Re: 2013- maanesar ki ek ghatna thriller story
Posted: 19 Aug 2015 13:32
ये होम, होम की आवाज़ बहुत ही तेज और भारी होती थी, लगता था जैसे कोई होमाग्नि में कुछ होम-सामग्री आदि डाल रहा हो! या कोई महा-विक्रा मंत्र का जाप कर रहा हो! इस आवाज़ का स्रोत वो गड्ढा ही था, लेकिन वहाँ मात्र एक सुरंग थी, जो अब खुदवा दी गयी थी, और उसके नीचे एक संकरा सा रास्ता ही था, अन्य कुछ नहीं! ये रास्ता दूर तलक कहाँ जाता था, ये भी नहीं पता था, स्थान बहुत बड़ा था और उसके प्रत्येक भाग को जांचना और देखना, सम्भव नहीं था! आवाज़ एक आद बार ही आती थी, उसके बाद शांत हो जाती थी, लेकिन ये एक रहस्य ही रहा! अब तक घटनाक्रम हम जान ही चुके थे, बाबा लहटा ने अवसर दिया था बाबा द्वैज को, कि वे एक बार समझा दें उस दिज्जा को, लेकिन बाबा द्वैज ने अपना फैंसला सुना दिया था साफ़ साफ़! इस से बाबा लहटा भड़क गए थे! अब तक ये साफ़ हो चुका था कि यहां इस नरसंहार में कौन कौन टकराये थे, हमें यहां बाबा त्रिभाल के डेरे के तो प्रेत मिले थे, लेकिन बाबा लहटा के डेरे से कोई नहीं, अगर कोई हो भी, तो नज़र नहीं आया था, बस उस मदना के अलावा! अब ये भी एक बड़ा सवाल था, एक अबूझ पहले थी, कि मदना यहां क्या कर रहा था? यदि मदना यहां था, तो फिर बाबा लहटा कहाँ हैं? नेतपाल भी मिला था हमें, अपने जानवर हांकता, और कोई नहीं, बस ये दो ही थे! और ये नेतपाल, इस मदना से दूर था, एक दूसरे छोर पर! सवालों का कुआँ अभी भी था हमारे सामने, भरा नहीं था! अभी भी उसमे गहराई शेष थी! और ये गहराई, तब भरती जब हमें सारी कहानी पता चल जाती! मैं अब तक कई बार अज्रंध्रा-प्रवेश कर चुका था, उसी की बदौलत अब तक ये कहानी पता चली थी! इस कहानी में पग पग पर पेंच थे, वो निकालने पड़ते थे, और तब आगे का रास्ता मिलता था!
मैंने इस बार पुनः अज्रंध्रा-प्रवेश किया, और जा पहुंचा एक जाने पहचाने स्थान पर! बस अंतर ये था कि उस समय रात्रि थी वहाँ, मैं जहां पहुंचा था, वहाँ एक बड़ी सी अलख उठी हुई थी, सामने कई बड़े पात्र रखे थे! उनमे भोग का सारा सामान आदि रखा था, लेकिन कोई मंत्रोच्चार आदि नहीं हो रहा था, वहां करीब बीस लोग इकठ्ठा हुए थे, उनमे, मदना भी था, नेतपाल नहीं था, बाबा लहटा, एक ऊंचे से चबूतरे पर, बिछे आसन पर बैठे थे! अब मैंने कुछ स्वर सुने, कुछ वार्तालाप!
"गोपा, तूने किया अपना काम?" पूछा बाबा ने,
"हाँ, मुझे चंदन ने बताया कि रंधो की जोरू ने बताया है कि वहाँ सुरक्षा बढ़ा दी गयी है" वो बोला,
"वो तो मालूम ही था" बोले बाबा,
"आदेश कीजिये" गोपा बोला,
"कुल कितने हरफू हैं वहाँ?" पूछा बाबा ने,
"कोई तीन सौ होंगे" वो बोला,
"तीन सौ......." बोले बाबा और कुछ सोचा उन्होंने,
"सुन, कंडु को बुलाओ कल" बोले वो,
"जी" वो बोला,
मदना ये सुन, कि कंडु को बुलाओ, उठ गया वहाँ से, और जाने लगा बाहर,
"मदना?" बाबा ने गुस्से से कहा,
मदना रुका, लेकिन पीछे नहीं देखा उसने,
"इधर आ" बोले बाबा,
अब पलटा वो, बेमन से,
"तुझे देख रहा हूँ, क्या बात है?" बोले बाबा,
"कंडु लोहाट बंजारा, किसलिए?" बोला मदना,
"वो तो तू भी जानता है?" बोले बाबा,
"बात भी तो की जा सकती है?" वो बोला,
"बात की नहीं क्या?" बोले बाबा,
"दोबारा प्रयास किया जा सकता है" बोला वो,
"नहीं, उसने अपमान किया मेरा? देखा नहीं?" अब गुस्से से बोले बाबा,
"कैसा अपमान? आपने इच्छा ही पूछी थी दिज्जा की? उसने बता दी, तो अब? अब क्या आवश्यकता?" बोला वो,
"आवश्यकता?" अब खड़े हुए बाबा, और बढ़े उसकी तरफ,
मदना ने सर झुका लिया नीचे,
"दिज्जा वहाँ नहीं रहेगी, समझा?" बोले बाबा,
"कोई आवश्यकता नहीं है, वो नहीं मान रही, उसकी इच्छा" बोला मदना,
"मदना?" गुस्से में काँप उठे बाबा!
और मदना के होश उड़े!
भाग लिया मदना वहाँ से,
सभी चुप वहाँ!
"कंडु को बुलाओ कल" बोले बाबा और निकल दिए वहाँ से!
और मैं अब वापिस हुआ!
मेरी आँख खुल गयी!
मेरी साँसें अनियंत्रित थीं!
शर्मा जी ने संभाला मुझे!
कमर पर हाथ फेरा!
"क्या देखा?" वे बोले,
अब मैंने उन्हें सारा घटनाक्रम बता दिया! सुन कर वे अब अवाक!
"मदना ने मना किया?" बोले वो,
"हाँ" मैंने कहा,
"यहां अब मदना के बारे में, मेरी सोच बदल गयी" वे बोले,
"हाँ, मेरी भी" मैंने कहा,
"तो मदना नहीं चाहता था कि कोई नरसंहार हो" वे बोले,
"हाँ, उसने स्वीकार कर लिया था दिज्जा की इच्छा को" मैंने कहा,
"लेकिन बाबा लहटा ने नहीं, उनको ये अपमान लगा अपना" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"गुत्थी उलझी हुई है बहुत" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"मदना आया, नहीं आया, ये जानना है अब" वे बोले,
"कहाँ आया?" मैंने पूछा,
"उस कंडु बंजारे के साथ!" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"उन्होंने कंडु बंजारे को बुलाया है, कि उस डेरे में तीन सौ हैं जो सुरक्षा में लगे हैं, और इस बंजारे के पास, ऐसे बहुत आदमी होंगे, जो ऐसा ही काम किया करते होंगे" वे बोले,
"यक़ीनन" मैंने कहा,
"इसका मतलब, लहटा का ही काम है ये, उस मदना का नहीं" वे बोले,
"हाँ, अब तो यही लगता है" मैंने कहा,
अब हम चुप हुए थोड़ी देर,
वो अपने हिसाब से सोचें, और मैं अपने हिसाब से!
मैंने पुनः प्रवेश किया,
और ध्यान लगाते हुए, मैं एक जगह पहुंचा, वो दिन का समय था, सभी बैठे थे उधर, बाबा लहटा, गोपा, नट्टी लेकिन मदना नहीं था वहाँ, नेतपाल भी नहीं, और हाँ, एक भारी-भरकम शख़्श बैठा था वहां, अपने ही जैसे चार और लोगों के साथ, बाबा लहटा, अपने चबूतरे पर बैठे थे!
"कंडु?" बोले बाबा,
तो ये था कंडु लोहाट बंजारा!
"आदेश" वो हाथ जोड़ते हुए बोला,
"तैयार हो जा" बोले वो,
"आदेश" बोला कंडु,
"कितने हरफू हैं तेरे पास?" पूछा बाबा ने,
"हैं करीब दो सौ" वो बोला,
"अच्छा, और चाहियें तो?" बोले बाबा,
"मिल जाएंगे, कद्दा से बात कर लेंगे, लेकिन हिस्सा-बाँट मांगेगा वो" वो बोला,
"यहां कोई हिस्सा-बाँट नहीं, हाँ, जो चाहिए, यहां से मिल जाएगा" बोले बाबा,
"जैसा आदेश" बोला वो,
"बात कर कद्दा से" बोले बाबा,
"आज ही कर लूँगा" वो बोला,
"हाँ, करके, मुझे बता" बोले वो,
"जी" वो बोला,
और खड़ा हुआ,
हाथ जोड़े, और चल पड़ा वापिस अपने साथियों के साथ!
"गोपा?" बोले बाबा,
"मदना कहाँ है?" पूछा बाबा ने,
"कल से नहीं देखा उसको" वो बोला,
"उसको ढूंढो" बोले वो,
"जी" वो बोला,
"रम्मन?" बोले बाबा,
"जी, आदेश?" बोला वो,
"तैयारी करो" बोले बाबा,
"आदेश" वो बोला,
और तभी आया वहाँ मदना!
इस बार गुस्से में था वो!
"बाबा?" बोला मदना!
"मना करो, कंडु को मना करो!" बोला मदना,
बाबा उठे,
आये सामने मदना के!
क्रोधित!
"मदना? ये मेरा आदेश नहीं इच्छा है! और इच्छा का मान तो तू रखता है न! मैं तो पिता हूँ तेरा! इसे आदेश मान, या इच्छा!" कंधे पर हाथ रखते हुए बोले बाबा!
"लेकिन, ये सब किसलिए?" बोला वो,
"अपमान! मेरा अपमान किया है उस द्वैज ने!" बोले बाबा,
"इसमें कौन सा अपमान?" बोला मदना,
अब आँखें हुईं लाल! हुए और क्रोधित!
"जैसा मैंने कहा, वही होगा" बोले वो,
"तब मैं साथ नहीं दूंगा, मैं बता दूंगा बाबा द्वैज को!" बोला मदना,
अब क्या था!
क्रोध फूट पड़ा बाबा का!
कंधे पर एक हाथ मार खींच कर!
वो लड़खड़ाया, तो बाबा ने उसके घुटनों में एक लात और जमा दी!
"पकड़ लो इसे, निकलने मत देना कहीं!" बाबा ने गुस्से से कहा!
बाबा के विश्वस्त झपट पड़े मदना पर, पकड़ लिया उसको!
"अपमान का बदला क्या होता है मदना, ये भी सीख लेगा तू अब!" बोले बाबा,
"नहीं! कुछ नहीं करना, कुछ नहीं करना वहां!" बोला मदना,
"ले जाओ इसको, बंद कर दो!" बोले वो,
वे आदमी ले गए खेंच कर उसको!
चिल्लाता रहा!
गुहार लगाता रहा!
कभी गिर जाता!
तो उठा लिया जाता!
और बाबा!
गुस्से में फुनकते हुए,
लौट पड़े वापिस! अपने साथियों के साथ!
मैंने इस बार पुनः अज्रंध्रा-प्रवेश किया, और जा पहुंचा एक जाने पहचाने स्थान पर! बस अंतर ये था कि उस समय रात्रि थी वहाँ, मैं जहां पहुंचा था, वहाँ एक बड़ी सी अलख उठी हुई थी, सामने कई बड़े पात्र रखे थे! उनमे भोग का सारा सामान आदि रखा था, लेकिन कोई मंत्रोच्चार आदि नहीं हो रहा था, वहां करीब बीस लोग इकठ्ठा हुए थे, उनमे, मदना भी था, नेतपाल नहीं था, बाबा लहटा, एक ऊंचे से चबूतरे पर, बिछे आसन पर बैठे थे! अब मैंने कुछ स्वर सुने, कुछ वार्तालाप!
"गोपा, तूने किया अपना काम?" पूछा बाबा ने,
"हाँ, मुझे चंदन ने बताया कि रंधो की जोरू ने बताया है कि वहाँ सुरक्षा बढ़ा दी गयी है" वो बोला,
"वो तो मालूम ही था" बोले बाबा,
"आदेश कीजिये" गोपा बोला,
"कुल कितने हरफू हैं वहाँ?" पूछा बाबा ने,
"कोई तीन सौ होंगे" वो बोला,
"तीन सौ......." बोले बाबा और कुछ सोचा उन्होंने,
"सुन, कंडु को बुलाओ कल" बोले वो,
"जी" वो बोला,
मदना ये सुन, कि कंडु को बुलाओ, उठ गया वहाँ से, और जाने लगा बाहर,
"मदना?" बाबा ने गुस्से से कहा,
मदना रुका, लेकिन पीछे नहीं देखा उसने,
"इधर आ" बोले बाबा,
अब पलटा वो, बेमन से,
"तुझे देख रहा हूँ, क्या बात है?" बोले बाबा,
"कंडु लोहाट बंजारा, किसलिए?" बोला मदना,
"वो तो तू भी जानता है?" बोले बाबा,
"बात भी तो की जा सकती है?" वो बोला,
"बात की नहीं क्या?" बोले बाबा,
"दोबारा प्रयास किया जा सकता है" बोला वो,
"नहीं, उसने अपमान किया मेरा? देखा नहीं?" अब गुस्से से बोले बाबा,
"कैसा अपमान? आपने इच्छा ही पूछी थी दिज्जा की? उसने बता दी, तो अब? अब क्या आवश्यकता?" बोला वो,
"आवश्यकता?" अब खड़े हुए बाबा, और बढ़े उसकी तरफ,
मदना ने सर झुका लिया नीचे,
"दिज्जा वहाँ नहीं रहेगी, समझा?" बोले बाबा,
"कोई आवश्यकता नहीं है, वो नहीं मान रही, उसकी इच्छा" बोला मदना,
"मदना?" गुस्से में काँप उठे बाबा!
और मदना के होश उड़े!
भाग लिया मदना वहाँ से,
सभी चुप वहाँ!
"कंडु को बुलाओ कल" बोले बाबा और निकल दिए वहाँ से!
और मैं अब वापिस हुआ!
मेरी आँख खुल गयी!
मेरी साँसें अनियंत्रित थीं!
शर्मा जी ने संभाला मुझे!
कमर पर हाथ फेरा!
"क्या देखा?" वे बोले,
अब मैंने उन्हें सारा घटनाक्रम बता दिया! सुन कर वे अब अवाक!
"मदना ने मना किया?" बोले वो,
"हाँ" मैंने कहा,
"यहां अब मदना के बारे में, मेरी सोच बदल गयी" वे बोले,
"हाँ, मेरी भी" मैंने कहा,
"तो मदना नहीं चाहता था कि कोई नरसंहार हो" वे बोले,
"हाँ, उसने स्वीकार कर लिया था दिज्जा की इच्छा को" मैंने कहा,
"लेकिन बाबा लहटा ने नहीं, उनको ये अपमान लगा अपना" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"गुत्थी उलझी हुई है बहुत" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"मदना आया, नहीं आया, ये जानना है अब" वे बोले,
"कहाँ आया?" मैंने पूछा,
"उस कंडु बंजारे के साथ!" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"उन्होंने कंडु बंजारे को बुलाया है, कि उस डेरे में तीन सौ हैं जो सुरक्षा में लगे हैं, और इस बंजारे के पास, ऐसे बहुत आदमी होंगे, जो ऐसा ही काम किया करते होंगे" वे बोले,
"यक़ीनन" मैंने कहा,
"इसका मतलब, लहटा का ही काम है ये, उस मदना का नहीं" वे बोले,
"हाँ, अब तो यही लगता है" मैंने कहा,
अब हम चुप हुए थोड़ी देर,
वो अपने हिसाब से सोचें, और मैं अपने हिसाब से!
मैंने पुनः प्रवेश किया,
और ध्यान लगाते हुए, मैं एक जगह पहुंचा, वो दिन का समय था, सभी बैठे थे उधर, बाबा लहटा, गोपा, नट्टी लेकिन मदना नहीं था वहाँ, नेतपाल भी नहीं, और हाँ, एक भारी-भरकम शख़्श बैठा था वहां, अपने ही जैसे चार और लोगों के साथ, बाबा लहटा, अपने चबूतरे पर बैठे थे!
"कंडु?" बोले बाबा,
तो ये था कंडु लोहाट बंजारा!
"आदेश" वो हाथ जोड़ते हुए बोला,
"तैयार हो जा" बोले वो,
"आदेश" बोला कंडु,
"कितने हरफू हैं तेरे पास?" पूछा बाबा ने,
"हैं करीब दो सौ" वो बोला,
"अच्छा, और चाहियें तो?" बोले बाबा,
"मिल जाएंगे, कद्दा से बात कर लेंगे, लेकिन हिस्सा-बाँट मांगेगा वो" वो बोला,
"यहां कोई हिस्सा-बाँट नहीं, हाँ, जो चाहिए, यहां से मिल जाएगा" बोले बाबा,
"जैसा आदेश" बोला वो,
"बात कर कद्दा से" बोले बाबा,
"आज ही कर लूँगा" वो बोला,
"हाँ, करके, मुझे बता" बोले वो,
"जी" वो बोला,
और खड़ा हुआ,
हाथ जोड़े, और चल पड़ा वापिस अपने साथियों के साथ!
"गोपा?" बोले बाबा,
"मदना कहाँ है?" पूछा बाबा ने,
"कल से नहीं देखा उसको" वो बोला,
"उसको ढूंढो" बोले वो,
"जी" वो बोला,
"रम्मन?" बोले बाबा,
"जी, आदेश?" बोला वो,
"तैयारी करो" बोले बाबा,
"आदेश" वो बोला,
और तभी आया वहाँ मदना!
इस बार गुस्से में था वो!
"बाबा?" बोला मदना!
"मना करो, कंडु को मना करो!" बोला मदना,
बाबा उठे,
आये सामने मदना के!
क्रोधित!
"मदना? ये मेरा आदेश नहीं इच्छा है! और इच्छा का मान तो तू रखता है न! मैं तो पिता हूँ तेरा! इसे आदेश मान, या इच्छा!" कंधे पर हाथ रखते हुए बोले बाबा!
"लेकिन, ये सब किसलिए?" बोला वो,
"अपमान! मेरा अपमान किया है उस द्वैज ने!" बोले बाबा,
"इसमें कौन सा अपमान?" बोला मदना,
अब आँखें हुईं लाल! हुए और क्रोधित!
"जैसा मैंने कहा, वही होगा" बोले वो,
"तब मैं साथ नहीं दूंगा, मैं बता दूंगा बाबा द्वैज को!" बोला मदना,
अब क्या था!
क्रोध फूट पड़ा बाबा का!
कंधे पर एक हाथ मार खींच कर!
वो लड़खड़ाया, तो बाबा ने उसके घुटनों में एक लात और जमा दी!
"पकड़ लो इसे, निकलने मत देना कहीं!" बाबा ने गुस्से से कहा!
बाबा के विश्वस्त झपट पड़े मदना पर, पकड़ लिया उसको!
"अपमान का बदला क्या होता है मदना, ये भी सीख लेगा तू अब!" बोले बाबा,
"नहीं! कुछ नहीं करना, कुछ नहीं करना वहां!" बोला मदना,
"ले जाओ इसको, बंद कर दो!" बोले वो,
वे आदमी ले गए खेंच कर उसको!
चिल्लाता रहा!
गुहार लगाता रहा!
कभी गिर जाता!
तो उठा लिया जाता!
और बाबा!
गुस्से में फुनकते हुए,
लौट पड़े वापिस! अपने साथियों के साथ!