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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Posted: 19 Aug 2015 13:30
by sexy
मैं वहां पंहुचा तो वो चैन मैंने शर्मा जी को दे दी, शर्मा जी ने वो चैन सामने रखे थाल के अंदर रख दी, कम से कम सौ या सवा सौ ग्राम की होगी वो चैन, कौन पहनता होगा ऐसा भारी-भरकम ज़ेवर! इसके लिए तो गरदन नहीं, पेड़ का तना चाहिए! मैंने अब कुछ और मंत्र पढ़े! और फिर अपनी देह को पोषित किया, एक जगह जहां मैंने चादर बिछाई थी, अब वहां लेट गया, मेरा दम सा घुटा और मैं मूर्छित हो गया! ये सब उन मंत्रों का प्रभाव था! शर्मा जी कागज़ लेकर, पेन लेकर मेरे सिरहाने आ बैठे थे! इस ध्यानावस्था में मेरी आँख खुली, भौतिक आँख नहीं! सुप्त-आँख! ये हम सभी के पास है! लेकिन हम इसका प्रयोग करना नहीं जानते! आप समूचे विश्व का भ्रमण कर सकते हो इस से! समस्त ब्रह्माण्ड में भ्रमण कर सकते हो! आप जहाँ जाना चाहें, जा सकते हो! आपको आपकी देह नहीं दिखाई देगी, लेकिन आपको अपनी आँखों से जैसा दीखता है, वैसा देख सकते हो! छू सकते हो, सुगंध ले सकते हो! वही सुप्त-आँख मैंने जागृत की थी! मैं उसी स्थान पर खड़ा था, लेकिन वहाँ कोई नहीं था! न तो मैं! न शर्मा जी! न ही कोई प्रेतात्मा! कुछ नहीं था वहाँ! दिन का प्रकाश था वहाँ! लेकिन आकाश में सूर्य नहीं थे! वहाँ भौतिकता तो थी, लेकिन अपने अति-सूक्ष्म रूप में! अब मैं इस विषय में अधिक नहीं पडूंगा, नहीं तो ये विषय बहुत ही गूढ़ और विस्तृत हो जाएगा! तभी मेरे कानों में, कुछ लोक-गीत के से स्वर गूंजे! कई स्त्रियां, एक समूह बना कर, जा रही थीं, मैं वहीँ की ओर चला! उनके पास पंहुचा, आसपास पानी भरा पड़ा था, कई गड्ढे पानी से लबालब थे, वे स्त्रियां एक पगडंडी पर चल रही थीं, जो कुछ ऊंचाई पर थी, सामने एक स्त्री, सर पर कलश ले कर जा रही थी, जैसे कुआँ-पूजन हो! उनके स्वर बहुत सुरीले से थे! उनकी वेशभूषा ग्रामीण थी, सभी ने घूंघट किया हुआ था, कोई पुरुष आ रहा होता, तो रुक जाता था, और उन्हें रास्ता दे दिया करता था, पुरुषों के भी वेशभूषा ग्रामीण ही थी! वे स्त्रियां करीब पच्चीस तो रही होंगी! मैं उनके पीछे पीछे चल पड़ा! जहां वो जातीं, मैं जाता, जहाँ वो मुड़तीं, मैं मुड़ जाता था, मैं तो वहाँ भौतिक रूप में नहीं था, लेकिन फिर भी वहीँ था! यही है अज्रंध्रा-प्रवेश!
वे औरतें एक तरफ चलीं, वहां कीचड़ थी, इसीलिए कुछ उछल कर पार करतीं, तो कुछ लांघ कर, कलश वाली स्त्री से कलश ले लिया गया था, उन्होंने फिर से समूह बनाया, और चल पड़ीं, कुश के घास दोनों तरफ लगी थी, हरी हरी, बड़ी बड़ी घास! अचानक से मेरी नज़र एक जगह पड़ी! वो एक मंदिर था! सफ़ेद रंग का मंदिर, थोड़ी ऊंचाई पर बना था, गौर से देखा, तो ये वहीँ खंडहर था, जो मैंने अपनी भौतिक आँखों से देखा था! वो अब जीवंत था! उसके साथ ही एक छोटी कुइयां भी थी, उस पर घिरनी लगी थी, लेकिन ये कुइयां अब इस संसार में नहीं थी, वो डब्ड चुकी थी मिट्टी और पत्थरों के बीच! आज तो नामोनिशान भी नहीं था उसका, और अब, जब मैं उसको देख रहा था, तो अपनी शान और पवित्रता को थामे हुई थी, गर्व से! वे औरतें वहीँ रुकीं! लोकगीत ज़ारी रहा, मैं सब देख रहा था!! सब सुन रहा था! तभी मंदिर से बाहर दो लोग आये, एक पंडित जी थे, और एक उनका कोई सहायक, उन्होंने उस कलश वाली स्त्री से कुछ बात की, और अब पूरा कर्म-काण्ड करवाया, एक बूढी सी औरत ने, अपने घाघरे पर लटकी, एक पोटली से, कुछ सिक्के दिए पंडित जी को, सिक्के सोने के थे, या चांदी के, नहीं दिखा था! मुट्ठी से मुट्ठी में दिए गए थे सिक्के!! वे औरतें अब वापिस चलीं, गीत गाते हुए, मैं अब नहीं चला उनके पीछे, मैं आगे चला, वो मंदिर देखा, पत्थरों से बना, एक भव्य मंदिर था! ध्वज लगा था ऊपर, वायु नहीं थी तो शांत ही था! मंदिर में एक ही दरवाज़ा था, कोई पंद्रह फ़ीट का रहा होगा, किसी रजवाड़े या सेठ ने बनवाया हो, ऐसा लगता था! तभी एक व्यक्ति आया वहाँ, पहलवान जैसा! मंदिर को प्रणाम किया, ऊपर चढ़ा और वो जो सहायक था, वो बाहर आया, उस आदमी ने कुछ दिया उसको थैले में, उस सहायक ने रख लिया, कुछ बातें हुईं उनके बीच, मैं नहीं सुन सका, करीब नहीं था मैं उनके इतना! बस इतना सुना, नरसिंहपुर, वो भी तब, जब वो आदमी लौट रहा था तो तेजी से बोला था! मुझे नहीं पता था ये नरसिंहपुर है क्या? कोई गाँव होगा या कोई क़स्बा! शायद!
लेकिन मुझे वो नहीं दिखा, जो मैंने देखना चाहा था, मैं उस मंदिर से आगे चला, रास्ते में बहुत पानी भरा था, रास्ता भी बेहद खराब था, खेत भी नहीं थे वहां, जंगल ही जंगल था, मैं चलता रहा, मैं न तो गीला ही होता था, और न ही उस कुश घास का शिकार! नहीं तो काट दिया करती है वो! मैं एक ऐसी जगह आया, जहां पर एक नदी सी बह रही थी, ये शायद बीजक वाली नदी थी, बरसाती नदी थी वो, कहीं चौड़ी और कहीं संकरी, कहीं कहीं तो टूटी हुई थी, बीच बीच में टापू से बने थे, और रास्ता भी था, कोई भी गुजर सकता था! तभी पीछे से मुझे कुछ आवाज़ें आयीं, जैसे घुड़सवार आ रहे हों! और वो भी कई सारे! और यही हुआ, करीब दस घुड़सवार गुजर गए धड़धड़ाते हुए! सभी ने बुक्कल मार रखा था, वे नदी के उस रास्ते से, पानी बिखेरते हुए दौड़ गए! और तभी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाया!
और मैं लौटा अपने संसार में!
उठ बैठा!!
शर्मा जी ने मेरी कमर पर हाथ फेरा, मैं तेज तेज सांस ले रहा था!!
"क्या हुआ?" वे बोले,
"कुछ नहीं" मैंने कहा,
"कोई दिखा?" वे बोले,
"नहीं" मैंने कहा,
और अब तक जो देखा था, वो बता दिया,
और अब सामान्य हो गया था!
"वो, वही मंदिर है, नदी इसके पीछे ही बहती है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"लेकिन कोई दिखा नहीं?" वे बोले,
"कोई भी नहीं" मैंने कहा,
हमारे दीये जल रहे थे और बहुत अच्छे लग रहे थे! उनका मद्धम प्रकाश कई कीटों के लिए कौतुहल का विषय बन गया था! कई टिमटिमा रहे थे!
मैं फिर से लेट गया!
और मंत्र पढ़ने लगा!
और तभी मेरी छाती पर कुछ गिरा!! मैं उठ गया! मंत्रोच्चार टूट गया था, मैंने वो वस्तु उठायी, ये एक कंठ-माल था, किसी ने फेंका था मेरे लिए! कि मैं धारण कर लूँ, लेकिन फेंकने वाला था कौन? शायद मदना ही होगा! वही होगा! मैंने कंठ-माल धारण कर लिया, ये मनके से थे, काले रंग के, मज़बूत सूत के धागे में पिरोये हुए थे!
"मदना?" वो बोले,
"हाँ, वही होगा" मैंने कहा,
मैं फिर से लेटा, ध्यान लगाया, और मेरी साँसें तेज हुईं, और कुछ ही पलों में, मैं भौतिकता छोड़, सूक्ष्म-भौतिकता में पहुँच गया! समय शाम के करीब का था, मैं किसी गाँव के प्रवेश रास्ते पर खड़ा था, लेकिन गाँव कौन सा था, ये नहीं पता, आज तक नहीं पता! हाँ, इतना कि बाहर एक कुआं था, चारों और गोल चबूतरा बना था, उसमे गोल गोल सीढ़ियां बनी थीं पत्थरों की, साथ में पीपल के बड़े से पेड़ थे वहाँ!
मैं अंदर चला,
ग्रामीण माहौल था वहाँ!
इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आ रहे थे, कुछ खेतीहर रहे होंगे वे लोग, अब लौट रहे थे, घरों में से, घर जो कि कच्ची मिट्टी से बने थे, मोटी मोटी दीवारें थीं उनकी, छप्पर पड़े हुए थे उनपर, धुआं सा निकल रहा था, शायद चूल्हे चढ़े हों!
मैं यहाँ क्यों आया?
किसलिए?
यहां मेरा क्या काम?
वो भी इस गाँव में?
तभी कोई पांच-छह घुड़सवार दिखे, आ रहे थे गाँव में से ही, बुक्कल मारे, ये वही घुड़सवार रहे होंगे, जो मैंने उस नदी के पास देखे थे! वे एक जगह रुके, एक घर के आगे, घर उस गाँव के हिसाब से अच्छा बना था, बाहर चित्रकारी सी बनी थीं! खड़िया जैसे सफ़ेद! ज्योमितीय आकार से बने थे! एक घुड़सवार उतरा, घर के दरवाज़े पर लगे बड़े से कुन्दे को बजाया, और पीछे हट गया! उसके पास दो पोटलियाँ थीं, कोई आदमी बाहर आया, आदमी ने सफ़ेद रंग का साफ़ा बाँधा था, वो उन सभी को अंदर ले गया, एक एक करके! और कोई थोड़ी देर बाद, वे सभी बाहर आये, और जो सबसे आखिर में बाहर आया, एक पोटली लेकर, उसको मैंने पहचान लिया! मैं चौंक पड़ा!! वो मदना था!! मदना! सजीला सा युवक, गठीला सा युवक! आँखों में चमक लिए हुए, काजल लगाया हुआ था उसने! वो घोड़े पर चढ़ा और हो गए सभी रवाना!! मेरे सामने से ही गुजरे! मैं भागा उनके पीछे, लेकिन तभी ठोकर सी खायी, अँधेरा छाया और मैं वापिस अपने संसार में!
आँखें खुल गयीं!
साँसें धौंकनी जैसी तेज!
शर्मा जी ने थाम लिया मुझे!
मेरी कमर पर हाथ फेरा!
माथे पर फेरा!
और पानी की बोतल दे दी मुझे खोलकर!
मैंने पानी पिया!
और साँसें नियंत्रित कीं अब!
"कोई दिखा?" वे बोले,
"हाँ!! हाँ!" मैंने कहा!
"कौन?'' वे बोले,
"मदना!" मैंने कहा!
"मदना?" वे चौंके!
"हाँ मदना!!" मैंने कहा,
"और कोई?" उन्होंने पूछा,
"और कोई नहीं" मैंने कहा,
मुझे पसीने आ गए थे बहुत! पसीने पोंछे!
कुछ देर ऐसे ही बैठा!
"मैं कोई नाम लिया?" मैंने पूछा,
"हाँ, नरसिंहपुर" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
और अब उन्हें सारी बात बतायी,
वो गाँव शायद यही था, नरसिंहपुर!
"तो मदना नरसिंहपुर जाय करता था" वे बोले,
"हाँ, कोई सामान की अदल-बदल करने" मैंने कहा,
"सामान?" वे बोले,
"हाँ, उनके पास दो पोटलियाँ थीं, वापसी आये तो एक ही थी" मैंने कहा,
"अच्छा!" वे बोले,
"अब यहां मामला गंभीर होता है" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो सामान क्या था?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने कहा,
"क्या धन?" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
फिर कुछ क्षण बीते!
उर मैं फिर से लेट गया!
मंत्र पढ़े, आँखें बंद कीं!
और मेरा दम घुटा!
मैं फिर से मूर्छित!!!
और इस बार मैं एक अजीब से स्थान पर था! खुला मैदान! बीहड़ सा क्षेत्र! दूर दूर तक कोई नहीं! न आदमी, न ही कोई जानवर! कोई पेड़ भी नहीं! बस झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ! नागफनी, और जंगली से पौधे थे वहाँ! और कुछ नहीं!
कहाँ जाऊं, कहाँ न जाऊं, कुछ नहीं पता!
खैर, एक दिशा में बढ़ा मैं!
वहाँ कुछ पेड़ से लगे थे! वहीँ चला!
और एक जगह पहुंचा!! यहाँ कुछ जानवर से दिखे मुझे! मैं आगे चला, ये मवेशी थी, कुछ चरवाहे से भी दिखे, मैं वहीँ चला! और एक व्यक्ति पर नज़र पड़ी मेरी! नेतपाल! वो मवेशी हांकता नेतपाल ही था! वो हाँक रहा था अपने मवेशियों को! मैं चला उधर ही, और तभी वो बैठ गया एक जगह, साथ लाये बर्तन में पानी था उसके, उसने बर्तन खोला और पानी पिया! फिर आँखों पर भी मारा!
मैं और आगे चला.............

Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Posted: 19 Aug 2015 13:30
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नेतपाल सामने बैठा था, लकिन अभी तक एक बात समझ नहीं आई थी, मदना तो पुत्र था बाबा लहटा का, तो फिर ऐसे काम क्यों कर रहा था? और फिर बाबा लहटा कहाँ थे अभी तक? ये पहेलियाँ बहुत ही अजीब सी थीं, ये नहीं सुलझ पा रही थीं! नेतपाल पर ही नेत्र गढ़े थे मेरे! तभ एक और आदमी आया उसके पास, ये ठेठ राजस्थानी परिवेश था, और जो उनकी बोली थी, वो भी राजस्थानी थी! वे दोनों बातें उसी बोली में कर रहे थे, लेकिन आजकी राजस्थानी से अलग थी ये भाषा, खड़ी बोली सी लगती थी! तो मैं क्या राजस्थान में था इस समय? हाँ! हो सकता है! वैसा ही भूगोल था वहाँ! वो नागफनी, वो कीकर के पेड़, हाँ, मैं राजस्थान में ही था! तभी कुछ आदमी और आये वहाँ! उन्हें देख, नेतपाल खड़ा हो गया, उसने किसी को आवाज़ दी, तो कोई लड़का आया भागा भागा, शायद दूसरी ओर था वो पहले! नेतपाल ने उस लड़के से कुछ कहा, और उन चारों आदमियों के साथ चल पड़ा, उन आदमियों के पास पोटलियाँ थीं, कुल चार पोटलियाँ! वे चले तो मैं भी चला! वे करीब एक किलोमीटर चले होंगे, कि एक डेरा सा दिखा!! ये डेरा ही लगता था! उसमे एक मंदिर भी था, लाल रंग का मंदिर, और उस मंदिर पर धनुष और बाण बने थे! काले रंग से! वे पाँचों के पाँचों अंदर चले, मैं भी अंदर आ गया था! नेतपाल के संग आये आदमी एक जगह रोक दिए गए, और नेतपाल आगे चला गया, थोड़ी देर में जब आया, तो उनके संग दो व्यक्ति थे! एक मदना और एक कोई और! उनमे आपस में बातें हुईं कुछ, और उस साथ आये आदमी ने, वो पोटलियाँ ले लीं! और चला गया वापिस! और जब वापिस आया, तो दो पोटलियाँ लाया था, दोनों छोटी छोटी थीं, नेतपाल वहीँ रुक गया, और वे चारों के चारों, वापिस चल दिए! अब नेतपाल को वो मदना लेकर चला अपने संग, और एक अहाते में बिछी चारपाई पर बैठ गए वे! और तभी वहाँ कोई आया, उसको देख सभी खड़े हो गए, ज़मीन से माथा लगाने लगे! वो यक़ीनन कोई बाबा था! काले रंग के चोगे में, भयानक सा लगता था! केश कमर तक थे, दाढ़ी बीच में से सफ़ेद थी, हाथों में मालाएं ही मालाएं थीं, गले में मालाएं ही मालाएं! आँखों में काजल लगा था, कमर में एक रस्सी बंधी थी, सन की सी रस्सी! शरीर भारी-भरकम, कद्दावर बाबा थे वो, उम्र कोई साठ की रही होगी, गले पर भस्म मली थी शायद, और माथे पर एक टीका था काले रंग का! नेतपाल और मदना, चले बाबा की तरफ, और गिर पड़े पांवों में!
"दिज्जा का पता चला?" पूछा उस बाबा ने,
"नहीं बाबा" बोला मदना,
अब गुस्सा सा किया बाबा ने!
और चल पड़े वापिस!
"बाबा लहटा?? बाबा लहटा?" बोला नेतपाल,
लेकिन बाबा ने सुना नहीं! और एक झोंपड़ी ने प्रवेश कर गए!
बाबा लहटा!! ओह! तो ये हैं बाबा लहटा! मैं उनके डेरे पर हूँ! मदना यहीं रहता है! और ये नेतपाल तो मुझे कोई खबरी सा लगा! ये लोग भी संदिग्ध ही लगे! जैसे लूट का माल खरीदते हों, और उसके औने-पौने दाम देते हों!
मैंने देख लिया था बाबा लहटा को! और तभी अँधेरा छाया! और मैं फिर से वापिस हुआ अपने संसार में! खांसता हुआ मैं उठा, दम घुटते घुटते बचा था, ऐसा लगा!
मैं उठ बैठा!
शर्मा जी ने फिर से हाथ फेरा मेरी कमर पर!
और बोतल दी पानी की खोलकर,
मैं दो घूँट पानी पिया और तब सामान्य हुआ!
"कुछ देखा?" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"कौन?" वे बोले,
"बाबा लहटा! मदना! नेतपाल और बाबा लहटा का डेरा!" मैंने एक ही सांस में कह डाला!
"डेरा? तो क्या ये डेरा बाबा लहटा का है?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, ये डेरा नहीं" मैंने कहा,
"तो फिर?" वे बोले,
"बाबा लहटा का डेरा राजस्थान में है, शायद अलवर की तरफ" मैंने कहा,
"अच्छा!!" वे बोले,
और अब मैंने उन्हें फिर से सारी कहानी बतायी!
"अच्छा! लूट का माल!" वे बोले,
"हाँ, यही लगता है" मैंने कहा,
"तो यहां क्या लूट हुई थी?" वे बोले,
"नहीं, ऐसा तो नहीं लगता" मैंने कहा,
"तो बाबा लहटा का पुत्र मदना, यहां कैसे?" वे बोले,
सवाल बहुत बड़ा था!
और उत्तर नदारद!
"ये तो मुझे भी नहीं पता" मैंने कहा,
"मैं अज्रंध्रा-प्रवेश में कड़ियाँ देख रहा हूँ" मैंने कहा,
"हाँ, अब कुछ पता चलने लगा है" वे बोले,
"क्या मैंने कुछ कहा था?" मैंने पूछा,
"नहीं, कुछ नहीं" वे बोले,
"कहानी अभी भी दबी हुई है" मैंने कहा,
"हाँ, अभी भी दबी है" वे बोले,
"लेकिन पता तो करना ही है" मैंने कहा,
"मैंने कुछ कहा था क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ, एक नाम है ये शायद, दिज्जा" वे बोले,
"हाँ, बाबा लहटा ने पूछा था दिज्जा के बारे में" मैंने कहा,
फिर, और पानी माँगा, पानी दिया उन्होंने, मैंने पानी पिया,
फिर से लेट गया! ऊपर तारे चमक रहे थे! उसी वक़्त के गवाह थे ये सब के सब!
वो, वो चाँद, सब देख चुके थे! बस हमें देखना था अब!
मैंने आँखें बंद कीं,
ध्यान लगाया,
मन्त्र पढ़े,
और मेरा दम घुटा!
मेरे शरीर में जुम्बिश हुई!
और फिर मैं मूर्छित हुआ!
और इस बार मैं एक अलग ही स्थान पर पहुंचा! हरा-भरा सा स्थान था वो! हर तरफ पेड़ लगे थे! आसपास खेती भी हो रही थी! भूमि उपजाऊ है, पता चलता था! मैं आगे चला, तो सामने मुझे अरसी दिखी, एक और महिला संग, सर पर घड़ा उठाया हुआ था दूँ ने, ग्रामीण वेशभूषा था उनकी! मैं उनके संग ही चला! वे बतियाते हुए अपना रास्ता नाप रही थीं! वे चलते चलते, एक बड़े से डेरे में प्रवेश कर गयीं! ये डेरा बहुत बड़ा था! हर तरफ बगिया ही बगिया थीं! फूल खिले थे बेहतरीन! सुगंध फैली थी! वहाँ और भी पुरुष और महिलायें थीं, सभी ने एक न एक वस्त्र पीले रंग का ही पहना था! शायद पहचान हो ये वहाँ की! अरसी एक घर में, झोंपड़ी में घुस गयी, दूसरी औरत आगे चली गयी! और मैं वहाँ अकेला ही खड़ा रहा!
अचानक ही कुछ लोग आये वहां, ये किसी और डेरे से थे, या किसी अन्य गाँव के, वे दौड़े से जा रहे थे, कुल अठारह या बीस आदमी रहे होंगे! उनमे से किसी ने भी पीला वस्त्र नहीं पहना था! मैं वहीँ खड़ा था, अब उनके पीछे हुआ, एक जगह कुछ औरतें थीं वे निकल लीं वहाँ से, और उस डेरे के लोग इकठ्ठा होने लगे! वे जो आये थे, इकठ्ठा ही खड़े थे! और उधर से जिसने कमान संभाली थी, वो जम्भाल था! वही पहलवान! जिसने पत्थर फेंक के मारा था! कोई झगड़ा सा हुआ था! लेकिन मारपीट नहीं हुई थी, आखिर में जब उस जम्भाल के बहुत सारे पहलवान इकठ्ठा हो गए तो वे बीस आदमी निकल लिए वहाँ से! जम्भाल से कुछ बातें हुईं थीं उनकी, एक व्यक्ति था उनमे, उसके पास कटार पड़ी थी कमर में, वही बातें कर रहा था! और फिर वे चले गए, न नमस्ते और न ही हाथ जोड़े, कोई विषय था शायद लड़ाई झगड़े का!
वे लोग चले गए थे वहाँ से!
और अब डेरे के कई लोग आपस में ही बतियाने लगे थे!
जम्भाल उनका सरदार सा लगा मुझे! औरतें फिर से आने लगीं वहां, और धीरे धीरे मामला शांत हो गया! अब डेरे के लोग, अपने नित्य कार्यों पर लग गए थे! मैं वहीँ खड़ा था, सब देख रहा था, उनका ही हिस्सा था मैं उस समय तो! मैं तो समय के यान पर बैठ, पीछे आ चुका था! कोई आधे घंटे के बाद, कोई दस लोग आये वहाँ, उनमे से एक बाबा द्वैज थे! वे सब लोग अपने अपने घोड़ों से आये थे! बाबा द्वैज एक जगह बैठे, तो सभी ने घेर लिया उन्हें, और तब जम्भाल ने सारी बात बता दी उनको, बाबा द्वैज जैसे गुस्सा हो गए! और तभी के तभी वहाँ से अपने साथियों के साथ रवाना हो लिए!! कहना के लिए? ये नहीं पता!! और तभी अँधेरा सा छाया! और मैं उठ बैठा! चेतना जाएगी, तो मेरे हाथ-पाँव सुन्न पड़े थे! शर्मा जी ने मदद की, और जब खून का दौरा ठीक हुआ, तो हाथ-पाँव भी ठीक हो गए! लेकिन साँसें बहुत तेज थीं मेरी! पानी माँगा, और पानी पिया मैंने, दो घूँट, हलक सूख चुका था बुरी तरह से!
अब सामान्य हुआ!
शर्मा जी मुझे ही देख रहे थे,
मेरे सर से मिट्टी हटाई उन्होंने!
"कुछ दिखा?" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"कौन?" वे बोले,
"जम्भाल और बाबा द्वैज!" मैंने कहा,
"अच्छा!!" वे बोले,
"हाँ, लेकिन वहाँ कोई झगड़ा हुआ था" मैंने कहा,
"कैसा झगड़ा?" वे बोले,
"वो बाबा द्वैज का ही डेरा था, वहां बाबा द्वैज नहीं थे, हाँ कुछ लोग आये थे, धमकने या कुछ पूछने, ये नहीं पता, तब बाबा द्वैज को बताया गया, और वे रवाना हो लिए थे" मैंने कहा,
"कहाँ के लिए?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने कहा,
"ओह, तो झगड़ा हुआ था" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"विरोधी कौन हैं ये नहीं पता?" वे बोले,
"नहीं, नहीं जान सका" मैंने कहा,
"पता नहीं कैसा झगड़ा हुआ था" वे बोले,
"नहीं पता" मैंने कहा,
फिर कुछ देर बातचीत!
और फिर कुछ देर बाद, मैं लेट गया!
फिर से ध्यान लगाया, और फिर मेरा दम घुटा!
मैं मूर्छित हुआ!
और अब मैं ऐसी जगह पहुंचा था, जहां घर ही घर बने थे!
लोगबाग इकट्ठे हुए खड़े थे,
कोई लाठी-डंडा तो नहीं था, न ही कोई शस्त्र!
और तभी मुझे बाबा द्वैज दिखे!!
उन लोगों के बीच!
और जिनसे बात हो रही थी, वे कौन है, नहीं पहचान सका था मैं!
और तभी मुझे एक और जाना-पहचाना चेहरा दिखा!
ये मदना था!!
अब आया समझ!
मदना और द्वैज बाबा! ये थे विरोधी एक दूसरे के!
लेकिन कारण क्या था?
किस वजह से ये नौबत आई थी?
ऐसी क्या बात हुई थी?
और ये जगह, है कौन सी?
बहुत सारे प्रश्न मन में कुलबुला गए!!
और मैं, वहीँ उन सभी को देखता रहा!!
और फिर...........................

Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Posted: 19 Aug 2015 13:31
by sexy
एक बात तो स्पष्ट थी अब, कि बाबा द्वैज और उस मदना के पिता बाबा लहटा का कोई या तो लेन-देन था आपस में, या अन्य कोई और बात थी, लेन-देन इसलिए कि बाबा लहटा का कार्य मुझे संदिग्ध लगा था, और ये भी कि मुझे बाबा द्वैज ऐसे नहीं लगते थे, वे सच्चे साधक ही लगते थे, जो ऐसे कार्यों से दूर ही रहा करते हैं! बात कुछ और ही थी, लेकिन मुझे पता नहीं था इसका, और अब यही जानने की उत्कंठा मेरे मन में उछल रही थी! लेकिन मैं ये जानूँ कैसे? किस से जान सकता हूँ? और तभी बाबा द्वैज खड़े हुए, और अपने उन साथियों के साथ निकल लिए वहां से, बाबा द्वैज बहुत गुस्से में थे! जिस तरह से निकले थे, उस से पता चलता था कि समस्या हल नहीं हुई है, कोई समझौता नहीं हो पाया है और बात अभी तक वहीँ की वहीँ हैं! वे लोग जब चले गए, तो वहाँ अब मदना भी निकला अपने साथियों के साथ, और मैं लौटा फिर वापिस अपने संसार में, ये कड़ी देखनी थी, देख ली थी, एक कदम आगे बढ़ गया था मैं!
मैं खांसता हुआ उठा, और शर्मा जी से पानी माँगा, पानी पिया, और अब तक जो हुआ था, वो बता दिया उन्हें, नाम मैंने कोई नहीं लिया था, इसके बारे में पूछा भी था मैंने, अब तक ये तो जाना कि बाबा लहटा और बाबा द्वैज, इनके बीच किसी बात को लेकर मनमुटाव था, लेकिन अब एक बात और, बाबा त्रिभाल कौन हैं? और हैं कहाँ? इतनी बड़ी घटना हो रही है, घटनाक्रम लगातार बदले जा रहा है, तो बाबा त्रिभाल कहाँ हैं? जम्भाल ने यही कहा था कि त्रिभाल बाबा यहीं हैं, मदना ने भी यही कहा था कि बाबा त्रिभाल यहीं हैं, यदि यहीं हैं, तो कहाँ है? क्या उनको भी जगाया जाए? क्योंकि अभी तक उनका कोई भी ज़िक्र नहीं आया था, बाबा द्वैज ने तो कुछ बताया ही नहीं था, अब यही जानना था मुझे, बाबा त्रिभाल के विषय में पता चलता तो सम्भव है ये गुत्थी और सुलझने के करीब आ जाती! मैं फिर से लेट गया, मंत्र पढ़े, सांस सी घुटी और मैं अचेतावस्था में पहुँच गया, फिर जैसे मेरे नेत्र खुले, मैं एक ऐसे स्थान पर पहुंचा, जो उस डेरे में ही था, लेकिन बहुत दूर था, दूर एकांत में, उस समय वहाँ अमरक और शीशम के पेड़ लगे थे, बड़े बड़े पेड़ थे वे, वहीँ थोड़ा दूर एक झोंपड़ा सा बना था, और वहाँ कई चबूतरे बने थे, वहाँ ठंडक थी, समय से पता चलता था कि दिन का कोई आठ या नौ बजे के आसपास का समय रहा होगा, कुछ लोग चले आ रहे थे वहां, मैं आगे थे काफी, एकतरफ हट गया, उन लोगों को वहाँ तक आने में कुछ समय लगा, वे लोग कुछ सामान ल रहे थे अपने सरों पर इकठ्ठा करके, और उनके पीछे हर उम्र के लोग पीछे पीछे आ रहे थे, और वे सामान वाले लोग वहाँ से निकल गए, वे कोई बीस रहे होंगे, अब मेरी सुप्त-आँख भी आगे बढ़ी, और जब आँख रुकी तो सामने एक बड़ा सा चबूतरा बना था, आज सजा था वो चबूतरा, लोग पूजा-पाठ कारण एलगे थे वहाँ, और तभी में नज़र पड़ी कुछ लोग आ रहे थे वहाँ, और उन लोगों में, बाबा द्वैज भी थे, स्पष्ट था कि ये डेरा उन्ही का था! लेकिन ये चबूतरा? और तभी जयनाद सा गूंजा! बाबा त्रिभाल की जय जयकार हो उठी! अब समझ गया, बाबा त्रिभाल की ही समाधि है ये! मूर्त रूप से वे अपना शरीर छोड़ चुके हैं! और बाबा द्वैज ही उनके पुत्र हैं! क्योंकि अब समस्त संचालन बाबा द्वैज के हाथों में ही था! और फिर मैंने देखा, एक किशोर, जिसने फूल अर्पित किये थे उस चबूतरे पर और पाँव छुए थे, अचानक से मुझे ध्यान आया!! केषक!! बाबा द्वैज का पुत्र! हाँ! यही है वो केषक! अचानक से ही मेरी सुप्त-आँख बंद हुई और मैं वापिस हुआ! इस बार भी उठा! खांसा और पानी पिया, हलक सूख गया था, कांटे से चुभ रहे थे!
"कुछ पता चला?" वो बोले,
"हाँ! दिखा!" मैंने कहा,
"कौन?" वे बोले,
"बाबा त्रिभाल की समाधि, बाबा द्वैज और उनका पुत्र केषक! वहीँ केषक जिसका वो, वो हाथ है, वही केषक!" मैंने कहा,
"अच्छा!!" वे बोले,
"तो बाबा समाधिलीन हो चुके थे, बाबा द्वैज के सामने ही?" वे बोले,
"हाँ, हो चुके थे, और ये डेरा उन्ही का है" वे बोले,
"तो संचालन अब बाबा द्वैज का था" वो बोले,
"हाँ, वही थे" मैंने कहा,
अब मैं उठ गया था, शरीर में थकावट भरी पड़ी थी! मुझे तो चक्कर से आने लगे थे, जैसे मेरी प्राण-वायु का ह्रास हुए जा रहा हो, मेरी पेट में भी दर्द होने लगा था, छाती में भी हल्का-हल्का दर्द था, अभी तो बहुत रात बाकी थी, एक भी प्रेतात्मा उस समय वहाँ प्रकट नहीं हुई थी, सभी अपने अपने आवरण में ही थे! अब कुछ चरित्र जीवंत हो चुके थे, अब रह गया कोई, तो वो दिज्जा! ये दिज्जा कौन है? इस दिज्जा का क्या लेना-देना इन दोनों से ही, जैसा कि बाबा लहटा ने नेतपाल और मदना से पूछा था उस दिज्जा के बारे में, अब ये दिज्जा है कौन, कोई स्त्री या कोई पुरुष? अब दो प्रश्न सर उठाये खड़े थे, एक ये दिज्जा, और दूसरा वो कारण, जिसकी वजह से इनमे मनमुटाव हुआ था!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"ये दिज्जा ही मुझे वो कारण लगता है" मैंने कहा,
"उनके बीच विरोध का?" वे बोले,
"हाँ, यही है शायद" मैंने कहा,
"सम्भव है" वे बोले,
मैंने एक घूँट पानी और पिया,
थोड़ा सा आराम किया, कोई आधा घंटा,
थोड़ा आराम हुआ और उसके बाद मैं,
फिर से लेट गया! मंत्र पढ़े, और दिज्जा के विषय में मैं जानने के लिए फिर से अज्रंध्रा-प्रवेश कर गया!
मेरी सुप्त-आँख खुली, वो कोई त्यौहार का सा दिन लगा मुझे! जी लोग दीख रहे थे वहाँ, वे सभी बने-ठने से थे! क्या पुरुष और क्या स्त्रियां, और क्या अन्य! मैं शायद उसी स्थान पर था! बाबा द्वैज के स्थान पर ही! घरों में भी सजावट थी, झोंपड़ों के प्रांगण को, दीवारों को ताजे गोबर और मिट्टी से लेपा गया था, चित्र बनाये गए थे सफ़ेद और पीले रंग से! घरों के बाहर दीये रखे थे, एक स्थान पर, कुछ लोग बैठे हुए थे, बतला रहे थे एक दूसरे से, और तभी मेरी नज़र कुछ आती हुईं स्त्रियों पर पड़ी, स्त्रियां सजी-धजी थीं! कुछ स्त्रियां विवाहित थीं, सिन्दूर लगाया हुआ था उन्होंने, मांग-कड़ूला पड़ा था उनमे, और कुछ अविवाहित थीं, वे आ रही थीं उधर से ही, वे मर्द लोग, उठ खड़े हुए, और अपनी पीठ उनकी तरफ करके बैठ गए थे, वे स्त्रियां वहाँ से गुजरीं तो एक ख़ास स्त्री पर, यूँ कही एक लड़की पर, में निगाह पड़ी, वो उनमे से सबसे अलग दिख रही थी! गज़ब की सुंदर थी वो! गोरा-चिट्टा रंग था उसका, सुगठित देह थी उसकी! केश अच्छी तरह से बांधे गए थे उसके! गहरा लाल रंग का घाघरा सा था उसका! ऊपर पीले रंग की कमीज सी थी, एक अलग ही तरह की कमीज़, उसमे सामने बटन नहीं थे, रस्सियाँ सी थीं, सुतलियाँ जैसी, हाथों में आभूषण थे उसके, गले में भी, उसके सिन्दूर नहीं था सर में, वो अविवाहित थी! मैं उसके उस मनमोहक सौंदर्य को देखता ही रह गया! उन स्त्रियों का कोई विशेष प्रयोजन था, क्या, ये नहीं पता था, मैं अज्रंध्रा-प्रवेश में था, और जो मुझे दीखता था उसका कोई न कोई प्रयोजन हुआ करता था! अतः, मैं उनके पीछे पीछे हुआ अब!
वे एक जगह पहुंचीं,
और रुक गयीं, ये एक कुण्ड सा था, अधिक बड़ा नहीं था, छोटा सा, पास में ही कुछ पिंडियां थीं, अब वे स्त्रियां वहां रुक गयीं, और पूजा-पाठ आरम्भ हुआ, साथ लायी हुईं वस्तुएं, फूल इत्यादि पूजन पश्चात उसमे डाल दिए गए, उसके बाद, अपने हाथ और पाँव, उस कुण्ड के पानी से साफ़ किये, और वे सभी वापिस हुईं! मैं फिर से संग चला उनके! तभी रास्ते में एक और महिला मिली, ये महिला वृद्ध थी, सभी ने उसके चरण छुए, और मुझे उस स्त्री के स्वर सुनाई दिए, पहली बार! पहली बार मैंने ऐसे स्पष्ट स्वर सुने! दिज्जा! उस स्त्री ने नाम लिया उसी स्त्री का चेहरा थामे हुए! मुझे झटका लगा! ये है दिज्जा! वो रूपसी! वो शुभांगिता, वो मोहिका दिज्जा!!!
बस! अँधेरा छाया!
मैं खांसते हुए उठा, फन्दा सा लग गया था गले में!
ऐसी ज़बरदस्त खांसी उठी थी!
शर्मा जी ने संभाला मुझे! और पानी दिया, मैंने एक घूँट पानी पिया, दिल ज़ोर से धड़क रहा था! बहुत ज़ोर से! उसको सामान्य होने में, कोई पांच मिनट लग गए थे! सच कहूँ, मैं अभी तक उस रूपसी दिज्जा के सौंदर्य को निहार रहा था उस शून्य में!
"कुछ दिखा?" वे बोले,
"हाँ!!" मैंने ज़ोर से कहा,
"क्या?" उन्होंने भी ज़ोर से पूछा,
"दिज्जा!" मैंने कहा,
"अच्छा!" वे बोले,
"हाँ!!" मैंने कहा,
"कौन है ये दिज्जा?" वे बोले,
"एक अत्यंत ही रूपवान अविवाहित स्त्री!" मैंने कहा,
"क्या? दिज्जा एक स्त्री है?" वे चौंक के बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"अब मामला उलझ गया है!" वे होंठ पर हाथ रखते हुए बोले,
"हाँ, मुझे अनुमान है" मैंने कहा,
"ये दिज्जा है कहाँ?" वे बोले,
"बाबा द्वैज के स्थान पर" मैंने कहा,
"ओह.." वे बोले,
"हाँ, वहीँ है" मैंने कहा,
"तो बाबा लहटा को क्या काम उस से?" वे बोले,
"यही तो है वो कारण" मैंने कहा,
"निःसंदेह अब तो!" वे बोले,
"हाँ, यही है वो कारण!" मैंने कहा,
सच है!!
यही बना होगा एक कारण उस नरसंहार का! लेकिन अभी भी गुत्थी उलझी हुई थी! वो दिज्जा, वर्तमान में नाम होगा वो, दीक्षा! बाबा लहटा ने उसके बारे में पूछा था!
"एक बात और?" वे बोले,
"क्या?" मैंने कहा,
"अगर दिज्जा बाबा द्वैज के पास है, और वहीँ आवास है उसका, तो ये बात बाबा लहटा को पता होगी, तो बाबा लहटा पूछेंगे क्यों?" वे बोले,
प्रश्न बहुत तीखा था!
बहुत ही दमदार!
"हाँ ये भी बात है" मैंने कहा,
"कारण वही है, लेकिन अभी भी बात अधूरी है" वे बोले,
"लगता तो यही है" मैंने कहा,
लेकिन मित्रगण!
मुझसे तो उस दिज्जा का चेहरा भूला ही नहीं जा रहा था! क्या सौंदर्य था उसका!! जैसे, रति ने स्वयं ही अपना सबसे दीर्घ अंश उसको प्रदान किया हो!!
"मैंने कोई नाम लिया?" मैंने पूछा,
"नहीं" वे बोले,
मैं चुप हुआ!
लेकिन फिर से दिज्जा के सौंदर्य में अटक गया!!
अब ये कि, वो दिज्जा कारण कैसे बनी होगी?
क्या उस रूप? मादकता? या अन्य कोई कारण?
ये अब जानना बेहद ज़रूरी था!
और इसके लिए मुझे फिर से अज्रंध्रा-प्रवेश करना था!
इसीलिए, मैं पुनः, लेट गया!!!