Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story
Posted: 19 Aug 2015 13:29
मैंने कपड़ा हटाया, तो उसमे एक पोटली सी पड़ी थी, पोटली भी अच्छी-खासी बड़ी थी! मैं नीचे बैठा, हाथ से उस पोटली को छुआ, तो कुछ कठोर सी वस्तु लगी उसके अंदर! अब मैंने उस पोटली को उठाया, और देखा, पोटली में वजन था, टोकरा भी कट्ठे के पेड़ के रेशे और डंडियों से बना था, काफी बड़ा टोकरा था वो, मैंने अब वो पोटली खोली, शर्मा जी भी बैठ गए थे वहीँ, पोटली एक सुतली जैसे धागे से बंधी थी, मैं उस उड़सी हुई सुतली को खोलने लगा, और फिर खोल लिया, अब उस पोटली का मुंह खोलने लगा, जब पोटली खुली तो मैंने अब उसका मुंह चौड़ा किया, अंदर झाँका, तो अंदर मिट्टी सी थी, कुछ पत्थर भी थे, मैंने वो मिट्टी और पत्थर उस टोकरे में खाली कर दिए, और जब खाली किये, तो उसमे एक अजीब सी वस्तु निकली, एक पात्र सा, ये पात्र कांसे का बना था, कांसे के उस पात्र पर, एक ढक्कन सा चढ़ा था, ये ढक्क्न भी कांसे का ही बना था! रांगे से उसको जोड़ा गया था! मैंने उस पात्र को साफ़ किया, और जब साफ़ हुआ वो, तो उस पर मुझे एक रेखा दिखाई थी, एक बड़ी सी रेखा, उस रेखा में स्वास्तिक के चिन्ह बने हुए थे, और वे सभी चिन्ह एक दूसरे से जुड़े हुए थे! एक बेहद ही कुशल पच्चीकारी का उत्कृष्ट नमूना था ये! उस रेखा के आसपास, वलय खातीं और भी अन्य रेखाएं बनी थीं! कुछ सीधी रेखाएं भी थीं, जिनमे पुष्प जैसी आकृतियाँ बनी थीं! बहुत ही सुंदर पात्र था वो! बस अब खोलकर देखना था उसको, रांगा अधिक मज़बूत तो नहीं होता, लेकिन इसमें यदि कोई बहुमूल्य वस्तु थी तो अवश्य ही रांगा भी मज़बूती से डाला गया होगा! मैंने एक चाबी से उसको खोलने की कोशिश की, बहुत जान लगाई, लेकिन नहीं खुला वो ढक्क्न! फिर शर्मा जी ने उस ढक्कन को हटाने की कोशिश की, उनसे भी नहीं हटा!
"मैं अभी आया" वे बोले,
"कहाँ चले?" मैंने पूछा,
"कोई पेंचकस लाता हूँ गाड़ी में से" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
वे गए और मैं उसी में जूझता रहा, कमाल का रांग लगाया था उन्होंने, जिसने भी लगाया था! और दिल में ये धड़कन और तीव्र आकांक्षा, कि इसमें है क्या!
थोड़ी देर में ही शर्मा जी आ गए, ले आये एक पेंचकस बड़ा सा! अब उन्होंने कोशिश की, और इसी कोशिश में, उस ढक्क्न और पात्र के बीच, एक छेद सा हो गया! बस फिर क्या था! मैंने घुसेड़ा उसमे पेंचकस और लगा खोलने! कभी मैं, और कभी शर्मा जी! और इस तरह से, वो ढक्कन हट गया! अब उसके अंदर देखा, तो अंदर भी एक पोटली निकली! काले रंग की! अब उसको लगे खोलने! उसका धागा इतना लम्बा था कि जैसे हम उस पोटली के कपड़े को ही उधेड़ रहे हों! और आखिर में वो पोटली खोल ही ली! और उसमे से जो निकला, उसको देखकर तो आँखें ही हिल गयीं! ये एक कटा हुआ सा हाथ था, सूखा हुआ, किसी किशोर का रहा होगा, कलाई से काट दिया गया था वो हाथ, हाथ में सिलाई हुई, हुई थी, जैसे कई उँगलियों और अंगूठे को सीला गया हो! मामला खोपड़ी के ऊपर से चला गया! अब कोई हमें ये हाथ क्यों देगा? उसके पीछे क्या औचित्य है? कौन ऐसा चाहता है? और फिर, ये हाथ किसका है? और ऐसी नफ़ासत से काहे रखा गया है? नए नए सवाल दिमाग में उपज गए! अनचाही खेती सी हो गयी!
"अब इसका क्या अर्थ?" मैंने पूछा,
"पहले बीजक, फिर वो मदना, फिर अरसी, और अंट-शंट, और अब ये हाथ! क्या पहेली है ये!" वे बोले,
"डालो इसको पोटली में" मैंने कहा,
उन्होंने डाल दिया,
"अब रख दो पात्र में" मैंने कहा,
"मुझे दो" मैंने कहा,
अब मैंने वो पोटली और पात्र, वहीँ रख दिए टोकरे में!
"इसको लेना नहीं?" वे बोले,
"यदि हमारे लिए ही भेजा गया है, तो ये कल भी यहीं होगा, नहीं हुआ, तो ये कोई खेल है" मैंने कहा,
"समझ गया" वे बोले,
"आओ, अब वापिस चलते हैं" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और अब हम वापिस चले,
पीछे मुड़कर देखा, तो टोकरा वहीँ था!
हम आ गए बाहर उस 'भूतिया-ज़मीन' से! आये वापिस, और जा बैठे गाड़ी में! अब दीप साहब से बात हुई, और उनको बता दिया कि कल यहां एक क्रिया करनी होगी, और फिर हम यहां आएंगे! वे मान गए, अब हमने उन्हें वापिस चले को कहा, सीधे हमारे स्थान के लिए! उन्होंने खाने की ज़िद की, तो हमने समझा दिया कि खाना वहीँ खा लेंगे! फिर भी रास्ते से, उन्होंने मदिरा की दो बोतलें और खूब सारा मसालेदार सामान बंधवा दिया! और हमें छोड़ दिया, अब उन्हें कल शाम को आना था वापिस! हम अंदर आये, और मैं अपने कक्ष में गया, शर्मा जी लघु-शंका त्याग के लिए अलग चले गए थे!
मैं कमरे में आया, और धम्म से बिस्तर पर गिर पड़ा! तब तक शर्मा जी भी आ गए! उन्होंने पानी के लिए कह दिया था! सहायक आया और पानी दे गया!
"हालत पस्त हो गयी" वे बोले,
"साथ में दिमाग भी" मैंने कहा,
"ऐसा नहीं देखा मैंने कुछ भी" वे बोले,
"सच में" मैंने कहा,
"वो टोकरा वहीँ हुआ तो?" वे बोले,
"हुआ तो क्रिया में रखेंगे" मैंने कहा,
''अच्छा" वे बोले,
"कैसा वीभत्स नज़ारा था वो" वे बोले,
"हाँ, बहुत ही अधिक" मैंने कहा,
तब मैं हाथ-मुंह धोने गया, और वापिस आया, शर्मा जी सामान खोल रहे थे, मैं सहायक को आवाज़ दी, तो वे बोले कि वो पानी लेके आ रहा है!
पानी आ गया!
और हम हुए शुरू!
खाया-पिया!
कुछ और बातें इस बारे में ही!
रात को कोई बारह बजे, मैं क्रिया-स्थल में पहुंचा, और विद्याएँ साध लीं, मंत्र साधे, कुछ सामग्री भी रख ली बैग में, इसकी आवश्यकता थी कल! उसके बाद मैं स्नान करने के पश्चात सो गया, चार बज चुके थे, नींद आ गयी वो भी बहुत बढ़िया!
सुबह हुई!
फिर दोपहर!
मैंने फिर से क्रिया-स्थल का रुख किया! और अब एक पूजन किया! इसमें गुरु-आज्ञा लेनी होती है, सो आज्ञा ली! और उसके बाद, अपने ईष्ट को महा-भोग दे दिया! अब उनकी छत्रछाया में था मैं!
शाम को, सात बजे, दीप साहब आ गए!
उनसे बातें हुईं और हम अब चले!
उन्होंने काफी सारा सामान खरीदा हुआ था, वो आज काम आता हमारे लिए! मैंने अपना बड़ा बैग ले ही लिया था, और अब निकल पड़े!
जब वहाँ पहुंचे, तो दस बज चुके थे! आज एक पेट्रोमैक्स भी था साथ में, ये बढ़िया किया था दीप साहब ने! टोर्च भी दो ले आये थे!
"आओ शर्मा जी" मैंने अपना बैग उठाते हुए कहा,
"चलो" वो बोले,
उन्होंने दूसरा सामान उठा लिया था!
"यहाँ रख दो सामान" वे बोले,
मैंने रख दिया और अब वो पेट्रोमैक्स जला लिया! रौशनी हो उठी वहां!
"आना ज़रा" मैंने कहा,
वो चले मेरे साथ!
हम वहाँ चले जहां कल शाम हमने वो टोकरा छोड़ा था!!
"ये यहीं है" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"उठा लूँ?" वे बोले,
"उठा लो" मैंने कहा,
और जैसे ही उठाया, उसमे एक सांप आ घुसा था! सांप देखते ही हाथ खींच लिया उन्होंने!
"ये कहाँ से आ गया!" वे बोले,
"कोई बात नहीं, एक लकड़ी ले आओ" मैंने कहा,
वे एक लकड़ी ले आये, बड़ी सी, मुझे दी, मैंने सांप को बाहर निकाल लिया, और छोड़ दिया एक तरफ, रुस्सेल्स-वाईपर था वो! अधिक बड़ा नहीं था, लेकिन था ज़हरीला!
"अब उठा लो" मैंने कहा,
उन्होंने उठा लिया वो पात्र!
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
अब हम एक जगह आ गए, यहाँ एक चादर बिछाई, और बैठ गए!
"बैग में से थैला निकाल लो" मैंने कहा,
उन्होंने निकाल लिया, दिया मुझे,
मई उसमे से, तंत्राभूषण निकाले, और मंत्र पढ़ते हुए उनको धारण करवा दिए! और खुद भी पहन लिए! एक भुजबंध भी पहना!
"पानी और गिलास निकाल लो" मैंने कहा,
उन्होंने निकाल लिए!
"अब बनाओ गिलास" मैंने कहा,
उन्होंने बनाये दो गिलास! अब मैंने स्थान-भोग दिया, फिर ईष्ट भोग और खींच लिया वो गिलास! उन्होंने भी ऐसा किया और खींच गए गिलास अपना!
"वो सामान निकाल लो" मैंने कहा,
"ये भी?" उन्होंने छोटे बैग के लिए कहा,
"हाँ, ये भी" मैंने कहा,
और फिर दो दो गिलास और खेंच लिए!!
"मैं अभी आया" वे बोले,
"कहाँ चले?" मैंने पूछा,
"कोई पेंचकस लाता हूँ गाड़ी में से" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
वे गए और मैं उसी में जूझता रहा, कमाल का रांग लगाया था उन्होंने, जिसने भी लगाया था! और दिल में ये धड़कन और तीव्र आकांक्षा, कि इसमें है क्या!
थोड़ी देर में ही शर्मा जी आ गए, ले आये एक पेंचकस बड़ा सा! अब उन्होंने कोशिश की, और इसी कोशिश में, उस ढक्क्न और पात्र के बीच, एक छेद सा हो गया! बस फिर क्या था! मैंने घुसेड़ा उसमे पेंचकस और लगा खोलने! कभी मैं, और कभी शर्मा जी! और इस तरह से, वो ढक्कन हट गया! अब उसके अंदर देखा, तो अंदर भी एक पोटली निकली! काले रंग की! अब उसको लगे खोलने! उसका धागा इतना लम्बा था कि जैसे हम उस पोटली के कपड़े को ही उधेड़ रहे हों! और आखिर में वो पोटली खोल ही ली! और उसमे से जो निकला, उसको देखकर तो आँखें ही हिल गयीं! ये एक कटा हुआ सा हाथ था, सूखा हुआ, किसी किशोर का रहा होगा, कलाई से काट दिया गया था वो हाथ, हाथ में सिलाई हुई, हुई थी, जैसे कई उँगलियों और अंगूठे को सीला गया हो! मामला खोपड़ी के ऊपर से चला गया! अब कोई हमें ये हाथ क्यों देगा? उसके पीछे क्या औचित्य है? कौन ऐसा चाहता है? और फिर, ये हाथ किसका है? और ऐसी नफ़ासत से काहे रखा गया है? नए नए सवाल दिमाग में उपज गए! अनचाही खेती सी हो गयी!
"अब इसका क्या अर्थ?" मैंने पूछा,
"पहले बीजक, फिर वो मदना, फिर अरसी, और अंट-शंट, और अब ये हाथ! क्या पहेली है ये!" वे बोले,
"डालो इसको पोटली में" मैंने कहा,
उन्होंने डाल दिया,
"अब रख दो पात्र में" मैंने कहा,
"मुझे दो" मैंने कहा,
अब मैंने वो पोटली और पात्र, वहीँ रख दिए टोकरे में!
"इसको लेना नहीं?" वे बोले,
"यदि हमारे लिए ही भेजा गया है, तो ये कल भी यहीं होगा, नहीं हुआ, तो ये कोई खेल है" मैंने कहा,
"समझ गया" वे बोले,
"आओ, अब वापिस चलते हैं" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
और अब हम वापिस चले,
पीछे मुड़कर देखा, तो टोकरा वहीँ था!
हम आ गए बाहर उस 'भूतिया-ज़मीन' से! आये वापिस, और जा बैठे गाड़ी में! अब दीप साहब से बात हुई, और उनको बता दिया कि कल यहां एक क्रिया करनी होगी, और फिर हम यहां आएंगे! वे मान गए, अब हमने उन्हें वापिस चले को कहा, सीधे हमारे स्थान के लिए! उन्होंने खाने की ज़िद की, तो हमने समझा दिया कि खाना वहीँ खा लेंगे! फिर भी रास्ते से, उन्होंने मदिरा की दो बोतलें और खूब सारा मसालेदार सामान बंधवा दिया! और हमें छोड़ दिया, अब उन्हें कल शाम को आना था वापिस! हम अंदर आये, और मैं अपने कक्ष में गया, शर्मा जी लघु-शंका त्याग के लिए अलग चले गए थे!
मैं कमरे में आया, और धम्म से बिस्तर पर गिर पड़ा! तब तक शर्मा जी भी आ गए! उन्होंने पानी के लिए कह दिया था! सहायक आया और पानी दे गया!
"हालत पस्त हो गयी" वे बोले,
"साथ में दिमाग भी" मैंने कहा,
"ऐसा नहीं देखा मैंने कुछ भी" वे बोले,
"सच में" मैंने कहा,
"वो टोकरा वहीँ हुआ तो?" वे बोले,
"हुआ तो क्रिया में रखेंगे" मैंने कहा,
''अच्छा" वे बोले,
"कैसा वीभत्स नज़ारा था वो" वे बोले,
"हाँ, बहुत ही अधिक" मैंने कहा,
तब मैं हाथ-मुंह धोने गया, और वापिस आया, शर्मा जी सामान खोल रहे थे, मैं सहायक को आवाज़ दी, तो वे बोले कि वो पानी लेके आ रहा है!
पानी आ गया!
और हम हुए शुरू!
खाया-पिया!
कुछ और बातें इस बारे में ही!
रात को कोई बारह बजे, मैं क्रिया-स्थल में पहुंचा, और विद्याएँ साध लीं, मंत्र साधे, कुछ सामग्री भी रख ली बैग में, इसकी आवश्यकता थी कल! उसके बाद मैं स्नान करने के पश्चात सो गया, चार बज चुके थे, नींद आ गयी वो भी बहुत बढ़िया!
सुबह हुई!
फिर दोपहर!
मैंने फिर से क्रिया-स्थल का रुख किया! और अब एक पूजन किया! इसमें गुरु-आज्ञा लेनी होती है, सो आज्ञा ली! और उसके बाद, अपने ईष्ट को महा-भोग दे दिया! अब उनकी छत्रछाया में था मैं!
शाम को, सात बजे, दीप साहब आ गए!
उनसे बातें हुईं और हम अब चले!
उन्होंने काफी सारा सामान खरीदा हुआ था, वो आज काम आता हमारे लिए! मैंने अपना बड़ा बैग ले ही लिया था, और अब निकल पड़े!
जब वहाँ पहुंचे, तो दस बज चुके थे! आज एक पेट्रोमैक्स भी था साथ में, ये बढ़िया किया था दीप साहब ने! टोर्च भी दो ले आये थे!
"आओ शर्मा जी" मैंने अपना बैग उठाते हुए कहा,
"चलो" वो बोले,
उन्होंने दूसरा सामान उठा लिया था!
"यहाँ रख दो सामान" वे बोले,
मैंने रख दिया और अब वो पेट्रोमैक्स जला लिया! रौशनी हो उठी वहां!
"आना ज़रा" मैंने कहा,
वो चले मेरे साथ!
हम वहाँ चले जहां कल शाम हमने वो टोकरा छोड़ा था!!
"ये यहीं है" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"उठा लूँ?" वे बोले,
"उठा लो" मैंने कहा,
और जैसे ही उठाया, उसमे एक सांप आ घुसा था! सांप देखते ही हाथ खींच लिया उन्होंने!
"ये कहाँ से आ गया!" वे बोले,
"कोई बात नहीं, एक लकड़ी ले आओ" मैंने कहा,
वे एक लकड़ी ले आये, बड़ी सी, मुझे दी, मैंने सांप को बाहर निकाल लिया, और छोड़ दिया एक तरफ, रुस्सेल्स-वाईपर था वो! अधिक बड़ा नहीं था, लेकिन था ज़हरीला!
"अब उठा लो" मैंने कहा,
उन्होंने उठा लिया वो पात्र!
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
अब हम एक जगह आ गए, यहाँ एक चादर बिछाई, और बैठ गए!
"बैग में से थैला निकाल लो" मैंने कहा,
उन्होंने निकाल लिया, दिया मुझे,
मई उसमे से, तंत्राभूषण निकाले, और मंत्र पढ़ते हुए उनको धारण करवा दिए! और खुद भी पहन लिए! एक भुजबंध भी पहना!
"पानी और गिलास निकाल लो" मैंने कहा,
उन्होंने निकाल लिए!
"अब बनाओ गिलास" मैंने कहा,
उन्होंने बनाये दो गिलास! अब मैंने स्थान-भोग दिया, फिर ईष्ट भोग और खींच लिया वो गिलास! उन्होंने भी ऐसा किया और खींच गए गिलास अपना!
"वो सामान निकाल लो" मैंने कहा,
"ये भी?" उन्होंने छोटे बैग के लिए कहा,
"हाँ, ये भी" मैंने कहा,
और फिर दो दो गिलास और खेंच लिए!!