही रहेगी! और यही हुआ, चार बजे रिमझिम शुरू हो गयी! बादल तो नहीं गरजे, लेकिन बारिश अच्छी-खासी होने लगी थी!
थोड़ी देर बाद कविश और बाबा गिरि आये हमारे पास, कविश ने दवा मांगी, शर्मा जी ने दवा दे दी, बाबा का बुखार नहीं टूट रहा था, और अब कमज़ोरी ने जकड़ लिया था उन्हें बहुत! शर्मा जी ने दवा दे दी, कविश चला गया, बाबा गिरि हमारे साथ ही बैठे रहे!
"यहाँ तो मेघराज स्वयं ही आ धमके हैं बाबा!" मैंने कहा,
"देख लो! क्या हाल है" बोले वो,
और तभी बादल गरज उठे!
"यहां बाढ़ तो नहीं आती?" मैंने पूछा,
"नहीं, कभी नहीं आई" बताया उन्होंने,
पीछे बरसाती नदियां उफान पर थीं, बड़ी नदी में भी पानी बढ़ ही रहा होगा!
"एक बात बताइये बाबा?" मैंने कहा,
"पूछो" बोले बाबा,
"आप जानते हैं बाबा अमली को?" मैंने पूछा,
"हाँ, जानता हूँ" वे बोले,
"कब से?" मैंने पूछा,
"बरसों हो गए" बोले वो,
"सच में उनकी तक़लीफ़ है क्या?" मैंने पूछा,
"आप खुद देख लेना" वे बोले,
"वो तो देख ही लूँगा, आप बताइये तो सही?" मैंने कहा,
"अनुत्क्लन!" वे बोले,
"क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ! वे मुक्त नहीं हो रहे हैं इस देह-बंधन से!" वे बोले,
ये तो बड़ी ही हैरत वाले बात थी! वो उत्कलन से दूर थे! ऐसा तो मैंने कभी नहीं सोचा था, न कभी सुना ही था! मृत्यु भी नहीं आ पा रही थी! कौन रोक रहा था? क्या वो कौमुदी??
मुझे फिर भी उनका ये उत्तर उत्तराभास से पूर्ण ही लगा! ऐसा कैसे सम्भव है!!
"क्या ये सत्य है?" मैंने पूछा,
"असत्य क्यों बोलूंगा?" उन्होंने कहा,
एक के बाद एक हथौड़ा पड़े जा रहा था सर में!
पहले कौमुदी अथवा तृप्तिका!
फिर बाबा अमली का उसे सिद्ध करना!
फिर बाबा अमली का इस हाल में होना!
और अब ये अनुत्क्लन!
आत्मा के उत्कलन से दूर पड़े थे बाबा अमली!!
"क्या ये सम्भव है?" मैंने पूछा,
"असम्भव क्या है इस संसार में?" उन्होंने मुझसे ही प्रश्न किया!
अब ये तो सच है! असम्भव तो कुछ भी नहीं!