Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story
Posted: 19 Aug 2015 13:28
मैं रुक गया था! लेकिन साँसें रोक खड़ा हुआ था! मैं नहीं चाहता था कि ये मदना लोप हो और फिर से हम अटक जाएँ! बड़ी मुश्किल से तो ये एक बड़ा सूत्र हाथ लगा था! अगर ये ही चला जाता तो पता नहीं फिर क्या क्या करना होता! इसीलिए मैं उसकी बात का मान रखता था और जैसा वो कहता, मैं करता था! वो कहता था कि रुक जाओ, तो मैं रुक जाता था! और फिर जब बात हो रही होती थीं, तो आगे बढ़ जाता था! अब वो मुझसे को दो-ढाई फ़ीट ही दूर था, बैठ गया था! और फफक रहा था! लेकिन वो फफक क्यों रहा था? क्या वजह थी, अभी तक समझ से परे था! और एक बात और, उसका स्वाभाव भी बदल गया था! कड़कपन छोड़ कर अब ठीक बात करने लगा था! मैंने मौका ताड़ा और आगे बढ़ा!
"रुक जा?" वो बोला,
मैं रुक गया!
और आहिस्ता से नीचे बैठ गया! उसने कनखियों से मुझे देखा! मुझे, मेरे वस्त्रों को, फफकते हुए! और फिर उसने सर नीचे कर लिया अपना!
"मदना!" मैंने कहा!
वो कुछ नहीं बोला!
"मदना, मुझे बताओ, वे लाशें किसकी हैं?" मैंने पूछा,
"नहीं! नहीं! जा! अब तू जा!" वो बोला और खड़ा हुआ!
"मदना?" मैं चिल्लाया!
इस से पहले कि मैं कुछ और करता, वो उस गड्ढे में कूद गया! आग बंद! और सब खत्म हो गया! मदना चला गया था! और अब हम थे खाली हाथ!
मैं खड़ा हुआ, और शर्मा जी के पास पहुंचा, वे भी हतप्रभ थे! वहीँ, उसी गड्ढे को देख रहे थे, टकटकी लगाए हुए!
"मुझे समझ में नहीं आया कुछ!" वे बोले,
"मुझे भी" मैंने कहा,
"अब कहने और गहरी हो गयी है" वे बोले,
"हाँ, और गूढ़ भी" मैंने कहा,
अब हम वापिस चले, अपने पलंग तक आये, बैठ गए, टोर्च बंद कर दी थी मैंने, लेकिन अभी तक मदना और उसका चेहरा याद आ रहा था!
"उसने कहा था कि सबको उसने मारा?" वे बोले,
"हाँ, यही कहा था उसने" मैंने कहा,
"और बाबा मोहन को भी?" वे बोले,
"हाँ, उसने कहा, रखवाला है वो" मैंने कहा,
"किसकी रखवाली कर रहा है वो?" वे बोले,
ये सवाल!
ये सवाल दमदार था!
आखिर किसकी रखवाली? किसी की तो अवश्य ही कर रहा होगा?
"हाँ, सवाल अच्छा है, किसकी रखवाली?" मैंने कहा,
"कहीं धन की तो नहीं?" वे बोले,
धमाका हुआ दिमाग में!
"हाँ! शायद धन की ही!" वे बोले,
"मान लिया धन की, लेकिन उसने कहा कि सब को मारा उसने, वो क्यों?" वे बोले,
अब ये सवाल भी मुंह फाड़ रहा था! सच में! वो सबको क्यों मारेगा? ये एक ऐसा जाल था, जिसमे हम फंस गए थे! और जितना निकलते थे बाहर, उतना ही जकड़ जाते थे!
तभी हमारे पीछे आवाज़ सी आई कुछ!
"श्श्श!" मैंने मुंह पर ऊँगली रखते हुए कहा,
और अब कान लगा दिए वहाँ!
आवाज़ ऐसी थी कि जैसे कोई स्त्री भाग रही हो! जिसने पाँव में पायजेब पहनीं हों! गौर से सुना, तो एक से अधिक औरतें लगीं वो! आवाज़ें बहुत साफ़ थीं! एकदम साफ़, कोई बीस फ़ीट दूर से आ रही थीं! हम खड़े हो गए, मैंने ओर्च जलायी! और डाली रौशनी उधर! लेकिन वहाँ कोई नहीं था, जंगल ही था, और कुछ पेड़-पौधे ही थे वहां!
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आराम आराम से आगे बढ़े! आवाज़ें बंद हुईं, हम भी रक गए, जैसे उन औरतों को हमारे आने का आभास हुआ हो! मैंने टोर्च बंद कर दी थी! ताकि लगे कि कुछ नहीं है!
फिर से आवाज़ आयीं!
और हम आगे बढ़े!
और इस बार भाग लिए! एक जगह रुके, चारों ओर देखा, तो एक बड़े से पेड़ के नीचे दो स्त्रियां दिखीं, वो दूर थीं, लेकिन उनके केश देखकर, मैंने अंदाजा लगा लिया था!
"आओ" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
मैंने एवंग-मंत्र पढ़ लिया था, कोई भी प्रेतात्मा सौ बार सोचती कछ खेलने से पहले! इसीलिए हम निश्चिन्त थे! हम आगे बढ़ चले!
हम पेड़ तक पहुंचे, वहाँ दो औरतें खड़ी थीं! लम्बी-चौड़ी औरतें थीं वो, हाथों की कलाइयों तक कमीज़ पहने थीं, सफ़ेद रंग की, नीचे काले रंग का घाघरा था, हाथों और पांवों में ज़ेवर थे, सफ़ेद रंग के ज़ेवर! उन्होंने ओढ़नी भी ओढ़ी हुई थी, ये वैसी ही थीं, जैसी हमें उस दिन मिली थीं, जो अपने बाल* को ढूंढ रही थीं! हम पहुँच गए थे उनके पास! वे भी अब मुस्तैद खड़ी हो गयी थीं!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
जवाब नहीं दिया किसी ने भी, टोर्च की रौशनी जल रही थी, मैं आसपास भी देख लेता था, कि कहीं और तो कोई नहीं वहाँ, उनके अलावा?
"बताओ?" मैंने कहा,
नहीं बोलीं कुछ भी!
"मैं कोई नुक़सान नहीं पहुंचाउंगा तुम्हे, बताओ अब?" मैंने कहा,
एक थोड़ा सा हिली, मुझे देखा, आँखों में काजल लगा था, और सच में, बहुत सुंदर चेहरा था उसका, ठुड्डी पर गोदना कढ़ा था! रंग गोरा था, होंठ लाल थे, उम्र में, चेहरा देख कर, लगता था कि उसकी उम्र बीस-बाइस से अधिक नहीं!
"बताओ, कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
और जैसे ही मैंने पूछा, वे रोने लगीं! एक तरफ इशारा करके! मैंने वहीँ देखा, वहाँ कुछ नहीं था! कुछ भी नहीं!
"क्या है वहां?" मैंने पूछा,
रोये ही जाएँ! बोलें कुछ नहीं!
"सुनो, मुझे बताओ, मैं मदद करूँगा" मैंने कहा,
वे चुप हुईं! जैसे मेरी 'मदद' वाली बात पर कुछ आशा जगी हो!
"कौन हो तुम?" मैंने फिर से पूछा,
"अरसी" वो बोली,
"अरसी, अरसी, मुझे बताओ क्या है वहां?" मैंने पूछा,
"रंगल" वो बोली,
रंगल?
रंगल! एक बहुत पुराना शब्द! अर्थात, गड्ढा!
"कैसा रंगल?" मैंने पूछा,
अरसी ने इशारा किया उधर,
लेकिन मुझे तो कुछ नहीं दिखा,
"मेरे साथ चलो अरसी, मुझे दिखाओ" मैंने कहा,
अरसी ने अपनी साथ वाली स्त्री को देखा, और एक ही पल में, भाग निकलीं वहाँ से! वो, वहीँ, जहां रंगल था, वहीँ खड़ी हो गयीं! वहाँ कुछ नहीं था, बस पत्थर और मिट्टी थी!
"यहाँ तो कुछ नहीं?" मैंने कहा,
वे दोनों स्त्रियां आगे बढ़ीं, और एक जगह जाकर लोप हो गयीं! मेरी आँखों के सामने!
"शर्मा जी, आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
अब हम वहां पहुंचे, जहां वो औरतें लोप हुई थीं!
"यहाँ कोई गड्ढा नहीं" मैंने टोर्च की रौशनी आसपास मारते हुए कहा,
"आगे देखते हैं" वे बोले,
और जैसे ही हम आगे बढ़े,
हमारे पाँव किसी गीली सी दलदल में धंस गए! घुटनों के नीचे तक! अब हम छटपटाये! किसी तरह से पत्थर पकड़ पकड़, निकले वहाँ से! टोर्च पर दलदल लग गयी थी, साफ़ की मैंने और रौशनी डाली वहाँ! वहाँ दलदल ही दलदल थी! मैंने अपने पाँव देखे, अजीब सी कीचड़ थी वो, हाथ लगा के देखा, तो वो खून सा लगा मुझे! जैसे वो खून से बनी दलदल हो! और यही था वो रंगल!
मैंने टोर्च से देखा उसमे, उसमे शव पड़े थे! हर उम्र के शव!
"हे भग**! ये क्या है?" वे बोले,
"रंगल!" मैंने कहा,
"इतना खून?" वे बोले,
"किसी ने दिखाया है हमें" मैंने कहा,
अगले ही पल, आवाज़ हुई, 'होम' हम पीछे पलटे! भागे! उस गड्ढे तक आये, गड्ढे से आवाज़ आ रही थी, आग बंद थी, और नीचे रौशनी में जो देखा, वो वीभत्स था! बहुत वीभत्स!
वहां................
"रुक जा?" वो बोला,
मैं रुक गया!
और आहिस्ता से नीचे बैठ गया! उसने कनखियों से मुझे देखा! मुझे, मेरे वस्त्रों को, फफकते हुए! और फिर उसने सर नीचे कर लिया अपना!
"मदना!" मैंने कहा!
वो कुछ नहीं बोला!
"मदना, मुझे बताओ, वे लाशें किसकी हैं?" मैंने पूछा,
"नहीं! नहीं! जा! अब तू जा!" वो बोला और खड़ा हुआ!
"मदना?" मैं चिल्लाया!
इस से पहले कि मैं कुछ और करता, वो उस गड्ढे में कूद गया! आग बंद! और सब खत्म हो गया! मदना चला गया था! और अब हम थे खाली हाथ!
मैं खड़ा हुआ, और शर्मा जी के पास पहुंचा, वे भी हतप्रभ थे! वहीँ, उसी गड्ढे को देख रहे थे, टकटकी लगाए हुए!
"मुझे समझ में नहीं आया कुछ!" वे बोले,
"मुझे भी" मैंने कहा,
"अब कहने और गहरी हो गयी है" वे बोले,
"हाँ, और गूढ़ भी" मैंने कहा,
अब हम वापिस चले, अपने पलंग तक आये, बैठ गए, टोर्च बंद कर दी थी मैंने, लेकिन अभी तक मदना और उसका चेहरा याद आ रहा था!
"उसने कहा था कि सबको उसने मारा?" वे बोले,
"हाँ, यही कहा था उसने" मैंने कहा,
"और बाबा मोहन को भी?" वे बोले,
"हाँ, उसने कहा, रखवाला है वो" मैंने कहा,
"किसकी रखवाली कर रहा है वो?" वे बोले,
ये सवाल!
ये सवाल दमदार था!
आखिर किसकी रखवाली? किसी की तो अवश्य ही कर रहा होगा?
"हाँ, सवाल अच्छा है, किसकी रखवाली?" मैंने कहा,
"कहीं धन की तो नहीं?" वे बोले,
धमाका हुआ दिमाग में!
"हाँ! शायद धन की ही!" वे बोले,
"मान लिया धन की, लेकिन उसने कहा कि सब को मारा उसने, वो क्यों?" वे बोले,
अब ये सवाल भी मुंह फाड़ रहा था! सच में! वो सबको क्यों मारेगा? ये एक ऐसा जाल था, जिसमे हम फंस गए थे! और जितना निकलते थे बाहर, उतना ही जकड़ जाते थे!
तभी हमारे पीछे आवाज़ सी आई कुछ!
"श्श्श!" मैंने मुंह पर ऊँगली रखते हुए कहा,
और अब कान लगा दिए वहाँ!
आवाज़ ऐसी थी कि जैसे कोई स्त्री भाग रही हो! जिसने पाँव में पायजेब पहनीं हों! गौर से सुना, तो एक से अधिक औरतें लगीं वो! आवाज़ें बहुत साफ़ थीं! एकदम साफ़, कोई बीस फ़ीट दूर से आ रही थीं! हम खड़े हो गए, मैंने ओर्च जलायी! और डाली रौशनी उधर! लेकिन वहाँ कोई नहीं था, जंगल ही था, और कुछ पेड़-पौधे ही थे वहां!
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आराम आराम से आगे बढ़े! आवाज़ें बंद हुईं, हम भी रक गए, जैसे उन औरतों को हमारे आने का आभास हुआ हो! मैंने टोर्च बंद कर दी थी! ताकि लगे कि कुछ नहीं है!
फिर से आवाज़ आयीं!
और हम आगे बढ़े!
और इस बार भाग लिए! एक जगह रुके, चारों ओर देखा, तो एक बड़े से पेड़ के नीचे दो स्त्रियां दिखीं, वो दूर थीं, लेकिन उनके केश देखकर, मैंने अंदाजा लगा लिया था!
"आओ" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
मैंने एवंग-मंत्र पढ़ लिया था, कोई भी प्रेतात्मा सौ बार सोचती कछ खेलने से पहले! इसीलिए हम निश्चिन्त थे! हम आगे बढ़ चले!
हम पेड़ तक पहुंचे, वहाँ दो औरतें खड़ी थीं! लम्बी-चौड़ी औरतें थीं वो, हाथों की कलाइयों तक कमीज़ पहने थीं, सफ़ेद रंग की, नीचे काले रंग का घाघरा था, हाथों और पांवों में ज़ेवर थे, सफ़ेद रंग के ज़ेवर! उन्होंने ओढ़नी भी ओढ़ी हुई थी, ये वैसी ही थीं, जैसी हमें उस दिन मिली थीं, जो अपने बाल* को ढूंढ रही थीं! हम पहुँच गए थे उनके पास! वे भी अब मुस्तैद खड़ी हो गयी थीं!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
जवाब नहीं दिया किसी ने भी, टोर्च की रौशनी जल रही थी, मैं आसपास भी देख लेता था, कि कहीं और तो कोई नहीं वहाँ, उनके अलावा?
"बताओ?" मैंने कहा,
नहीं बोलीं कुछ भी!
"मैं कोई नुक़सान नहीं पहुंचाउंगा तुम्हे, बताओ अब?" मैंने कहा,
एक थोड़ा सा हिली, मुझे देखा, आँखों में काजल लगा था, और सच में, बहुत सुंदर चेहरा था उसका, ठुड्डी पर गोदना कढ़ा था! रंग गोरा था, होंठ लाल थे, उम्र में, चेहरा देख कर, लगता था कि उसकी उम्र बीस-बाइस से अधिक नहीं!
"बताओ, कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
और जैसे ही मैंने पूछा, वे रोने लगीं! एक तरफ इशारा करके! मैंने वहीँ देखा, वहाँ कुछ नहीं था! कुछ भी नहीं!
"क्या है वहां?" मैंने पूछा,
रोये ही जाएँ! बोलें कुछ नहीं!
"सुनो, मुझे बताओ, मैं मदद करूँगा" मैंने कहा,
वे चुप हुईं! जैसे मेरी 'मदद' वाली बात पर कुछ आशा जगी हो!
"कौन हो तुम?" मैंने फिर से पूछा,
"अरसी" वो बोली,
"अरसी, अरसी, मुझे बताओ क्या है वहां?" मैंने पूछा,
"रंगल" वो बोली,
रंगल?
रंगल! एक बहुत पुराना शब्द! अर्थात, गड्ढा!
"कैसा रंगल?" मैंने पूछा,
अरसी ने इशारा किया उधर,
लेकिन मुझे तो कुछ नहीं दिखा,
"मेरे साथ चलो अरसी, मुझे दिखाओ" मैंने कहा,
अरसी ने अपनी साथ वाली स्त्री को देखा, और एक ही पल में, भाग निकलीं वहाँ से! वो, वहीँ, जहां रंगल था, वहीँ खड़ी हो गयीं! वहाँ कुछ नहीं था, बस पत्थर और मिट्टी थी!
"यहाँ तो कुछ नहीं?" मैंने कहा,
वे दोनों स्त्रियां आगे बढ़ीं, और एक जगह जाकर लोप हो गयीं! मेरी आँखों के सामने!
"शर्मा जी, आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
अब हम वहां पहुंचे, जहां वो औरतें लोप हुई थीं!
"यहाँ कोई गड्ढा नहीं" मैंने टोर्च की रौशनी आसपास मारते हुए कहा,
"आगे देखते हैं" वे बोले,
और जैसे ही हम आगे बढ़े,
हमारे पाँव किसी गीली सी दलदल में धंस गए! घुटनों के नीचे तक! अब हम छटपटाये! किसी तरह से पत्थर पकड़ पकड़, निकले वहाँ से! टोर्च पर दलदल लग गयी थी, साफ़ की मैंने और रौशनी डाली वहाँ! वहाँ दलदल ही दलदल थी! मैंने अपने पाँव देखे, अजीब सी कीचड़ थी वो, हाथ लगा के देखा, तो वो खून सा लगा मुझे! जैसे वो खून से बनी दलदल हो! और यही था वो रंगल!
मैंने टोर्च से देखा उसमे, उसमे शव पड़े थे! हर उम्र के शव!
"हे भग**! ये क्या है?" वे बोले,
"रंगल!" मैंने कहा,
"इतना खून?" वे बोले,
"किसी ने दिखाया है हमें" मैंने कहा,
अगले ही पल, आवाज़ हुई, 'होम' हम पीछे पलटे! भागे! उस गड्ढे तक आये, गड्ढे से आवाज़ आ रही थी, आग बंद थी, और नीचे रौशनी में जो देखा, वो वीभत्स था! बहुत वीभत्स!
वहां................