2013- maanesar ki ek ghatna thriller story
Posted: 19 Aug 2015 13:23
वर्ष २०१३ मानेसर की एक घटना
वो एक सुनहरी सी शाम थी! क्षितिज पर, सूर्यदेव की लालिमा छायी हुई थी! दिन भर के थके-मांदे सूर्यदेव अब अस्तांचल में विश्राम करने जा रहे थे! पृथ्वी पर दिवस का अवसान हो चुका था, आकाश में पक्षी अपने अपने घरौंदों की ओर उड़ चले थे! बगुले धनुष का आकार बनाये, अपने सर्वश्रेष्ठ साथी के पीछे पीछे उड़ते जा रहे थे! अब विश्राम का समय था! मैं शर्मा जी के साथ बैठा था, ये रास्ते का एक ढाबा था, चारपाई बिछी हुई थी, हमारी तरह और भी मुसाफिर चाय आदि का लुत्फ़ ले रहे थे! हमने भी चाय के लिए के अपनी वो यात्रा रोकी थी! हम बदायूं से वापिस आ रहे थे! एक मेरे जानकार मुल्ला जी के बेटे का निकाह था, वही से दावत उड़ा कर वापिस आ रहे थे! अभी दिल्ली कोई एक सौ बीस किलोमीटर दूर थी, चाय की तलब लगी थी तो चाय पीने हम रुक गए थे! शाम घिर चुकी थी, स्थानीय लोग भी अपने अपने घरों की ओर लौट रहे थे, कोई ईंधन ला रहा था, तो कोई मवेशियों का चारा, तो कोई अपनी साइकिल पर, बाज़ार से कुछ सामान ले, वापिस घर जा रहा था! फलों वाले ठेले और चाँट-पकौड़ी वाले ठेलों पर अब हंडे जलने लगे थे! औरतें अपने अपने घूंघट काढ़े आ-जा रही थीं, कुछ ने सामान उठाया हुआ था, और कुछ रुक कर सवारी के इंतज़ार में थीं! ठीक सामने ही एक देसी शराब का ठेका था, वहाँ तो ऐसी भीड़ लगी थी कि जैसे कल ठेका बंद हो जाएगा! जैसे आज मुफ्त बंट रही हो! लोग वहीँ अंदर घुसते, और आराम से बैठ कर मदिरा का आनंद लेते! बाहर एक ठेला लगा ता, उस पर उबले अंडे और ऑमलेट, और उबले चनों का सारा जुगाड़ था! लोग उसे भी घेर के खड़े थे! वो छोटा सा कस्बा था जो अब जीवंत हो उठा था! ये है मेरा भारत देश! इसीलिए मैं स्वर्ग की भी कल्पना नहीं करता! इसकी मिट्टी से पावन तो गोरोचन भी नहीं!
हमने चाय पी, और पैसे दिए उसके, पैसे खुले थे नहीं, तो वो खुले करवा लाया, दे दिए हमें!
"भाई साहब, यहाँ अंग्रेजी ठेका है क्या?" मैंने पूछा, उस दुकानदार से,
"हाँ, है न! यहां से आगे जाओगे तो उलटे हाथ पर पड़ेगा, कोई दो सौ कदम पर" वो इशारा करके बोला,
"शुक्रिया" मैंने कहा,
अब हम चले वहाँ से, गाड़ी में बैठे, और धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ायी, कोई दो सौ कदम पर एक ठेका था! ठेके में सामने जाली लगी थी, और उस जाली में एक जगह थी, जहाँ से बस एक हाथ ही अंदर जा सकता था! शर्मा जी उतरे, और गए वहाँ, एक बोतल खरीद ली उन्होंने, और आ गए वापिस, बोतल मुझे पकड़ाई, मैंने पीछे सीट पर रख दी, और अब हम चले वहां से, आगे एक जगह, एक होटल था, यहाँ जुगाड़ हो सकता था, शर्मा जी उतरे और चले अंदर, फिर मुझे इशारा किया, मैं समझ गया कि जुगाड़ हो गया है! गाड़ी को ताला लगाया, बोतल उठायी और चल दिए होटल में! अंदर एक जगह बिठाया उसने हमें, और खाने का आर्डर भी ले लिया, मैंने तो मसालेदार ही खाना था, तो बोल दिया, शर्मा जी ने दाल मंगवा ली, साथ में सलाद, उसने देर न लगाई, सारा सामान, बर्फ आदि सब दे गया!
"लो जी! हो जाओ शुरू" मैंने कहा,
हम शुरू हुए फिर!
खाना भी लगा दिया गया! खाना बढ़िया था! अच्छे से खाया, पैसे दिए, और अब चले वापिस! और इस तरह हम रात के दस बजे अपने स्थान पर पहुँच गए! वहां पहुंचे, तो पता चला, बाबा मोहन आये हुए हैं! बाबा मोहन काशी के हैं, अक्सर दिल्ली आते समय मेरे पास से हो कर जाते हैं!
मैं और शर्मा जी सीधे उन्ही के पास गए! नमस्कार हुई उनसे! उनके साथ उनका एक चेला भी था, कपिल नाम है उसका, वे बहत प्रसन्न हुए! उसने खाने आदि की पूछी तो बताया उन्होंने कि खाना तो खा लिया है, और 'प्रसाद' भी ग्रहण कर लिया है! अब मैंने उन्हें आराम करने की कही, बाकी बात बाद में सुबह!
मैं अपने कक्ष में आ गया था, कपड़े उतार रहा था कि पूनम आ गयी अंदर, पूनम अभी कोई महीने भर पहले ही आई थी यहाँ, पूनम ने खाने की पूछी तो मैंने कहा दिया कि खाना तो खा लिया है हमने, और अगर उसने नहीं खाया है तो खा ले, टेढ़ा सा मुंह बना कर चली गयी वो! मुझे हंसी आ गयी उसकी इस हरकत पर! कपड़े बदले, हाथ मुंह धोये और पकड़ ली खटिया!
तसल्ली से सोये हम! शर्मा जी मेरे साथ वहीँ रुके थे!
सुबह हुई साहब!
नहाये-धोये हम!
और फिर चाय-नाश्ते का हुआ समय!
पूनम ही आई थी, उस से चाय की कही, वो चली गयी चाय बनाने के लिए, अब तक बाबा मोहन और कपिल भी आ बैठे थे हमारे साथ!
"और बाबा, कैसे हो?" मैंने पूछा,
"कुशल से हूँ" वे बोले,
"और कपिल तू?" मैंने पूछा,
"कुशल से" वो बोला,
"कहाँ जा रही है सवारी?" मैंने पूछा,
"यहीं, मानेसर के पास" वे बोले,
"अच्छा! कोई काम?" मैंने पूछा,
"हाँ, है एक काम" वो बोले,
मैंने काम नहीं पूछा उनसे!
"और बाबा चरण ठीक हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, आजकल कलकत्ता गए हुए हैं" वे बोले,
"अच्छा अच्छा!" मैंने कहा,
अब तक चाय आ गयी! हमने अपने अपने कप उठा लिए, साथ में नमकीन और बिस्कुट थे, वही ले लिए! चाय बहुत बढ़िया बनायी थी, अदरक डाल कर! बहुत ही बढ़िया थी चाय!
कोई साढ़े ग्यारह बजे, बाबा मोहन को खाना खिलाया, कपिल को भी, हमने भी खा लिया था, और तब वे चले गए थे वहां से, उनको हफ्ते में वापिस आना था, मेरे पास से ही होकर जाते वो!
दोपहर में शर्मा जी भी चले गए! अब शाम को आते वो मेरे पास!
मैं अपने कमरे में ही आराम कर रहा था कि पूनम आ गयी अंदर,
"आओ पूनम, बैठ जाओ" मैंने कहा,
वो बैठ गयी, आँखों में आँखें डाले!
"गुस्सा हो क्या?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"तो फिर?" मैंने पूछा,
"कब जाएंगे?" उसने पूछा,
"अच्छा! हाँ, चलो इस इतवार छोड़ आता हूँ तुम्हें" मैंने कहा,
इतवार आने में अभी तीन दिन थे!
"ठीक है?" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
"यहाँ क्या परेशानी है?" मैंने पूछा,
"कोई परेशानी नहीं" वो बोली,
"मैं समझ गया!!" मैंने कहा!
"क्या?" वो बोली,
मैं हंसने लगा!
"बताओ न?" उसने पूछा,
"वो...अजय!" मैंने कहा,
चेहरा लाल हो गया उसका! सर झुका लिया!
"है या नहीं, सच बताओ!" मैंने कहा,
उसने सर हिलाकर हाँ कही!
"वैसे लड़का अच्छा है! ब्याह की बात चलाऊँ?" मैंने कहा,
चौंक पड़ी! अंदर ही अंदर, मन में लड्डू फूट पड़े!
"उसके पिता बाबा रमिया मेरा कहा नहीं काटेंगे! मान जाएंगे!" मैंने कहा,
शांत! शांत बैठी रही!
"चलो ठीक है पूनम, इस इतवार छोड़ आता हूँ!" मैंने कहा,
उसने सर हिलाकर हाँ कहा!
भोली-भाली है ये पूनम! अधिक पढ़ी-लिखी नहीं है! गाँव की है, लेकिन रूप-रंग में किसी से कम नहीं! देह ऐसी कि कोई भी देखे तो चुंबक लग जाए नेत्रों को!
"तुमने ये बात अपनी माँ से बतायी है?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"मन ने क्या कहा?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं कहती माँ" वो बोली,
जानता था, किसलिए कुछ नहीं कहती, बाबा रमिया पहुंचे हुए थे! और वो लड़का अजय, वो अपने पिता के नक्शेकदम पर ही था! और ये बेचारी पूनम! प्रेम कर बैठी थी उस से!
"अजय प्रेम करता है तुमसे?" मैंने पूछा,
सर हिलाकर हाँ कही!
"फिर चिंता न करो! आराम से रहो! इस इतवार चलता हूँ! मैं सामान भी ला दूंगा तुम्हारा, ठीक है?" मैंने कहा,
सर हिलाकर हाँ कही फिर से! बिना नज़रें मिलाये उठी और चली गयी बाहर!
एक हल्की सी हंसी, मेरे होंठों पर तैर गयी!
वो एक सुनहरी सी शाम थी! क्षितिज पर, सूर्यदेव की लालिमा छायी हुई थी! दिन भर के थके-मांदे सूर्यदेव अब अस्तांचल में विश्राम करने जा रहे थे! पृथ्वी पर दिवस का अवसान हो चुका था, आकाश में पक्षी अपने अपने घरौंदों की ओर उड़ चले थे! बगुले धनुष का आकार बनाये, अपने सर्वश्रेष्ठ साथी के पीछे पीछे उड़ते जा रहे थे! अब विश्राम का समय था! मैं शर्मा जी के साथ बैठा था, ये रास्ते का एक ढाबा था, चारपाई बिछी हुई थी, हमारी तरह और भी मुसाफिर चाय आदि का लुत्फ़ ले रहे थे! हमने भी चाय के लिए के अपनी वो यात्रा रोकी थी! हम बदायूं से वापिस आ रहे थे! एक मेरे जानकार मुल्ला जी के बेटे का निकाह था, वही से दावत उड़ा कर वापिस आ रहे थे! अभी दिल्ली कोई एक सौ बीस किलोमीटर दूर थी, चाय की तलब लगी थी तो चाय पीने हम रुक गए थे! शाम घिर चुकी थी, स्थानीय लोग भी अपने अपने घरों की ओर लौट रहे थे, कोई ईंधन ला रहा था, तो कोई मवेशियों का चारा, तो कोई अपनी साइकिल पर, बाज़ार से कुछ सामान ले, वापिस घर जा रहा था! फलों वाले ठेले और चाँट-पकौड़ी वाले ठेलों पर अब हंडे जलने लगे थे! औरतें अपने अपने घूंघट काढ़े आ-जा रही थीं, कुछ ने सामान उठाया हुआ था, और कुछ रुक कर सवारी के इंतज़ार में थीं! ठीक सामने ही एक देसी शराब का ठेका था, वहाँ तो ऐसी भीड़ लगी थी कि जैसे कल ठेका बंद हो जाएगा! जैसे आज मुफ्त बंट रही हो! लोग वहीँ अंदर घुसते, और आराम से बैठ कर मदिरा का आनंद लेते! बाहर एक ठेला लगा ता, उस पर उबले अंडे और ऑमलेट, और उबले चनों का सारा जुगाड़ था! लोग उसे भी घेर के खड़े थे! वो छोटा सा कस्बा था जो अब जीवंत हो उठा था! ये है मेरा भारत देश! इसीलिए मैं स्वर्ग की भी कल्पना नहीं करता! इसकी मिट्टी से पावन तो गोरोचन भी नहीं!
हमने चाय पी, और पैसे दिए उसके, पैसे खुले थे नहीं, तो वो खुले करवा लाया, दे दिए हमें!
"भाई साहब, यहाँ अंग्रेजी ठेका है क्या?" मैंने पूछा, उस दुकानदार से,
"हाँ, है न! यहां से आगे जाओगे तो उलटे हाथ पर पड़ेगा, कोई दो सौ कदम पर" वो इशारा करके बोला,
"शुक्रिया" मैंने कहा,
अब हम चले वहाँ से, गाड़ी में बैठे, और धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ायी, कोई दो सौ कदम पर एक ठेका था! ठेके में सामने जाली लगी थी, और उस जाली में एक जगह थी, जहाँ से बस एक हाथ ही अंदर जा सकता था! शर्मा जी उतरे, और गए वहाँ, एक बोतल खरीद ली उन्होंने, और आ गए वापिस, बोतल मुझे पकड़ाई, मैंने पीछे सीट पर रख दी, और अब हम चले वहां से, आगे एक जगह, एक होटल था, यहाँ जुगाड़ हो सकता था, शर्मा जी उतरे और चले अंदर, फिर मुझे इशारा किया, मैं समझ गया कि जुगाड़ हो गया है! गाड़ी को ताला लगाया, बोतल उठायी और चल दिए होटल में! अंदर एक जगह बिठाया उसने हमें, और खाने का आर्डर भी ले लिया, मैंने तो मसालेदार ही खाना था, तो बोल दिया, शर्मा जी ने दाल मंगवा ली, साथ में सलाद, उसने देर न लगाई, सारा सामान, बर्फ आदि सब दे गया!
"लो जी! हो जाओ शुरू" मैंने कहा,
हम शुरू हुए फिर!
खाना भी लगा दिया गया! खाना बढ़िया था! अच्छे से खाया, पैसे दिए, और अब चले वापिस! और इस तरह हम रात के दस बजे अपने स्थान पर पहुँच गए! वहां पहुंचे, तो पता चला, बाबा मोहन आये हुए हैं! बाबा मोहन काशी के हैं, अक्सर दिल्ली आते समय मेरे पास से हो कर जाते हैं!
मैं और शर्मा जी सीधे उन्ही के पास गए! नमस्कार हुई उनसे! उनके साथ उनका एक चेला भी था, कपिल नाम है उसका, वे बहत प्रसन्न हुए! उसने खाने आदि की पूछी तो बताया उन्होंने कि खाना तो खा लिया है, और 'प्रसाद' भी ग्रहण कर लिया है! अब मैंने उन्हें आराम करने की कही, बाकी बात बाद में सुबह!
मैं अपने कक्ष में आ गया था, कपड़े उतार रहा था कि पूनम आ गयी अंदर, पूनम अभी कोई महीने भर पहले ही आई थी यहाँ, पूनम ने खाने की पूछी तो मैंने कहा दिया कि खाना तो खा लिया है हमने, और अगर उसने नहीं खाया है तो खा ले, टेढ़ा सा मुंह बना कर चली गयी वो! मुझे हंसी आ गयी उसकी इस हरकत पर! कपड़े बदले, हाथ मुंह धोये और पकड़ ली खटिया!
तसल्ली से सोये हम! शर्मा जी मेरे साथ वहीँ रुके थे!
सुबह हुई साहब!
नहाये-धोये हम!
और फिर चाय-नाश्ते का हुआ समय!
पूनम ही आई थी, उस से चाय की कही, वो चली गयी चाय बनाने के लिए, अब तक बाबा मोहन और कपिल भी आ बैठे थे हमारे साथ!
"और बाबा, कैसे हो?" मैंने पूछा,
"कुशल से हूँ" वे बोले,
"और कपिल तू?" मैंने पूछा,
"कुशल से" वो बोला,
"कहाँ जा रही है सवारी?" मैंने पूछा,
"यहीं, मानेसर के पास" वे बोले,
"अच्छा! कोई काम?" मैंने पूछा,
"हाँ, है एक काम" वो बोले,
मैंने काम नहीं पूछा उनसे!
"और बाबा चरण ठीक हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, आजकल कलकत्ता गए हुए हैं" वे बोले,
"अच्छा अच्छा!" मैंने कहा,
अब तक चाय आ गयी! हमने अपने अपने कप उठा लिए, साथ में नमकीन और बिस्कुट थे, वही ले लिए! चाय बहुत बढ़िया बनायी थी, अदरक डाल कर! बहुत ही बढ़िया थी चाय!
कोई साढ़े ग्यारह बजे, बाबा मोहन को खाना खिलाया, कपिल को भी, हमने भी खा लिया था, और तब वे चले गए थे वहां से, उनको हफ्ते में वापिस आना था, मेरे पास से ही होकर जाते वो!
दोपहर में शर्मा जी भी चले गए! अब शाम को आते वो मेरे पास!
मैं अपने कमरे में ही आराम कर रहा था कि पूनम आ गयी अंदर,
"आओ पूनम, बैठ जाओ" मैंने कहा,
वो बैठ गयी, आँखों में आँखें डाले!
"गुस्सा हो क्या?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"तो फिर?" मैंने पूछा,
"कब जाएंगे?" उसने पूछा,
"अच्छा! हाँ, चलो इस इतवार छोड़ आता हूँ तुम्हें" मैंने कहा,
इतवार आने में अभी तीन दिन थे!
"ठीक है?" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
"यहाँ क्या परेशानी है?" मैंने पूछा,
"कोई परेशानी नहीं" वो बोली,
"मैं समझ गया!!" मैंने कहा!
"क्या?" वो बोली,
मैं हंसने लगा!
"बताओ न?" उसने पूछा,
"वो...अजय!" मैंने कहा,
चेहरा लाल हो गया उसका! सर झुका लिया!
"है या नहीं, सच बताओ!" मैंने कहा,
उसने सर हिलाकर हाँ कही!
"वैसे लड़का अच्छा है! ब्याह की बात चलाऊँ?" मैंने कहा,
चौंक पड़ी! अंदर ही अंदर, मन में लड्डू फूट पड़े!
"उसके पिता बाबा रमिया मेरा कहा नहीं काटेंगे! मान जाएंगे!" मैंने कहा,
शांत! शांत बैठी रही!
"चलो ठीक है पूनम, इस इतवार छोड़ आता हूँ!" मैंने कहा,
उसने सर हिलाकर हाँ कहा!
भोली-भाली है ये पूनम! अधिक पढ़ी-लिखी नहीं है! गाँव की है, लेकिन रूप-रंग में किसी से कम नहीं! देह ऐसी कि कोई भी देखे तो चुंबक लग जाए नेत्रों को!
"तुमने ये बात अपनी माँ से बतायी है?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"मन ने क्या कहा?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं कहती माँ" वो बोली,
जानता था, किसलिए कुछ नहीं कहती, बाबा रमिया पहुंचे हुए थे! और वो लड़का अजय, वो अपने पिता के नक्शेकदम पर ही था! और ये बेचारी पूनम! प्रेम कर बैठी थी उस से!
"अजय प्रेम करता है तुमसे?" मैंने पूछा,
सर हिलाकर हाँ कही!
"फिर चिंता न करो! आराम से रहो! इस इतवार चलता हूँ! मैं सामान भी ला दूंगा तुम्हारा, ठीक है?" मैंने कहा,
सर हिलाकर हाँ कही फिर से! बिना नज़रें मिलाये उठी और चली गयी बाहर!
एक हल्की सी हंसी, मेरे होंठों पर तैर गयी!