2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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sexy
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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:28

मैं रुक गया था! लेकिन साँसें रोक खड़ा हुआ था! मैं नहीं चाहता था कि ये मदना लोप हो और फिर से हम अटक जाएँ! बड़ी मुश्किल से तो ये एक बड़ा सूत्र हाथ लगा था! अगर ये ही चला जाता तो पता नहीं फिर क्या क्या करना होता! इसीलिए मैं उसकी बात का मान रखता था और जैसा वो कहता, मैं करता था! वो कहता था कि रुक जाओ, तो मैं रुक जाता था! और फिर जब बात हो रही होती थीं, तो आगे बढ़ जाता था! अब वो मुझसे को दो-ढाई फ़ीट ही दूर था, बैठ गया था! और फफक रहा था! लेकिन वो फफक क्यों रहा था? क्या वजह थी, अभी तक समझ से परे था! और एक बात और, उसका स्वाभाव भी बदल गया था! कड़कपन छोड़ कर अब ठीक बात करने लगा था! मैंने मौका ताड़ा और आगे बढ़ा!
"रुक जा?" वो बोला,
मैं रुक गया!
और आहिस्ता से नीचे बैठ गया! उसने कनखियों से मुझे देखा! मुझे, मेरे वस्त्रों को, फफकते हुए! और फिर उसने सर नीचे कर लिया अपना!
"मदना!" मैंने कहा!
वो कुछ नहीं बोला!
"मदना, मुझे बताओ, वे लाशें किसकी हैं?" मैंने पूछा,
"नहीं! नहीं! जा! अब तू जा!" वो बोला और खड़ा हुआ!
"मदना?" मैं चिल्लाया!
इस से पहले कि मैं कुछ और करता, वो उस गड्ढे में कूद गया! आग बंद! और सब खत्म हो गया! मदना चला गया था! और अब हम थे खाली हाथ!
मैं खड़ा हुआ, और शर्मा जी के पास पहुंचा, वे भी हतप्रभ थे! वहीँ, उसी गड्ढे को देख रहे थे, टकटकी लगाए हुए!
"मुझे समझ में नहीं आया कुछ!" वे बोले,
"मुझे भी" मैंने कहा,
"अब कहने और गहरी हो गयी है" वे बोले,
"हाँ, और गूढ़ भी" मैंने कहा,
अब हम वापिस चले, अपने पलंग तक आये, बैठ गए, टोर्च बंद कर दी थी मैंने, लेकिन अभी तक मदना और उसका चेहरा याद आ रहा था!
"उसने कहा था कि सबको उसने मारा?" वे बोले,
"हाँ, यही कहा था उसने" मैंने कहा,
"और बाबा मोहन को भी?" वे बोले,
"हाँ, उसने कहा, रखवाला है वो" मैंने कहा,
"किसकी रखवाली कर रहा है वो?" वे बोले,
ये सवाल!
ये सवाल दमदार था!
आखिर किसकी रखवाली? किसी की तो अवश्य ही कर रहा होगा?
"हाँ, सवाल अच्छा है, किसकी रखवाली?" मैंने कहा,
"कहीं धन की तो नहीं?" वे बोले,
धमाका हुआ दिमाग में!
"हाँ! शायद धन की ही!" वे बोले,
"मान लिया धन की, लेकिन उसने कहा कि सब को मारा उसने, वो क्यों?" वे बोले,
अब ये सवाल भी मुंह फाड़ रहा था! सच में! वो सबको क्यों मारेगा? ये एक ऐसा जाल था, जिसमे हम फंस गए थे! और जितना निकलते थे बाहर, उतना ही जकड़ जाते थे!
तभी हमारे पीछे आवाज़ सी आई कुछ!
"श्श्श!" मैंने मुंह पर ऊँगली रखते हुए कहा,
और अब कान लगा दिए वहाँ!
आवाज़ ऐसी थी कि जैसे कोई स्त्री भाग रही हो! जिसने पाँव में पायजेब पहनीं हों! गौर से सुना, तो एक से अधिक औरतें लगीं वो! आवाज़ें बहुत साफ़ थीं! एकदम साफ़, कोई बीस फ़ीट दूर से आ रही थीं! हम खड़े हो गए, मैंने ओर्च जलायी! और डाली रौशनी उधर! लेकिन वहाँ कोई नहीं था, जंगल ही था, और कुछ पेड़-पौधे ही थे वहां!
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आराम आराम से आगे बढ़े! आवाज़ें बंद हुईं, हम भी रक गए, जैसे उन औरतों को हमारे आने का आभास हुआ हो! मैंने टोर्च बंद कर दी थी! ताकि लगे कि कुछ नहीं है!
फिर से आवाज़ आयीं!
और हम आगे बढ़े!
और इस बार भाग लिए! एक जगह रुके, चारों ओर देखा, तो एक बड़े से पेड़ के नीचे दो स्त्रियां दिखीं, वो दूर थीं, लेकिन उनके केश देखकर, मैंने अंदाजा लगा लिया था!
"आओ" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
मैंने एवंग-मंत्र पढ़ लिया था, कोई भी प्रेतात्मा सौ बार सोचती कछ खेलने से पहले! इसीलिए हम निश्चिन्त थे! हम आगे बढ़ चले!
हम पेड़ तक पहुंचे, वहाँ दो औरतें खड़ी थीं! लम्बी-चौड़ी औरतें थीं वो, हाथों की कलाइयों तक कमीज़ पहने थीं, सफ़ेद रंग की, नीचे काले रंग का घाघरा था, हाथों और पांवों में ज़ेवर थे, सफ़ेद रंग के ज़ेवर! उन्होंने ओढ़नी भी ओढ़ी हुई थी, ये वैसी ही थीं, जैसी हमें उस दिन मिली थीं, जो अपने बाल* को ढूंढ रही थीं! हम पहुँच गए थे उनके पास! वे भी अब मुस्तैद खड़ी हो गयी थीं!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
जवाब नहीं दिया किसी ने भी, टोर्च की रौशनी जल रही थी, मैं आसपास भी देख लेता था, कि कहीं और तो कोई नहीं वहाँ, उनके अलावा?
"बताओ?" मैंने कहा,
नहीं बोलीं कुछ भी!
"मैं कोई नुक़सान नहीं पहुंचाउंगा तुम्हे, बताओ अब?" मैंने कहा,
एक थोड़ा सा हिली, मुझे देखा, आँखों में काजल लगा था, और सच में, बहुत सुंदर चेहरा था उसका, ठुड्डी पर गोदना कढ़ा था! रंग गोरा था, होंठ लाल थे, उम्र में, चेहरा देख कर, लगता था कि उसकी उम्र बीस-बाइस से अधिक नहीं!
"बताओ, कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
और जैसे ही मैंने पूछा, वे रोने लगीं! एक तरफ इशारा करके! मैंने वहीँ देखा, वहाँ कुछ नहीं था! कुछ भी नहीं!
"क्या है वहां?" मैंने पूछा,
रोये ही जाएँ! बोलें कुछ नहीं!
"सुनो, मुझे बताओ, मैं मदद करूँगा" मैंने कहा,
वे चुप हुईं! जैसे मेरी 'मदद' वाली बात पर कुछ आशा जगी हो!
"कौन हो तुम?" मैंने फिर से पूछा,
"अरसी" वो बोली,
"अरसी, अरसी, मुझे बताओ क्या है वहां?" मैंने पूछा,
"रंगल" वो बोली,
रंगल?
रंगल! एक बहुत पुराना शब्द! अर्थात, गड्ढा!
"कैसा रंगल?" मैंने पूछा,
अरसी ने इशारा किया उधर,
लेकिन मुझे तो कुछ नहीं दिखा,
"मेरे साथ चलो अरसी, मुझे दिखाओ" मैंने कहा,
अरसी ने अपनी साथ वाली स्त्री को देखा, और एक ही पल में, भाग निकलीं वहाँ से! वो, वहीँ, जहां रंगल था, वहीँ खड़ी हो गयीं! वहाँ कुछ नहीं था, बस पत्थर और मिट्टी थी!
"यहाँ तो कुछ नहीं?" मैंने कहा,
वे दोनों स्त्रियां आगे बढ़ीं, और एक जगह जाकर लोप हो गयीं! मेरी आँखों के सामने!
"शर्मा जी, आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
अब हम वहां पहुंचे, जहां वो औरतें लोप हुई थीं!
"यहाँ कोई गड्ढा नहीं" मैंने टोर्च की रौशनी आसपास मारते हुए कहा,
"आगे देखते हैं" वे बोले,
और जैसे ही हम आगे बढ़े,
हमारे पाँव किसी गीली सी दलदल में धंस गए! घुटनों के नीचे तक! अब हम छटपटाये! किसी तरह से पत्थर पकड़ पकड़, निकले वहाँ से! टोर्च पर दलदल लग गयी थी, साफ़ की मैंने और रौशनी डाली वहाँ! वहाँ दलदल ही दलदल थी! मैंने अपने पाँव देखे, अजीब सी कीचड़ थी वो, हाथ लगा के देखा, तो वो खून सा लगा मुझे! जैसे वो खून से बनी दलदल हो! और यही था वो रंगल!
मैंने टोर्च से देखा उसमे, उसमे शव पड़े थे! हर उम्र के शव!
"हे भग**! ये क्या है?" वे बोले,
"रंगल!" मैंने कहा,
"इतना खून?" वे बोले,
"किसी ने दिखाया है हमें" मैंने कहा,
अगले ही पल, आवाज़ हुई, 'होम' हम पीछे पलटे! भागे! उस गड्ढे तक आये, गड्ढे से आवाज़ आ रही थी, आग बंद थी, और नीचे रौशनी में जो देखा, वो वीभत्स था! बहुत वीभत्स!
वहां................

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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:28

नीचे सूखे हुए शव पड़े थे! खाल चिपक गयी थी उनकी अस्थियों से! कीड़े-मकौड़ों ने घर बना लिए थे आँख, नाक और मुंह के कोटर में, बदबू ऐसी थी, कि मैंने उस से अधिक सड़ांध की बॉस कभी नहीं सूंघी थी! मेरा जी मिचलाने लगा था, शर्मा जी तो पीछे हट लिए थे! बदबू असहनीय थी वहाँ! उन लाशों की हड्डियां टूटी हुईं थीं, किसी की खोपड़ी उधड़ी हुई थी, तो किसी की पसलियां टूटी थीं, किसी के पाँव की हड्डी सीधी खड़ी थी, तो किसी की जांघ की हड्डी काली पड़ चुकी थी! लाशें गुथी पड़ी थीं एक दूसरे में, उनके शरीर पर वस्त्र नहीं थे, लगता था कि जैसे उनको हलाक़ करने से पहले, उनको नग्न किया गया हो! हर उम्र की लाश थी उसमे! क्या छोटे और क्या बड़े! पूरा गड्ढा भरा पड़ा था! मेरा जी मिचलाया, और मैंने थूका एक तरफ! तभी धुंआ सा उठा, और वे लाशें वहाँ से, नीचे सुरंग में जाने लगीं! इस सुरंग में बहुत रहस्य भरे पड़े थे! अतः मैंने निर्णय लिया, कि कल इस स्थान की खुदाई करवाई जाए, एक जे.सी.बी. मंगवाई जाए और करवा दें खुदाई! मैं उठा, और शर्मा जी के पास तलक गया, मुंह में अभी भी उस सड़ांध के कण चिपके थे, मुंह बकबका सा हो गया था, मेरी आँतों में जैसे अंतःस्राव सा होने लगा था!
"आओ शर्मा जी" मैंने कहा,
उन्होंने भी थूका और चल दिए मेरे साथ,
"कल खुदाई करवाते हैं" मैंने कहा,
"हाँ, ज़रूरी है" वे बोले,
हम आ गए थे पलंग तक, अब पानी लिया, कुल्ला किया और मुंह पोंछा, तब जाकर चैन पड़ा!
"यहां है तो कोई बड़ा ही रहस्य" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
मैं लेट गया था, पलंग पर जगह कम थी, करवटें लेकर ही सोया जा सकता था, इसीलिए मैंने करवट बदल ली, तो शर्मा जी भी लेट गए, लेटने से पहले हमने अपने जूते साफ़ कर लिए थे, पैंट भी पानी से साफ़ कर ली थी, उतार कर रख दी थी वहीँ, सुबह तक सूख ही जातीं,
"खाना?" वे बोले,
"अरे हाँ" मैंने कहा,
शर्मा जी ने खाना खोल लिया, हमने खाना खाया फिर, और फिर से लेट गए, घड़ी देखी, तो डेढ़ बज चुके थे! लेकिन इस रहस्य ने हमारी भूख-प्यास सब उड़ा दी थी! अब कल खुदाई हो, तो कुछ आगे बात बने!
रात कोई तीन बजे, फिर से आवाज़ें आने लगीं, मेरी आँख खुली, मैंने शर्मा जी को जगाया, वे जागे,
"सुनो" मैंने कहा,
आवाज़ें कुछ ऐसी थीं जैसे कोई किसी जानवर को हाँक रहा हो, जैसे अपने बैल या भैंसे को हाँक रहा हो! 'हयो, हयो!" ऐसी आवाज़ थी वो! अब रात को तीन बजे, कौन हाँकेगा अपना जानवर! मैं खड़ा हुआ, शर्मा जी भी खड़े हुए, मैंने पैंट पहनी, शर्मा जी ने भी, पैंट अभी तक गीली थीं, फिर जूते पहने, जूते सूख चुके थे, हाँ, पैंतावा अभी भी गीला था!
"आओ" मैंने कहा,
वे चल पड़े मेरे साथ, हम उसी आवाज़ की दिशा में चल पड़े! हम आगे बढ़े, टोर्च की रौशनी जलायी मैंने, और चले आगे, ठीक सामने कोई खड़ा था, लेकिन कोई जानवर नहीं था वहां! हमारी रौशनी देखा कर, वो ठहर गया था! हम पहुँच गए थे उसके पास, वो लम्बा-चौड़ा युवक था, सफ़ेद कुर्ते और धोती में, लम्बाई में कोई सात फ़ीट होगा, पहलवानी जिस्म था उसका! हाथ में एक सांटा ज़रूर था उसके हाथ में, सांटा, जिस से जानवर को हांका जाता है!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"नेतपाल" वो बोला, बिना किसी संशय के! बिना किसी घबराहट के! और बिना किसी भय के! मुझे बहुत अच्छा लगा!
"यहीं रहते हो?" मैंने पूछा,
"हाँ, आगे ही" वो बोला,
"कहाँ जा रहे हो?" मैंने पूछा,
"पैंठ से आ रहा हूँ" वो बोला,
"जानवर लाये हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"कुछ जानकारी चाहिए, पूछ सकता हूँ?" मैंने पूछा,
"हाँ, पूछो?" वो अपना चेहरा साफ़ करते हुए बोला,
"ये मदना कौन है?" मैंने पूछा,
वो जैसे काँप गया!
"बताओ?" मैंने पूछा,
कुछ नहीं बोला वो! चुपचाप ही रहा!
"जानते हो मदना को?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"कौन है?" मैंने पूछा,
"बाबा लहटा का बेटा" वो बोला,
बाबा लहटा का बेटा? अब सर पर लट्टू घूमा!
"कहना मिलेगा मदना?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" वो बोला,
"तुम ले जाओगे?" मैंने एक अजीब सा सवाल क्या,
वो पलटा! और चल पड़ा आगे, तेज तेज कदमों से! मैंने आवाज़ भी दी, लेकिन नहीं ठहरा वो! जैसे डर गया था वो!
"बाबा लहटा!" मैंने कहा,
"हाँ, और वो मदना बेटा है उनका!" वे बोले,
"अब सारी कहानी इसी मदना और इन बाबा लहटा के इर्द-गिर्द घूम रही है" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"कल पता करता हूँ इस मदना के बारे में" मैंने कहा,
"कैसे?" वे बोले,
"हाज़िर करके!" मैंने कहा,
"किसको?" वे बोले,
"मदना को!" मैंने कहा,
"अच्छा!!" वे जोश से बोले!
"अब चलो वापिस" मैंने कहा,
और हम वापिस हुए! और जब वापिस हुए तो हमारा वो पलंग, ख़ाक़ हो चुका था! अब सिर्फ उसके लोहे के पाइप ही बचे थे! आसपास कोई आग नहीं थी, और न ही कोई चिन्ह! ये प्रेत-माया थी! और कुछ नहीं!
"ये क्या?" वे बोले,
"किसी इन धमकाया यही, कि खुदाई न की जाए!" मैंने कहा,
और तभी किसी के हंसने की आवाज़ आई! एक मर्दाना हंसी! हम पीछे पलटे!
पीछे कोई नहीं था!
"कौन है? सामने आओ?" मैंने कहा,
तभी एक बड़ा सा पत्थर आ कर गिरा सामने! हमारे सामने!
"चला जा! जा!" आवाज़ आई!
"है कौन तू?" मैंने पूछा,
फिर से एक पत्थर गिरा!
"सामने आ?" मैं चिल्लाया,
और जो सामने आया, वो एक पहलवान सा आदमी था! सिर्फ लंगोट ही बांधे थे! सर गंजा था, बाजुओं में गंडे बंधे थे! कमर पर, एक रस्सी सी बंधी थी! उसके हाथ में पत्थर था, कोई पचास किलो का पत्थर!
"क्या चाहता है?" मैंने पूछा,
"निकल जा यहां से!" वो चिल्लाया,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"आग लगा दूंगा तुझे, सुखा दूंगा!" वो बोला,
"हमने क्या बिगाड़ा?" मैंने पूछा, जानबूझकर!
"तेरी हिम्मत कैसे हुई बाबा त्रिभाल की भूमि पर आने की?" वो चिंघाड़ा!
बाबा त्रिभाल!
अब ये नया नाम था! तो ये ज़मीन बाबा त्रिभाल की रही होगी! अब इसको और कुपित करना था! ताकि कुछ और राज खुल सकें!
"ठीक है, हम चले जाएंगे, लेकिन मैं कुछ पूछना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"जा! काटण! चला जा, नहीं तो आग लगा दूंगा तुझे!" वो बोला,
काटण! मुझे नहीं पता इसका अर्थ क्या था!
"और अगर नहीं जाएँ तो?" मैंने उकसाया उसको!
"तेरी ये हिम्मत?" वो बोला,
और फेंक दिया पत्थर सामने! हम आगे भागे, और पत्थर हमारे सर के ऊपर से पीछे जा गिरा! वो गुस्से में था, इसीलिए मैंने मौका ताड़ा और एवंग-मंत्र का जाप कर लिया! शर्मा जी का हाथ पकड़ा, और उनके हाथ पर थूक दिया, उन्होंने वो थूक अपने माथे से रगड़ लिया! अब हम दोनों ही पोषित थे!
अब उसने अपनी पहलवानी दिखाएं एकी ठानी!
भाग पड़ा हमारी ओर!
मैं भी आगे भागा!
और एक ही पल में, वो रुक गया!! उसने मंत्र-गंध आई थी!
"क्या हुआ?" मैंने हँसते हुए पूछा,
वो चुप!
हैरान था!
"अब नहीं दिखानी पहलवानी?" मैंने कहा,
"जा, चला जा! जा!" वो बोला,
"चला जाऊँगा! ये बता तू है कौन?" मैंने पूछा,
अब जैसा उसका जिस्म, वैसा ही नाम!!
जम्भाल! जम्भाल नाम था उसका!!
"जम्भाल? ये बाबा त्रिभाल कहाँ हैं?" मैंने पूछा,
"यही हैं" वो बोला,
"कहाँ?" अब मैं चौंका!
यहां? यहां तो कहीं नहीं?
"कहना हैं बाबा जम्भाल?" मैंने पूछा,
जम्भाल पीछे हटा! मैं आगे बढ़ा!
"रुक जा!" मैंने कहा,
वो रुका, मुझे देखा,
"सुनो जम्भाल! एक सवाल और" मैंने कहा,
वो मुड़ा मेरी तरफ!
"ये, मदना कौन है?" मैंने पूछा,
उसने सुना, और भागा! दूर अँधेरे में लोप हुआ!
सन्नाटा!
सन्नाटा पसर गया था!
झींगुर और मंझीरे भी शांत थे!
"बाबा त्रिभाल!" मैंने कहा,
"हाँ, एक नया नाम" वे बोले,
"अब तीन नाम हैं, बाबा लहटा, मदना और ये बाबा त्रिभाल!" मैंने कहा,
"और यही किरदार लगते हैं" वे बोले,
"हाँ' यही हैं" वे बोले,
अब हम लौटे! वो बड़ा सा पत्थर, टूट गया था! दो टुकड़े हो गए थे उस के!
"अरे? ये देखो?" वे बोले,
"क्या?" मैंने पूछा,
"पत्थर पर खून?" वे बोले,
"खून?" मैंने कहा,
"देखो?" वे बोले,
टोर्च की रौशनी में देखा मैंने, वहाँ सच में खून लगा था!
"लेकिन उसके हाथों तो कोई खून नहीं था?" मैंने कहा,
"हाँ, उस वक़्त नहीं था" वो बोले,
"अजीब बात है" मैंने कहा,
घड़ी देखी, पांच का समय होने को चला था! अब सोने का तो मतलब ही नहीं था, पलंग का कंकाल सामने पड़ा था! कंबल, चादर, सब जल गए थे! शुक्र है कि पैंट पहन ली थी, नहीं तो पैंट भी जल जाती!!!

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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:29

और फिर सुबह हुई! सुबह कोई सात बजे दीप साहब और सुरेश जी आने ही वाले थे! उसके बाद हमें उनके घर जाना था, थोड़े अपने कपड़े भी धोने थे, मछुआरे लगने लगे थे हम सुबह तक तो! वे आये, उनसे बात हुई, हमें सकुशल देख, वे खुश हुए, अब शर्मा जी ने उनको जो बताना था वो बता दिया, जो छिपाना था वो छिपा लिया, फिर हम उनके घर चले, सीधा स्नान करने और निवृत होने गए हम, उसके बाद चाय-नाश्ता किया, कुछ खाया भी, भूख लगी हुई थी बहुत! कपड़े दे दिए थे धुलने के लिए, अब जे.सी.बी. मशीन का इंतज़ाम करना था, उसके लिए दीप साहब ने अपने एक जानकार से बात की, दिन में कोई दो बजे, मशीन वहाँ पहुँच गयी थी, और हम दो बजे ही, खाना खा कर, हम निकल पड़े थे, वहाँ कोई डेढ़ घंटे में पहुँच गए थे, हाँ, कपड़े धुले हुए और इस्त्री किये हुए मिल ही गए थे! इस बार फिर से चादर, कंबल ले आये! पलंग नहीं लाये थे! ज़मीन पर ही सोना था! तो हम वहाँ करीब साढ़े तीन बजे पहुंचे, जे.सी.बी. मशीन वाला चालक, हिम्मत वाला व्यक्ति था, उसको साफ-साफ़ बता दिया था कि, किस वजह से हम यहां खुदाई करवा रहे हैं, उसने मुस्कुरा के जवाब दिया था कि कोई बात नहीं, कुछ धन निकल जाए तो कूड़ा-करकट जो बचे, वो उसको दे दिया जाए! मैंने वायदा कर लिया कि अगर कुछ ऐसा निकलता है, तो उसको भी हिस्सा मिलेगा, अब मैंने खुदाई करने से पहले, उस भूमि पर, कुछ दाने फेंके, पीली सरसों के दाने! और फिर खुदाई करने के लिए, मैंने निशान भी लगा दिए थे! अब लेके ऊपरवाले का नाम, वो चालक, नाम किशोर था उसका, चढ़ गया मशीन पर, और की मशीन चालू! और लगा अब खुदाई करने! हम वहीँ खड़े थे, वो दीप साहब और सुरेश साहब, बाहर थे गाड़ी में!
अभी कोई दस बार ही खुदाई हुई थी, कुल दस बार मिट्टी उठायी थी, कि मशीन बंद हो गयी! बहुत कोशिश की चलाने की, लेकिन नहीं चली, अब किशोर भी घबरा सा गया, उसने उतर कर, मशीन की जांच की, सबकुछ ठीक था, मैंने तब फिर से सरसों के दाने फेंके, और मशीन चलाने को कहा, लेकिन मशीन नहीं चली! किसी ने रोक दिया था उसको! अब हिम्मत हार ली उसने, और जैसे ही वो उतरा नीचे, मशीन चालू हो गयी! वो घबराया! लेकिन मैंने उसको कहा कि हिम्मत न हारे, और खुदाई करे! वो फिर से जुट गया! और इस बार खुदाई होने लगी हमारे मन-माफ़िक़! करीब आधे घंटे के बाद ही, उस गड्ढे से थोड़ा दूर, जहां ये खुदाई चल रही थी, वहाँ पत्थरों का एक निर्माण सा दिखा! अब मैंने मना कर दिया, उसने अब मशीन पीछे ले ली! कुछ नहीं मिला था, वो ये जानता था, बस उसके बाद अपनी मज़दूरी लेकर, चला गया!
और अब रह गए हम वहाँ! मैं और शर्मा जी!
"आओ ज़रा" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम उस जगह गए अब जहां खुदाई हुई थी! वहां पत्थरों से बनी कुछ दीवारें निकली थीं, कुछ दीवारें अभी भी ज़मीन के अंदर ही थीं, बस, इतना कि हमे अब राह मिल गयी थी जिस से हम आगे बढ़ पाते!
"ये दीवारें हैं" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"उधर आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम उधर गए जहां वो सुरंग होनी चाहिए थी!
"यहीं होनी चाहिए सुरंग" मैंने कहा,
"होनी तो यहीं चाहिए" वे बोले,
"वो पत्थर हटवाओ ज़रा" मैंने कहा,
"आओ" वे बोले,
इस तरह से हमने एक पत्थर को बड़ी मेहनत से हटाया, जान निकल गयी उस पत्थर को हटाने में! लेकिन उस से एक फायदा हुआ, नीचे एक संकरा सा रास्ता दिखाई देने लगा था!
"ये रही वो सुरंग" मैंने कहा,
"हाँ! वही है" वे बोले,
"टोर्च लाइए" मैंने कहा,
वे टोर्च लाये और मुझे दी,
मैंने नीचे रौशनी डाली, नीचे कूड़ा-करकट सा पड़ा था, कपड़े से थे, कुछ गुदड़ियाँ सी थीं, सुरंग में उतरने के लिए रास्ता भी नहीं था, ऊपर से कूदते तो ऊपर चढ़ नहीं पाते! क्या किया जाए? सीढ़ी हम लाये नहीं थे!
"आप एक काम करो" मैंने कहा,
"बोलिए?" वे बोले,
"दीप साहब से कहिये कि सीढ़ी का इंतज़ाम करें एक" मैंने कहा,
"कहता हूँ" वे बोले और चले गए!
मैं वही नीचे टोर्च की रौशनी मारता रहा, कुछ भी असामान्य नहीं लगा था! दीवारों के पत्थर भी झड़ने लगे थे, मशीन के बोझ से, कुछ पत्थर और मिट्टी भी नीचे गिर गयी थी! कुछ नहीं दिखा तो मैं वापिस चलने को हुआ, थोड़ा आराम करता, पानी पीता! माँ वापिस चलने को हुआ तो मेरे बाएं उस गड्ढे में से कुछ आवाज़ आई! मैं भागा उस तरफ, गड्ढे में झाँका, तो वहां कोई नहीं था! हाँ, अब सुरंग में प्रकाश फैला हुआ था! पश्चिम में जाते सूर्य की रौशनी अंदर आ रही थी! मैं करीब दस मिनट बैठा रहा वहाँ, और फिर वापिस हुआ, आ गया वहीँ पर, जहां चादर बिछी थी, शर्मा जी आ रहे थे, मैंने पानी की बोतल खोली, और पानी पिया! वे आ गए! बैठे!
"कह दिया?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"कहाँ गए हैं?" मैंने पूछा,
"कह रहे थे कोशिश करते हैं" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
हमने करीब एक घंटा इंतज़ार किया, और तब दीप साहब आये वहाँ, सीढ़ी नहीं मिली थी, हाँ, एक मोती सी रस्सी ले आये थे वे! इस से भी काम बन जाता! मैंने रस्सी ले ली, और दो दो फ़ीट पर एक एक गाँठ लगा दी उसमे, इस से नीचे उतरा जा सकता था! अभी दिन का अवसान होने में समय था, इसीलिए फौरन ही जांच करने के लिए दौड़ पड़े!
उस गड्ढे के पास एक पेड़ था, कीकर का पेड़, वहां रस्सी में दोबल-गाँठ मारी, और ले आये उसको उस सुरंग के मुहाने तक, जहां हमने खुदाई करवाई थी! अब तय ये हुआ कि मैं नीचे जाऊँगा, शर्मा जी, मेरे साथ फ़ोन पर सम्पर्क में रहेंगे! वे ज़िद कर रहे थे कि वो भी साथ चलेंगे, लेकिन मैंने मना किया उन्हें, नीचे जो रास्ता था वो संकरा था बहुत! कहीं कोई मुसीबत होती, तो आफत आ पड़ती! मैंने उन्हें समझाया! और फिर मैंने दो विद्याओं का संधान कर लिया! एक मंत्र का भी, ये औलुष मंत्र है! कोई भी अशरीरी ताक़त आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती!
अब मैं नीचे उतरा! जैसे ही उतरा, ठंडी सी हवा आई! मेरे पाँव नीचे टिके, वे कपड़े ही थे, सूती से कपड़े, और कुछ बाल भी थे, मैंने सामने टोर्च की रौशनी मारी सामने! सामने घुप्प अँधेरा था! और पता नहीं कहाँ जा रहा था वो रास्ता! एक मन किया, आगे जाऊं, एक मन किया नहीं, वापिस जाऊं! आखिर में आगे चला, रास्ता बस तीन फ़ीट चौड़ा ही था, कहीं कहीं पत्थर पड़े थे वहां, सन्नाटा पसरा था वहां! फ़ोन बजा! फ़ोन उठाया,
"कुछ दिखा?" वे बोले,
"कुछ नहीं" मैंने कहा,
"आ जाओ फिर ऊपर वापिस" वे बोले,
अब इसमें ही भलाई दिखी!
मैं वापिस हुआ, और जैसे ही वापिस हुआ, किसी की फुसफुसाहट आई, मैंने फौरन ही टोर्च उधर की, वहां कुछ नहीं था! नीचे वो वस्त्र और बस दीवारें! और कुछ नही! लेकिन फुसफुसाहट तो आई ही थी! मैंने गौर से देखा, टोर्च की रौशनी मारी सामने, कुछ नहीं था, और नीचे, वहां भी कुछ नहीं था, और तभी मेरी निगाह बायीं दीवार पर पड़ी! उस दीवार के मध्य से, किसी स्त्री की टांग बाहर निकली हुई थी! ऊपर जांघ तक! टांग मुड़ी हुई थी, टांग में, हंसली पहनी थी उसने, पाँव में माहवर लगाई हुई थी, कोई आठ फ़ीट दूर होगी! मैं उसको ध्यान से देखने लगा!
और तभी दूसरी दीवार से, दायीं दीवार से, एक हाथ निकला, पूरा कंधे तक! ये तो बहुत ही अजीब सा दृश्य था!
मित्रगण!
उसके बाद तो उन दीवारों से, न जाने कितनी टांगें, और कितने ही हाथ, बाहर निकलने लगे! अब मैं पीछे हुआ, फोन काटा नहीं था, और शर्मा जी लगातार 'हेलो,हेलो' चिल्लाये जा रहे थे!
"मैं आ रहा हूँ वापिस!" मैंने कहा,
और अब मैं भाग लिया आगे! पीछे मुड़कर नहीं देखा मैंने! रस्सी तक पहुंचा और चढ़ने लगा! मुझे लग रहा था कि कोई भी, किसी भिस माय, मेरी टांगें पकड़ लेगा और नीचे खींचेगा! हालांकि मेरी देह पोषित थी मंत्रों से! लेकिन इंसानी भय और उसकी देह का ये अपना ही रक्षण हुआ करता है! मैं जल्दी जल्दी ऊपर चढ़ा, मेरा हाथ खींचा शर्मा जी ने! मैंने साँसें थामी अपनी! और अब उन्हें सबकुछ बता दिया! वे भी घबरा गए थे!
"अब यहां आपको कुछ करना ही होगा" वे बोले,
"हाँ, अब अन्य विकल्प नहीं" मैंने कहा!
"अभी चलते हैं" वे बोले,
"ये ठीक है" मैंने कहा,
हमने रस्सी ऊपर खींच दी थी, लेकिन पेड़ से बंधे रहने दी!
"नीचे तो बहुत बुरा हाल है!" मैंने कहा,
"यहां तो हर तरफ ऐसा ही है" वे बोले!
"चलो" मैंने कहा,
हमने चादर उठा ली, कंबल भी और पानी की बोतल भी! और चल पड़े वापसी!
"कल आते हैं यहां" मैंने कहा,
"हाँ, अब ऐसे ही बात बनेगी" वे बोले,
"मैं आज रात कुछ और आवश्यक विद्याएँ साध लूँगा, और कल, एक महा-भोग के बाद, यहां आ जाएंगे" मैंने कहा,
"ये ठीक है" वे बोले,
"छका के रख दिया है बुरी तरह से" मैंने झुंझला के कहा,
"अब कल ही पता चलेगा!" वे बोले,
और जब हम बाहर आने ही वाले थे, कि एक आवाज़ आई, हम रुक गए, कोई हमारे दायें खड़ा था! हाथों में टोकरा सा लिए!
"आना ज़रा?" मैंने कहा,
वे चल पड़े,
उस आदमी ने टोकरा रखा, ये आदमी भी पहलवान जैसा था! बहुत मज़बूत जिस्म का! हम आगे बढ़े, और वो पीछे हटा! और जब हम टोकरे के पास आये, तो लोप हुआ वो! टोकरे पर कपड़ा पड़ा था, मैंने कपड़ा हटाया, तो उसके अंदर.............

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