2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
User avatar
sexy
Platinum Member
Posts: 4069
Joined: 30 Jul 2015 19:39

Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:25

कोई चाहता था कि हम और गहराई में उतरें! वो सभी दृश्य दिखाना, वो प्रेतात्माएँ आदि, उसी खेल का हिस्सा थीं! उस समय कोई चार बज रहे थे, हमें वापिस भी लौटना था, अतः निर्णय लिया कि हम अब वापिस चलें, और पुनः फिर अगले दिन यहां आएं! हम वापिस चले, इस स्थान से बाहर निकलते ही, कलुष मंत्र वापिस लेना था, जब हम वापसी आ रहे थे तो हम उसी गड्ढे के पास से गुजरे, और जैसे ही हम वहाँ आये, शर्मा जी को फिर से छींक आई और फिर से उन्हें नाक से खून निकलता दिखाई दिया! मुझे भी समझ नहीं आया, मैंने वहीँ फिर से देह-रक्षा मन्त्र फूंका और एक चुटकी मिट्टी उनके माथे से लगा दी, खून तत्काल ही बंद हो गया उनका!
"आप जाइए यहाँ से" मैंने कहा,
"नहीं" वे बोले,
अब नहीं इस तरह से बोलें वो तो, फिर कोई नहीं मना सकता उन्हें!
"ठीक है" मैंने कहा,
तभी गड्ढे में से एक आवाज़ सी आई! जैसे कोई बड़ा सा पंखा चला हो! हम दोनों ने ही उस गड्ढे में झाँका! गड्ढे में अँधेरा था घुप्प सा! और फिर से आवाज़ आई! जैसे प्नका सा चला हो! और अचानक ही धूल का गुबार ऊपर उठा! और ऊपर आते ही फट गया! हम दोनों नहा गए धूल से! कपड़े सारे मैले हो गए! बालों में मिट्टी घुस गयी! जैसे तैसे अपने आपको साफ़ किया! पानी था नहीं वहाँ, नहीं तो मुंह धो लेते! मुंह में भी मिट्टी घुस गयी थी, और अब दांत किसकिसा रहे थे!
अब गड्ढा शांत था! अब कोई आवाज़ नहीं थी उसमे! अब हम वापिस चले, वापसी आये तो वे दोनों हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे! हमारा हाल देखा तो डर गए! कुशल-मंगल पूछी तो हमने बता दिया कि हम ठीक हैं, लेकिन इस ज़मीन पर कुछ भी ठीक नहीं है! वे पहले ही मुसीबत से जूझ रहे थे बाबा मोहन की मौत को लेकर, अब और घबरा गए! कैसे होगी? क्या होगा? क्या नहीं होगा? कहीं किसी के जान तो नहीं चली जायेगी? आदि आदि प्रश्न! शर्मा जी ने उनके प्रश्नों का समाधान कर दिया था!
हम दीप साहब के घर गए, वहां नहाये धोये, कपड़े झाड़े अपने, चाय पी और कुछ हल्का-फुल्का खाया! उसके बाद हम निकल लिए थे वहाँ से, अब कल आना था हमें वहाँ, दीप साहब ने कहा कि वो लेने आ जाएंगे हमने, कल सुबह ही!
अगले दिन, मैं और शर्मा जी, चाय-नाश्ता आदि कर के, तैयार ही बैठे थे, दीप साहब का फ़ोन आया, और हम उनसे जा मिले, और सीधा उस स्थान के लिए निकल पड़े! वहाँ पहुंचे, सुरेश साहब वहीँ आ गए थे, वे दोनों वहीँ रहे और हम अंदर प्रवेश कर गए! कलुष मंत्र पढ़ा मैंने और अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! और चल पड़े आगे हम! उस गड्ढे तक पहुंचे, तो आज गड्ढा भरा पड़ा था! उसके ऊपर पत्थर पड़े थे, वैसे ही, नदी जैसे!
"आज तो भर गया ये!" शर्मा जी बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"आज छींक भी नहीं आई यहां" वे बोले,
हाँ! ये सही बात थी! आज नहीं खून निकला था उनकी नाक से! ये एक अलग ही बात थी! नहीं तो कल दो बार, इसी गड्ढे के पास आते ही, उनको खून आया था नाक से!
"आइये आगे चलें, आज उधर" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और हम चल पड़े!
तभी देखा कि सामने से एक मधुमक्खियों का झुण्ड चला आ रहा है! वे हज़ारों की संख्या में थीं! वहाँ रुके रहना मौत से खेलने जैसा था! वो डंगारा मुहाल थी, काट ले तो बुखार आ जाए! यहाँ तो सैंकड़ों, हज़ारों थीं!
"पीछे भागो" मैंने कहा,
और हम पीछे भागे!
हम एक पेड़ के नीचे आ रुके! और तब तक वहीँ रहे जब तक कि वो पूरा झुण्ड निकल नहीं गया वहाँ से!
"जान बची लाखों पाये!" वे बोले,
मैं हंस पड़ा!
"अगर आ जाओ लपेटे में इनके तो समझो हो गया काम!" वे बोले,
"हाँ! जानलेवा हमला होता है इनका!" मैंने कहा,
अब हम आगे चले, आज दूसरी तरफ, शर्मा जी पानी की एक बड़ी बोतल ले आये थे अपने साथ, तो पानी पिया हमने वहाँ, और फिर चल पड़े आगे!
"ये क्या है? कोई कुआँ?" वे बोले,
मैंने भी देखा, ये एक कुआँ ही था!
"हाँ, कुआँ ही है" मैंने कहा,
"यहाँ के लोगों ने ही खुदवाया होगा" वे बोले,
"हाँ, पानी के लिए" मैंने कहा,
कुआँ भी काफी बड़ा था वैसे, जब पानी रहता होगा उसमे तो खूब बहार होती होगी इसके आसपास!
"आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम आगे चले!
कोई दो सौ कदम चले होंगे, कि अब वहाँ निर्माण कार्य सा दिखा! कुछ टूटे-फूटे कक्ष! कुछ चबूतरे से बने थे!
"शर्मा जी! ये होगी रिहाइश!" मैंने कहा,
"हाँ! यही लगती है" वे बोले,
"अब तो खंडहर हैं" मैंने कहा,
"कभी यहां इंसानी ज़िंदगियाँ बसती होंगी!" वे बोले!
"हाँ" मैंने कहा,
और फिर हम उनको देखते देखते आगे चलते रहे! वे कक्ष से हर तरफ बने हुए थे! खूब आगे तक, अब पेड़ों के शहतीर, पत्थर आदि पड़े हुए थे वहाँ! और कुछ न था! हम एक जगह रुके, वो एक हरा-भरा पेड़ था कीकर का, वहां बैठे, आराम किया, पानी पिया!
"बड़ा रहस्य ही है यहां दफन" वे बोले चारों ओर देखते हुए,
"हाँ एक बड़ा ही रहस्य" मैंने कहा,
"वापिस चलें?" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और हम उठे, एक तरह से सारी जांच कर ली थी हमने!
"अरे?" वे बोले,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वो, वहाँ?" वे बोले,
वहाँ एक ढलान थी, वहां कुछ बाल* खेल रहे थे!
"जल्दी चलो!" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम भागे वहाँ! वो एक हरा-भरा सा स्थान था! कोई आठ-दस बाल* होंगे, एक दूसरे के पीछे भाग रहे थे! कई नग्न थे और कई कच्छे में! सभी हंस-खेल रहे थे! हम एक ओट से उनको देख रहे थे! एक पेड़ की ओट से! तभी एक बाल* की निगाह हम पर पड़ी, उसने सभी को इकठ्ठा कर लिया! सभी एक साथ इकट्ठे हो गए! और भाग लिए वहाँ से, दूसरी ओर! और हुए सभी लोप! हवा में छलांग लगाते हुए!
अब हम पेड़ की ओट से बाहर निकले!
"बेचारे!" मैंने कहा,
"हाँ, बेचारे" वे बोले,
तभी पीछे हमारे कुछ पत्थर आ कर गिरे! पत्थर काफी थे! हम तक तो नहीं पहुंचे थे लेकिन निशाना हम ही थे!
"कौन है?" मैंने आवाज़ दी!
पत्थर फिर से आये!
"कौन है वहाँ?" मैंने फिर से कहा,
एक शोर सा हुआ! शोर! हंसी ठट्ठे का! समझ में आ गया कि ये वहीँ हैं जो यहां खेल रहे थे! हमने उनका खेल बंद करवा दिया था तो अब पत्थर मार रहे थे!
"खेल लो! खेल लो! हम जा रहे हैं!" मैंने कहा,
और पत्थर फिंकने बंद!
मुझे हंसी आ गयी! उनकी इस चंचलता पर!
"आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम चल दिए वापिस!
"खेल लो!" मैंने कहा,
और ये कहते कहते हम वापिस आ गए वहां से!
हम वापिस आये तो वहीँ उस मैदान में देखा! वे फिर से खेलने लगे थे!
"आओ, इनको खेलने दो!" मैंने कहा,
"चलो फिर" वे बोले,
हम वापिस चले फिर, और चलते चलते आ गए उस गड्ढे तक! गड्ढे को देखा तो चौंक पड़े हम! गड्ढे का रंग लाल पड़ चुका था! मैं नीचे बैठा, शर्मा जी भी बैठे!
मैंने ऊँगली से उस गड्ढे की मिट्टी को उठाया, सूंघा!
"ये तो खून है!" मैंने कहा,
"खून?" वे बोले,
"हाँ, देख लो" मैंने कहा,
और जैसे ही शर्मा जी ने ऊँगली लगाई उस मिट्टी को! वो करीब पांच फ़ीट दूर जा कर गिरे! मैं चिल्ला के भाग पड़ा उनके पास, उनका सर एक पत्थर से टकरा गया था, शुक्र था कि सर खुला नहीं था, नहीं तो बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाती! उनको उठाया मैंने, चश्मा दिया उनका उन्हें, वे खड़े हुए, चश्मा पहना, और अपनी ऊँगली देखी, नाख़ून काला पड़ चुका था!
"लगी तो नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं, ख़ास नहीं" वे बोले,
मैंने कपड़े झाड़े उनके!
"आप यही रुको" मैंने कहा,
"ठीक" वे बोले,
मैं उस गड्ढे तक गया!
नीचे बैठा और फिर से ऊँगली पर वो मिट्टी ली! उठा और आया शर्मा जी के पास!
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
वे चल पड़े मेरे साथ, मैं एक जगह बैठा, अपना जो छोटा बैग लाया था मैं, मेरी कमर में बंधा था, अब खोला, अपना खंजर लिया, और ज़मीन पर एक त्रिकोण बनाया! उस त्रिकोण के बीच में वो गड्ढे की मिट्टी रखी! एक मंत्र पढ़ा और..................

User avatar
sexy
Platinum Member
Posts: 4069
Joined: 30 Jul 2015 19:39

Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:26

त्रिकोण कुछ ऐसा बनाया था कि उसमे दो और त्रिकोण भी बनाये गए थे, एक दूसरे से छोटे, और एक शब्द लिख दिया गया था उस अंदर वाले त्रिकोण के मध्य, और जैसे ही मिट्टी रखी, और मंत्र पढ़ा, उसमे से धुंआ निकलने लगा, और सफ़ेद सफ़ेद झाग सा उठने लगा, और वो झाग सा फैलने लगा उस त्रिकोण के मध्य ही! जब धुआं शांत हुआ, तो वो झाग नमक सा बन चुका था, मैंने ऊँगली से उठाया, और सूंघा, ये गंधहीन था! लेकिन वो नमक नहीं था, वो अस्थियों का चूर्ण था! ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई मिट्टी इस जांच में अस्थियों का चूर्ण बन जाए! अभी भी जांच अधूरी ही निकली! मैंने वो चूर्ण उठाया, और हवा में उड़ा दिया! जहां जहां मेरे हाथ पर वो चूर्ण लगा था, वहाँ वहाँ खून के छींटे लग चुके थे! ये बहुत ही अजब माया था! मेरे हाथ अब कोई सूत्र भी नहीं लगा था, अभी तक! जिसकी सहायता से मैं आगे बढ़ता! अभी तक तो मैं धूल में लाठी भांज रहा था! मैं एक बार फिर से उस गड्ढे तक गया, शर्मा जी को मैंने अपने साथ आने को मना कर दिया था, कोई नहीं चाहता था कि मेरे अलावा कोई और यहाँ आये! इसीलिए मैं अकेला ही गया था! गड्ढे में ऐसी मिट्टी जमी थी जैसे उसमे खून भरा हो! ऐसा आश्चर्य तो मैंने आज तलक नहीं देखा था! अभी मैं उस गड्ढे का मुआयना कर ही रहा था कि मेरे बाएं ज़मीन में कुछ आवाज़ सी हुई, लगा जैसे कि कोई नीचे से प्रहार कर रहा है! कोई जैसे नीचे से कुदाल चला रहा हो! मैं रक्तक वहीँ देखता रहा, चौकस था, कहीं ज़मीन फट ही न जाए और कहीं मैं न समा जाऊं उस में! पांवों में पसीने आने लगे थे, मेरे जूते बहुत भारी से लगने लगे थे! तभी वहाँ की मिट्टी ऊपर उठने लगी, तो मेरे देखते ही देखते, 'बोक' की आवाज़ सी करती हुई, ऊपर आ गयी, एक छोटा सा टीला सा बना गया, कोई आधा फुट ऊंचा! मैं उसे ही देखता रहा! कहीं और कुछ न हो, यही इंतज़ार कर रहा था! करीब दस मिनट तक कुछ न हुआ! अब मैं आगे बढ़ा, और एक लकड़ी ले ली, अब लकड़ी ले, मैं नीचे बैठा, उस मिट्टी में लकड़ी डाली, और रेत सा था जो, वो हटाया, वो हटा तो एक बलुए रंग का पत्थर सा दिखा, मैंने कुरेदा उसे, कुरेदा तो पता चला कि वो पत्थर करीब आधा फुट चौड़ा और आधा ही फुट लम्बा होगा! मैंने अब लकड़ी छोड़ी, और हाथ से खोदने लगा, जहां मिट्टी कड़ी होती, मैं वहाँ लकड़ी की सहायता लिया करता! आखिर में मेरे हाथ उस पत्थर तक पहुंचे, मैंने निकाल लिया वो पत्थर बाहर! वो वैसा ही था जैसा मैंने सोचा था, उसी परिमाप का, हाँ एक इंच मोटा था वो! उसमे मिट्टी लगी थी, साफ़ करना ज़रूरी था, इसीलिए मैं शर्मा जी के पास गया, वो पत्थर को देख हैरान रह गए!
"ये कहाँ से मिला?" उन्होंने पूछा,
अपने आप आया है ऊपर" मैंने कहा!
"ये लो पानी" वे मुझे पानी देते हुए बोले,
अब मैंने पानी लिया और उसको धीरे धीरे साफ़ करना शुरू किया!
आराम आराम से मैं और शर्मा जी, उसको साफ़ करते रहे! और जब साफ़ हुआ तो पता चला कि ये एक बीजक था! एक छोटा सा बीजक! लेकिन ये बीजक यहां कैसे? कौन चाहता है कि ये बीजक पढ़ा जाए? मैं हैरानी के सबसे बुलंद पहाड़ पर खड़ा था उस वक़्त! अब मैंने वो बीजक देखा! गढ़ने वाले ने क्या बेहतरीन बीजक गढ़ा था! उस पत्थर पर, किनारों पर चारों ओर, एक लकीर थी, आड़ी रेखाएं चौड़ी थीं और दूसरी लंबवत रेखा बारीक! इसका अर्थ ये था कि चौड़ी रेखा तल है उसका, वहाँ से पकड़ा जाए! मैंने वहीँ से पकड़ा!
अब बीजक के चिन्ह देखे! पहले गिने, ये कुल चौबीस थे! इसमें तारे, चन्द्र, सूर्य, और तीन ग्रह बने थे! ये शायद, और देखा जाए तो आँखों से देखे जाने वाले ग्रह हैं, ये थे मंगल, शुक्र और बृहस्पति! बृहस्पति कभी कभार आँखों से भी दिख जाते हैं! वे क्रम में बने थे, और मेरा तर्क सही था!अब पिछली बार बृहस्पति कब दिखे थे, ये हिसाब लगाना गणित का कार्य था! और ये बीजक कब का है, ये भी पता चल जाता! इसमें हिरण बने थे, और सिंह भी बना था, कुआं नहीं था, आमतौर पर हुआ करता है, हाँ, एक नदी ज़रूर बनी थी!
लें यहां तो कोई नदी थी ही नहीं! ये भी हिसाब लगाना था! खैर, मैंने वो बीजक शर्मा जी को पकड़ा दिया! और खुद आगे चल पड़ा!
उस गड्ढे तक आया, तो गड्ढे में फूल पड़े थे! वैसे ही गैंदे के फूल! बड़े बड़े फूल! मैं नीचे बैठा, एक फूल उठाया, उसको सूंघा, तो ख़ुश्बू आई! फूल ताज़ा था! किसी ने हाल में ही यहां डाले थे वे सभी फूल! मैंने वो फूल वहीँ रख दिया! और आगे बढ़ गया!
आगे बढ़ा तो सामने लगा कि कोई खड़ा है! वो दूर था काफी! मेरे पीछे शर्मा जी भी आ गए थे, मुझे नज़रों से ओझल नहीं होने देते वो!
"वो सामने" मैंने कहा उनसे,
"अरे हाँ" वे बोले,
"चलते हैं" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
अब हम चल पड़े आगे!
वो जो सामने खड़ा था, उसकी पीठ हमारी तरफ थी, बड़ा लम्बा-चौड़ा सा आदमी लगता था वो देखने में! सात फ़ीट का रहा होगा वो आदमी कम से कम! सफ़ेद रंग का नीचे तक का कुरता पहन रखा था उसने, नीचे शायद धोती होगी, कमर में कमरबंध पड़ा था, सर पर एक साफ़ा सा बंधा था! वो सामने घूर रहा था!
हम रुके, कोई तीस फ़ीट पर!
मैंने ताली बजाई!
उसने झट से पीछे देखा, झुका और कमर में से अपना खंजर बाहर निकाल लिया! खंजर भी बहुत चौड़े फाल वाला था उसका! और लहराने लगा हवा में! जैसे हम शत्रु हों उसके!
"हम शत्रु नहीं" मैं चिल्ला के बोला!
आक्क्क थू! उसने थूका और लड़ने की मुद्रा में खड़ा हो गया!
"हम शत्रु नहीं हैं" मैंने कहा,
उसने फिर से थूका!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"हाँ?" वे बोले,
"नीचे बैठ जाओ" मैंने कहा!
वे नीचे बैठे, और मैं भी!
अब उसने खंजर लहराना बंद कर दिया!
"हम शत्रु नहीं हैं तुम्हारे" मैंने कहा,
अब वो आगे की ओर बढ़ा! हमें करीब से देखने! अब उसको भी हमने करीब से देखा! कोई दस फ़ीट पर वो रुक गया! रौबदार चेहरा और मूंछें थीं उसकी! दाढ़ी हल्की सी थी! देह पहलवानों जैसी थी! छाती बहुत चौड़ी और भुजाएं बलशाली थीं उसकी! कसरती बदन था उसका! आयु में कोई तीस बरस का रहा होगा!
मैं खड़ा हुआ! वो पीछे हटा!
"सुनो, सुनो?" मैंने कहा,
उसने खंजर ऊपर उठा लिया तभी! मैं फिर से नीचे बैठ गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"तू कौन है?" उसने मुझसे ही पूछ लिया!
"ये ज़मीन मेरी है" मैंने कहा,
उसने ज़मीन को देखा, फिर मुझे!
"चला जा! चला जा!" वो बोला मुझसे!
"चला जाऊँगा, लेकिन तुम कौन हो?" मैंने पूछा,
"रतन सिंह!" उसने जवाब दिया! अपनी मूंछों पर ताव देकर! दरअसल हम उसके सामने सूखे ठूंठ ही थे! एक हाथ मारता हमें तो हमारी पसलियां बिखर जातीं! ऐसा कद्दावर और ताक़तवर था ये रतन सिंह!
"यहाँ क्या कर रहे हो?" मैंने पूछा,
"बोले मत!" बोला वो!
मुझे तो अब डाकू सा लगने लगा था वो!
कड़क आवाज़ में जवाब दिया करता था! अकड़ कर!
"अब जा यहाँ से, दुबारा नहीं आना" वो बोला,
धमकी दी थी उसने हमें साफ़ साफ़!
मैं चाह रहा था कि बात आराम से हो जाए! नहीं तो ये रतन सिंह मुंह की ही खाता! धरा रह जाता उसका खंजर और उसका गुमान!
लेकिन वो नहीं माना!
अब मैं खड़ा हुआ! शर्मा जी को भी खड़ा किया! अब उसने खंजर निकाल लिया! और मैंने महाशूल-मंत्र पढ़ दिया! जैसे ही पढ़ा, उसे हम चमकदार दिखाई देने लगे!
अब हटा वो पीछे! अब जान गया हमारी असलियत! कि हम खिलाड़ी हैं!
"सुन रतन सिंह! घबरा मत! मैं कोई नुकसान नहीं पहुंचाउंगा तुझे, बस ये बता दे कि यहाँ हो क्या रहा है?" मैंने पूछा,
वो घबरा गया!
खंजर नीचे कर लिया उसने! और भाग पड़ा! और लोप हुआ!!
"ये तो गया!" मैंने कहा,
"भगा दिया आपने!" वे बोले,
"मैंने सिर्फ उसे यही जताया था कि हम नुक्सान नहीं करेंगे उसका कुछ, लेकिन हमें बताये तो सही कुछ?" मैंने कहा,
"वो डर गया! भाग गया!" वे बोले!
"जाने दो!" मैंने कहा,
"आओ आगे चलें" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आगे चले कुछ, थोड़ा सा ही!
"वो उधर क्या है?" मैंने कहा,
"देखते हैं" वे बोले,
और हम चल दे उधर के लिए!
"ये तो.....वस्त्र से हैं?" मैंने कहा,
ढेर सा लगा था वस्त्रों का, खून से सने थे सारे वस्त्र!
"ये कहाँ से आये अब?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने कहा,
मैंने एक वस्त्र उठाया, किसी महिला का अंगरखा था वो, उसमे चाक़ू से किये गए छेद थे, या तलवार से किये गए वार!
"ये तो उसी क़त्लेआम के से वस्त्र लगते हैं" मैंने कहा,
"ये वही हैं" वे बोले,
मैंने वो वस्त्र वही फेंक दिया, उसी ढेरी में!
"आगे आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और जैसे ही हम आगे चले, उन वस्त्रों में आग लग गयी! हम भागे वहाँ से! और आग भी ऐसी कि जले कुछ नहीं! बस आग ही आग! न धुंआ न ताप! ये कैसी आग!! और हमारे देखते ही देखते, वे सभी वस्त्र, गायब होते चले गए! बड़ा ही हैरतअंगेज़ नज़ारा था!!

User avatar
sexy
Platinum Member
Posts: 4069
Joined: 30 Jul 2015 19:39

Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Unread post by sexy » 19 Aug 2015 13:26

एक एक वस्त्र लोप हो गया था! कौन हमें ये माया दिखा रहा था, अभी तक कुछ पता नहीं था! वहाँ कौन है, किसका वास है, कौन सी शक्ति है, कुछ पता नहीं चल रहा था! हम अभी भी बिना निशाने के तीर पर तीर चलाये जा रहे थे! यहां जो कुछ भी हो रहा था वो न केवल अजीब था, बल्कि बेतरतीब भी था! कभी लाशें, कभी वे बड़े पत्थर के भांड, कभी पत्थरों में फंसी वे लाशें, कभी वो इंसानी कलेजों का ढेर! सबकुछ विचित्र था! और तो और, न कोई ओर था, और न कोई छोर! अभी ये जलते हुए वस्त्र देखे थे! आग भी विचित्र थी! एक पल को ये आभास भी होता था कि हम पर कोई नज़र रखे हुए है! हमारी प्रत्येक गतिविधि पर कोई नज़र गाढ़े हुए हैं! हम आगे चले वहाँ से, वो पत्थर का बीजक अभी भी शर्मा जी के पास ही था, उसका वजन कोई डेढ़ किलो के आसपास रहा होगा, मई बीच बीच में नज़र मार लेता था उस पर! हम चलते जा रहे थे, एक पेड़ आया वहाँ, पीपल का पेड़ था, अब तो काफी बड़ा सा हो गया था, अब अगर कोई काटे भी उसको, तो वैसे ही भय खा जाता! उसके लिए अब स्थान तो रखना ही होगा! हम उसके नीचे ही जाकर रुके, उस पीपल ने नए नए पत्ते आये हुए थे, पीपल के नए नए पत्ते बहुत ही सुंदर हुआ करते हैं! छूने में मुलायम होते हैं, और आकार में बहुत प्यारे से लगते हैं, मैं ऐसी ही एक शाख के पत्तों को छू रह था! मेरे पास पानी की बोतल थी, मैंने पानी पिया, शर्मा जी बैठ गए थे वहीँ, वो बीजक एक तरफ रख दिया था! अब मैं भी बैठ गया था उनके साथ, मैंने उन्हें पानी दिया तो उन्होंने पानी पिया!
"कुछ समझ नहीं आ रहा है शर्मा जी!" मैंने कहा,
"ये ज़मीन भी तो बहुत बड़ी है, इसका क्षेत्र भी विशाल है" वे बोले,
"हाँ, जंगल ही है" मैंने कहा,
"यहां तो कोई गाँव वाला भी नज़र नहीं आ रहा" वे बोले,
"गाँव यहां से दूर होंगे, या फिर आसपास के गांव तो अब आधुनिक इमारतों में तब्दील हो चुके हैं" मैंने कहा,
"हाँ, यही बात है" वे बोले,
"अरे वो क्या है?" मैंने खड़े होते हुए बोला,
"कहाँ?" वे भी खड़े हुए,
"वो सामने?" मैंने कहा,
सामने से ज़रा बाएं था वो!
"ये क्या है?" वे बोले,
"अभी तो नहीं था?" मैंने कहा,
"आओ, देखते हैं" वे बोले,
"चलो" मैंने कहा,
वो बीजक वहीँ रहने दिया हमने, और हम आगे दौड़ पड़े! दरअसल वहाँ सामने एक मिटटी का टीला सा बन गया था! कुछ देर पहले मैदान था, लेकिन अब ये टीला अचानक से बन गया था! हम टीले तक पहुंचे,
"अजीब बात है" वे बोले,
"हाँ, बहुत अजीब" मैंने कहा,
शर्मा जी वो मिट्टी उठाने लगे, तो मैंने मना कर दिया, इसलिए मिट्टी मैंने उठायी, मिट्टी देखी तो भुरभुरी सी थी, मिट्टी में बदरपुर सा मिला था! पीले रंग का सा बदरपुर था वो! मिट्टी मैंने वहीँ फेंक दी, उसी ढेरी में, वापिस, और वहीं खड़े रहे! कोई हरक़त नहीं हुई, कैसी भी! वो टीला क्यों बना था, किसलिए, समझ से बाहर था!
"आओ वापिस चलें" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम वापिस हुए तब, आ गए पेड़ के नीचे और बैठ गए वहीँ, बीजक वहीँ पड़ा था, जैसा रखा गया था! मैंने वो बीजक उठा लिया, और अब देखने लगा उसको, उसमे कूट-चिन्ह बने थे, ऐसे चिन्ह जो मैंने और किसी बीजक में नहीं देखे थे, इसमें एक ध्वजा बनी थी, ध्वज के पास एक झोंपड़ी बनी थी, किसी अजीब सी भाषा में कुछ लिखा था वहाँ, पूर्व कहाँ है, और पश्चिम कहाँ, ये तो पता चल ही गया था! अब सबसे बड़ी पहेली वहाँ बहती कोई नदी थी, लेकिन नदी तो यहां ओर दूर तक कहीं नहीं! एक बात और, वो नदी बीच बीच में से टूट जाती थी उसमे, अब इसका क्या मतलब हुआ? कहीं कोई बरसाती नदी तो नहीं? मैं खड़ा हुआ, वहाँ के भूगोल को ध्यान से देखा, जहां हम खड़े थे, उस से कोई आधा किलोमीटर आगे, भूतल, नीचे था, जहां वे सब खेल रहे थे! कहीं यहीं से तो कोई बरसाती नदी नहीं बहती थी? जो अब ख़त्म हो गयी हो, इन दो-ढाई सौ वर्षों में? ऐसा सम्भव था, या फिर ये बीजक गढ़ने वाले ने उस समय बीजक गढ़ा हो, जब वो नदी बह रही हो! सम्भव था! और ये झोंपड़ी? तभी दिमाग में घंटा बजा! कहीं वो खंडहर यही तो नहीं? अगर है तो क्या हो? अब मैंने बीजक को ध्यान से देखा! ये बीजक गढ़ने वाला क्या कहना चाहता है? क्या इशारा है इसका? कोई बीजक क्यों गढ़ेगा? कुछ बताने के लिए, क्या बताने के लिए? धन या अन्य कोई बहुमूल्य वस्तु का पता बताने हेतु! यही कारण हुआ करता है! और शायद यही कारण इसमें हो!
तीन ग्रह खुदे थे, चन्द्रमा पूर्व में थे, और सूर्य पश्चिम में! ये थी पहेली! यही सुलझ जाए तो काम बन सकता था, मंगल और शुक्र, आमतौर पर आकाश में दिखाई देते हैं, बृहस्पति कभी कभार ही, तो ये बीजक उस समय के आकाश का नक्शा था, सूर्य छिप रहे थे, शाम रही होगी उस दिन, बृहस्पति आकाश में होंगे, खगोल की जानकारी रही होगी उस बीजक गढ़ने वाले को! बरसाती नदी, अर्थात अवश्य ही चौमासे रहे होंगे, कोई मध्य का समय, जब वो नदी भर जाती होगी, यदि ये झोंपड़ी यही मंदिर है, या खंडहर है, तो नदी इसके पीछे से बहती होगी! अब तक तो ठीक है, लेकिन एक स्थान पर, चार वर्ग बने थे, और इन वर्गों में गड्ढे या छेद किये गए थे, इसका अर्थ था कि उस स्थान पर, अवश्य ही भूमि के नीचे धन गढ़ा है! लेकिन ये वर्ग वाला स्थान है कहाँ? वो भांड वाला नहीं हो सकता था, क्योंकि ये वर्ग उस स्थान के लिए इशारा नहीं करते थे! अब बीजक को घुमाना पड़ा, और फिर ज़मीन पर मुझे वही आकृतियाँ बनानी पड़ीं!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"ये वर्ग वाला स्थान, कहाँ होना चाहिए?" मैंने पूछा,
उन्होंने ज़मीन पर बनी आकृतियाँ देखीं, दिमाग लड़ाया अपना, फिर आसपास देखा, वो खंडहर भी देखा जिसको हमने केंद्र बनाया था इस बीजक का!
"कुछ समझ आया?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोले,
"माचिस की एक तीली दीजिये" मैंने कहा,
उन्होंने माचिस की तीली दे दी, अब मैंने उसका मसाला हटा दिया, और अब उसके दो टुकड़े किये, बराबर बराबर, और एक टुकड़े को, उस बीजक पर रखा, और दूसरे को उन आकृतियों पर, जो ज़मीन पर बनी थीं! कुछ गणित किया, कुछ समझ आया, ये दूरी गोरुत इकाई की थी! अब आया समझ! और जो अंक लिखा था एक अजीब सी भाषा में, वो एक का अंक लगा मुझे! एक गोरुत, अर्थात, ३.६६ किलोमीटर! लेकिन एक समस्या और थी, उस गोरुत के एक के अंक सामने, एक त्रिकोण का चिन्ह था, त्रिकोण बीच में से लंबवत रेखा से कटा था! अब इसका क्या अर्थ हुआ? और वो त्रिकोण, उल्टा था!
अब इसको क्या माना जाए? बहुत दिमाग लड़ाया! और तब समझ में आया कि उस खंडहर से आधी दूरी उधर, आधी दूरी इधर, अर्थात एक गोरुत के मध्य में वो खंडहर बना था! लेकिन ये क्षेत्र जंगली था! हम उस समय भी दीप साहब की ज़मीन से बाहर थे!
मैंने शर्मा जी को उसका अर्थ बताया! वे भी चौंक पड़े!
"आओ मेरे साथ!" मैंने कहा,
''चलिए" वे बोले,
"हमें उस खंडहर तक जाना होगा" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम चल पड़े! थोड़ी देर में पहुँच गए वहाँ! लेकिन फिर से फंस गए! फंसे यूँ कि उत्तर-दक्षिण देखें या पूर्व-पश्चिम?
मैंने फिर से बीजक को देखा, उस दिन शाम थी, रात, सूरज पश्चिम में थे! अब आया समझ! हमें पूर्व-पश्चिम में जाना होगा!
"आओ, पहले पूर्व में चलते हैं" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
अब हम उस बीजक को ले चल पड़े, उस खंडहर की सीध में! रास्ता कोई पौने दो किलोमीटर पार करना था! था तो वो जंगल ही! लेकिन सघन नहीं था, चलने में कोई परेशानी नहीं हुई हमें!
"कैसा बीजक गढ़ा है!" वे बोले,
"ये ऐसे ही होते हैं" मैंने कहा,
"कहीं वहाँ जाकर, कोई और बीजक न मिल जाए!" वे बोले,
"सम्भव है!" मैंने कहा,
"हाँ जी, पता नहीं" वे बोले,
नेवले भाग रहे थे यहां वहाँ!
"शुक्र है कि यहां कोई बड़ा जंगली जानवर नहीं!" वे बोले,
"सियार, लोमड़ी आदि ही होंगे बस" मैंने कहा,
"हाँ, वही होंगे" वे बोले,
और हम चलते रहे, नज़रें गढ़ाए आसपास!!

Post Reply