Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story
Posted: 19 Aug 2015 13:31
अब तक कहानी के सिरे मिल चुके थे, बस उन्हें गूंथना बाकी था, बाबा द्वैज के कारण ही मैं इस अज्रंध्रा-प्रवेश क्रिया में विचरण कर रहा था! मुझे हल तो मिलता था, लेकिन बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं जितनी उन लोगों की हुआ करती थी, हम आज भले ही आधुनिक हैं, यदि आधुनिक साधन हटा लिए जाएँ तो हम उन आदिवासियों के गुलाम बनने लायक भी नहीं जिन्होंने आग ढूंढी थी, श्रम कर के शिकार किया करते थे! दूर दूर तक दौड़ दौड़ कर, आज तो हमारे पास जूते हैं, फिर भी आधा किलोमीटर दौड़ने पर ही जीभ बाहर निकल आती है! इसीलिए कहा कि मेरी बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं थी, कि मैं हल जोड़ता! हालांकि, सोच तो मैं सही रहा था, निर्णय भी सही ले रहा था, लेकिन तारतम्यता बिठा रहा था! अज्रंध्रा-प्रवेश मुझे एक सिरे तक ले आती थी, और उसके बाद मुझे ही आगे-पीछे बढ़ना पड़ता था, यहां मुझे अपने विवेक से काम लेना पड़ता था! मैं फिर से लेट गया था और फिर से मंत्र पड़े, और इस बार कुछ ठोस दिखे, कुछ सटीक पता चले, इसी के विषय में सोच, मंत्र पढ़ा, प्रवेश कर गया था!
इस बार मैं एक नयी ही सी जगह आया, भू-दृश्य देखा, तो हरियाली इतनी नहीं थी, जितनी उस डेरे पर थी, उस अर्थात बाबा त्रिभाल के डेरे पर, ओह! अब समझा, मैं बाबा लहटा के डेरे पर था, यहाँ तो जो लोग थे, वो मुझे डेरे वाले नहीं, कोई डाकू या बंजारे से लगते थे, लम्ब-तड़ंग आदमी! ऐसी ही औरतें! इस डेरे में जो घर बने थे, वे भी अलग थे, पत्थरों का प्रयोग किया गया था, कच्ची मिट्टी का प्रयोग कहीं कहीं ही था! मैं एक जगह चला, यहां एक कुआँ था, कुछ लोग पानी निकाल रहे थे उसमे से, कुछ स्त्रियां भी थीं, कुछ बातचीत चल रही थी, लेकिन ठेठ भाषा थी, मैं नहीं, जान सका था उसका अर्थ, कि नाम नहीं समझ आ रहा था, कोई स्थान नहीं, कोई शब्द नहीं! अचानक ही, मुझे किसी के शब्द सुनाई दिए, 'खूसा', य्हेस्सा' आदि से शब्द थे! मैं पीछे मुड़ा, देखा तो ये मदना था, अपने चार साथियों के संग ही आ रहा था, उस दिन ठंडक थी, हवा तेज चल रही थी, उन्होंने खेस से ओढ़ रखे थे! मैं लपक के उनके साथ हुआ, वे एक जगह आ कर रुके, ये एक चबूतरा सा था, पीपल के पेड़ों से गिरते उनके बीज, जो कि अब मीठे हो चले थे, बंदर खा रहे थे, उस चबूतरे पर, कुछ फल भी पड़े थे, शायद बंदरों के लिए रखे गए हों, चींटी और चैंटे दौड़ रहे थे उस चबूतर पर, वे पाँचों वहीँ आकर बैठे थे!
उनमे बातचीत हुई, एक व्यक्ति ने, जिसका नाम बार बार मदना गोपा ले रहा था, उस चबूतरे पर, खड़िया मिट्टी से कुछ लकीरें खींची, और उन लकीरों पर कुछ बिंदु काढ़े, ये कोई नक्शा आदि सा था, कोई रास्ता या कोई ऐसी योजना, जो भविष्य में स्थान लेने वाली थी! मुझे कुछ भी नहीं समझ आया, वो उनकी कोई स्थानीय भाषा रहीहोगी, स्वर तो गूंजते, लेकिन अर्थ समझ नहीं आता था, झुंझला जाता था मैं! फिर उनमे से तीन आदमी चले गए, और अब वहां मात्र वो मदना और वे और व्यक्ति रह गया, गोपा भी जा चुका था, इस आदमी का नाम नट्टी था, यही बोल रहा था मदना उसको! दोनों में कानाफूसी सी हुई, और फिर दोनों ही उठकर, अलग अलग हो लिए! मैं मदना के संग ही चला, मदना को रास्ते में और भी कई लोग मिलते थे जिनसे उसको प्रणाम सुनने को मिलता! प्रणाम ही रहा होगा वो, क्योंकि वे लोग हाथ जोड़ कर उस से मिला करते थे!
मदना एक मंदिर में घुसा, उसी मंदिर में, जहां वो धनुष बना था, बाण के साथ, अंदर चला, कुछ औरतें बाहर आयीं, तो वो, एक तरफ बढ़ चला, ये एक पत्थर से बना कमरा था, उसके बाहर एक चटाई सी बिछी थी, साथ में एक बड़ी सी ओखली रखी थी, उसका मूसल कोई छह फ़ीट का रहा होगा! वो मदना, वहीँ आ कर बैठ गया, और कोई थोड़ी देर बाद, दो वृद्ध स्त्रियां आयीं वहाँ, एक अंदर चली गयी कक्ष में और दूसरी चटाई की तरफ बढ़ी, मदना ने उठ कर उसके पाँव छुए! अब उनमे जो बातें हैं, मुझे मात्र एक दो शब्द सुनाई दिए, दरअसल समझ में आई, एक दिज्जा और दूसरा नाम था बाबा द्वैज का! औरत कुछ बोलती, और मदना उसकी हाँ में हाँ मिलाता! फिर कुछ ही देर में, बाबा लहटा आये वहां, उनके संग दो आदमी थे, एक नेतपाल और एक अनजान व्यक्ति, उस व्यक्ति के पास में एक खड्ग था, उस पर अभी भी रक्त लगा था, वे दोनों, मदना और वो औरत उठ गए, वो औरत वहाँ से उठकर, अंदर कक्ष में चली गयी, और मदना ने आगे बढ़कर, बाबा लहटा के पाँव छुए, वो खड्ग वाला व्यक्ति, चला गया वहां से, बाबा लहटा से बात करके! अब वे तीन रह गए! बाबा लहटा, मदना और वो नेतपाल! वे सभी बैठ गए अब वहीँ!
"कुछ पता चला?? बाबा लहटा ने गरजदार आवाज़ में पूछा,
ये भाषा मुझे समझ आई!
"हाँ" मदना ने कहा,
"कहाँ है?" बाबा लहटा ने दाढ़ी पर हाथ मारते हुए पूछा,
"द्वैज के यहां" बोला मदना,
"किसी ने देखा?" बाबा ने पूछा,
"हाँ" बोला मदना,
"किसने?" पूछा बाबा ने,
"रंधो की जोरू ने" बोला मदना,
बाबा चुप हुए! कुछ सोचा-विचारा!
"बात की तूने?" बोले वो,
"नहीं" वो बोला,
"करके देख" बोले वो,
"द्वैज नहीं मानेगा" बोला मदना,
बाबा चुप! फिर से सोचा कुछ!
"मैं चलता हूँ" बोले बाबा,
अब वे दोनों, चौंक पड़े!
"मैं चलता हूँ कल" बोले बाबा,
अब बाबा बोलें, तो हिम्मत किसकी?
"नेतपाल, जा खबर कर उसे" बोले बाबा,
"जी" बोला नेतपाल,
"लेकिन..बाबा......" बोला कुछ मदना,
"क्या?? बोल? बोल?" बोले बाबा,
"द्वैज नहीं मानेगा" वो बोला,
बाबा फिर से चुप!
बाहर देखा,
"तू चल मेरे साथ कल" बोले बाबा,
और खड़े हो गए!
वे दोनों भी खड़े हुए, हाथ जोड़े, और खड़े रहे, बाबा लहटा, चल दिए वहाँ से!
अब वे खड़े रहे वहाँ!
अवाक! लगता था जैसे कि मदना के मन में संशय हा कोई! जो, वो कह नहीं पाया है!
बस! अँधेरा छाया!
और मैं उठ गया! इस बार नहीं खांसा!
शर्मा जी ने हाथ फेरा कमर पर!
मेरे माथे पर, गर्दन पर पसीने ही पसीने थे! अपने रुमाल से पोंछे उन्होंने!
"पानी" मैंने कहा,
मुझे पानी दिया,
मैंने पिया,
"अब क्या पता चला?" वे बोले,
"बाबा लहटा!!" वे बोले,
"क्या बाबा लहटा?" वे बोले,
"बाबा लहटा जा रहे हैं, मिलने" मैंने कहा,
विस्मय से!
"कहाँ?" वे अचरज से बोले, जिज्ञासा भरा अचरज!
"मिलने, बाबा द्वैज से!" मैंने कहा,
अब वे सोच में डूबे!
"मिलने नहीं, बीज बोने! उस नरसंहार का बीज बोने!" वे बोले,
"हाँ, सच कहा" मैंने कहा,
एक घूँट पानी और पिया मैंने!
"वो बात करने जा रहे हैं, उस दिज्जा के लिए!" वे बोले,
"हाँ, बात करने ही" मैंने कहा,
"लेकिन एक बात?" वे बोले,
"क्या?" मैंने पूछा,
"ये दिज्जा, बाबा द्वैज की कौन है? बेटी? बहन तो नहीं लगती? कोई रिश्तेदार?" वे बोले,
ये सवाल भी दमघोंटू था!
सवाल में वजन था!
और ये जानना भी बेहद ज़रूरी था कि वो उनकी लगती क्या है?
"हाँ, ये ज्वलंत प्रश्न है" मैंने कहा,
"और इसके जवाब में ही, सारी कहानी का मूल है!" वे बोले,
"हाँ! ये तो सच है" मैंने कहा,
मित्रगण!
तभी वहाँ, हमारे सामने, कोई बीस फ़ीट दूर,
किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आई!!
हम लपक के खड़े हो गए!
"कौन है?" मैंने कहा,
उत्तर नहीं मिला,
बस रूदन अब सुबक में बदल गया था!
"आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आगे बढ़े, और उस जगह आये,
"कहाँ हो?" मैंने पूछा,
सुबकने की आवाज़ आई थोड़ा और सामने से,
हम वही के लिए बढ़े!
और जब बढ़े, तो सामने एक गड्ढा हुआ पड़ा था!
शर्मा जी के पास टोर्च थी!
"टोर्च इधर मारो" मैंने कहा,
उन्होंने टोर्च की रुष्णी डाली वहाँ!
वहां!!
वहाँ एक कुआँ सा था! एक छोटा सा कुआँ, कोई चार फ़ीट चौड़ा!
"ये तो कोई कुआँ है?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
अब मैंने उनसे टोर्च ली, उसके तले में मारी, कुछ नहीं था वहां, बस मिट्टी और पत्थर!
हाँ, उसकी दीवारों की लखौरी ईंटें, अभी भी वैसी ही थीं, जैसी उस समय रही होंगी!
सुबकने की आवाज़ फिर से आई!
मैंने रौशनी डाली!
लेकिन कोई नहीं था वहाँ पर...................
इस बार मैं एक नयी ही सी जगह आया, भू-दृश्य देखा, तो हरियाली इतनी नहीं थी, जितनी उस डेरे पर थी, उस अर्थात बाबा त्रिभाल के डेरे पर, ओह! अब समझा, मैं बाबा लहटा के डेरे पर था, यहाँ तो जो लोग थे, वो मुझे डेरे वाले नहीं, कोई डाकू या बंजारे से लगते थे, लम्ब-तड़ंग आदमी! ऐसी ही औरतें! इस डेरे में जो घर बने थे, वे भी अलग थे, पत्थरों का प्रयोग किया गया था, कच्ची मिट्टी का प्रयोग कहीं कहीं ही था! मैं एक जगह चला, यहां एक कुआँ था, कुछ लोग पानी निकाल रहे थे उसमे से, कुछ स्त्रियां भी थीं, कुछ बातचीत चल रही थी, लेकिन ठेठ भाषा थी, मैं नहीं, जान सका था उसका अर्थ, कि नाम नहीं समझ आ रहा था, कोई स्थान नहीं, कोई शब्द नहीं! अचानक ही, मुझे किसी के शब्द सुनाई दिए, 'खूसा', य्हेस्सा' आदि से शब्द थे! मैं पीछे मुड़ा, देखा तो ये मदना था, अपने चार साथियों के संग ही आ रहा था, उस दिन ठंडक थी, हवा तेज चल रही थी, उन्होंने खेस से ओढ़ रखे थे! मैं लपक के उनके साथ हुआ, वे एक जगह आ कर रुके, ये एक चबूतरा सा था, पीपल के पेड़ों से गिरते उनके बीज, जो कि अब मीठे हो चले थे, बंदर खा रहे थे, उस चबूतरे पर, कुछ फल भी पड़े थे, शायद बंदरों के लिए रखे गए हों, चींटी और चैंटे दौड़ रहे थे उस चबूतर पर, वे पाँचों वहीँ आकर बैठे थे!
उनमे बातचीत हुई, एक व्यक्ति ने, जिसका नाम बार बार मदना गोपा ले रहा था, उस चबूतरे पर, खड़िया मिट्टी से कुछ लकीरें खींची, और उन लकीरों पर कुछ बिंदु काढ़े, ये कोई नक्शा आदि सा था, कोई रास्ता या कोई ऐसी योजना, जो भविष्य में स्थान लेने वाली थी! मुझे कुछ भी नहीं समझ आया, वो उनकी कोई स्थानीय भाषा रहीहोगी, स्वर तो गूंजते, लेकिन अर्थ समझ नहीं आता था, झुंझला जाता था मैं! फिर उनमे से तीन आदमी चले गए, और अब वहां मात्र वो मदना और वे और व्यक्ति रह गया, गोपा भी जा चुका था, इस आदमी का नाम नट्टी था, यही बोल रहा था मदना उसको! दोनों में कानाफूसी सी हुई, और फिर दोनों ही उठकर, अलग अलग हो लिए! मैं मदना के संग ही चला, मदना को रास्ते में और भी कई लोग मिलते थे जिनसे उसको प्रणाम सुनने को मिलता! प्रणाम ही रहा होगा वो, क्योंकि वे लोग हाथ जोड़ कर उस से मिला करते थे!
मदना एक मंदिर में घुसा, उसी मंदिर में, जहां वो धनुष बना था, बाण के साथ, अंदर चला, कुछ औरतें बाहर आयीं, तो वो, एक तरफ बढ़ चला, ये एक पत्थर से बना कमरा था, उसके बाहर एक चटाई सी बिछी थी, साथ में एक बड़ी सी ओखली रखी थी, उसका मूसल कोई छह फ़ीट का रहा होगा! वो मदना, वहीँ आ कर बैठ गया, और कोई थोड़ी देर बाद, दो वृद्ध स्त्रियां आयीं वहाँ, एक अंदर चली गयी कक्ष में और दूसरी चटाई की तरफ बढ़ी, मदना ने उठ कर उसके पाँव छुए! अब उनमे जो बातें हैं, मुझे मात्र एक दो शब्द सुनाई दिए, दरअसल समझ में आई, एक दिज्जा और दूसरा नाम था बाबा द्वैज का! औरत कुछ बोलती, और मदना उसकी हाँ में हाँ मिलाता! फिर कुछ ही देर में, बाबा लहटा आये वहां, उनके संग दो आदमी थे, एक नेतपाल और एक अनजान व्यक्ति, उस व्यक्ति के पास में एक खड्ग था, उस पर अभी भी रक्त लगा था, वे दोनों, मदना और वो औरत उठ गए, वो औरत वहाँ से उठकर, अंदर कक्ष में चली गयी, और मदना ने आगे बढ़कर, बाबा लहटा के पाँव छुए, वो खड्ग वाला व्यक्ति, चला गया वहां से, बाबा लहटा से बात करके! अब वे तीन रह गए! बाबा लहटा, मदना और वो नेतपाल! वे सभी बैठ गए अब वहीँ!
"कुछ पता चला?? बाबा लहटा ने गरजदार आवाज़ में पूछा,
ये भाषा मुझे समझ आई!
"हाँ" मदना ने कहा,
"कहाँ है?" बाबा लहटा ने दाढ़ी पर हाथ मारते हुए पूछा,
"द्वैज के यहां" बोला मदना,
"किसी ने देखा?" बाबा ने पूछा,
"हाँ" बोला मदना,
"किसने?" पूछा बाबा ने,
"रंधो की जोरू ने" बोला मदना,
बाबा चुप हुए! कुछ सोचा-विचारा!
"बात की तूने?" बोले वो,
"नहीं" वो बोला,
"करके देख" बोले वो,
"द्वैज नहीं मानेगा" बोला मदना,
बाबा चुप! फिर से सोचा कुछ!
"मैं चलता हूँ" बोले बाबा,
अब वे दोनों, चौंक पड़े!
"मैं चलता हूँ कल" बोले बाबा,
अब बाबा बोलें, तो हिम्मत किसकी?
"नेतपाल, जा खबर कर उसे" बोले बाबा,
"जी" बोला नेतपाल,
"लेकिन..बाबा......" बोला कुछ मदना,
"क्या?? बोल? बोल?" बोले बाबा,
"द्वैज नहीं मानेगा" वो बोला,
बाबा फिर से चुप!
बाहर देखा,
"तू चल मेरे साथ कल" बोले बाबा,
और खड़े हो गए!
वे दोनों भी खड़े हुए, हाथ जोड़े, और खड़े रहे, बाबा लहटा, चल दिए वहाँ से!
अब वे खड़े रहे वहाँ!
अवाक! लगता था जैसे कि मदना के मन में संशय हा कोई! जो, वो कह नहीं पाया है!
बस! अँधेरा छाया!
और मैं उठ गया! इस बार नहीं खांसा!
शर्मा जी ने हाथ फेरा कमर पर!
मेरे माथे पर, गर्दन पर पसीने ही पसीने थे! अपने रुमाल से पोंछे उन्होंने!
"पानी" मैंने कहा,
मुझे पानी दिया,
मैंने पिया,
"अब क्या पता चला?" वे बोले,
"बाबा लहटा!!" वे बोले,
"क्या बाबा लहटा?" वे बोले,
"बाबा लहटा जा रहे हैं, मिलने" मैंने कहा,
विस्मय से!
"कहाँ?" वे अचरज से बोले, जिज्ञासा भरा अचरज!
"मिलने, बाबा द्वैज से!" मैंने कहा,
अब वे सोच में डूबे!
"मिलने नहीं, बीज बोने! उस नरसंहार का बीज बोने!" वे बोले,
"हाँ, सच कहा" मैंने कहा,
एक घूँट पानी और पिया मैंने!
"वो बात करने जा रहे हैं, उस दिज्जा के लिए!" वे बोले,
"हाँ, बात करने ही" मैंने कहा,
"लेकिन एक बात?" वे बोले,
"क्या?" मैंने पूछा,
"ये दिज्जा, बाबा द्वैज की कौन है? बेटी? बहन तो नहीं लगती? कोई रिश्तेदार?" वे बोले,
ये सवाल भी दमघोंटू था!
सवाल में वजन था!
और ये जानना भी बेहद ज़रूरी था कि वो उनकी लगती क्या है?
"हाँ, ये ज्वलंत प्रश्न है" मैंने कहा,
"और इसके जवाब में ही, सारी कहानी का मूल है!" वे बोले,
"हाँ! ये तो सच है" मैंने कहा,
मित्रगण!
तभी वहाँ, हमारे सामने, कोई बीस फ़ीट दूर,
किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आई!!
हम लपक के खड़े हो गए!
"कौन है?" मैंने कहा,
उत्तर नहीं मिला,
बस रूदन अब सुबक में बदल गया था!
"आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आगे बढ़े, और उस जगह आये,
"कहाँ हो?" मैंने पूछा,
सुबकने की आवाज़ आई थोड़ा और सामने से,
हम वही के लिए बढ़े!
और जब बढ़े, तो सामने एक गड्ढा हुआ पड़ा था!
शर्मा जी के पास टोर्च थी!
"टोर्च इधर मारो" मैंने कहा,
उन्होंने टोर्च की रुष्णी डाली वहाँ!
वहां!!
वहाँ एक कुआँ सा था! एक छोटा सा कुआँ, कोई चार फ़ीट चौड़ा!
"ये तो कोई कुआँ है?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
अब मैंने उनसे टोर्च ली, उसके तले में मारी, कुछ नहीं था वहां, बस मिट्टी और पत्थर!
हाँ, उसकी दीवारों की लखौरी ईंटें, अभी भी वैसी ही थीं, जैसी उस समय रही होंगी!
सुबकने की आवाज़ फिर से आई!
मैंने रौशनी डाली!
लेकिन कोई नहीं था वहाँ पर...................