2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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sexy
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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:26

हम चले जा रहे थे आगे! रास्ते में जंगली बिल्लियाँ दौड़ी जा रही थीं! सीविट जाति की बिल्लियाँ थीं वो! लड़ने में बहुत खूंखार होती हैं, इनसे बच के रहना ही सबसे बढ़िया बचाव है! सामने आते ही गुर्राने लगी हैं और सीधा, अगर छेड़ो तो, बचाव में अपने, चेहरे पर उछल कर कूद जाति हैं, दांत तो छोड़िये, उनके पंजे ही ऐसा घाव बना देते हैं कि टाँके भी त्वचा को खींच खींच के लगाए जाते हैं! इसीलिए इनसे दूर रहना चाहिए! मैंने ऐसे घाव देखे हैं, बहुत बुरी तरह से पंजे मारा करती हैं ये! वे जब भी आड़े आतीं, हम ठहर जाते, और हाथ में रुमाल ले लिया करते, इसे वे हथियार समझती हैं, भाग जातीं हैं वहाँ से!
"एक किलोमीटर चल लिए होंगे?" वे बोले,
"हाँ, लगता तो है" मैंने कहा,
"तक गया मैं तो!" वे बोले,
"वो सामने पेड़ है, वहाँ रुकते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
अब वो पेड़ आया तो हम रुक गए वहाँ, हाथ-पाँव पोंछें रुमाल से अपने और फिर हम दोनों ने ही पानी पिया, दरअसल रास्ता बहुत बेकार था, झाड़-झंखाड़ भरे पड़े थे, कभीकभार तो कांटे भी घुस जाया करते थे कपड़ों में!
"किसी समय में ये जगह ऐसी वीरान नहीं होगी" मैंने कहा,
"हाँ, अब तो वीरान है!" वे बोले,
"हाँ, वो नदी यहीं कहीं होनी चाहिए" मैंने पीछे देखते हुए कहा,
"हाँ, रास्ते में पड़ी हो, अब तो नामोनिशान भी नहीं है" वे बोले,
"हाँ, अब कुछ भी नहीं" मैंने कहा,
हमने थोड़ा आराम किया वहां, कुछ देर सुस्ताए, और फिर आगे बढ़ चले! आगे पहुंचे तो काफी सारे गड्ढों वाले स्थान मिले वहाँ! वो प्राकृतिक गड्ढे ही लगते थे, हम आराम आराम से वहाँ से निकले! आखिर में हम कोई पौने दो किलोमीटर चल लिए! पहुँच गए वहां! वहाँ शर्मा जी की नज़र पड़ी एक ख़ास जगह!
"वो एक कुआँ लगता है" वे बोले,
"हाँ, ऐसा ही लगता है" मैंने कहा,
"चलो ज़रा" वे बोले,
"चलो" मैंने कहा,
अब हम चले वहाँ के लिए!
वो एक कुआँ ही था, अब सूख गया था, लेकिन उसकी दीवारें अभी भी मज़बूती से टिकी हुईं थीं! लखौरी ईंटों से बना था वो कुआँ! लेकिन और कुछ नहीं था वहाँ! कोई खंडहर नहीं, कोई स्तम्भ नहीं, कोई भग्नावशेष, कुछ नहीं! बस बियाबान जंगल! कुँए में भी नीचे अँधेरा ही था, वक़्त ने उसको अब भुला दिया था! आने वाले ज़माने में, आधुनिकीकरण के कारण, ये भी अब हमेशा के लिए खो जाने वाला था! हमने उसके आसपास खूब खोजबीन की, लेकिन कुछ नहीं मिला हमें! जैसे सबकुछ ज़मीन ने लील लिया हो अपने अंदर!
"यहां तो कुछ नहीं है" मैंने कहा,
"आप एक बार देख लगा लो" वे बोले,
"लगाता हूँ" मैंने कहा,
और मैंने तभी कलुष-मंत्र पढ़ लिया, नेत्र खोले, और दूर दूर तक देखा, केवल पत्थर और मिट्टी के सिवाय कुछ नहीं था वहाँ!
"पता चला?" उन्होंने पूछा,
"कुछ नहीं है" मैंने कहा,
"वापिस चलें?" वे बोले,
"चलना ही होगा" मैंने कहा,
और हम चल पड़े वापिस! चलने से पहले पानी पिया था हमने!
हम वापसी चले, एक जगह थोड़ा रुक कर सुस्ताए, पांवों में से गर्मी निकलने लगी थी! मैंने वहाँ अपने जूते और जुराब उतार दिए थे, तब जाकर पांवों आराम पड़ा था!
आखिर में थके-मांदे से हम वापिस आ गए! खाली हाथ! कुछ हाथ नहीं लगा, न ख़ाक़ न धूर! थकावट हुई सो अलग!
अब आराम किया हमने वहां! लेटे तो नहीं, हाँ कमर लगाने के लिए पेड़ मिल गए थे! किसी तरह से हमने अपनी कमर सीधी की! करीब घंटे भर आराम किया था हमने!
"अब?" वे बोले,
"अब! अब एक काम करते हैं!" मैंने कहा,
"क्या?" वे बोले,
"दिन में तो कई बार जांच कर ली, अब आज रात को जांच करते हैं" मैंने कहा,
"ये ठीक है" वे बोले,
"चलो फिर, रात के लिए सामान ले आते हैं, रात में यहां ठंड पड़ती होगी, खेस या कंबल ले आते हैं" मैंने कहा,
"चलो, ये ठीक है" वे बोले,
हमने वो बीजक उठाया, और निकल लिए वहाँ से!
गाड़ी तक पहुंचे, पत्थर देख वे चौंके!
अब समझाया शर्मा जी ने उस पत्थर का महत्व! वे सीधे सादे व्यक्ति हैं दोनों ही, समझ नहीं पाये! खैर, अब शर्मा जी ने उनको आज रात में हम जांच करेंगे वहाँ, बताया, वे माना गए! ऐसा सामान सुरेश जी के यहां पड़ा था, एक फोल्डिंग पलंग, और कंबल आदि भी! हम वही सब लेने, चल दिए उनके घर!
घर पहुंचे, आराम किया, चाय पी और कुछ हल्का-फुल्का खाया वहाँ, वो बीजक भी वहीँ रख दिया संभाल कर! अभी न जाने क्या रहस्य थे उसके पेट में!
मित्रगण!
हम सात बजे फिर से वहां वापिस आ गए! तो कंबल, चादर, टोर्च आदि ले आये थे, सुरेश जी ने कुछ खाना भी बंधवा दिया था, भूख लगने पर, हम खा सकते थे वो खाना!
कोई आठ बजे, हम उठे, अँधेरा घिर चुका था, हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा था! अचानक ही कुछ आवाज़ें हुईं वहाँ आसपास, हम हुए चौकस!
"कौन हो सकता है?" वे बोले,
"कोई जानवर होगा" मैंने कहा,
"ऐसी आवाज़?" वे बोले,
"सियार होंगे, रात को ही निकलते हैं झुण्ड में" मैंने कहा,
अब मैंने टोर्च जलायी, तो सामने कुछ आँखें चमकीं!
"हाँ! सियार ही हैं" मैंने कहा,
मैंने एक पत्थर उठाया, और फेंक के मारा सामने, वे भाग गए फिर वहाँ से!
"भाग गए!" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
अब शर्मा जी ने अपना सुट्टा लगा लिया! हम वापिस अपने पलंग पर आ लेटे थे! अभी बातें ही कर रहे थे कि एक आवाज़ आई बहुत ज़ोर से! 'होम!"
हम चौंक पड़े!
आवाज़ एकदम साफ़ थी!
हमारे कान श्वानों की तरह खड़े हो गए! और लगे सामने की तरफ!
"होम!" फिर से आवाज़ आई!
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम चल पड़े!
"होम!" फिर से आवाज़ आई!
टोर्च मेरे हाथ में थी, मैंने वहीँ रौशनी डाली! और उस से पहले, शर्मा जी के शरीर को मन्त्र से पोषित और रक्षित कर दिया! यहाँ कुछ हो जाए तो बहुत बड़ी आफत थी!
"होम!" फिर से आवाज़ आई!
आवाज़ दमदार और रौबीली थी!
"वो गड्ढा! वहीँ से आ रही है आवाज़ ये!" मैंने कहा,
और हम भाग लिए वहाँ के लिए!
और जैसे ही पहुंचे, ठिठक गए हम!
गड्ढे में से आग निकल रही थी! लपटें उठ रही थीं!
"आप यहीं रुको" मैंने कहा,
और मैं आगे गया!
मैंने एक लकड़ी ली, और उस गड्ढे में फेंकी, भक्क से लकड़ी जल उठी!
"होम!" फिर से आवाज़ आई!
"कौन है?" मैंने आवाज़ दी!
जैसे ही आवाज़ दी, आग बंद!
अब शर्मा जी आगे आ गए!
"ये क्या हुआ?" वे बोले,
"देखते रहो!" मैंने कहा,
मुझे उम्मीद थी कि कुछ न कुछ तो होगा ही वहाँ!
और वही हुआ!
भम्म से ज़मीन हिली! और हम दोनों वहीँ पछाड़ खा गए! टोर्च गिर गयी हाथ से! मैं उठा, और दौड़कर, वो टोर्च उठायी!
"चोट तो नहीं लगी?" मैंने पूछा उनसे,
"नहीं" वे बोले,
हम मिट्टी पर गिरे थे, बच गए थे!
मैंने एक चुटकी मिट्टी ली! मंत्र पढ़ा, हाज़िर-मंत्र! और फेंक दी चुटकी गड्ढे में! कड़ूम-कड़ूम की सी आवाज़ हुई! और भक्क से आग फिर निकल पड़ी! हम भागे पीछे! मेरा मंत्र काट दिया गया था!
"आप पीछे जाओ!" मैंने कहा!
मेरी बात कान पर टाल गए वो! नहीं गए!
"पीछे ही रहना!" मैंने कहा,
और अब मैं आगे बढ़ा!
मिट्टी की एक चुटकी ली, मंत्र पढ़ा, और फेंक दी चुटकी गड्ढे में!
आग बंद!
और तभी कुछ बूँदें सी निकली बाहर! एक छोटी सी पिचकारी सी! और गिरी मुझ पर! ये खून था!! मैंने वो खून साफ़ किया, खून बहुत गाढ़ा था! बहुत गाढ़ा!
"कौन है?" मैंने फिर से कहा,
कोई जवाब नहीं आया!
फिर से, अचानका ज़मीन हिली! और इस बार हम संभल गए!
ढप्प! ढप्प!
हमारे पीछे कुछ गिरा!
हम पलटे पीछे, टोर्च की रौशनी में देखा, तो ये कलेजे थे! इंसानी कलेजे! कोई आठ!
अब जैसे कोई चाहता था कि या तो हम यहां से चले जाएँ! या फिर डट जाएँ!
और डटना ही तो था हमें!
हम डट गए!!

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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:28

डटना तो था ही हमें! और हम डटने के लिए ही तो आये थे! अब चाहे कुछ भी हो, ये रहस्य तो सुलझाना ही था! अब चाहे कुछ भी हो! अभी तक यहां प्रेतात्माएँ तो मिली थीं, लेकिन किसी से भी कोई अहम जानकारी नहीं मिल पायी थी! हम, कुछ सटीक जानकारी मिले, हाथ-पाँव चला रहे थे! अभी तक तो ये धूल में लाठी भांजना ही था! तुक्के भी तो काम नहीं आ रहे थे! खुद ही सवाल करते और खुद ही उसका जवाब देते! कि ऐसा हुआ होगा, और वैसा हुआ होगा! लेकिन असल में क्या हुआ होगा, ये जवाब अभी बहुत दूर था!
हाँ, तो वो गड्ढा हमें खेल दिखा रहा था! यहीं से कहानी आरम्भ हुई थी, और यही से बाबा मोहन के प्राण गए थे! एक बलि तो ले ली थी, दूसरी बलि का इंतज़ार था उसको, और हम इतना आसान चारा तो हरगिज़ न थे! हम लड़ते, भिड़ते और फिर जो होता, वो देखा जाता! मैंने शर्मा जी को अलग खड़ा कर रहा था, ताकि उनको कोई परेशानी नहीं आये, और अब मैं उस गड्ढे का मुआयना कर रहा था! आग बंद थी, मैंने गड्ढे में झाँका, टोर्च की रौशनी में, नीचे तो कुछ नहीं दीख रहा था, बस मिट्टी और पत्थर ही थे! मैं बैठ गया वहां! थोड़ा सतर्क तो था कि यदि आग भड़के तो मैं बचाव कर सकूँ अपना!
मैं टोर्च की रौशनी नीचे तले तक मार रहा था, सहसा मुझे नीचे तले में एक सुरंग सी जाती दिखाई दी, ये सुरंग कोई तीन फ़ीट चौड़ी थी, पहले नहीं दिखी थी हमें ये! मैंने इशारा करके शर्मा जी को बुलाया!
वे दौड़े हुए आये! और मैंने उन्हें बैठने को कहा, वे बैठे,
"वो देखो" मैंने सुरंग पर रौशनी डाली!
"ये तो कोई सुरंग लगती है" वे बोले,
"सुरंग ही है" मैंने कहा,'
"ये कहाँ से आई?" वे बोले,
"पहले नहीं थी, अभी दिखी" मैंने कहा,
अभी मैं बात कर ही रहा था, कि किसी ने उस सुरंग में से अपना सर निकाला, हमें देखा, एक पल को तो मैं भी डर गया था! सोच के देखिये, आप ऐसे देख रहे हों, और कोई उस सुरंग में से अचानक अपना सर निकाल कर, आपको देखे, तो कैसा दृश्य होगा वो! मेरे हाथ से टोर्च गिरते गरते बची! किसी ने सर निकाला था, पल भर के लिए, और अंदर कर लिया था! निःसंदेह वो कोई औरत थी, माथे पर काला टीका था, बाल गुथे हुए थे, नाक में बड़ी सी एक गोल नथनी सी पहन रखी थी, आँखें ख़ौफ़ज़दा थीं उसकी! बस इतना ही देख पाये हम! शर्मा जी तो झटका खा गए थे!
"अब जो कुछ भी है, इस ज़मीन के नीचे ही है!" मैंने कहा,
"हाँ, सच में" वे बोले,
"कल खुदवाते हैं इसे" मैंने कहा,
मैंने ऐसा कहा और नीचे उस सुरंग में से किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आई! आवाज़ ऐसी थी कि जैसे कोई मार रहा हो उसको, पिटाई कर रहा हो उसकी!
"कौन है वहाँ?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
बस वही रोने की आवाज़!
और तभी उसी औरत का कटा हुआ सर उस सुरंग में से बाहर आया! उसकी आँखें चढ़ी हुई थीं, जीभ बाहर थी, मांस के लोथड़े जो गर्दन में से निकल रहे थे, अभी भी काँप रहे थे! जैसे अभी काटा गया हो उसका सर! भयानक दृश्य था वो! मैं उसी कटे सर पर रौशनी डाल रहा था, लेकिन वो सर, वहीँ पड़ा था, हमारी साँसें थमी हुई थीं! हम दम साधे उसी कटे सर को देख रहे थे!
और तभी!
तभी सुरंग में से किसी का हाथ निकला, उसके हाथ में एक भाला था, छोटा भाला, जो अक्सर लड़ाई में, सिपाही लेकर चलते थे, फेंकने वाला नहीं! उस हाथ ने, उसका शरीर हमे दिख नहीं रहा था, केवल हाथ, कोहनी तक, अपना भाला उस औरत के सर में भोंक दिया, किसी तरबूज़ में तेज छूटा घोंपा हो, ऐसी आवाज़ आई! और तभी एक ही पल में, उस भाले वाले ने वो सर ऊपर उछाल दिया! वो सर गड्ढे से बाहर गिरा, ठीक मेरी कमर के ऊपर! मैं भीग गया उसके खून से! झट से हटा और खड़ा हो गया! अब वो सर, उस औरत का, वहीँ पड़ा हुआ था, सर से खून बहने लगा था! तभी उस सर की चढ़ी हुई आँखें ठीक हुईं, उसने मुझे घूर के देखा! मेरे तो होश उड़ने वाले थे! शर्मा जी भी मेरे ही करीब खड़े थे! चुपचाप, किसी आशंका को पाले हुए!
उस सर ने मुझे घूर के देखा, लगातार घूरे जा रहा था, और उधर गड्ढे में फिर से आवाज़ हुई! मैं पीछे हटा, और गड्ढे में झाका, उसी औरत के धड़ के कटे हुए टुकड़े नज़र आ रहे थे! हाथ, पाँव, आंतें, टांगें, स्तन सब काट दिए गए थे! खून ही खून लगा था उन टुकड़ों पर! मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं अब क्या करूँ?
"चला जा यहां से!" वो कटा सर बोला!
आवाज़ बहुत गुस्से वाली थी, दांत भींच कर बोला गया था! और तो और, आवाज़ किसी मर्द की थी! और औरत की नहीं!
"कौन है तू?" मैंने पूछा,
"मदना!" वो बोली!
मदना? ये नाम आज पहली बार आया था मेरे सामने!
"कौन मदना?" मैंने पूछा,
बजाय उत्तर देने के, वो दहाड़ मार मार कर हंसने लगा, वो सर!!
"जवाब दे मदना?" मैंने कहा,
उसने आँखें चौड़ी कीं अपनी! और कुल्ला कर दिया खून का हमारे ऊपर! और फिर से हंसने लगा! मैंने झट से अपना चेहरा पोंछा! शर्मा जी ने पोंछा! लेकिन मुझे गुस्सा आ गया था उस पर! मैंने तभी उत्त्वाल-मंत्र का जाप किया! और नीचे बैठ कर, मिट्टी उठा ली! अब वो सर घूमा! न जाने कैसे घूमा! जैसे गेंद ज़मीन पर उछला करती है, ऐसा उछला, और इस से पहले मैं उस पर मिट्टी डालता, वो गड्ढे में उतर गया! मुझे गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वो सर गच्चा दे ही गया था हमें! अब मैंने रौशनी डाली नीचे गड्ढे में, तो अब वहाँ कुछ न था, न वो सर, और न ही वो उस धड़ के कटे टुकड़े!
बड़ी हैरत की बात थी! सुरंग अभी भी वहीँ थी! शर्मा जी मेरे साथ सब देख रहे थे, उनके चेहरे पर खून लगा था, मैंने साफ़ किया रुमाल से, मेरे कानों पर खून लगा था, सो उन्होंने साफ़ कर दिया! और तभी, इसी बीच, गड्ढे में आवाज़ सी हुई! जैसे धरपकड़ चल रही हो! मैंने अपने कान और आँखें वहीँ लगा दिए, गड्ढा कोई दस फ़ीट गहरा था, नहीं तो मैं उतर जाता उसमे, फिर हमारे पास न तो सीढ़ी ही थी, और न ही कोई रस्सी!
"क्या हो रहा है वहाँ?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने वहीँ देखते हुए कहा,
"धरपकड़ सी मची हुई है" वे बोले,
"हाँ, ऐसा ही कुछ" मैंने कहा,
मैंने रौशनी उसी सुरंग पर डाली हुई थी!
और जो हमने देखा अब, वो हमारे पाँव उखाड़ने के लिए बहुत नहीं, बहुत अधिक था! मुझे और शर्मा जो को तो फुरफुरी चढ़ गयी! गड्ढे में भयानक बदबू फ़ैल गयी! जैसे सड़ा हुआ मांस हो वहाँ, कीड़े रेंग रहे हों उसमे! नीचे वही औरत निकली थी सुरंग से! उकडू बैठ गयी थी, हमें ही देख रही थी! हम उसको देख रहे थे, उसने अपने दोनों हाथ पीछे कर रखे थे, वो पलक नहीं पीट रही थी, एकदम नग्न थी, उसके स्तन उसके घुटनों के बीच फंसे थे, गले में कोई माला पहन रखी थी उसने! उसने धीरे धीरे अपने हाथ आगे किये, उसके हाथों में कोई छोटा सा इंसानी कलेजा था, जैसे किसी शि* का हो, उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये, और फिर, वो कलेजा उसने चबाना शुरू कर दिया, वो चबाती जाती, और उसके होंठ, गाल, ठुड्डी, स्तन, उस से टपकते हुए रक्त से नहाते जाते! उबकाई सी आने लगी! मैंने थूका बाहर ही, उस गड्ढे के पास, लेकिन बदबू के मारे हाल खराब हो गया था! शर्मा जी को तो उलटी आ ही गयी थी, वो पेट पकड़ कर, उल्टियाँ कर रहे थे!
मैं नीचे देख ही रहा था कि वो औरत, फिर से सुरंग में घुस गयी! कहाँ गयी, पता नहीं, जी तो चाहा कि गड्ढे में उतर जाऊं! लेकिन साधन न होने के कारण नहीं उतर सकता था!
अब मैं शर्मा जी के पास गया, अब वो सामान्य से लग रहे थे!
"ठीक हो आप?" मैंने पूछा,
उन्होंने इशारे से हाँ कहा,
अभी तक थूक रहे थे वो!
"कुल्ला कर लो" मैंने कहा,
"कर लिया" वे बोले,
उनके पेट की आंतें खिंच गयी थीं मुंह खट्टा हो गया था, इसी कारण से वे लगातार थूक रहे थे!
"आप आराम करो" मैंने कहा,
"नहीं, कोई ज़रूरत नहीं" वे बोले,
"मान जाओ" मैंने कहा,
"मैं ठीक हूँ" वे बोले,
तभी आवाज़ हुई गड्ढे में से!
हम दौड़े उधर!
टोर्च की रौशनी मारी!
नीचे कोई नहीं था उस समय! आवाज़ उसी सुरंग से आ रही थी!
मैंने रौशनी डाली उधर,
कोई नहीं था वहाँ!
अचानक से शर्मा जी ने कुछ देखा!
"वो, वहाँ!" वे बोले,
मैं हकबका गया था! देख तो रहा था लेकिन मुझे दिख नहीं रहा था! शर्मा जी ने टोर्च ली, और फिर वहीँ रौशनी मारी, स्थिर की वहाँ!
"देखा?" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
कोई पिंजर सा था वहाँ, किसी इंसान का, पसलियां थीं वो, लगता था, कोई उसको बाहर धकेल रहा है! क्योंकि मिट्टी बाहर आ रही थी!
तभी हड्डी टूटने की सी आवाज़ आई! और कोई चार-पांच पसलियां टूट गयीं, बाहर निकल आयीं! पसलियां देखकर पता चलता था कि कोई जवान स्त्री या पुरुष का पिंजर है वो!
और तभी एक नर-मुंड बाहर आया!
मैं और शर्मा जी चौंक पड़े!
"कौन है वहाँ?" मैंने कहा,
तो वो धकेला-धकेली बंद हो गयी!
"कौन है?" मैंने फिर से पूछा,
किसी के सुबकने की आवाज़ आई, किसी औरत की!
वो मुंड नीचे की तरफ पड़ा था, खपड़ी ऊपर से खुली हुई थी, उसमे एक बड़ा सा छेद दिख रहा था! लेकिन अभी भी कोई सूत्र हाथ नहीं आया था!
"मदना?" मैंने कहा,
मैंने कहा, और गड्ढे में धुंआ फैला!
हम खांस उठे, और भागे पीछे!
सांस थामी हमने! और फिर से टोर्च की रौशनी में देखा, उधर, रौशनी पड़ी, तो कुछ नज़र आया, कुछ ऐसा कि............

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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:28

को कुछ देखा था, वो ऐसा था कि कोई देख लो तो खाल छोड़ दे अपनी वहीँ कि वहीँ! उस गड्ढे के एकदम पास में कोई खड़ा था, कोई आठ-नौ फ़ीट ऊंचा एक आदमी! हमें तो उस रौशनी में ऐसा ही लग रहा था! हिम्मत करके हम आगे बढ़े, जैसे ही बढ़े, गड्ढे में से आग निकलने लगी! आग निकली तो रौशनी हुई, और रौशनी हुई तो अब वो साफ़ साफ़ दिखने लगा! उसका कद, कोई आठ फ़ीट रहा होगा, लम्बा-चौड़ा, कद्दावर, भारी-भरकम, पहलवान जैसा, और शरीर पर एक लबादा सा पहने हुए, हाथों में बड़े बड़े से कड़े पहने हुए थे, गले में मालाएं धारण की हुईं थीं, एक हाथ में एक बड़ी सी लाठी जैसा बांस था! बांस पर, धारियां खिंची हुई थीं, और बीच बीच में पीतल या सोने का मुलम्मा सा चढ़ाया गया था! दाढ़ी लम्बी थी, काली सफ़ेद, मूंछें घनी थीं, होंठ नहीं दिख रहे थे उसके, कंधे पर एक झोला सा लटका था, बाल बंधे हुए थे, भुजाएं बहुत मज़बूत थी उसकी, आयु में कोई चालीस वर्ष का रहा होगा! मैंने ऐसा पहले भी देखा है, अतः भी तो नहीं था, लेकिन वो कब चोट कर दे, ये भी नहीं पता था, अतः एक एक कदम, सावधानी से और विवेक को आगे रखते हुए लेना था! हम आगे बढ़े, हम तो बौने जैसे लग रहे थे उसके सामने! छाती ऐसी चौड़ी थी कि घोड़े को पकड़ ले तो हिलने भी न दे! उसके कंधे की पेशियाँ उसके सीने को और मज़बूत बना रही थीं!
अब उसमे बीच और हमारे बीच कोई आठ फ़ीट का अंतर रह गया था! उसकी आँखें चमक रही थीं, लाल रंग की आँखें, जैसे बहुत गुस्से में और नशे में हो वो! हवा चल रही थी, हमारे वस्त्र और केश तो हिलते, लेकिन वो जड़ सा खड़ा था, उसका कोई भी वस्त्र नहीं हिल रहा था! अब वो मदद करेगा या भिड़ेगा, नहीं पता था!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
"बताओ?" मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं, बस अपनी लाठी सामने कर दी थी उसने!
"मुझे बताओ, कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"मुझे बुलाया था न तूने?" उसने कहा,
आवाज़ ऐसी कि हमारी पतलूनों की पेटी ढीली हो, टखनों पर आ जाएँ!
"मैंने?" मैंने पूछा,
"हाँ तूने!" वो लाठी ताने बोला!
अब मैं अचरज में पड़ा! मैंने कहाँ बुलाया किसी को? किसको आमंत्रण दिया वहाँ? किसको? और तभी दिमाग की फिरकी घूमी!! हाँ! हाँ! बुलाया था! ये आवाज़ जानी-पहचानी सी है! उस कटे सर की आवाज़!! अब जान गया!
"मदना!" मैंने कहा!
वो हंसा!! ठहाका मारा उसने!
"हाँ! मदना!" वो बोला,
अब मैंने वक़्त गंवाना ठीक नहीं समझा! फौरन ही काम की बात पर आ गया मैं!
"बाबा मोहन की जान किसने ली?" मैंने पूछा,
वो फिर से ज़ोर से हंसा!
"मैंने! और आज तू भी नहीं बचेगा!" वो बोला और हंसा!
"क्यों ली बाबा की जान?" मैंने उसकी धमकी को ख़ारिज किया!
"ये मेरा तबेला है! मैं रखवाला हूँ यहां का!" वो बोला,
तबेला? मतलब? मतलब ये कि ये कोई ठिकाना था? छिपने का?
"किसका तबेला?" मैंने पूछा,
"तू क्यों जानना चाहता है?" उसने पूछा,
"क्योंकि ये ज़मीन मेरी है!" मैंने कहा,
उसने लाठी उठायी, और खींच के मारी ज़मीन पर! मिट्टी उड़ पड़ी!
"ज़ुबान खींच लूँगा तेरी, तू जानता नहीं, मैं हूँ कौन?" वो बोला,
"जानता हूँ! मदना ही है तू!" मैंने कहा!
उसने ये सुना! और खौल उठा! वो हम पर वार करता तो खुद ही चोट खाता! मैंने अपने तंत्राभूषण धारण किये ही हुए थे! शर्मा जी की देह को पोषित किये हुए था! हाँ, तंत्र-मंत्र की लड़ाई करता तो पलड़ा किसका भारी होता, ये तो समय ही जानता था!
"बस? अब निकल जा यहां से! नहीं तो बाबा लहटा की सौंगंध टुकड़े कर दूंगा तेरे भी!" वो बोला,
तेरे भी?
इसका अर्थ?
और ये लहटा कौन?
ये कौन हैं बाबा लहटा??
अब कुछ नए से नाम मिलने लगे थे! एक ये मदना, और एक वो बाबा लहटा! उसने सौगंध की बात कही थी, बाबा लहटा की सौगंध! अब सवाल ये, कि ये बाबा लहटा हैं कौन??
"कौन हैं ये बाबा लहटा?" मैंने पूछा,
अब वो चौंका!
मुझे देखा! गौर से!
"तू नहीं जानता?" वो बोला,
"नहीं" मैंने धीरे से कहा,
"तू कौन है?" उसने पूछा, तो मैंने जवाब दिया! पूरा परिचय दे दिया, लेकिन ये नहीं बताया कि मैं किसलिए आया हूँ यहां! ये भी नहीं कि मैं अघोर-मार्गी हूँ!
"बता मदना?" मैंने कहा,
उसने कुछ सोचा, विचार, और अपनी लाठी अपने कंधे पर टिका ली,
"जा, तू जा फिर" वो बोला,
"चला जाऊँगा!! लेकिन बताओ तो सही?" मैंने कहा,
"नहीं! तू जा! छोड़ देता हूँ तुझे, तू जा" वो अब शनत स्वर में बोला,
"मदना? बताओ तो सही?" मैंने कहा,
"नहीं, नहीं, तू नहीं जानता, तू नहीं जानता, जा" वो बोला,
एक पल में क्रोधित हो जाने वाला मदना, ऐसे कैसे बदल गया? अभी तो मेरी ज़ुबान खींच रहा था! मेरी जान लेने पर आमादा था! अब आइए क्या हुआ?
"मदना?" मैंने कहा, और आगे बढ़ा,
उसने लाठी से एक लकीर खींच दी ज़मीन पर, मैं आशय समझ गया!!
"जा, अब चला जा तू" वो बोला,
हाथों से इशारे किये उसने, कि मैं जॉन वहां से!
लेकिन मुझे उसका ये बदलाव समझ नहीं आया! बल्कि और बोझ सा बढ़ गया!
"मदना?" मैंने कहा,
"जा, सुन ले मेरी बात, तू जा!! तू नहीं जानता!" वो बोला,
"ये सच है मदना, मैं कुछ नहीं जानता, लेकि जानना चाहता हूँ" मैंने कहा,
वो चुप हुआ,
नीचे बैठ गया, लाठी पास में ही रख दी,
"मदना?" मैंने फिर से पुकारा,
"जा! जा भले आदमी, जा!" वो बोला,
भले आदमी?
ये क्या?
कैसे अचानक इसके शब्द बदल गए?
भले आदमी?
अब मैं अटका!
"मदना, मुझे बताओ तो सही?" मैंने कहा,
"नहीं! नहीं! तू जा! जा तू! वापिस जा!" वो बोला,
उसने नहीं नहीं शब्द बहुत तेज बोले थे, और बाकी में आवाज़ की आवृति धीमी होती गयी थी, वापिस जा में तो जैसे वो रो ही पड़ा था!!
मैं आगे बढ़ा, उसने देखा, मैं रुका, कुछ पल बीते,
मैं और आगे बढ़ा, और रुका, उसने लाठी नहीं उठायी थी अपनी!
मेरी हिम्मत बढ़ी!
मैं आगे चला!
कोई तीन फ़ीट दूर रह गया था उस से! वो मुझे देख रहा था, घूर के नहीं, किसी और ही भाव से!
"जा! लौट जा! लौट जा!" वो बोला,
मैं और आगे बढ़ा!
उसने कोई आपत्ति ज़ाहिर नहीं की!
"मदना?" मैंने कहा,
"मेरा कहा मान! जा!" वो बोला,
अब उसने रट लगा ली थी कि 'तू जा! तू जा! तुझे नहीं पता!" आदि आदि!
"मदना, मैं ऐसे नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
वो अब उठा, खड़ा हुआ,
और आया मेरी तरफ, मेरी धड़कन बढ़ी एक पल के लिए!
"सुन? तू नहीं जानता, तू सच में ही नहीं जानता!" वो बोला,
"तो बताओ?" मैंने कहा,
"नहीं नहीं! जा, बस, अब जा!" वो बोला,
मैं चुप!!
वो नहीं मान रहा था मेरी कोई भी बात!
"अच्छा, जाता हूँ, लेकिन ये बताओ, बाबा लहटा कौन हैं?" मैंने पूछा,
मित्रगण!
वो मेरा ये सवाल सुन, फफक के रो पड़ा! छाती फाड़ के रोने लगा! मुझे अचरज हुआ! मैंने ऐसा क्या कह दिया??
"मदना?" मैंने कहा.
उसने अनसुना किया!
"मदना?" मैंने फिर से कहा,
नहीं सुना उसने!
बैठ गया! रोने लगा!!
"तू जाता क्यों नहीं???" वो अब गुस्से से बोला, हालांकि ये गुस्सा, गुस्सा नहीं था! और अवश्य ही कोई ऐसी बात थी, जिसने उसको तोड़ रखा था!
"मदना?" मैंने कहा,
उसने एक मुट्ठी धूल उठायी, और फेंक दी मेरी तरफ!
"जा! चला जा! अब नहीं आना यहां कभी!" वो बोला,
मैंने धूल झाड़ी अपनी! और आगे बढ़ा!
"ठहर! ठहर! रुक जा! मैं कहता हूँ रुक जा!" वो बोला,
और मैं रुक गया!
अब.....पर्दा उठने लगा था, लेकिन ये मदना, कुछ बताने के लिए राजी नहीं था! कुछ भी! लेकिन मैं पीछे हटने वाला नहीं था, और न ही जाने वाला!!

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