Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story
Posted: 19 Aug 2015 13:30
मैं वहां पंहुचा तो वो चैन मैंने शर्मा जी को दे दी, शर्मा जी ने वो चैन सामने रखे थाल के अंदर रख दी, कम से कम सौ या सवा सौ ग्राम की होगी वो चैन, कौन पहनता होगा ऐसा भारी-भरकम ज़ेवर! इसके लिए तो गरदन नहीं, पेड़ का तना चाहिए! मैंने अब कुछ और मंत्र पढ़े! और फिर अपनी देह को पोषित किया, एक जगह जहां मैंने चादर बिछाई थी, अब वहां लेट गया, मेरा दम सा घुटा और मैं मूर्छित हो गया! ये सब उन मंत्रों का प्रभाव था! शर्मा जी कागज़ लेकर, पेन लेकर मेरे सिरहाने आ बैठे थे! इस ध्यानावस्था में मेरी आँख खुली, भौतिक आँख नहीं! सुप्त-आँख! ये हम सभी के पास है! लेकिन हम इसका प्रयोग करना नहीं जानते! आप समूचे विश्व का भ्रमण कर सकते हो इस से! समस्त ब्रह्माण्ड में भ्रमण कर सकते हो! आप जहाँ जाना चाहें, जा सकते हो! आपको आपकी देह नहीं दिखाई देगी, लेकिन आपको अपनी आँखों से जैसा दीखता है, वैसा देख सकते हो! छू सकते हो, सुगंध ले सकते हो! वही सुप्त-आँख मैंने जागृत की थी! मैं उसी स्थान पर खड़ा था, लेकिन वहाँ कोई नहीं था! न तो मैं! न शर्मा जी! न ही कोई प्रेतात्मा! कुछ नहीं था वहाँ! दिन का प्रकाश था वहाँ! लेकिन आकाश में सूर्य नहीं थे! वहाँ भौतिकता तो थी, लेकिन अपने अति-सूक्ष्म रूप में! अब मैं इस विषय में अधिक नहीं पडूंगा, नहीं तो ये विषय बहुत ही गूढ़ और विस्तृत हो जाएगा! तभी मेरे कानों में, कुछ लोक-गीत के से स्वर गूंजे! कई स्त्रियां, एक समूह बना कर, जा रही थीं, मैं वहीँ की ओर चला! उनके पास पंहुचा, आसपास पानी भरा पड़ा था, कई गड्ढे पानी से लबालब थे, वे स्त्रियां एक पगडंडी पर चल रही थीं, जो कुछ ऊंचाई पर थी, सामने एक स्त्री, सर पर कलश ले कर जा रही थी, जैसे कुआँ-पूजन हो! उनके स्वर बहुत सुरीले से थे! उनकी वेशभूषा ग्रामीण थी, सभी ने घूंघट किया हुआ था, कोई पुरुष आ रहा होता, तो रुक जाता था, और उन्हें रास्ता दे दिया करता था, पुरुषों के भी वेशभूषा ग्रामीण ही थी! वे स्त्रियां करीब पच्चीस तो रही होंगी! मैं उनके पीछे पीछे चल पड़ा! जहां वो जातीं, मैं जाता, जहाँ वो मुड़तीं, मैं मुड़ जाता था, मैं तो वहाँ भौतिक रूप में नहीं था, लेकिन फिर भी वहीँ था! यही है अज्रंध्रा-प्रवेश!
वे औरतें एक तरफ चलीं, वहां कीचड़ थी, इसीलिए कुछ उछल कर पार करतीं, तो कुछ लांघ कर, कलश वाली स्त्री से कलश ले लिया गया था, उन्होंने फिर से समूह बनाया, और चल पड़ीं, कुश के घास दोनों तरफ लगी थी, हरी हरी, बड़ी बड़ी घास! अचानक से मेरी नज़र एक जगह पड़ी! वो एक मंदिर था! सफ़ेद रंग का मंदिर, थोड़ी ऊंचाई पर बना था, गौर से देखा, तो ये वहीँ खंडहर था, जो मैंने अपनी भौतिक आँखों से देखा था! वो अब जीवंत था! उसके साथ ही एक छोटी कुइयां भी थी, उस पर घिरनी लगी थी, लेकिन ये कुइयां अब इस संसार में नहीं थी, वो डब्ड चुकी थी मिट्टी और पत्थरों के बीच! आज तो नामोनिशान भी नहीं था उसका, और अब, जब मैं उसको देख रहा था, तो अपनी शान और पवित्रता को थामे हुई थी, गर्व से! वे औरतें वहीँ रुकीं! लोकगीत ज़ारी रहा, मैं सब देख रहा था!! सब सुन रहा था! तभी मंदिर से बाहर दो लोग आये, एक पंडित जी थे, और एक उनका कोई सहायक, उन्होंने उस कलश वाली स्त्री से कुछ बात की, और अब पूरा कर्म-काण्ड करवाया, एक बूढी सी औरत ने, अपने घाघरे पर लटकी, एक पोटली से, कुछ सिक्के दिए पंडित जी को, सिक्के सोने के थे, या चांदी के, नहीं दिखा था! मुट्ठी से मुट्ठी में दिए गए थे सिक्के!! वे औरतें अब वापिस चलीं, गीत गाते हुए, मैं अब नहीं चला उनके पीछे, मैं आगे चला, वो मंदिर देखा, पत्थरों से बना, एक भव्य मंदिर था! ध्वज लगा था ऊपर, वायु नहीं थी तो शांत ही था! मंदिर में एक ही दरवाज़ा था, कोई पंद्रह फ़ीट का रहा होगा, किसी रजवाड़े या सेठ ने बनवाया हो, ऐसा लगता था! तभी एक व्यक्ति आया वहाँ, पहलवान जैसा! मंदिर को प्रणाम किया, ऊपर चढ़ा और वो जो सहायक था, वो बाहर आया, उस आदमी ने कुछ दिया उसको थैले में, उस सहायक ने रख लिया, कुछ बातें हुईं उनके बीच, मैं नहीं सुन सका, करीब नहीं था मैं उनके इतना! बस इतना सुना, नरसिंहपुर, वो भी तब, जब वो आदमी लौट रहा था तो तेजी से बोला था! मुझे नहीं पता था ये नरसिंहपुर है क्या? कोई गाँव होगा या कोई क़स्बा! शायद!
लेकिन मुझे वो नहीं दिखा, जो मैंने देखना चाहा था, मैं उस मंदिर से आगे चला, रास्ते में बहुत पानी भरा था, रास्ता भी बेहद खराब था, खेत भी नहीं थे वहां, जंगल ही जंगल था, मैं चलता रहा, मैं न तो गीला ही होता था, और न ही उस कुश घास का शिकार! नहीं तो काट दिया करती है वो! मैं एक ऐसी जगह आया, जहां पर एक नदी सी बह रही थी, ये शायद बीजक वाली नदी थी, बरसाती नदी थी वो, कहीं चौड़ी और कहीं संकरी, कहीं कहीं तो टूटी हुई थी, बीच बीच में टापू से बने थे, और रास्ता भी था, कोई भी गुजर सकता था! तभी पीछे से मुझे कुछ आवाज़ें आयीं, जैसे घुड़सवार आ रहे हों! और वो भी कई सारे! और यही हुआ, करीब दस घुड़सवार गुजर गए धड़धड़ाते हुए! सभी ने बुक्कल मार रखा था, वे नदी के उस रास्ते से, पानी बिखेरते हुए दौड़ गए! और तभी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाया!
और मैं लौटा अपने संसार में!
उठ बैठा!!
शर्मा जी ने मेरी कमर पर हाथ फेरा, मैं तेज तेज सांस ले रहा था!!
"क्या हुआ?" वे बोले,
"कुछ नहीं" मैंने कहा,
"कोई दिखा?" वे बोले,
"नहीं" मैंने कहा,
और अब तक जो देखा था, वो बता दिया,
और अब सामान्य हो गया था!
"वो, वही मंदिर है, नदी इसके पीछे ही बहती है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"लेकिन कोई दिखा नहीं?" वे बोले,
"कोई भी नहीं" मैंने कहा,
हमारे दीये जल रहे थे और बहुत अच्छे लग रहे थे! उनका मद्धम प्रकाश कई कीटों के लिए कौतुहल का विषय बन गया था! कई टिमटिमा रहे थे!
मैं फिर से लेट गया!
और मंत्र पढ़ने लगा!
और तभी मेरी छाती पर कुछ गिरा!! मैं उठ गया! मंत्रोच्चार टूट गया था, मैंने वो वस्तु उठायी, ये एक कंठ-माल था, किसी ने फेंका था मेरे लिए! कि मैं धारण कर लूँ, लेकिन फेंकने वाला था कौन? शायद मदना ही होगा! वही होगा! मैंने कंठ-माल धारण कर लिया, ये मनके से थे, काले रंग के, मज़बूत सूत के धागे में पिरोये हुए थे!
"मदना?" वो बोले,
"हाँ, वही होगा" मैंने कहा,
मैं फिर से लेटा, ध्यान लगाया, और मेरी साँसें तेज हुईं, और कुछ ही पलों में, मैं भौतिकता छोड़, सूक्ष्म-भौतिकता में पहुँच गया! समय शाम के करीब का था, मैं किसी गाँव के प्रवेश रास्ते पर खड़ा था, लेकिन गाँव कौन सा था, ये नहीं पता, आज तक नहीं पता! हाँ, इतना कि बाहर एक कुआं था, चारों और गोल चबूतरा बना था, उसमे गोल गोल सीढ़ियां बनी थीं पत्थरों की, साथ में पीपल के बड़े से पेड़ थे वहाँ!
मैं अंदर चला,
ग्रामीण माहौल था वहाँ!
इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आ रहे थे, कुछ खेतीहर रहे होंगे वे लोग, अब लौट रहे थे, घरों में से, घर जो कि कच्ची मिट्टी से बने थे, मोटी मोटी दीवारें थीं उनकी, छप्पर पड़े हुए थे उनपर, धुआं सा निकल रहा था, शायद चूल्हे चढ़े हों!
मैं यहाँ क्यों आया?
किसलिए?
यहां मेरा क्या काम?
वो भी इस गाँव में?
तभी कोई पांच-छह घुड़सवार दिखे, आ रहे थे गाँव में से ही, बुक्कल मारे, ये वही घुड़सवार रहे होंगे, जो मैंने उस नदी के पास देखे थे! वे एक जगह रुके, एक घर के आगे, घर उस गाँव के हिसाब से अच्छा बना था, बाहर चित्रकारी सी बनी थीं! खड़िया जैसे सफ़ेद! ज्योमितीय आकार से बने थे! एक घुड़सवार उतरा, घर के दरवाज़े पर लगे बड़े से कुन्दे को बजाया, और पीछे हट गया! उसके पास दो पोटलियाँ थीं, कोई आदमी बाहर आया, आदमी ने सफ़ेद रंग का साफ़ा बाँधा था, वो उन सभी को अंदर ले गया, एक एक करके! और कोई थोड़ी देर बाद, वे सभी बाहर आये, और जो सबसे आखिर में बाहर आया, एक पोटली लेकर, उसको मैंने पहचान लिया! मैं चौंक पड़ा!! वो मदना था!! मदना! सजीला सा युवक, गठीला सा युवक! आँखों में चमक लिए हुए, काजल लगाया हुआ था उसने! वो घोड़े पर चढ़ा और हो गए सभी रवाना!! मेरे सामने से ही गुजरे! मैं भागा उनके पीछे, लेकिन तभी ठोकर सी खायी, अँधेरा छाया और मैं वापिस अपने संसार में!
आँखें खुल गयीं!
साँसें धौंकनी जैसी तेज!
शर्मा जी ने थाम लिया मुझे!
मेरी कमर पर हाथ फेरा!
माथे पर फेरा!
और पानी की बोतल दे दी मुझे खोलकर!
मैंने पानी पिया!
और साँसें नियंत्रित कीं अब!
"कोई दिखा?" वे बोले,
"हाँ!! हाँ!" मैंने कहा!
"कौन?'' वे बोले,
"मदना!" मैंने कहा!
"मदना?" वे चौंके!
"हाँ मदना!!" मैंने कहा,
"और कोई?" उन्होंने पूछा,
"और कोई नहीं" मैंने कहा,
मुझे पसीने आ गए थे बहुत! पसीने पोंछे!
कुछ देर ऐसे ही बैठा!
"मैं कोई नाम लिया?" मैंने पूछा,
"हाँ, नरसिंहपुर" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
और अब उन्हें सारी बात बतायी,
वो गाँव शायद यही था, नरसिंहपुर!
"तो मदना नरसिंहपुर जाय करता था" वे बोले,
"हाँ, कोई सामान की अदल-बदल करने" मैंने कहा,
"सामान?" वे बोले,
"हाँ, उनके पास दो पोटलियाँ थीं, वापसी आये तो एक ही थी" मैंने कहा,
"अच्छा!" वे बोले,
"अब यहां मामला गंभीर होता है" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो सामान क्या था?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने कहा,
"क्या धन?" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
फिर कुछ क्षण बीते!
उर मैं फिर से लेट गया!
मंत्र पढ़े, आँखें बंद कीं!
और मेरा दम घुटा!
मैं फिर से मूर्छित!!!
और इस बार मैं एक अजीब से स्थान पर था! खुला मैदान! बीहड़ सा क्षेत्र! दूर दूर तक कोई नहीं! न आदमी, न ही कोई जानवर! कोई पेड़ भी नहीं! बस झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ! नागफनी, और जंगली से पौधे थे वहाँ! और कुछ नहीं!
कहाँ जाऊं, कहाँ न जाऊं, कुछ नहीं पता!
खैर, एक दिशा में बढ़ा मैं!
वहाँ कुछ पेड़ से लगे थे! वहीँ चला!
और एक जगह पहुंचा!! यहाँ कुछ जानवर से दिखे मुझे! मैं आगे चला, ये मवेशी थी, कुछ चरवाहे से भी दिखे, मैं वहीँ चला! और एक व्यक्ति पर नज़र पड़ी मेरी! नेतपाल! वो मवेशी हांकता नेतपाल ही था! वो हाँक रहा था अपने मवेशियों को! मैं चला उधर ही, और तभी वो बैठ गया एक जगह, साथ लाये बर्तन में पानी था उसके, उसने बर्तन खोला और पानी पिया! फिर आँखों पर भी मारा!
मैं और आगे चला.............
वे औरतें एक तरफ चलीं, वहां कीचड़ थी, इसीलिए कुछ उछल कर पार करतीं, तो कुछ लांघ कर, कलश वाली स्त्री से कलश ले लिया गया था, उन्होंने फिर से समूह बनाया, और चल पड़ीं, कुश के घास दोनों तरफ लगी थी, हरी हरी, बड़ी बड़ी घास! अचानक से मेरी नज़र एक जगह पड़ी! वो एक मंदिर था! सफ़ेद रंग का मंदिर, थोड़ी ऊंचाई पर बना था, गौर से देखा, तो ये वहीँ खंडहर था, जो मैंने अपनी भौतिक आँखों से देखा था! वो अब जीवंत था! उसके साथ ही एक छोटी कुइयां भी थी, उस पर घिरनी लगी थी, लेकिन ये कुइयां अब इस संसार में नहीं थी, वो डब्ड चुकी थी मिट्टी और पत्थरों के बीच! आज तो नामोनिशान भी नहीं था उसका, और अब, जब मैं उसको देख रहा था, तो अपनी शान और पवित्रता को थामे हुई थी, गर्व से! वे औरतें वहीँ रुकीं! लोकगीत ज़ारी रहा, मैं सब देख रहा था!! सब सुन रहा था! तभी मंदिर से बाहर दो लोग आये, एक पंडित जी थे, और एक उनका कोई सहायक, उन्होंने उस कलश वाली स्त्री से कुछ बात की, और अब पूरा कर्म-काण्ड करवाया, एक बूढी सी औरत ने, अपने घाघरे पर लटकी, एक पोटली से, कुछ सिक्के दिए पंडित जी को, सिक्के सोने के थे, या चांदी के, नहीं दिखा था! मुट्ठी से मुट्ठी में दिए गए थे सिक्के!! वे औरतें अब वापिस चलीं, गीत गाते हुए, मैं अब नहीं चला उनके पीछे, मैं आगे चला, वो मंदिर देखा, पत्थरों से बना, एक भव्य मंदिर था! ध्वज लगा था ऊपर, वायु नहीं थी तो शांत ही था! मंदिर में एक ही दरवाज़ा था, कोई पंद्रह फ़ीट का रहा होगा, किसी रजवाड़े या सेठ ने बनवाया हो, ऐसा लगता था! तभी एक व्यक्ति आया वहाँ, पहलवान जैसा! मंदिर को प्रणाम किया, ऊपर चढ़ा और वो जो सहायक था, वो बाहर आया, उस आदमी ने कुछ दिया उसको थैले में, उस सहायक ने रख लिया, कुछ बातें हुईं उनके बीच, मैं नहीं सुन सका, करीब नहीं था मैं उनके इतना! बस इतना सुना, नरसिंहपुर, वो भी तब, जब वो आदमी लौट रहा था तो तेजी से बोला था! मुझे नहीं पता था ये नरसिंहपुर है क्या? कोई गाँव होगा या कोई क़स्बा! शायद!
लेकिन मुझे वो नहीं दिखा, जो मैंने देखना चाहा था, मैं उस मंदिर से आगे चला, रास्ते में बहुत पानी भरा था, रास्ता भी बेहद खराब था, खेत भी नहीं थे वहां, जंगल ही जंगल था, मैं चलता रहा, मैं न तो गीला ही होता था, और न ही उस कुश घास का शिकार! नहीं तो काट दिया करती है वो! मैं एक ऐसी जगह आया, जहां पर एक नदी सी बह रही थी, ये शायद बीजक वाली नदी थी, बरसाती नदी थी वो, कहीं चौड़ी और कहीं संकरी, कहीं कहीं तो टूटी हुई थी, बीच बीच में टापू से बने थे, और रास्ता भी था, कोई भी गुजर सकता था! तभी पीछे से मुझे कुछ आवाज़ें आयीं, जैसे घुड़सवार आ रहे हों! और वो भी कई सारे! और यही हुआ, करीब दस घुड़सवार गुजर गए धड़धड़ाते हुए! सभी ने बुक्कल मार रखा था, वे नदी के उस रास्ते से, पानी बिखेरते हुए दौड़ गए! और तभी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाया!
और मैं लौटा अपने संसार में!
उठ बैठा!!
शर्मा जी ने मेरी कमर पर हाथ फेरा, मैं तेज तेज सांस ले रहा था!!
"क्या हुआ?" वे बोले,
"कुछ नहीं" मैंने कहा,
"कोई दिखा?" वे बोले,
"नहीं" मैंने कहा,
और अब तक जो देखा था, वो बता दिया,
और अब सामान्य हो गया था!
"वो, वही मंदिर है, नदी इसके पीछे ही बहती है" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"लेकिन कोई दिखा नहीं?" वे बोले,
"कोई भी नहीं" मैंने कहा,
हमारे दीये जल रहे थे और बहुत अच्छे लग रहे थे! उनका मद्धम प्रकाश कई कीटों के लिए कौतुहल का विषय बन गया था! कई टिमटिमा रहे थे!
मैं फिर से लेट गया!
और मंत्र पढ़ने लगा!
और तभी मेरी छाती पर कुछ गिरा!! मैं उठ गया! मंत्रोच्चार टूट गया था, मैंने वो वस्तु उठायी, ये एक कंठ-माल था, किसी ने फेंका था मेरे लिए! कि मैं धारण कर लूँ, लेकिन फेंकने वाला था कौन? शायद मदना ही होगा! वही होगा! मैंने कंठ-माल धारण कर लिया, ये मनके से थे, काले रंग के, मज़बूत सूत के धागे में पिरोये हुए थे!
"मदना?" वो बोले,
"हाँ, वही होगा" मैंने कहा,
मैं फिर से लेटा, ध्यान लगाया, और मेरी साँसें तेज हुईं, और कुछ ही पलों में, मैं भौतिकता छोड़, सूक्ष्म-भौतिकता में पहुँच गया! समय शाम के करीब का था, मैं किसी गाँव के प्रवेश रास्ते पर खड़ा था, लेकिन गाँव कौन सा था, ये नहीं पता, आज तक नहीं पता! हाँ, इतना कि बाहर एक कुआं था, चारों और गोल चबूतरा बना था, उसमे गोल गोल सीढ़ियां बनी थीं पत्थरों की, साथ में पीपल के बड़े से पेड़ थे वहाँ!
मैं अंदर चला,
ग्रामीण माहौल था वहाँ!
इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आ रहे थे, कुछ खेतीहर रहे होंगे वे लोग, अब लौट रहे थे, घरों में से, घर जो कि कच्ची मिट्टी से बने थे, मोटी मोटी दीवारें थीं उनकी, छप्पर पड़े हुए थे उनपर, धुआं सा निकल रहा था, शायद चूल्हे चढ़े हों!
मैं यहाँ क्यों आया?
किसलिए?
यहां मेरा क्या काम?
वो भी इस गाँव में?
तभी कोई पांच-छह घुड़सवार दिखे, आ रहे थे गाँव में से ही, बुक्कल मारे, ये वही घुड़सवार रहे होंगे, जो मैंने उस नदी के पास देखे थे! वे एक जगह रुके, एक घर के आगे, घर उस गाँव के हिसाब से अच्छा बना था, बाहर चित्रकारी सी बनी थीं! खड़िया जैसे सफ़ेद! ज्योमितीय आकार से बने थे! एक घुड़सवार उतरा, घर के दरवाज़े पर लगे बड़े से कुन्दे को बजाया, और पीछे हट गया! उसके पास दो पोटलियाँ थीं, कोई आदमी बाहर आया, आदमी ने सफ़ेद रंग का साफ़ा बाँधा था, वो उन सभी को अंदर ले गया, एक एक करके! और कोई थोड़ी देर बाद, वे सभी बाहर आये, और जो सबसे आखिर में बाहर आया, एक पोटली लेकर, उसको मैंने पहचान लिया! मैं चौंक पड़ा!! वो मदना था!! मदना! सजीला सा युवक, गठीला सा युवक! आँखों में चमक लिए हुए, काजल लगाया हुआ था उसने! वो घोड़े पर चढ़ा और हो गए सभी रवाना!! मेरे सामने से ही गुजरे! मैं भागा उनके पीछे, लेकिन तभी ठोकर सी खायी, अँधेरा छाया और मैं वापिस अपने संसार में!
आँखें खुल गयीं!
साँसें धौंकनी जैसी तेज!
शर्मा जी ने थाम लिया मुझे!
मेरी कमर पर हाथ फेरा!
माथे पर फेरा!
और पानी की बोतल दे दी मुझे खोलकर!
मैंने पानी पिया!
और साँसें नियंत्रित कीं अब!
"कोई दिखा?" वे बोले,
"हाँ!! हाँ!" मैंने कहा!
"कौन?'' वे बोले,
"मदना!" मैंने कहा!
"मदना?" वे चौंके!
"हाँ मदना!!" मैंने कहा,
"और कोई?" उन्होंने पूछा,
"और कोई नहीं" मैंने कहा,
मुझे पसीने आ गए थे बहुत! पसीने पोंछे!
कुछ देर ऐसे ही बैठा!
"मैं कोई नाम लिया?" मैंने पूछा,
"हाँ, नरसिंहपुर" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
और अब उन्हें सारी बात बतायी,
वो गाँव शायद यही था, नरसिंहपुर!
"तो मदना नरसिंहपुर जाय करता था" वे बोले,
"हाँ, कोई सामान की अदल-बदल करने" मैंने कहा,
"सामान?" वे बोले,
"हाँ, उनके पास दो पोटलियाँ थीं, वापसी आये तो एक ही थी" मैंने कहा,
"अच्छा!" वे बोले,
"अब यहां मामला गंभीर होता है" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो सामान क्या था?" वे बोले,
"पता नहीं" मैंने कहा,
"क्या धन?" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
फिर कुछ क्षण बीते!
उर मैं फिर से लेट गया!
मंत्र पढ़े, आँखें बंद कीं!
और मेरा दम घुटा!
मैं फिर से मूर्छित!!!
और इस बार मैं एक अजीब से स्थान पर था! खुला मैदान! बीहड़ सा क्षेत्र! दूर दूर तक कोई नहीं! न आदमी, न ही कोई जानवर! कोई पेड़ भी नहीं! बस झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ! नागफनी, और जंगली से पौधे थे वहाँ! और कुछ नहीं!
कहाँ जाऊं, कहाँ न जाऊं, कुछ नहीं पता!
खैर, एक दिशा में बढ़ा मैं!
वहाँ कुछ पेड़ से लगे थे! वहीँ चला!
और एक जगह पहुंचा!! यहाँ कुछ जानवर से दिखे मुझे! मैं आगे चला, ये मवेशी थी, कुछ चरवाहे से भी दिखे, मैं वहीँ चला! और एक व्यक्ति पर नज़र पड़ी मेरी! नेतपाल! वो मवेशी हांकता नेतपाल ही था! वो हाँक रहा था अपने मवेशियों को! मैं चला उधर ही, और तभी वो बैठ गया एक जगह, साथ लाये बर्तन में पानी था उसके, उसने बर्तन खोला और पानी पिया! फिर आँखों पर भी मारा!
मैं और आगे चला.............