2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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sexy
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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:24

अब मैं सोच में पड़ा, बाबा मोहन अच्छे-खासे, तांत्रिक थे, लेकिन वे भी चपेट में आ गया? कैसे खा गए गच्चा? कौन सी शक्ति है ऐसी जो बाबा मोहन को लील गयी? कपिल तो बताने से रहा, और दीपांकर और सुरेश को कख नहीं मालूम! तो अब बेहतर यही था कि स्वयं उस ज़मीन की जांच की जाए! मैंने इस विषय में दीपांकर साहब से बात की,
"दीप साहब?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"मैं आपकी ज़मीन देखना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"जी ज़रूर" वे बोले,
"कब दिखाएँगे?" मैंने पूछा,
"आज ही चलिए" वे बोले,
"ठीक है, चलते हैं" मैंने कहा,
कपिल के रहने और देख-रेख के लिए पूरे इंतज़ाम कर दिए गए थे, अब वो स्वास्थ्य लाभ ले रहा था, मैं जितना जानना चाहता था, उतना तो नहीं बता पाया था वो, लेकिन फिर भी कुछ न कुछ अवश्य ही जान गया था, जैसा उसने देखा था वहां, उसने यही बताया था की पहले ज़मीन में से आग निकली थी, फिर पत्थर पड़ने लगे थे, और जब पत्थर पड़ने बंद हुए, तो उन दोनों को किसी ने उठा-उठा के पटका था, इन्ही चोटों के कारण बाबा मोहन घायल हुए थे बुरी तरह और अंदरूनी चोटों के कारण उनकी मौत हुई थी!
कोई आधे घंटे के बाद, हम सभी निकले उस ज़मीन को देखने के लिए, ये ज़मीन मानेसर के पास थी, और काफी बड़ी ज़मीन थी वो! हम पहुँच गए थे कोई डेढ़ घंटे में, सुरेश और दीप साहब तो डरे हुए थे, वे दूर ही खड़े रहे, मैं और शर्मा जी वहां जाने को तैय्यार हुए जहां वो खुदाई शुरू हुई थी, हम उस ज़मीन में अंदर चले, अंदर पेड़ पौधे लगे थे, जंगली घास और झाड़ियाँ थीं वहाँ, ज़मीन भी ऊबड़-खाबड़ ही थी, पत्थर पड़े थे बड़े बड़े, हम उस जगह आ गए जहाँ वो गड्ढा थे, ये करीब तीन फ़ीट चौड़ा और एक ही फ़ीट खुदा होगा, आसपास ऐसा कुछ नहीं था जी संदिग्ध होता, हाँ, पत्थर ज़रूर पड़े थे वहाँ! और वे पत्थर भी वहाँ के नही लगते थे, वहाँ के पत्थर लाल थे, और ये नदी के से पत्थर लगते थे! यही बरसे होंगे उन पर, यही सोचा मैंने!
"ये पत्थर अजीब हैं या नहीं?" मैंने शर्मा जी से कहा,
उन्होंने एक पत्थर उठाया, उसको उलट-पलट के देखा,
"हाँ, नदी के से पत्थर लगते हैं ये" वे बोले,
"यही हैं वो पत्थर" मैंने कहा,
वहाँ बहुत सारे ऐसे पत्थर पड़े थे! कम से कम आधा ट्रक!
"आप ज़रा दूर हटिये" मैंने कहा,
वे हटे, तो मैं गड्ढे में उत्तर कर खड़ा हो गया, अब मंत्र पढ़ा, कलुष मंत्र, और अपने नेत्र पोषित किये,और खोल दिए नेत्र! जैसे ही खोले, मुझे भयानक गर्मी सी चढ़ गयी! लगा जैसे उस गड्ढे से आग निकल रही हो! मुझे बाहर आना पड़ा! मेरे जूते के तलवे भी नरम पड़ने लगे थे! ऐसी गर्मी थी उस गड्ढे में! लेकिन कलुष-मंत्र से कुछ अंदर ख़ास नहीं दिखा, नीचे पत्थर ही पत्थर थे, कहीं कहीं चूना था, और कुछ नहीं, दूर तलक यही सब था! आखिर में मैंने कलुष मंत्र वापिस लिया, जैसे ही लिया, बदन की गर्मी भी शांत हो गयी!
"कुछ दिखा?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं, कुछ भी नहीं" मैंने कहा,
तभी शर्मा जी को छींक आई, और उनकी नाक से खून की बूँदें टपकने लगीं! उन्होंने पहले तो हाथ से देखा, और फिर रुमाल से, खून रिस रहा था नाक से, और ये सामान्य नहीं था!
"पीछे हटो!" मैंने कहा,
वे पीछे भागे! मैं भी संग भागा!
"बस, रुक जाओ" मैंने कहा,
वे रुके, तो मैंने एक देह-रक्षा मंत्र पढ़ा, ज़मीन से मिट्टी की एक चुटकी उठायी और उनके माथे से रगड़ दी, खून बंद हो गया!
मैंने पीछे मुड़के देखा, ये ज़मीन कुछ कह रही थी हमसे! धमका रही थी! दुबारा न आने को कह रही थी!
"यहां कोई गड़बड़ है" वे बोले,
"हाँ, बहुत बड़ी" मैंने कहा,
हम वहीँ देख रहे थे! एकटक!
"लेकिन यहां है क्या?" मैंने पूछा अपने आपसे!
शर्मा जी चुप रहे!
"आप यहीं रहिये, मैं आता हूँ" मैंने कहा,
"मैं भी चलता हूँ" वे बोले,
"नहीं, यहीं रुको" मैंने कहा,
अब वे रुक गए, और मैं आगे बढ़ गया! उस गड्ढे के पास पहुंचा! जैसे ही देखा, लगा गड्ढा नीचे को धसक रहा है! मैं पीछे हटा, गड्ढे के किनारों पर रखी मिट्टी और पत्थर अंदर गिरने लगे! मैं ये खड़ा खड़ा देखता रहा! अजीब सा नज़ारा था!
थोड़ी देर में पत्थर और मिट्टी बंद हो गए गिरना, मैं आगे बढ़ा और अब गड्ढे को देखा, गड्ढा अब गहरा हो गया था! और तभी आवाज़ सी आयीं 'होम' जैसे कोई बुदबुदाया हो! मुझे यक़ीन नहीं आया! गड्ढा करीब नौ फ़ीट गहरा हो चूका होगा! मैं ऊपर, किनारे पर बैठा था उसके, और फिर से आवाज़ आई 'होम' ये आवाज़ बहुत दीर्घ आवृति की थी! जैसे किसी खुले कक्ष में कोई यही बुदबुदा रहा हो!
यहां क्या हो रहा था?
कैसी माया थी यहाँ?
किसने प्राण लिए बाबा मोहन के?
किसने घायल किया उस कपिल को?
अब सवाल गहरे होते गए! सवाल नाचने लगे दिमाग में! ढिंढोरा पीट डाला उन्होंने तो! आखिर में मुझे एक ही रास्ता दिखाई दिया! कि अब इबु को हाज़िर किया जाए! मैंने शाही-रुक्का पढ़ा उसका! और भड़भड़ाता हुआ इबु हाज़िर हुआ! मुझे देखा, और जाना गया की मैं परेशान हूँ! मैंने उद्देश्य कहा उस से! वो एक बार लोप हुआ, और फिर हाज़िर, और दूर खड़ा दिखाई दिया, और फिर लोप! ये बड़ी अजीब सी बात थी! ऐसा नहीं करता इबु कभी! वो जहाँ खड़ा दिखाई दिया था, मैं वहाँ भागा, झाड़ियों से बचता बचाता! और आया यहां! यहाँ ज़मीन समतल थी! लेकिन वहाँ था कुछ नहीं! मैंने फिर से कलुष-मंत्र पढ़ा, नेत्र पोषित किये, और नेत्र खोल दिए! और जैसे ही खोले मैंने अपने नेत्र, मेरे होश उड़ गए! मेरे नीचे, मिट्टी में, कम से कम सौ से अधिक लाशें पड़ी थीं, कटी-फटीं! और सभी के सभी एक ही उम्र जैसे लगते थे, कोई इक्कीस-बाइस बरस के जवान! सभी के शरीर नग्न थे, कमर में एक काले रंग का फन्दा सा पड़ा था! ये सभी पुलिंदे में बंधे हों, ऐसा लगता था, लेकिन वे सब करीब तीस-चालीस फ़ीट नीचे होंगे, मैं बस अंदाजा ही लगा सकता था!
मैं अभी वही सब देख रहा था की मुझे पीछे मेरी, कदमों की आहट सुनाई दी, वे शर्मा जी थे! नहीं माने थे, मुझे दूर जाता देख, भाग आये थे!
"कुछ दिखा?" उन्होंने पूछा,
"रुको" मैंने कहा,
और अब मैंने उनके नेत्र पोषित किये,
"खोलो नेत्र अपने" मैंने कहा,
उन्होंने जैसे ही खोले, गिरते गिरते बचे!
"ये क्या है? हर तरफ बस यही सब?" वे बोले,
"पता नहीं क्या है, लेकिन ये सभी मारे गए हैं, हत्या की गयी है इन सभी की" मैंने कहा,
"है भ***!! ऐसा नर-संहार?" वे बोले,
"हाँ, ऐसा नर-संहार!" मैंने कहा,
"किसने किया होगा ये?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने कहा,
"आगे चलते हैं थोड़ा" वे बोले,
"चलिए" मैंने कहा,
और हम आगे चले!
आगे गए थोड़ा तो रुके!
"वो क्या है सामने?" वे बोले,
नीचे देखते हुए,
"आगे चलते हैं" मैंने कहा,
हम आगे चले,
अब देखा नीचे,
"ये कोई मूर्ति सी लगती है" वे बोले,
"हाँ, लगती तो है" मैंने कहा,
वो मूर्ति थी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता था, उसके हाथ तोड़ दिए गए थे, किसकी है, ये भी नहीं पता था, औंधी पड़ी थी, नग्न-स्वरुप था उसका, केश पीठ पर ही बने थे, और पीठ पुरुष की है या किसी स्त्री की, पता नहीं चल रहा था, कमर से नीचे का हिस्सा भी तोड़ दिया गया था, और वहां कहीं नहीं पड़ा था, यहाँ बहुत कुछ ऐसा था, जिसने दिमाग और सोच के तार झनझना दिए थे! प्रश्न दिमाग में कीड़ों की तरह से कुलबुलाने लगते! ये स्थान क्या है? सबसे बड़ा सवाल यही था!

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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:25

वो मूर्ति कम से कम बारह फीट की रही होगी, उसके आकार से तो यही लगता था, लेकिन उस मूर्ति के आसपास और कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिस पर गौर किया जाए, वहाँ पत्थर ही पत्थर थे, और कुछ नहीं, हाँ, चूना ज़रूर था वहाँ बिखरा हुआ, सफ़ेद चूना,
"आओ, आगे चलते हैं" मैंने कहा,
"चलिए" वो बोले,
हम और आगे चले, यहां से दीप और सुरेश साहब की गाड़ी, दीख ही नहीं रही थी, शायद जंगली पेड़-पौधों की वजह से!
"ये क्या है?" वे बोले, और रुके,
"हाँ? क्या है ये?" मैंने पूछा,
"कोई चाकी है क्या?" वो बोले,
"चाकी के पाट में ऐसे दाने से क्यों उभरे होंगे?" मैंने कहा,
"हाँ, तो फिर ये है क्या?" वे बोले,
नीचे एक बड़ा सा पत्थर का चाक था, उसके बीच में एक छेद था, करीब बारह इंच का रहा होगा, उसी को देख कर हम अटक गए थे!
"क्या किया जाता होगा इसका?" वे बोले,
"पता नहीं, अजीब सा ही चाक है!" मैंने कहा,
हम और आगे बढ़े!
"अब ये क्या है?" वे बोले,
नीचे, पत्थर के अजीब अजीब आकार वाले घन से रखे थे! कोई भी एक आकार दूसरे से नहीं मिलता था, हाँ, बस तला जो था, वो सपाट था, जैसे उसको भूमि पर रखा जाता हो वहाँ से!
"मेरी समझ से तो बाहर है" मैंने कहा,
"मेरी समझ से भी" वे बोले,
"आगे चलिए" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आगे गए, नीचे ज़मीन में पत्थर ही पत्थर थे! एक पेड़ आया, नीम का पेड़ था वो, छाया बढ़िया थी उसकी, सो हम बैठ गए उसके नीचे, दो बड़े बड़े पत्थरों पर! मैं अभी तक उन लाशों के बारे में ही सोच रहा था, ध्यान वहीँ अटका था मेरा अभी भी!
"वे लाशें, कौन हैं?" मैंने पूछा,
"पता नहीं, मुझे तो ये स्थान ही अजीब सा लग रहा है" वे बोले,
"हाँ, है तो अजीब ही" मैंने कहा,
"यहाँ अभी तक कोई धन तो दिखा नहीं? बाबा मोहन ने कैसे हाँ कर दी?" वे बोले,
शंका सही थी! धन तो अभी तक कहीं नहीं था वहाँ! नहीं दिखा था अभी तक!
"हाँ, कैसे हाँ कर दी? देख तो लगाई ही होगी?" मैंने भी कहा,
"कहीं माया में तो नहीं फंस गए?" वे बोले,
"माया-नाशिनी विद्या तो थी उनके पास?" मैंने कहा,
"फिर कैसे फंस गए?" वे बोले,
"यही समझ नहीं आ रहा कि कैसे" मैंने कहा,
"आगे चलें या वापिस?" वे बोले,
"आगे चलते हैं, हो सकता है कुछ दिख जाए?" मैंने कहा,
"चलिए फिर" वे बोले,
और हम आगे चले फिर, अभी की चालीस-पचास कदम ही चले होंगे की हम दोनों ही ठिठक कर रुक गए! मैंने शर्मा जी का हाथ पकड़ लिया था!
"ये क्या हैं?" वे बोले,
"भांड लगते हैं" मैंने कहा,
"पत्थर के भांड?" वे बोले,
"सम्भव है" मैंने कहा,
"लेकिन ये सभी ढके हुए हैं?" वे बोले,
"हाँ, और शायद यही होगा धन!" मैंने कहा,
वे आगे चले गए, वो भांड करीब बीस फ़ीट नीचे थे, सभी पत्थरों के चाकों से ही ढके हुए!
"एक मिनिट! यहां आइये, जल्दी!" वे बोले,
"कुछ है क्या?" मैं आगे बढ़ता हुआ बोला,
"आइये तो सही?" वे बोले,
और मैं पहुँच गया वहां!
"ये क्या है?" मैंने स्वयं से पूछा,
"किसी स्त्री की लाश लगती है" वे बोले,
वहां एक भांड था खुला हुआ, करीब छह फ़ीट ऊंचा, उसमे कमर से ऊपर का भाग उसका भांड के अंदर था, कूल्हे बाहर थे, पांवों के साथ, दोनों हाथ भी बाहर ही थे, हाथों में कंगन थे, और हाथ में रस्सी भी पड़ी थीं, कलाइयों में बंधी हुई!
"इसकी भी हत्या ही हुई होगी!" मैंने कहा,
"हाँ, यही लगता है" वे बोले,
"तो कहीं इन भांडों में ऐसी ही लाशें तो नहीं?" मैंने पूछा,
"सम्भव है, ये तो खोदने पर ही पता चलेगा" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
हम और आगे चले, और ठिठक कर रुक गए!!!
"हे भ*****!!!!" वे बोले!
''अरे बाप रे!" मैंने कहा, मेरे मुंह से निकला!
वहां नीचे पत्थर पड़े थे, और उन पत्थरों में लाशें पड़ी थीं, किशोर, किशोरियां, जवान मर्द और औरतें, सभी के सभी कटे-फ़टे! कइयों कि तो खाल ही उतार ली गयी थी! कइयों का जिस्म जला दिया गया था! शरीर पर घाव ही घाव थे! हाथ-पाँव, सर कटे पड़े थे वहाँ! बहुत ही ख़ौफ़नाक नज़ारा था वो!
"वो! वो देखिये!" वो चिल्लाये!
मैं भागा वहाँ!
"ओह!!! कौन होगा वो जल्लाद!" मैंने कहा,
वहाँ एक स्थान पर, छोटे छोटे बा*क-बाली*ऐं कटे पड़े थे! जैसे सभी को इसी जगह इकठ्ठा किया गया हो, और एक एक करके काट दिया गया हो! कलेजा काँप उठा! पत्थरों से शायद वे शिशु कुचल के मार दिए गए थे, कौन होगा वो? जिसने ऐसा कोहराम मचाया होगा यहां? कौन होगा वो बेरहम और पत्थर दिल इंसान!
"कैसा बेरहम होगा वो इंसान, लानत है" वे बोले,
"सही में, बेरहम! क़ातिल!" मैंने कहा,
वो दृश्य देखा नहीं जा रहा था, अतः वहाँ से हट गए हम! लेकिन हम दोनों ही काँप उठे थे वो दृश्य देख कर, ऐसा भयानक नर-संहार? किसने अंजाम दिया होगा?
"क्या हुआ था यहां, अब जानना होगा" मैंने कहा,
"हाँ, गुरु जी" वे बोले,
"आगे चलें?" वे बोले,
"चलो" मैंने कहा,
और हम आगे चले फिर,
कोई सौ कदम चले होंगे की कुछ दिखा फिर से, नीचे ही!
"ये क्या है अब?" मैंने कहा,
शर्मा जी ने गौर से देखा, नीचे बैठते हुए!
"ओह!" वे बोले,
"क्या हुआ?" मैंने कहा,
"देखिये, मुझे तो इंसानी कलेजे लगते हैं?" वे बोले,
मैं नीचे बैठा, और देखा,
"हाँ वही हैं" मैंने कहा!
मित्रगण! वहां सैंकड़ों ऐसे इंसानी कलेजे गुंथे पड़े थे एक दूसरे से! जैसे इकठ्ठा किये गए हों वे सब वहाँ! जिनकी हत्या हुई होगी, उनके कलेजे रहे होंगे ये!
"ये जगह कोई डेरा है क्या?" शर्मा जी ने कहा,
"लगता ऐसा ही है अब तो" मैंने कहा,
"लेकिन रिहाइश का क्षेत्र नहीं है यहां कोई भी?" वे बोले,
"हाँ, वही मैं भी देख रहा हूँ" मैंने कहा,
"आगे चलते हैं" वे बोले,
"चलिए" मैंने कहा,
और हम दोनों आगे बढ़ गए! जो नज़ारा देखा था, उस से अभी तक कंपकंपी छूट रही थी शरीर में!

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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:25

"ये कोई लूटपाट का मामला नहीं लगता मुझे तो" वे बोले,
"है ही नहीं" मैंने भी समर्थन किया,
"लूटपाट में तो सब लूट लेते वो, यहां कई लाशों के शरीर पर आभूषण अभी भी हैं" वे बोले,
"हाँ, मुझे कोई व्यक्तिगत शत्रुता लगती है ये" मैंने कहा,
"हाँ कोई रंजिश" वे बोले,
"हाँ, उसी का फल है ये नरसंहार" मैंने कहा,
"वो क्या है?" मैंने देखा एक जगह कुछ, और कहा,
वो ज़मीन के ऊपर बना कोई खंडहर सा था!
"चलके देखते हैं" वे बोले,
"चलिए" मैंने कहा,
और हमने वहाँ के लिए अपने कदम बढ़ा दिए! पहुंचे वहां, ये कोई खंडहर सा था, लाल रंग के पत्थरों से बना, छूने से चिना गया था, और बीच बीच में कहीं गारा भी दिख रही थी, अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था वो खंडहर, बस दीवार, और कुछ पत्थर ही शेष बचे थे, ज़्यादा बड़ा भी नहीं था, बस कोई तीस-चालीस गज में ही बना था, ऊंचा रहा होगा कभी, लेकिन अब तो चार फ़ीट ही शेष था, अंदर अब झाड़-खंखाड ही थे, लम्बी लम्बी सूखी सी घास थी, मदार के पौधे लगे हुए थे, कुछ बर्रों ने दीवार में छत्ते भी बना लिए थे, कुछ कोटरों में, परिंदों ने अपने घोंसले बना लिए थे, अब ये खंडहर उन्ही का था, वही थे इसके स्वामी अब!
"ये है क्या?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने कहा,
"कोई मंदिर?" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
"अगर मंदिर है तो, यहां कभी आबादी रही होगी" वे बोले,
"हाँ, यक़ीनन" मैंने कहा,
"पता नहीं किसने बनवाया होगा, इतिहास के गर्भ में छिप गया है अब सब" वे बोले,
"आज ज़ुबान ही नहीं है इसकी, नहीं तो कभी ज़रूर बोलता होगा, किसी समय! अपने समय में!" वो उसको हाथ लगा के बोले!
"हाँ! एक दिन शान से खड़ा हुआ होगा! लोगबाग आते जाते होंगे! बहुत वक़्त देखा है इसने! बस मूक खड़ा है, अकेला जो रह गया है!" मैंने भी हाथ लगाकर कहा उसको!
मैं कह ही रहा था और शर्मा जी का कोई जवाब नहीं आया, मैं पीछे पलटा, तो वो शांत खड़े, देख रहे थे सामने कहीं!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
वे कुछ नहीं बोले, बस हाथ सामने कर दिया अपना, मैंने वहीँ देखा, और ठिठक गया! सामने दूर, उस नीम के पेड़ के पास, दो महिलायें थीं, उनका कद आज की महिलाओं से कहीं ऊंचा था, कम से कम साढ़े छह फ़ीट या सात भी हो सकती थीं, वे चहलकदमी सी कर रही थीं, जैसे कुछ ढूंढ रही हों वहाँ! वो जब पेड़ के सामने आतीं, तो पेड़ उनमे से आरपार दीखता था, यक़ीन से वो इंसानी महिलायें नहीं थीं! वे प्रेतात्माएँ ही थीं!
"आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम आहिस्ता आहिस्त चलने लगे, वे चौंक न जाएँ, इसीलिए बीच बीच में रुक जाते थे, न जाने कैसी प्रतिक्रिया हो उनकी! इसलिए चौकस भी थे!
हमारा फांसला कम होता गया! अब साफ़ दीख रही थीं हमें वो! हाँ, वो सात फ़ीट की ही रही होंगी, मुझसे भी एक फ़ीट ज़्यादा, सफ़ेद और पीले रंग के कपड़े पहने थे उन्होंने, पीला रंग का एक घाघरा सा था, घुटनों के नीचे तक, पाँव में जूतियां थीं, लाल रंग की, हाथों में, पांवों में और कमर में, चांदी के आभूषण थे, सर पर ओढ़नी थी उन दोनों के, देह बहुत मज़बूत थी उनकी, ठेठ देहाती महिलायें लगती थीं वो! रंग बेहद साफ़ था उनका, और उम्र कोई पच्चीस बरस के आसपास होगी उन दोनों की!
हम थोड़ा करीब आये उनके, तो एक की नज़र हम पर पड़ी! उसने दूसरी को कुछ कहा, और वो भी उसके संग खड़ी हो गयी! हम रुक गए थे तभी! उनके हाथ खाली थे उस समय!
"डरो नहीं!" मैंने कहा,
दरअसल वो पीछे हुए जा रही थीं! धीरे धीरे! मुझे कहना पड़ा!
वे रुक गयीं!
"घबराओ नहीं, मैं कोई हानि नहीं पहुंचाउंगा तुम दोनों को" मैंने कहा,
वे रुक गयी थीं,
अब हम आगे बढ़े! इतना आगे कि उनके और हमारे बीच कोई छह फ़ीट का फांसला हो गया था! हम खड़े हो गए, वो हमें शांत खड़े होकर, टकटकी लगाए देख रही थीं, उनको अजीब से लग रहे होंगे हम! या फिर, बरसों से कोई जीवित इंसान देखा ही नहीं होगा उन्होंने!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
वे चुप खड़ी रहीं!
"बताओ?" मैंने पूछा,
फिर से चुप!
मैं आगे बढ़ा तो एक चिल्लाई, "पथिया! पथिया!"
अब ये पथिया कौन है, ये नहीं मालूम चला, क्योंकि कोई आया नहीं था वहाँ! वो दो बार चिल्ला कर चुप हो गयी थी, और मैं पीछे लौट आया था!
"मैं कोई नुक़सान नहीं पहुंचाउंगा, वचन देता हूँ मैं" मैंने कहा, और नीचे बैठ गया, घुटनों पर, फिर उकडू बैठ गया! वे मुझे ही देखती रहीं!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं दिया उन्होंने! जैसे मेरी भाषा समझ नहीं आ रही हो उन्हें! और यही बात थी! अब उनकी वेशभूषा राजस्थानी सी थी, ओढ़नी से तो यही लग रहा था, थोड़ी बहुत मैं बोल लेता हूँ, तो अब मैंने उसी भाषा में पूछा,
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"रक्कू" एक ने कहा,
अब शायद नाम था उसका ये! रक्कू!
"यहां क्या कर रही हो तुम?" मैंने पूछा,
"बालक ढूंढने" वो बोली,
ओह! बालक ढूंढने आई थी वो! लेकिन कौन बालक?
"कौन बालक?" मैंने पूछा,
"इसका बालक" वो बोली,
"यहां तो नहीं है?" मैंने कहा,
"खेलने गया था" वो बोली,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"ये कौन सा गाँव है?" मैंने पूछा,
"पता नहीं" वो बोली,
"तुम कहाँ से हो?" मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं दिया!
कोई भी जानकारी हाथ नहीं लगी! पता भी नहीं चला कि वे दोनों इसी स्थान से ताल्लुक़ रखती हैं या किसी अन्य स्थान से! कुछ पता नहीं चला!
तभी वे दोनों मुड़ीं,
"रुको" मैंने कहा,
उन्होंने नहीं सुना, और चलती रहीं, फिर दोनों एक साथ चलते ही ज़मीन से उठ गयीं और लोप हुईं!
"प्रेतात्माएँ!" शर्मा जी बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"लेकिन कुछ बताया नहीं उन्होंने" वे बोले,
"हम परदेसी हैं" मैंने कहा,
"हम्म, यही बात होगी" वे बोले,
अब हम आगे चले, और जैसे ही चले, हमें वहां गैंदे के फूल बिखरे मिले! करीब पांच-छह! अब ये कहाँ से आये? उन औरतों ने तो गिराये नहीं थे! दिमाग का एक और दरवाज़ा बंद हुआ भड़ाक से!
मैं नीचे झुका, फूल उठाये,
"ये देखो" वे बोले,
और जैसे ही मैंने शर्मा जी को फूल दिया, फूल भक्क से जल उठा! ये देख हम चौंक उठे! मेरे हाथ में वो फूल थे, मैंने ज़मीन पर गिराये सभी, और सभी जल उठे!
"ये क्या?" शर्मा जी बोले!
"मैं समझ गया हूँ!" मैंने कहा,
"क्या?" वो बोले, हैरत में थे!
"कि कोई खेल रहा है हमसे!" मैंने कहा,
"कैसे?" वे बोले,
"पहले प्रेतात्माएँ! अब ये फूल! जो राख हुए!" मैंने कहा,
लेकिन उन्हें समझने में देर लगी!

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