वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure story

Horror stories collection. All kind of thriller stories in English and hindi.
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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:10

आज भूदेव बहुत प्रसन्न था! उसकी गंगा ने स्वीकार लिया था उसका प्रेम! इसी ख़ुशी में, अपने अंक में भींच लिया था गंगा को उसने! गंगा, लरज गयी थी! शायद अचेत ही हो जाती, अगर संभालता नहीं वो भूदेव तो! उसने तब संभाल कर खड़ा किया गंगा को! माला सब देखती रही! आखिर में, गंगा ने स्वीकार लिया था उसका प्रेम!
"आज मैं बहुत खुश हूँ गंगा!!" बोला वो!
अभी भी न बोली कुछ!
"पानी पिला गंगा?" बोला वो!
गंगा ने घड़ा उठाया और डाल उसके हाथों की ओख में! आठ-दस बड़े बड़े घूँट पानी के लिए उसने! फिर खड़ा हो गया, हाथ साफ़ किये, और पोंछ भी लिए!
"तूने माला नहीं पहनी?" पूछा उसने!
गंगा का हाथ, अपने गले पर रेंगा! और एक ऊँगली फंसा निकाल ली माला बाहर, उस कपड़े से, जिस से कंधे ढके थे उसने अपने!
"कितनी सुंदर लग रही है तू गंगा! सच्ची!" बोला वो!
गंगा चुप! लेकिन सुने सबकुछ!
"तेरे गले में कैसी खूबसूरत लग रही है! मुझे पता था, पता था कि ये माला तेरे लिए ही बनी है!" बोला भूदेव!
गंगा, अपने कांपते हाथ से, उस माला को ही पकड़े रही! ऊँगली से उठाकर!
"अब चलूँगा गंगा! दो दिन तक नहीं आऊंगा, तेरी याद आएगी बहुत" बोला भूदेव!
और गंगा, शांत सब सुने!
"मेरा इंतज़ार करना गंगा! अब चलता हूँ" बोला वो!
भूदेव ने, घोड़ा पकड़ा, उसकी लग़ाम और बैठ गया फिर उस पर, घोड़ा घुमाया और जाने से पहले, फिर रुका!
"मेरी याद आएगी न गंगा?" पूछा उसने!
गंगा कुछ न बोले! शांत खड़ी रहे! ज़मीन को ताकती!
"बोल न गंगा! याद आएगी न?" बोला वो!
"हाँ.." हल्की सी आवाज़ में बोली गंगा!
और भूदेव! जैसे झूम उठा!! खुश हुआ बहुत! जिसे जिसका प्रेम मिल जाए, उस से बड़ा खजाना और क्या! भूदेव ने अपने प्रेम का इज़हार तो कर ही दिया था! इंतज़ार था बस गंगा का! वो भी आज बह निकली थी!!
"आऊंगा मैं! दो दिन बाद! अब चलता हूँ गंगा!" बोला वो!
और एड़ लगा, दौड़ा दिया घोड़ा! और गंगा! उस भूदेव को देखे जाए! हाथ में माला पकड़े अपनी! अब माला आई उसके पास!
"ये तूने अच्छा किया गंगा! अब कम से कम तड़पेगी तो नहीं!" बोली माला!
न बोली कुछ! बस, उसी रास्ते को देखती रही!!
"चल, घर चल अब" बोली माला!
पानी भरा उन्होंने, और चल दीं घर की तरफ! घर पहुंची! तो सीधा अपने कमरे में! आज तो देह से आग फूट रही थी! ठीक वहीँ से, जहां पकड़ा था उस भूदेव ने उसे! भर लिया था सीने में अपने! चौड़े सीने में! गंगा के हाथ, वहीँ, थिरक उठे! स्पर्श! ये स्पर्श था! उस भूदेव का स्पर्श!
दो दिन बीत गए कैसे न कैसे करके! बिताने ही पड़े! और कोई चारा था नहीं! उसकी बुआ का लड़का उदयचंद आया ही हुआ था, लेकिन उसने बदला बदला सा पाया अपनी बहन को! कई बार पूछा, तो नहीं बताया गंगा ने! टाल जाती हर बार! झूठी मुस्कान के साथ और हंसी के साथ उत्तर दिया करती उसको!
तीसरे दिन!
तीसरे दिन दोपहर बाद चलीं वे पानी लेने! गंगा के कदम तेज थे! प्रेम-अगन में ऐसा ही होता है! हर चीज़ में तेजी आ जाती है! चाहे याद हो, या फिर साँसें, हमेशा ही तेज रहती हैं! छोटा रास्ता भी लम्बा हो जाता है, लम्बे लम्बे पग धर, छोटा बनाया जाता है उसे! और यही तो गंगा कर रही थी! गंगा ने रास्ता देखा, आ रहा था कोई! वो झट से कुँए पर चली गयी! और कुछ ही देर बाद, वो घुड़सवार वहीँ रुक गया! घोड़े से उतरा, अपने घोड़े को लाया, नांद तक, माला ने पानी भरना शुरू किया नांद में! और वो भूदेव, चला उस गंगा के पास!
"पानी!" बोला भूदेव!
गंगा ने पानी पिलाया उसको! उसने पानी पिया! और हाथ पोंछे!
"कैसी है गंगा तू?" पूछा उसने!
कुछ न बोली!
"भली तो है न?" पूछा भूदेव ने!
सर हिलाया उसने बस! और उस भूदेव के लिए, ये ही बहुत था!
"तेरी याद आई बहुत, इन दो दिन गंगा! रहा ही नहीं गया! जी तो किया, भाग आऊं तेरे पास, एक बार निहार लूँ तुझे!" बोला वो!
प्रेम में डूबा था आकंठ वो, भूदेव!
फिर अपने बड़ी सी जेब से कुछ निकाला उसने! कपड़े में लिपटा था कुछ!
"ले गंगा! तेरे लिए लाया शहर से!" बोला वो!
अब गंगा हाथ न लगाये!
"ले न?" बोला वो!
हिले भी नहीं!
"गंगा?" बोला भूदेव!
नहीं हिली!
"माला?" बोला वो!
"जी?" बोली वो!
"ये ले, इसके लिए है, तेरे लिए भी लाऊंगा!" बोला भूदेव!
माला ने लिया वो कपड़ा! कोई बड़ी सी डिबिया थी वो!
"इसमें क्या है?" पूछा माला ने!
"गंगा को देना, वो बता देगी!" वो बोला!
"आप ही बता दो?" माला ने पूछा!
"अच्छा! श्रृंगारदानी है! गंगा के लिए!" बोला वो!
"अरे वाह!" बोली माला!
"हाट गया था, शहर की, तो ले ली इसके लिए!" बोला वो!
"अच्छा किया!" बोली माला!
"हाँ, खूब सजेगी गंगा इसमें!" बोला वो!
"हाँ, खूब सजेगी ये!" बोली माला!
"आप रहते कहाँ हो?" पूछा माला ने!
"मैं! क्या करेगी जानकर?" पूछा हँसते हुए उसने!
"कहाँ से, बताओ तो?" बोली वो!
"क्या करेगी तू?" बोला वो! हंसकर!
और गंगा! उन्हें सुने! चुपचाप!
"अरे? बताओ तो?" बोली वो!
"कितना बोलती है तू माला! इसे भी सीखा दे!" बोला वो!
"सिखा दूँगी! पहले बताओ!" बोली माला!
"मैं रहने वाला हिंडौन का हूँ, हिंडौन से करौली, धौलपुर, बयाना तक का सफर हो जाता है कई कई बार एक दिन में! काम ही ऐसा है! धौलपुर आता हूँ, तो इसके लिए! और ये है, मुझ से बात ही नहीं करती!" बोला भूदेव!
"इतना सफर?" बोली माला!
"हाँ, मज़बूरी है!" बोला वो!
"यहां से घर कब पहुंचोगे?" पूछा माला ने!
"रात तक!" बोला वो!
"और सुबह?" पूछा उसने!
"अलस्सुबह ही निकलना होता है!" बोला वो!
"इतना काम?" पूछा माला ने!
"हाँ, माला!" बोला वो!
"गंगा?" बोली माला!
जब नहीं दिया जवाब, तो गयी उसके पास!
"तू बात क्यों नहीं करती?" पूछा माला ने!
नहीं की! कोई उत्तर नहीं!
"पता नहीं, क्या बात है!!" बोला वो!
"शर्म आती है इसे!" बोली माला!
"मुझसे कैसे शर्म?" पूछा भूदेव ने!
"अब मैं क्या जानूँ?" बोली माला!
"इसको बता न माला, कि बात करे मुझसे!" बोला वो!
"अब आप ही मनाओ इसको!" बोली माला,
"मान जाओ गंगा!!" बोला भूदेव!
"ऐसे नहीं!" बोली माला!
"फिर?" पूछा उसने!
"हाथ जोड़कर!" बोला वो!
"अच्छा! अच्छा!" बोला वो!
आगे आया, थोड़ा सामने! हाथ जोड़े!
"मान जाओ गंगा!" बोला वो!
और गंगा के होंठ फैले! पहली बार!!
"गंगा?" बोला वो!
कुछ न बोली फिर भी!
"ए गंगा!" बोला भूदेव!
सर उठाया! और आँखों में झाँका भूदेव की! अंदर तक, सिहर सा गया भूदेव!!

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Re: वर्ष २०१२ जिला धौलपुर की एक घटना - thriller adventure st

Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:11

मुस्कुरा पड़ी गंगा! पहली बार! वो भूदेव, अभी भी हाथ जोड़े खड़ा था! अपनी गंगा के सामने! खुश था बहुत! गंगा हंस जो पड़ी थी! और क्या चाहिए था उसको! आँखें मिली हुईं थीं उन दोनों की, और इन्ही आँखों की मूक भाषा में प्रेम का आदान-प्रादान चल रहा था! कद में गंगा कंधे तक होगी उस भूदेव के! भूदेव सिपाही था, एक कारिंदा! देह उसकी मज़बूत और गठीली थी! लेकिन दिल मोम हो चला था उसका! वो पहलवान सा जिस्म वाला, हाथ जोड़े खड़ा था! कि एक शब्द भी बोले अगर गंगा, तो जैसे साकार हो जाए उसका जीवन!
"गंगा?" बोला वो!
"हाँ?" अब बोली गंगा!
"देख, जब मैं जाता हूँ, तो मेरे साथ मेरी देह ही जाती है, मन तेरे साथ यहीं रह जाता है!" बोला वो!
गंगा ने आँखें नीचे कीं अपनी!
"तुझे जिस पल से देखा, दिल में उतार लिया मैंने, मैं भाग्यवान हूँ कि मुझे तेरा प्रेम मिला गंगा!" बोला वो!
कैसे बड़े बड़े शब्द बोले जा रहा था वो!!
"एक नज़र देख?" बोला वो!
गंगा ने आँखें उठायीं ऊपर, उसको देखा! आँखों में, प्रेम भरा था! छाया हुआ था!
"मैं ब्याह करूंगा तुझसे गंगा!" बोला वो!
आँखें, नीचे हुईं! कान गरम हो गए ब्याह शब्द सुनते ही!
तभी माला बीच में आ टपकी!
"घर में कौन कौन हैं आपके?" पूछा उसने!
"घर में, एक बहन है छोटी! बिलकुल तेरे जैसी! नटखट! चंचल! माँ है, एक बड़े भाई हैं, लेकिन वो सपरिवार दौसा में रहते हैं, आते हैं घर में कभी कभार!" बोला वो!
"अभी ब्याह की नहीं सोची?" बोली माला!
"सोची! लेकिन पहले बहन के हाथ पीले कर दूँ! उसके बाद, ले जाऊँगा इसे, अपनी ब्याहता बना कर!" बोला वो!
घोड़े ने सर हिलाया अपना! नथुने फफकारे अपने!
"अब चलूँगा गंगा मैं!" बोला वो!
घोड़ा मोड़ा, जीन ठीक की, और चढ़ गया!
"कुछ और चाहिए हो, तो बताना मुझे! और हाँ माला, कपड़े लाऊंगा तेरे लिए!" बोला वो!
"अब चलता हूँ, दूर जाना है मुझे!" वो बोला,
और लगाई एड़ अपने घोड़े को! और घोड़ा, दौड़ पड़ा! देखती रह गयीं वे दोनों उसको जाते हुए!
"कितना भला आदमी है न ये गंगा?" बोली माला!
गंगा चुप!!
"बोल न? बोलती क्यों नहीं? अब तो बराबर का मामला हो गया है! है न भला आदमी?" बोली माला!
"हाँ!" बोली गंगा!
"क़िस्मत वाली है तू वैसे!" बोली माला!
देखा माला को, और मुस्कुराई!
"कैसे?" पूछा उसने!
"कितना प्रेम करता है तुझसे! कितनी दूर से आता है इस भाटे में भी!" बोली माला!
सच में! वैसे में, वैसे भाटे में, दूर से आता था भूदेव! मिलने, सिर्फ मिलने, अपनी गंगा को देखने!
"चल, घर चल अब" बोली माला!
और चल पड़ीं घर के लिए, वो कपड़े में लिपटी श्रृंगारदानी, माला के पास ही रही! जा पहुंची घर! माला ने श्रृंगारदानी पकड़ाई उस गंगा को, गंगा उसे ले, अपने कमरे में चली आई! कपड़ा हटाया, तो लकड़ी की एक बहुत ही सुंदर बड़ी सी डिबिया थी वो! उसमे दो कुण्डियाँ लगी थीं, एक एक करके खोली उसने! अंदर, एक दर्पण, एक कंघी, चिमटियां और नकचौंटी, इत्र और श्रृंगार की वस्तुएं थीं! और सभी पर, हाथी-दांत का बारीक काम था! देखने में, बहुत ही महंगी श्रृंगारदानी थी वो! उसने बंद किया जैसे ही उसे, माला आ धमकी अंदर!
"दिखा, मुझे भी दिखा न?" बोली माला!
गंगा न छोड़े उसे! छीनाझपटी सी होने लगी! और तभी जमना भी आ गयी! उसने भी ज़िद की! तब, देनी पड़ी वो श्रृंगारदानी उसे, माला को! अब माला ने एक एक करके, सारी वस्तुएं देख डालीं! बालों में लगने वाली चिमटियां, केशबंध आदि सब लगा के देख लिए गंगा को! गंगा, उस श्रृंगार में, सच में, परी सी लगे! ऐसा सुंदर सामान था! हाथी-दांत उसके गोरे रंग से मिलान खाता था!
"पसंद अच्छी है उसकी!" बोली माला!
अब गंगा, एक एक सामान भरने लगी उस श्रृंगारदानी में!
"हाँ! तभी तो तुझे पसंद किया उसने गंगा!!" बोली माला!
माला और जमना, चली गयीं, अपने अपने काम पर! रह गयी गंगा! लेकिन अकेली नहीं! भूदेव का अक्स सामने ही खड़ा था उसके! बार बार अपने में सिमट जाती थी गंगा! लगता था, उसके अंग अंग में एक मद भर चला है, अंग उसके जैसे अपने नहीं रहे! नियंत्रण नहीं था उन पर! आँखें बंद हो या खुली, अक्स नहीं जाए वो! कान चाहे ढक ले हाथों से, उसकी आवाज़ नहीं जाए! होंठ, चाहे दांतों में भींच ले, कंपन नहीं जाए! दिमाग, चाहे कहीं भी लगाये, अक्स नहीं जाए दिमाग से! दिल, चाहे हाथ से टटोले, धड़कन नहीं सधे! अंग अब नियंत्रण से बाहर हो चले थे!
रातें, अब पहले जैसी न रही! वे अब लम्बी और बोझिल लगने लगी थीं! अकेलापन, कभी नहीं काटता था उसे, अब, अकेलापन ही सबसे बड़ा बैरी! दिन, दिन न कटे! बस, हर पल उसका इंतज़ार! हर पल! न भूख, न प्यास! कैसा हाल हो चला था उस गंगा का!!
अगला दिन!
अगले दिन की बात है! गंगा घर में ही थी, सुबह तो बीत चुकी थी, अब कोई नौ बजे का समय रहा होगा! कि तभी कमरे में माँ आई गंगा की! गंगा, उठ बैठी!
"बेटी, कुछ लोग आ रहे हैं आज, तुझे देखने, तैयार रहना, मैंने कह दिया है माला को!" सर पर हाथ फेरते हुए माँ बोली!
काँटा! जैसे कोई काँटा चुभा पाँव में! पाँव जैसे लहूलुहान हो चला हो! अब कैसे कटे रास्ता? गंगा चिंतित हो गयी! क्या करे? और तभी माला आ गयी अंदर!
"माँ आई थी?" पूछा माला ने!
"हाँ" बोली गंगा!
"कोई आ रहा है, तुझे देखने" बोली माला,
"हाँ, माँ ने बताया" बोली गंगा!
"अब?" पूछा माला ने!
"अब क्या?" बोली गंगा!
"क्या करेगी?" पूछा,
"पता नहीं" बोली गंगा!
"अच्छा! तो आज कुँए तक भी नहीं जा सकेगी तू!" बोली माला!
धड़कन!! बढ़ गयी धड़कन! सूख चला हलक़! होंठ सूख गए! ये तो सोचा ही नहीं था???
"वो बेचारा आएगा, इंतज़ार करेगा, और लौट जाएगा, भारी मन लेकर" बोली माला!
आँखें देखे माला की!
लेकिन अब हो क्या?
"मैं तो नहीं जा सकती, काम है" बोली माला!
"फिर?" बोली गंगा!
"फिर क्या, लौट जाने दे उसे!" बोली माला!
दिल, में आवाज़ आई गंगा के! चटक की, जैसे कुछ चटका हो!
हाँ, लौट जाने दे, कल फिर आ जाएगा!" बोली माला!
कैसे लौट जाने दे? दूर से आता है वो! ऐसे भाटे में!
और उठ गयी माला वहाँ से! कोई हल नहीं निकला!
और फिर दोपहर हुई! कुछ लोग आये थे घर में! अनमने मन से, दो महिलाओं से मिली गंगा! माला के साथ, और साफ़ साफ़ मंशा ज़ाहिर कर दी, उसे ब्याह नहीं करना था अभी! वे महिलायें चली गयीं! फैंसला तो हो गया था! और कुछ ही देर बाद, माँ चली आई अंदर! सीधा गंगा के पास आ बैठी!
"मना कर दिया गंगा?" बोली माँ!
सर हिलाकर, हाँ कहा,
"क्यों?" पूछा माँ ने!
अब इस क्यों का जवाब इतना सरल होता, तो जग में कह देती गंगा! चुप रही! कुछ न बोली!
"घराना अच्छा है, व्यापारी हैं, अपना कारोबार है, राज करेगी बेटी तू राज!" बोली माँ!
अब कौन से माँ-बाप अपनी संतान का भला नहीं चाहते?
नहीं बोली कुछ!
चुप ही रही!
माँ आखिर उठ गयी!
माँ गयी, तो खिड़की से बाहर झाँका गंगा ने! दोपहर, बीत गयी थी! आया होगा वो भूदेव! और लौट गया होगा! इंतज़ार करते करते!
"अच्छा किया तूने!" बोली माला,
चौंकी गंगा!
"अच्छा किया, मना कर दिया!" बोली माला!
खिड़की का पर्दा चढ़ा दिया गंगा ने फिर! आ बैठी बिस्तर पर!
"आया होगा वो!" बोली माला!
आँखें देखे माला की गंगा!
"कोई बात नहीं, प्रेम में यही तो होता है गंगा!" बोली माला!
गंगा सर नीचे किये बैठी रही!
"कल आएगा, मिल लेना!" बोली माला!
साँझ हो चली थी! आज पानी नहीं आया था, तो दोनों पानी लेने चलीं! मन दुखी था गंगा का! सर नीचे किये, अपने ही ख्यालों में डूबी हुई गंगा, धीरे धीरे चली जा रही थी कुँए की तरफ! और तभी नज़रें सामने पड़ीं!
कोई खड़ा था!
दोनों ठिठक गयीं!
घोड़ा! घोड़ा खड़ा था वहाँ!
लेकिन? वो भूदेव??

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Unread post by novel » 30 Oct 2015 08:11

कदम तेज हो चले गंगा के! जा पहुंची वो उस कुँए तक, तब तक माला भी आ गयी थी, घोड़ा तो बंधा था, लेकिन भूदेव नहीं था वहाँ! आसपास नज़र दौड़ाई, तो सामने, उस अंधे कुँए के पास, कोई बैठा था! धुंधलका था और कुछ झाड़ियाँ भी, तो वो देख नहीं पा रहा होगा! माला को भेजा उसने! और माला गयी उसके पास! वो भूदेव ही था! माला को देख उठ गया था वो! और आ रहा था माला के संग गंगा के पास! आ गया भूदेव!
"आज दोपहर बाद नहीं आई तुम गंगा?" पूछा उसने!
क्या बताती गंगा!
"मैं इंतज़ार करता रहा सारा दिन तेरा गंगा!" बोला वो!
ये कैसा इंतज़ार? दोपहर से साँझ हो गयी, और साँझ तक इंतज़ार?
"चल, अब देर हो रही है तुझे, साँझ ढल चुकी है, जा, पानी भर ले, और जा गाँव वापिस" बोला भूदेव!
गंगा! गंगा तो खो चुकी थी! खो चुकी थी उस भूदेव के इस प्रेम में! इस इंतज़ार में!
"जा गंगा! जल्दी कर, मुझे भी जाना है वापिस" बोला वो!
अब माला चली गंगा संग! पानी भरने! पानी भरा, और फिर वो भूदेव, छोड़ने चला उन दोनों को गाँव तक, जब पहुंचा, तो रुका!
"गंगा! तू चाहे आ, या नहीं, मैं दोपहर में पहुँच जाया करूँगा यहां, जब तक नहीं दिखेगी, वापिस नहीं जाऊँगा!" बोला वो! कह कर, पीछे मुड़ा, और फिर से देखा गंगा को! और लगा कर एड़, घोड़े को, दौड़ा दिया घोड़ा!
जाते हुए देखती रहीं वो उसको! जब क, अन्धकार में, कहीं ओझल न हो गया वो भूदेव!
"इतनी रात गए? जंगलों से, कैसे जायेगा ये?" बोली माला!
दिल धक्क!! दिल में धड़कन बढ़ी! संशय तो सही था! वो क्षेत्र वैसे भी डकैतों के अधीन था! कई दस्यु वहाँ सक्रिय थे! लूट-पाट और डकैतियां आम सी बात थीं! इसीलिए दिल धक्क!
ये प्रेम भी क्या है न! कोई ऐसा अपना हो जाता है, कि अपनी देह से भी अधिक! जिसके लिए ये दिल पल पल तेज धड़कता है! जिसके बिना, अपना कुछ शेष ही नहीं रहता! सब उसका! सब! कैसा प्रेम है न ये!!
लौट पड़ीं वापिस! आ गयीं घर! पानी रखा! और अपने कमरे में चली! माला भी आ गयी!
"मानना पड़ेगा!" बोली वो!
"क्या?" पूछा,
"बहुत प्रेम करता है तुझसे!" बोली वो!
शर्मा गयी!
"सच में, दोपहर से साँझ तक, वहीँ बैठा रहा, तेरे लिए!" बोली वो!
फिर से शर्मा गयी!
"और अब देख, रात को गया है, कब पहुंचेगा वो, और कल, फिर दोपहर बाद आएगा!" बोली वो!
याद आ गया गंगा को उसका दौड़ते जाना!
"यही तो है सच्चा प्रेम!" बोली माला!
झेंप गयी गंगा!
कुछ और बातें हुईं! माला उस भूदेव की, तारीफ़ ही करती रही!
रात हुई, तो नींद न आये! कहाँ तक पहुंचा होगा भूदेव? सकुशल?
पहुँच तो गया होगा? इतनी रात को? कहाँ होगा?
ऐसे ऐसे सवाल नाचें दिमाग में! और गंगा! सामने दीवार पर नज़रें गाड़े सोचती जाए! जमना तो सो चुकी थी! नींद ले रही थी बढ़िया! लेकिन गंगा! प्रेम अगन में झुलस रही थी! अक्स आता था सामने उसका! उसकी आवाज़! और इंतज़ार! दोपहर से, साँझ तलक इंतज़ार!
रात गहराई! वो उठी! खिड़की से बाहर झाँका, घुप्प अँधेरा था! आकाश में तारे थे! तारों माँ मद्धम प्रकाश, ज़मीन से छू तो रहा था, लेकिन कण के रूप में! और दिल में भी ऐसा ही अन्धकार था! ओ घुड़सवार! तेरे लिए कोई जाग रहा है अभी तक! बैठ गयी खिड़की किनारे, बाहर झांकते हुए, लालटेन की बत्ती, टिमटिमा रही थी! दीवार पर, रौशनी नृत्य सा कर रही थी! और नृत्य उसके दिल में भी चल रहा था! आशंकाओं का!
देर रात, वो फिर से लेटी, करवटें बदलीं उसने! अपने केशों को हाथों से टटोले बार बार! उनके सिरों को, उँगलियों से घुमाए! लेकिन नींद नहीं आये! आखिर में जाकर, उसको नींद आई, दिलासा देकर दिल को, कि सकुशल पहुँच गया होगा वो! आएगा ज़रूर! ज़रूर आएगा! कल! और सो गयी!
अगले दिन!
अगले दिन दोपहर बाद, पानी लेने चलीं वो! नज़रें बिछा दीं! सामने देखा, सुनसान था! कुछ और पल बीते! रास्ता सुनसान! कोई नहीं आ रहा था! मन की आशंकाएं, फट पड़ीं हँसते हँसते! गला घोंटे वो गंगा का!
और तभी! कोई आता दिखाई दिया! वही! घोड़ा दौड़ाते! होंठों पर मुस्कुराहट आई! आशंकाओं ने आमहत्या की मन में ही! वो सकुशल था! आ रहा था!
और आ गया!
घोड़े के खुरों की आवाज़ थमी! घोड़े ने नथुने फफकारे अपने!
और फिर आवाज़ आई!
"पानी!" बोला वो भूदेव!
झट से घड़ा आगे कर दिया!
ओख में डाला पानी, काफी पानी पिया उसने!
"माला?" बोला वो!
"हाँ?" आई माला! पानी पिला रही थी घोड़े को!
"ये ले! कपड़े!" बोला वो!
और घोड़े पर बंधी हुई एक पोटली दे दी माला को!
"पसंद आएंगे तुझे!" बोला वो!
माला से रहा न गया! खोल ली पोटली! बहुत शानदार कपड़े लाया था माला के लिए! चार जोड़ी! राजस्थानी परिधान! महंगे थे बहुत! माला ने शायद ही पहने हों ऐसे कपड़े!
"अच्छे हैं न?" पूछा उसने!
"हाँ! बहुत अच्छे!" बोली माला!
खुश थी माला! बाँध ली थी पोटली!
और गंगा! उन दोनों को ही देखे जाए! सुने जाए!
और फिर पलटा वो गंगा की तरफ!
"कैसी हैं गंगा तू?" पूछा उसने!
"ठीक" वो बोली, हल्के से!
"तू कल क्यों नहीं आई थी?" पूछा उसने!
क्या बताये!
आखिर में माला ने बता दिया! और ये भी, कि मना कर दिया गंगा ने!
"गंगा! तू मेरी ही है! मेरी ही रहेगी! मैं ब्याह करूंगा तुझसे!" बोला वो!
सरस शब्द! गरस देह! (गरस मायने कांपती हुई)
गंगा शांत! सारे शब्द सुने!
"कल कब पहुंचे?" पूछा माला ने!
वो हंसा!
"देर रात! कोई ढाई बजे!" बोला वो!
"कोई दिक्क़त तो नहीं हुई?" पूछा माला ने!
"नहीं, कैसे होती! गंगा जो जाग रही थी! देख रही थी मुझे!" बोला वो!
हाँ! जाग रही थी तब तो गंगा!!
"है या नहीं गंगा?" पूछा उसने!
सर हिलाकर, हाँ कही!
"देखा! मैं जानता था! मेरी गंगा जाग रही होगी!" बोला वो!
गंगा के मन में तार झनझनाएं!
तन, सनसनाये!
भाव, आएं जाएँ!
"गंगा?" बोला वो!
"हाँ?" बोली गंगा!
"तू मेले में जाती है?" पूछा उसने!
"आज तक नहीं गयी" बोली माला!
"अबकी चल, कह दे माता और पिता जी से!" बोला वो!
"वो नहीं मानेंगे!" बोली माला!
"कह के तो देख ले?" बोला वो!
"पूछ लूंगी!" बोली माला!
"मैं वहीँ मिलूंगा तुझे!" बोला वो!
गंगा ने सर हिलाया! मेला, बस कोई चार दिन दूर था!
"अब चलता हूँ मैं!" बोला वो!
उसने कपडे ठीक किये अपने!
"आज दूर जाना है मुझे, रात तक पहुंचूंगा!" बोला वो!
"कहाँ?" पूछा माला ने,
"है कहीं" बोला वो!
गंगा चुप सुने!
"कल नहीं आ पाउँगा गंगा मैं!" बोला वो!
"क्यों?" पूछा माला ने!
"वापसी नहीं हो सकेगी!" बोला वो!
"तो परसों?" बोली माला!
"हाँ, परसों! कुछ चाहिए गंगा?" पूछा उसने!
सर हिलाकर, न कही!
"कभी मुंह से भी बोल लिया कर गंगा! मुझे चैन पड़ जायेगा!" बोला वो!
और नहीं बोली! बस मुस्कुरा दी!

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