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Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Posted: 19 Aug 2015 13:31
by sexy
अब तक कहानी के सिरे मिल चुके थे, बस उन्हें गूंथना बाकी था, बाबा द्वैज के कारण ही मैं इस अज्रंध्रा-प्रवेश क्रिया में विचरण कर रहा था! मुझे हल तो मिलता था, लेकिन बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं जितनी उन लोगों की हुआ करती थी, हम आज भले ही आधुनिक हैं, यदि आधुनिक साधन हटा लिए जाएँ तो हम उन आदिवासियों के गुलाम बनने लायक भी नहीं जिन्होंने आग ढूंढी थी, श्रम कर के शिकार किया करते थे! दूर दूर तक दौड़ दौड़ कर, आज तो हमारे पास जूते हैं, फिर भी आधा किलोमीटर दौड़ने पर ही जीभ बाहर निकल आती है! इसीलिए कहा कि मेरी बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं थी, कि मैं हल जोड़ता! हालांकि, सोच तो मैं सही रहा था, निर्णय भी सही ले रहा था, लेकिन तारतम्यता बिठा रहा था! अज्रंध्रा-प्रवेश मुझे एक सिरे तक ले आती थी, और उसके बाद मुझे ही आगे-पीछे बढ़ना पड़ता था, यहां मुझे अपने विवेक से काम लेना पड़ता था! मैं फिर से लेट गया था और फिर से मंत्र पड़े, और इस बार कुछ ठोस दिखे, कुछ सटीक पता चले, इसी के विषय में सोच, मंत्र पढ़ा, प्रवेश कर गया था!
इस बार मैं एक नयी ही सी जगह आया, भू-दृश्य देखा, तो हरियाली इतनी नहीं थी, जितनी उस डेरे पर थी, उस अर्थात बाबा त्रिभाल के डेरे पर, ओह! अब समझा, मैं बाबा लहटा के डेरे पर था, यहाँ तो जो लोग थे, वो मुझे डेरे वाले नहीं, कोई डाकू या बंजारे से लगते थे, लम्ब-तड़ंग आदमी! ऐसी ही औरतें! इस डेरे में जो घर बने थे, वे भी अलग थे, पत्थरों का प्रयोग किया गया था, कच्ची मिट्टी का प्रयोग कहीं कहीं ही था! मैं एक जगह चला, यहां एक कुआँ था, कुछ लोग पानी निकाल रहे थे उसमे से, कुछ स्त्रियां भी थीं, कुछ बातचीत चल रही थी, लेकिन ठेठ भाषा थी, मैं नहीं, जान सका था उसका अर्थ, कि नाम नहीं समझ आ रहा था, कोई स्थान नहीं, कोई शब्द नहीं! अचानक ही, मुझे किसी के शब्द सुनाई दिए, 'खूसा', य्हेस्सा' आदि से शब्द थे! मैं पीछे मुड़ा, देखा तो ये मदना था, अपने चार साथियों के संग ही आ रहा था, उस दिन ठंडक थी, हवा तेज चल रही थी, उन्होंने खेस से ओढ़ रखे थे! मैं लपक के उनके साथ हुआ, वे एक जगह आ कर रुके, ये एक चबूतरा सा था, पीपल के पेड़ों से गिरते उनके बीज, जो कि अब मीठे हो चले थे, बंदर खा रहे थे, उस चबूतरे पर, कुछ फल भी पड़े थे, शायद बंदरों के लिए रखे गए हों, चींटी और चैंटे दौड़ रहे थे उस चबूतर पर, वे पाँचों वहीँ आकर बैठे थे!
उनमे बातचीत हुई, एक व्यक्ति ने, जिसका नाम बार बार मदना गोपा ले रहा था, उस चबूतरे पर, खड़िया मिट्टी से कुछ लकीरें खींची, और उन लकीरों पर कुछ बिंदु काढ़े, ये कोई नक्शा आदि सा था, कोई रास्ता या कोई ऐसी योजना, जो भविष्य में स्थान लेने वाली थी! मुझे कुछ भी नहीं समझ आया, वो उनकी कोई स्थानीय भाषा रहीहोगी, स्वर तो गूंजते, लेकिन अर्थ समझ नहीं आता था, झुंझला जाता था मैं! फिर उनमे से तीन आदमी चले गए, और अब वहां मात्र वो मदना और वे और व्यक्ति रह गया, गोपा भी जा चुका था, इस आदमी का नाम नट्टी था, यही बोल रहा था मदना उसको! दोनों में कानाफूसी सी हुई, और फिर दोनों ही उठकर, अलग अलग हो लिए! मैं मदना के संग ही चला, मदना को रास्ते में और भी कई लोग मिलते थे जिनसे उसको प्रणाम सुनने को मिलता! प्रणाम ही रहा होगा वो, क्योंकि वे लोग हाथ जोड़ कर उस से मिला करते थे!
मदना एक मंदिर में घुसा, उसी मंदिर में, जहां वो धनुष बना था, बाण के साथ, अंदर चला, कुछ औरतें बाहर आयीं, तो वो, एक तरफ बढ़ चला, ये एक पत्थर से बना कमरा था, उसके बाहर एक चटाई सी बिछी थी, साथ में एक बड़ी सी ओखली रखी थी, उसका मूसल कोई छह फ़ीट का रहा होगा! वो मदना, वहीँ आ कर बैठ गया, और कोई थोड़ी देर बाद, दो वृद्ध स्त्रियां आयीं वहाँ, एक अंदर चली गयी कक्ष में और दूसरी चटाई की तरफ बढ़ी, मदना ने उठ कर उसके पाँव छुए! अब उनमे जो बातें हैं, मुझे मात्र एक दो शब्द सुनाई दिए, दरअसल समझ में आई, एक दिज्जा और दूसरा नाम था बाबा द्वैज का! औरत कुछ बोलती, और मदना उसकी हाँ में हाँ मिलाता! फिर कुछ ही देर में, बाबा लहटा आये वहां, उनके संग दो आदमी थे, एक नेतपाल और एक अनजान व्यक्ति, उस व्यक्ति के पास में एक खड्ग था, उस पर अभी भी रक्त लगा था, वे दोनों, मदना और वो औरत उठ गए, वो औरत वहाँ से उठकर, अंदर कक्ष में चली गयी, और मदना ने आगे बढ़कर, बाबा लहटा के पाँव छुए, वो खड्ग वाला व्यक्ति, चला गया वहां से, बाबा लहटा से बात करके! अब वे तीन रह गए! बाबा लहटा, मदना और वो नेतपाल! वे सभी बैठ गए अब वहीँ!
"कुछ पता चला?? बाबा लहटा ने गरजदार आवाज़ में पूछा,
ये भाषा मुझे समझ आई!
"हाँ" मदना ने कहा,
"कहाँ है?" बाबा लहटा ने दाढ़ी पर हाथ मारते हुए पूछा,
"द्वैज के यहां" बोला मदना,
"किसी ने देखा?" बाबा ने पूछा,
"हाँ" बोला मदना,
"किसने?" पूछा बाबा ने,
"रंधो की जोरू ने" बोला मदना,
बाबा चुप हुए! कुछ सोचा-विचारा!
"बात की तूने?" बोले वो,
"नहीं" वो बोला,
"करके देख" बोले वो,
"द्वैज नहीं मानेगा" बोला मदना,
बाबा चुप! फिर से सोचा कुछ!
"मैं चलता हूँ" बोले बाबा,
अब वे दोनों, चौंक पड़े!
"मैं चलता हूँ कल" बोले बाबा,
अब बाबा बोलें, तो हिम्मत किसकी?
"नेतपाल, जा खबर कर उसे" बोले बाबा,
"जी" बोला नेतपाल,
"लेकिन..बाबा......" बोला कुछ मदना,
"क्या?? बोल? बोल?" बोले बाबा,
"द्वैज नहीं मानेगा" वो बोला,
बाबा फिर से चुप!
बाहर देखा,
"तू चल मेरे साथ कल" बोले बाबा,
और खड़े हो गए!
वे दोनों भी खड़े हुए, हाथ जोड़े, और खड़े रहे, बाबा लहटा, चल दिए वहाँ से!
अब वे खड़े रहे वहाँ!
अवाक! लगता था जैसे कि मदना के मन में संशय हा कोई! जो, वो कह नहीं पाया है!
बस! अँधेरा छाया!
और मैं उठ गया! इस बार नहीं खांसा!
शर्मा जी ने हाथ फेरा कमर पर!
मेरे माथे पर, गर्दन पर पसीने ही पसीने थे! अपने रुमाल से पोंछे उन्होंने!
"पानी" मैंने कहा,
मुझे पानी दिया,
मैंने पिया,
"अब क्या पता चला?" वे बोले,
"बाबा लहटा!!" वे बोले,
"क्या बाबा लहटा?" वे बोले,
"बाबा लहटा जा रहे हैं, मिलने" मैंने कहा,
विस्मय से!
"कहाँ?" वे अचरज से बोले, जिज्ञासा भरा अचरज!
"मिलने, बाबा द्वैज से!" मैंने कहा,
अब वे सोच में डूबे!
"मिलने नहीं, बीज बोने! उस नरसंहार का बीज बोने!" वे बोले,
"हाँ, सच कहा" मैंने कहा,
एक घूँट पानी और पिया मैंने!
"वो बात करने जा रहे हैं, उस दिज्जा के लिए!" वे बोले,
"हाँ, बात करने ही" मैंने कहा,
"लेकिन एक बात?" वे बोले,
"क्या?" मैंने पूछा,
"ये दिज्जा, बाबा द्वैज की कौन है? बेटी? बहन तो नहीं लगती? कोई रिश्तेदार?" वे बोले,
ये सवाल भी दमघोंटू था!
सवाल में वजन था!
और ये जानना भी बेहद ज़रूरी था कि वो उनकी लगती क्या है?
"हाँ, ये ज्वलंत प्रश्न है" मैंने कहा,
"और इसके जवाब में ही, सारी कहानी का मूल है!" वे बोले,
"हाँ! ये तो सच है" मैंने कहा,
मित्रगण!
तभी वहाँ, हमारे सामने, कोई बीस फ़ीट दूर,
किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आई!!
हम लपक के खड़े हो गए!
"कौन है?" मैंने कहा,
उत्तर नहीं मिला,
बस रूदन अब सुबक में बदल गया था!
"आओ" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
हम आगे बढ़े, और उस जगह आये,
"कहाँ हो?" मैंने पूछा,
सुबकने की आवाज़ आई थोड़ा और सामने से,
हम वही के लिए बढ़े!
और जब बढ़े, तो सामने एक गड्ढा हुआ पड़ा था!
शर्मा जी के पास टोर्च थी!
"टोर्च इधर मारो" मैंने कहा,
उन्होंने टोर्च की रुष्णी डाली वहाँ!
वहां!!
वहाँ एक कुआँ सा था! एक छोटा सा कुआँ, कोई चार फ़ीट चौड़ा!
"ये तो कोई कुआँ है?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
अब मैंने उनसे टोर्च ली, उसके तले में मारी, कुछ नहीं था वहां, बस मिट्टी और पत्थर!
हाँ, उसकी दीवारों की लखौरी ईंटें, अभी भी वैसी ही थीं, जैसी उस समय रही होंगी!
सुबकने की आवाज़ फिर से आई!
मैंने रौशनी डाली!
लेकिन कोई नहीं था वहाँ पर...................

Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Posted: 19 Aug 2015 13:31
by sexy
आवाज़ उसी कुँए से आ रही थी, लेकिन कुँए में कोई नहीं था, और न ही कोई आसपास, अब ये स्त्री कौन है, येभी नहीं पता था, बस इतना कि उसकी सिसकियों में कुछ बहुत ही बड़ा राज था! मैंने टोर्च की रौशनी अच्छी तरह से मारी थी उसमे, लेकिन कुछ नज़र नहीं आया था, न ही कुँए आदि में कोई सुरंग आदि थी, न ही कोई अन्य ऐसा छेद, जहां से कुछ पता चलता! आवाज़ फिर से आई, फिर से सुबकने की आवाज़ें आयीं!
"कोई है?" मैं चिल्लाया,
कोई उत्तर नहीं आया!
"कौन है, सामने तो आओ?" मैंने पूछा,
लेकिन कोई सामने नहीं आया उस समय!
अब समझ से बाहर था ये मामला!
"आओ वापिस" मैंने आखिर कहा शर्मा जी को,
"चलो" वे बोले,
जैसे ही हम मुड़े वापिस,
कोई औरत बुक्का फाड़ के रोने लगी!
हम पलटे, पीछे देखा, तो कोई नहीं था, हाँ, उस कुँए से कुछ दूर ही, ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे कोई खड़ा हो वहां, मैंने टोर्च की रौशनी मारी वहां, कोई तो था वहां, उन पत्थरों के बीच, कोई न कोई तो था!
"ज़रा आना?" मैंने कहा,
"चलो" वे बोले,
और हम आगे बढ़ चले, उस कुँए से थोड़ा आगे के लिए, जहां वो खुदाई करवाई गयी थी! आवाज़ आ रही थी, लगातार कोई औरत रोये जा रही थी, और जैसे ही हम वहां गए, कोई दौड़ कर, उस खुदाई वाली जगह में कूद पड़ा! हम भागे वहाँ के लिए! और आ गए वहाँ, नीचे रौशनी मारी, कोई नहीं दिखा!
"कौन है?" मैंने पूछा,
कुछ उत्तर नहीं!
"कोई है क्या?" मैंने पूछा,
मैं नीचे बैठा, और दायें-बाएं रौशनी डाली,
"कोई है?" मैंने पूछा,
लेकिन कोई नहीं था वहां!
मैंने रौशनी मारी और अंदर,
लगा, कोई औरत घुटने मोड़ दीवार के संग बैठी हुई है वहाँ अंदर,
"कौन है वहां?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं आया,
वो रस्सी वहीँ टंगी थी, मैंने रस्सी को पकड़ा और टोर्च शर्मा जी को दी,
वे मेरे ऊपर रौशनी डालते रहे, और जब में कोई चार फ़ीट नीचे चला गया तो टोर्च मैंने ले ली उनसे, अब लटके लटके ही मैंने रौशनी डाली उधर,
वहां एक लड़की बैठी थी,
मुझे ही घूर रही थी!
मैं कुछ और नीछे आया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
अब वो खड़ी हुई, उसने ऊपर कोई वस्त्र नहीं पहना था, और रक्त लगा था उसके बदन पर, जैसे किसी ने मारा-पीटा हो उसे! अब मैं नीचे उतर आया था,
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
कुछ न बोली,
सामने आई धीरे धीरे, उसके पांवों से पत्थर दब रहे थे, खरड़-खरड़ की आवाज़ आ रही थी! वो आ खड़ी हुई, उसने अपने दोनों हाथ आगे किये, पहले उसके वो हाथ मुझे दिख नहीं रहे थे, जब सामने किये, तो हाथ बंधे हुए थे उसके, उसके स्तन छिले हुए थे, घाव बने थे, कंधे पर और चेहरे पर छिलने के निशान थे,
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"रेवनि" वो सुबकते हुए बोली,
"ये किसने किया तुम्हारा हाल?" मैंने पूछा,
"वो, वहां" उसने पीछे इशारा किया,
मैंने टोर्च मारी वहाँ, तो कोई खड़ा था वहाँ!
कोई मर्द था, हाथ में एक डंडा सा लिए, सर गंजा था उसका, कपड़े खून से लथपथ थे उसके!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
वो कुछ न बोला,
और तभी किसी की आवाज़ आई वहां, जैसे किसी ने खदेड़ा हो उसको! वो फौरन ही पीछे भाग गया! और फिर न लौटा, अब वो लड़की ही रह गयी थी वहां,
"क्या उसने मारा तुम्हे?" मैंने पूछा,
उसने सर हिलाया,
"कौन है वो?" मैंने पूछा,
उसने फिर से दोनों हाथों से इशारा कर दिया पीछे की तरफ, मैंने फिर से टोर्च मारी, लेकिन कोई नहीं था उधर! फिर वो लड़की भी पीछे हटी, और हटते हटते भाग खड़ी हुई!
अब ये लड़की कौन थी?
किसलिए आई थी?
कुछ बताया क्यों नहीं?
और वो, वो मर्द कौन था?
उसको खदेड़ा किसने था?
अब नए सवाल आ खड़े हुए थे!
मैं बाहर निकला वहाँ से, और दौड़ पड़ा उस क्रिया-स्थान के लिए!
थोड़ा पानी पिया,
और लेट गया, अब फिर से अज्रंध्रा-प्रवेश हेतु मंत्र पढ़ने लगा!
और कुछ ही पलों में, मेरा दम सा घुटा, बदन में जुम्बिश हुई, और नेत्र बंद हुए!
इस बार मैं एक ऐसी जगह पहुंचा, जहां हरा-भरा सा स्थान था, आसपास काफी घने पेड़-पौधे लगे थे, फूल लगे थे, पीले, नीले, लाल, सफ़ेद! बहुत ही पावन सा माहौल था वहाँ! एक लम्बा-चौड़ा सा मैदान था वहाँ, सामने कुछ झोंपड़े से बने थे, एक अस्तबल भी था, कुछ लाल और सफ़ेद घोड़े अपनी दुम हिला रहे थे! वहाँ उधर ही, एक स्थान गोबर से लीपा गया था, उस स्थान पर, दरियां सी बिछीं थीं, आसपास कोई नहीं था, न कोई स्त्री और न कोई पुरुष, हाँ, कुछ श्वान अवश्य ही टोह मारे जा रहे थे वहाँ! आसपास लगी बेलों पर सब्जियां लगी थीं, तोरई, घीये, सीताफल आदि आदि, ग्रामीण खूबसूरती का बेहतरीन नज़ारा था वहां! तभी कुछ अफरातफरी सी मची, कुछ लोग भागते हुए आये वहां, और आनन -फानन में वहां बने कक्षों में घुस गए, वे कुल बीस बाइस आदमी रहे होंगे, क्यों घुसे पता नहीं! और फिर मैंने देखा, कि बाबा द्वैज, और उनके संगी-साथी, और साथ में उनके बाबा लहटा, मदना, वो नेतपाल आदि सब आ रहे थे! कोई स्त्री नहीं थी, बस पुरुष ही पुरुष! कुल मिलाकर, कोई डेढ़ सौ लोग! माहौल ऐसा जैसे पंच बैठने जा रहे हों, जैसे पंचायत लगने वाली हो!
वे सब लोग आ बैठे थे! उसी दरी पर, वे सब तो नहीं, बाकी लोग अलग अलग खड़े थे, बाबा द्वैज के लोग एक तरफ, और बाबा लहटा के एक तरफ! बाबा लहटा शांत थे, और बाबा द्वैज भी शांत! हाँ, वो जो लोग थे, वे अवश्य ही विचलित थे! बाबा लहटा और बाबा द्वैज, एक साथ बैठे, आमने सामने, बब द्वैज के संग, वो जम्भाल आदि बैठे थे, और बाबा लहटा के संग, वो मदना और वो नेतपाल थे!
पहले दोनों में प्रणाम हुई!
हाथ जोड़ कर!
फिर दो लोटे रखे गए उन दोनों के सामने, वे लोटे उठा लिए गए, और उसमे से, थोड़ा थोड़ा सा जल, सभी अपने अंजुल में डाल पीते चले गए! ये शायद अफीम का घोटा था!
"दिज्जा यहीं है?" बोले बाबा लहटा!
"हाँ!" बाबा द्वैज बोले!
"क्यों?" बाबा लहटा ने पूछा,
"स्वेच्छा से!" वे बोले,
अब चुप हुए बाबा लहटा!
मदना को देखा, मदना ने आँखें झुका लीं!
"चंदन क्या कहता है?" लहटा बाबा ने सवाल पूछा,
"पता नहीं, मेरी बात नहीं हुई" बोले बाबा द्वैज!
"चंदन तो कहता है उसको भगा दिया?" बोले लहटा,
"नहीं भगाया" वे बोले,
"वो क्यों कहता है ऐसा?" पूछा बाबा लहटा ने,
"उस से पूछो" बाबा द्वैज ने कहा,
"पूछ लिया है" बोले वो!
"उसको ले आते?" बाबा द्वैज बोले,
"आया है" बोले वो,
और फिर बुक्कल मारे एक व्यक्ति आया सामने, वो बैठा था वहीँ भीड़ में,
उसने बुक्कल हटाया!
तो मैं देखते ही चौंका!!
ये तो वही व्यक्ति है, जो उस गाँव में था! जिसके यहाँ ये मदना आया था, वो पोटलियाँ लेकर! और फिर मदना के आदमी वहाँ से दूसरी पोटली ले गए थे! तो इसका नाम चंदन है!
लेकिन?...............
"बता चंदन" बोले लहटा बाबा,
"मैं आया था, लेकिन बाबा द्वैज नहीं मिले थे" वो बोला,
"कौन मिला था?" पूछा लहटा बाबा ने,
"ये, ये मिला था" वो बोला,
ये! मतलब वो जम्भाल!
"इसने मना किया?" बोले बाबा लहटा!
"हाँ" वो बोला,
"क्या कहा इसने?" पूछा बाबा ने,
"कि बाबा द्वैज नहीं हैं, जा अभी, बाद में आना, जब दिज्जा के बारे में पूछा तो मनाकर दिया इसने" वो बोला,
"ये बाप है उसका!" बोले लहटा!
"तो मुझे क्यों नहीं मिला?" बोले बाबा द्वैज!
"आया तो था?" बोले लहटा!
"मैं नहीं था यहां, इसको बाद में आना चाहिए था" बोले बाबा,
"अब? अब आया है न?" बोले लहटा बाबा,
"हाँ, तो?" वे बोले,
"बुलाओ उस दिज्जा को" बोले लहटा,
"बुलवा लेता हूँ, लेकिन होगा वही, जो वो चाहेगी" बोले बाबा द्वैज,
"ठीक है" बाबा लहटा बोले,
अब चंदन बैठा,
और एक आदमी चला वहां से, बुलाने उस दिज्जा को!

Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story

Posted: 19 Aug 2015 13:32
by sexy
शांति पसर गयी वहां! अब न कोई कानाफूसी हो, और न ही कोई देख-दिखाई! लेकिन वो मदना, आँखें नीचे किये हुए,चुपचाप बैठा था, बाबा लहटा ने कई बार देखा उसको, लेकिन उसने नज़रें न उठायीं अपनी! अब कोई आँखों से आँखें नहीं मिला रहा था किसी से भी, बस दो आदमियों के अलावा! एक बाबा द्वैज और दूसरे बाबा लहटा! वही जैसे एक दूसरे को तोल रहे थे नज़रों ही नज़रों में! एक बात स्पष्ट थी, बाबा लहटा मुझे क्रूर, और क्रोधी लगते थे, हाँ, सध के कदम रखने वाले अवश्य ही थे! और बाबा द्वैज, दया से भरे थे! उनके चेहरे पर, कोई ईर्ष्या-द्वेष, छोटा-बड़ा कुछ नहीं था, ऐसा कोई भाव नहीं था! लेकिन वो बाबा लहटा से कहीं कम हों, ऐसा भी नहीं था! बाबा द्वैज, बाबा त्रिभाल के पुत्र थे! बाबा त्रिभाल की शिक्षा उनके व्यक्तित्व और बोलचाल से झलकती थी!
और तभी सभी की नज़र कुछ आती हुई स्त्रियों पर पड़ी! मैंने भी देखा, लेकिन इस भीड़ में एक ऐसा भी था, जिसने नहीं सर उठाया था अपना, और वो था मदना! मदना अभी भी सर नीचे किये ही बैठा था, शांत लेकिन सचेत! मैंने कुछ और भी देखा, वो रेवनि! वो रेवनि भी थी उस दिज्जा के साथ, उसके दायें चलती हुई वो भी आ रही थी, वही रेवनि, जो कुछ देर पहले मुझे उस सुरंग में मिली थी, लहूलुहान सी, कुछ और भी स्त्रियां थीं वहाँ! और हाँ, वो किशोर, केषक, वो भी आ रहा था उनके साथ, अठारह का रहा होगा उम्र में! मैं उसके कद के अनुसार ही किशोर कह रहा हूँ उसको!
वे आयीं, कुछ स्त्रियां पीछे ठहर गयीं, और रेवनि संग, वो दिज्जा आगे आ गयी, लेकिन बैठी नहीं, न रेवनि और न ही दिज्जा! उन दोनों ने सभी को प्रणाम किया!
अब बाबा द्वैज ने बाबा लहटा को देखा!
और वो मदना, अपने आप में सिकुड़ गया था! सर नीचे लटकाये, शांत बैठा था, बाबा लहटा ने, बहुत बार देखा था उसे, और इसीलिए, नेतपाल ने, उको एक बार कोहनी भी मारी थी! लेकिन मदना ने, सर नहीं उठाया था अपना! अभी तक!
लहटा बाबा ने सर उठाया, और उस दिज्जा को देखा, फिर उसके बाप, चंदन को देखा, और फिर बाबा द्वैज को, आँखों के भाव बदल चुके थे बाबा लहटा के!
"दिज्जा, पुत्री?" बोले बाबा लहटा!
काँप गयी बेचारी दिज्जा!
पाँव लड़खड़ाने लगे थे उसके!
"अपने इस पिता की नहीं सुनोगी?" बोले बाबा लहटा!
अपने इस पिता, उस चंदन को, जो बगल में बैठा था!
कुछ न बोली वो!
चुपचाप, आँखें नीचे किये हुए, खड़ी रही!
लोग अपनी साँसें थामे, सब देखे जा रहे थे!
"हम ले जाने आये हैं तुझे" बोले बाबा लहटा!
बेचारी, कहीं गिर ही न जाए! ऐसा लगा उस समय मुझे!
चुप ही रही!!
कुछ पल की शान्ति,
और तब बाबा लहटा ने देखा चंदन को,
चंदन समझ गया, और उठा,
"बेटी, चल हमारे साथ" वो बोला,
कुछ न बोली!
चुप खड़ी रही!
"चल बेटी?" वो बोला, और उसका हाथ पकड़ने केलिए हाथ आगे बढ़ाया चंदन ने!
और तभी, तभी वो दिज्जा, पीछे आ खड़ी हुई बाबा द्वैज के!
बाबा द्वैज ने चंदन की आँखों में झाँका!
और चंदन झटके से हाथ पीछे खींचता हुआ, वापिस बैठ गया,
"द्वैज?" बोले बाबा लहटा!
बाबा द्वैज ने अब देखा बाबा लहटा को!
"मदना से अच्छा वर कहीं नहीं मिलेगा इसको" बोले बाबा लहटा, और उस मदना को देखा, मदना सर झुकाये बैठा था, पसीना बह रहा था चेहरे से!
"मिलेगा या नहीं, मैं नहीं जानता, न जानना ही चाहता, प्रश्न ये नहीं था, प्रश्न था, दिज्जा से पूछने का, और आप समझ गए होंगे, कि दिज्जा की इच्छा नहीं!" साफ़ बोला बाबा द्वैज ने!
बाबा लहटा को काटो तो खून नहीं!
चेहरा तमतमा उठा!
"मैं समझ गया द्वैज!" वो बोले,
"आप भी समझ गए होंगे" बोले बाबा द्वैज,
"मैं समझ गया कि तुमने ही भड़काया है इसे! अच्छा होता कि इसको समझाते!" बोले बाबा लहटा!
"समझाना और न समझाना मेरा काम नहीं, बात इच्छा की है, दिज्जा, रेवनि की सखी है, और रेवनि इस जम्भाल की पुत्री, अर्थात मेरी पुत्री, और इस प्रकार, ये दिज्जा भी मेरी पुत्री ही हुई!" बोले बाबा द्वैज!
बाबा लहटा का पारा चढ़ने लगा!
उन्होंने अपने सभी साथियों को देखा!
और झट से खड़े हो गए, वो मदना भी, सर नीचे झुकाये!
"जाओ पुत्री फैंसला हो गया" बोले बाबा द्वैज!
ये सुनते ही, दिज्जा उस रेवनि के संग, चली गयी वहां से!
"द्वैज, अवसर है अभी, समझा देना उसको" बोले बाबा लहटा!
"समझा दिया है, चली गयी है" वे बोले,
अब दांत भींचते हुए, गुस्से में, बाबा लहटा पलटे! और चल पड़े वापिस! वे जैसे ही चले, बाबा द्वैज के सभी साथी, उनके साथ चल पड़े, बाहर तक छोड़ने! रह गए बाबा द्वैज वहाँ! और उन झोंपड़ों में से वो बीस-बाइस आदमी, अपने अपने हथियार लेकर, आ गए बाहर! वे भी दौड़ पड़े, उन लोगों के पीछे!
फैंसला हो गया था!
दिज्जा अब यहीं रुकने वाली थी!
यहीं बाबा द्वैज के स्थान पर!
और तभी जम्भाल आया उधर,
"चले गए" बोला जम्भाल,
"अच्छा है" वे बोले,
"लेकिन बाबा, ये बाबा लहटा........." वो बोला तो बात काट दी बाबा द्वैज ने,
"जानता हूँ, ढ़ाँढ़णा है!" वे बोले,
"हाँ बाबा!" वो बोला,
"सुरक्षा बढ़ा दो जम्भाल" वे बोले,
"जी बाबा" बोला जम्भाल, और प्रणाम कर, चला गया वहां से!
और तभी अँधेरा छा गया!
मैं उठ गया! छाती पर जैसे पत्थर रखा हुआ था!
तेज तेज साँसें आ रही थीं!
शर्मा जी ने संभाला मुझे!
"पानी" मैंने कहा,
उन्होंने पानी दिया,
और मैंने पानी पिया!
"सब पता चल गया!" मैंने कहा,
"क्या सब?" वे बोले,
चरम उत्कंठा के शिकार थे वो!!
पसीने पोंछते हुए अपने हाथों से, मेरा सर भी साफ़ कर देते थे अपने रुमाल से!
"बाबा लहटा से मिले बाबा द्वैज" मैंने कहा,
"अच्छा, फिर?" वे बोले,
"दिज्जा नहीं गयी संग अपने बाप के" मैंने कहा,
"अच्छा, और वो मदना?" वे बोले,
"वो, सर नीचे किये बैठा रहा, बस!" मैंने कहा,
"अच्छा, और लहटा बाबा?" बोले वो,
"कुछ समय देकर गए हैं" मैंने कहा,
"अच्छा..."वे बोले,
अब मैंने और पानी पिया!
और फिर सारी कहानी से अवगत करवाया उन्हें!
"वही हुआ, ये दिज्जा के कारण ही हुआ था" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"लेकिन वो मदना?" वो बोले,
"समझा नहीं?" मैंने कहा,
"वो सर नीचे किये क्यों बैठा रहा?" बोले वो,
"पता नहीं, एक बार भी सर नहीं उठाया उसने" मैंने कहा,
"अब यहाँ फिर से पेंच यही" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"वो तो उसकी ब्याहता हो जाती, लेकिन उसने देखा क्यों नहीं?" वे बोले,
"ये समझ नहीं आया" मैंने कहा,
"सुरक्षा बढ़ा दी गयी, हम्म" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"इसका अर्थ.." वे बोले,
"क्या अर्थ?" मैंने कहा,
"इसका अर्थ, कि वो बाबा लहटा बहुत ढ़ाँढ़णा है! ढ़ाँढ़णा अर्थात, कमीन फ़ितरत का इंसान! वो इसको अपमान समझेगा! और इसका बदला ज़रूर लेगा!" वे बोले,
"इसकी बिसात तो बिछ गयी है!" मैंने कहा,
"हाँ, शतरंज के मोहरे, साफ़ किया जा रहे हैं!" वे बोले,
''हाँ, सच में" मैंने कहा,
"लहटा बदला तो ज़रूर लेगा!" वे बोले,
"उसने जब अवसर कहा था, तभी इसका पुट दे दिया था!" मैंने कहा,
"अब..अब हुआ है खेल शुरू!" वे बोले,
"हाँ, बिसात बिछ चुकी है" मैंने कहा,
"अब यही देखना है" वे बोले,
मैंने फिर से पानी पिया! ज़्यादा नहीं पी रहा था!
नहीं तो लघु-शंका त्यागने की मुसीबत हो जाती!
मैंने जैसे ही पानी की बोतल रखी, वही आवाज़ गूंजी!
"होम! होम!"
हमारे कान खड़े हो गए!!!